विनोद खन्ना: मुहब्बत अदावत वफ़ा बेरुखी, किराये के घर थे बदलते रहे

विनोद खन्ना के हिस्से में ज़्यादातर इल्ज़ाम ही आए पर जो ज़िंदगी उन्होंने गुज़ारी, फिल्मी दुनिया की चकाचौंध के बीच उसे चुन पाना बेहद मुश्किल होता है.

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विनोद खन्ना के हिस्से में ज़्यादातर इल्ज़ाम ही आए पर जो ज़िंदगी उन्होंने गुज़ारी, फिल्मी दुनिया की चकाचौंध के बीच उसे चुन पाना बेहद मुश्किल होता है. 

Vinod Khanna
विनोद खन्ना (जन्म: 6 अक्टूबर 1946, अवसान: 27 अप्रैल 2017)

(यह लेख पहली बार 28 अप्रैल 2017 को प्रकाशित हुआ था)

क्या आपने कोई ख़ूबसूरत डाकू देखा है? बड़ा-सा काला तिलक माथे पर लगाए, धोती कुरता पहने हुए. सुपरस्टार धर्मेन्द्र को भी टक्कर देता हुआ… फिल्म मेरा गांव मेरा देश का बेहद ख़ूबसूरत डाकू, जिसने जाने कितने लोगों के दिलों को अपनी क़ैद में ले लिया और फ़िरौती भी नहीं मांगी. 

वो शख़्स जिनका नाम अंग्रेजी के ‘वी’ से शुरू होता है, लेकिन उनकी ज़िंदगी के पहले सफ़हे पर ही लिखा हुआ था ‘एस’ यानी स्टारडम, सैचुरेशन, स्पिरिचुएलिटी. विनोद खन्ना, वो नाम उस वक़्त स्टारडम के सबसे ऊंचे पायदान पर था लेकिन अचानक उसने बॉलीवुड की चमक-दमक को छोड़कर मन की शांति की ओर क़दम बढ़ा लिया.

विनोद साहब अब हमारे बीच नहीं रहे लेकिन हमें ज़िंदगी का बड़ा सबक दे गए. सफलता का स्वाद चखकर उसे छोड़कर जाना इतना आसान कहां होता है. उस समय दुनिया ने उन पर इल्ज़ाम लगाए कि वो अपनी ही डूब में रहते हैं, ख़ुद से बाहर ही नहीं आना चाहते पर इसे भी उन्होंने स्वीकार किया और कहा हर किसी को अपनी जीवन यात्रा अकेले तय करनी होती है… अकेले आना है.. अकेले ही जाना भी है.

आज उनकी सब यादें हमारे सामने हैं. फ्लैशबैक में झांककर देखते हैं तो एक पुरानी तस्वीर उभरती है. ये वक़्त है भारत-पाकिस्तान विभाजन का. सरहदों पर इंसानी लेनदेन चल रहा था. विनोद महज़ सालभर के रहे होंगे कि परिवार सीमा लांघकर हिंदुस्तान आ गया. घर पेशावर में ही छूट गया. दूसरी कक्षा तक विनोद साहब ने अपनी पढ़ाई बंबई में की, फिर पूरा परिवार दिल्ली चला गया. यहां विनोद दिल्ली पब्लिक स्कूल में पढ़ते थे, खेलकूद में काफ़ी अच्छे थे खासकर फुटबॉल, क्रिकेट और टेनिस में, लेकिन तभी उनके एक टीचर ने एक स्कूल प्ले में पहली बार स्टेज से उनका परिचय कराया… और बस, यहीं से विनोद खन्ना के अभिनय का सफ़र शुरू हुआ, जो सिल्वर स्क्रीन तक जारी रहा.

इनके पिता किशन चंद खन्ना टेक्सटाइल केमिकल और डाई के व्यवसायी थे. उन्होंने कभी नहीं चाहा कि विनोद फिल्मों में जाए, सुना तो यह भी जाता है कि इनके पिता ने फिल्मों में काम न करने को लेकर उन पर बंदूक भी तान दी थी पर अदाकारी का जो रंग उनके बेटे पर चढ़ा था वो बहुत पक्का था. आंखों में तिरता हुआ एक लाल रंग का डोरा, जिस पर अपने सपनों को टांगे हुए विनोद खन्ना रेड कारपेट पर चल पड़े.

उन दिनों सुनील दत्त साहब अपने भाई सोम दत्त को लांच करने के लिए फिल्म बना रहे थे. उन्होंने विनोद खन्ना को देखा और बतौर खलनायक साइन कर लिया. किस्मत की पलटी देखिए. मन का मीत नाम की इस फिल्म का हीरो तो चला नहीं लेकिन विनोद खन्ना की गाड़ी फर्राटा दौड़ निकली. शुरुआती दौर में उन्होंने कई फिल्में कीं, जिनमें वे खलनायक की भूमिका में रहे. पूरब और पश्चिम, सच्चा झूठा, आन मिलो सजना, मेरा गांव मेरा देश, ऐलान… मगर ये एक और सच है कि उनके लुक्स खलनायक वाले किरदार के साथ जमते नहीं थे.

चुनांचे, वो नायक की तरह स्क्रीन पर उभर कर आए. पहली फिल्म थी हम तुम और वो और इसके ठीक बाद आई गुलज़ार की मेरे अपने, हालांकि ये मल्टी स्टारर फिल्म थी लेकिन विनोद साहब को काफ़ी पसंद किया गया. उन्होंने ढेरों ऐसी फिल्में की जहां कई सितारे साथ थे, पर वे हर बार अपनी अलग छाप छोड़ने में कामयाब हुए.

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फिल्म मेरे अपने के एक दृश्य में

एक वक़्त वो था जब ये माना जाने लगा कि अगर उस वक़्त के सुपरस्टार अमिताभ बच्चन की स्क्रीन सत्ता को कोई पलट सकता है तो वो विनोद खन्ना ही हैं पर शायद विनोद इससे भी कहीं आगे जाने की सोच रहे थे. कामयाबी की चोटी पर पहुंचकर नीचे आ जाना इतना आसान नहीं होता.

उस दौरान वे आचार्य रजनीश ‘ओशो’ के शिष्य बन गए. ओशो का आश्रम पुणे में था लिहाज़ा विनोद अक्सर अपनी फिल्मों की शूटिंग पुणे में रखवाया करते, जहां आश्रम में उनका अधिकतर समय ध्यान में बीतता. किसी कारण से पुणे का यह आश्रम बंद हो गया पर विनोद का इसके प्रति अनुराग नहीं.

उन्होंने फिल्मी दुनिया के सतरंगी ख़्वाबों को मैरून रंग का चोगा पहनाया और संन्यास लेकर अमेरिका के ओशो कम्यून रजनीशपुरम चले गए. नाम रख लिया स्वामी विनोद भारती. संन्यासी के रूप में भी वे इतने अच्छे दिखते थे कि उन्हें सब सेक्सी संन्यासी कहकर पुकारते. वहां ओशो आश्रम में वे बर्तन मांजने और बागवानी जैसे काम किया करते.

वक़्त की फ़ितरत है वो एक-सा रहता नहीं. उसने उन्हें फिर से पुरानी डगर दिखा दी. आश्रम से घर लौटे लेकिन बहुत कुछ खो दिया. उनकी ज़िंदगी की रील को रिवाइंड करके देखें तो नज़र आता है एक चेहरा.. ये चेहरा है उनकी पहली पत्नी गीतांजलि का. अक्षय और राहुल इन्हीं दोनों के बच्चे हैं. मगर विनोद के आश्रम से आने के बाद इनका तलाक़ हो गया.

वापसी के बाद अपने आशियाने को सजाने के बजाय उन्होंने अपना खोता आत्मविश्वास पाने की कोशिश की. वे फिर से अपने काम में जुट गए. डिंपल कपाड़िया के साथ कमबैक फिल्म की इंसाफ. ये फिल्म सुपरहिट रही. हालांकि इस फ़िल्म की शूटिंग के दौरान भी विनोद कई दफा ओशो की तरफ मुड़े. एक बार तो महीना भर ग़ुम ही रहे, पर फिर लौट आए. अपनी ज़िंदगी को फिर बदलने की पक्की मंशा के साथ, विश्वास का हाथ थामे.

यहीं उनके हाथों में एक और हाथ आया. ये था कविता दफ्तरी का. कविता से विनोद की मुलाक़ात का किस्सा काफी दिलचस्प है. कविता की पारिवारिक और आर्थिक पृष्ठभूमि बिल्कुल अलग थी. वे लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से पढ़ी थीं, विनोद खन्ना को ज़्यादा जानती भी नहीं थीं लेकिन किस्मत को तो मानो ज़िंदगी के सारे राज़ मालूम होते हैं. ऐसा लगा दोनों का मिलना पहले से तय था.

उस समय तक कविता ने उनकी दो ही फ़िल्में देखीं थीं, अमर अकबर एंथोनी और आन मिलो सजना. वे इससे पहले किसी फ़िल्मी पार्टी में नहीं गई थीं और न ही उसके बाद फिर कभी गईं. एक पार्टी में दोनों मिले, कविता को विनोद बहुत सिंपल लगे. विनोद ने उनसे फ़ोन पर बातचीत का सिलसिला शुरू किया. वे कविता को दिन में 5 दफा कॉल किया करते थे, घंटों बातें होतीं. विनोद उनसे मिलने की गुज़ारिश करते पर वे नहीं मानतीं.

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पत्नी कविता के साथ

फिर एक रोज़ वे उनसे घर से बाहर मिलने को राज़ी हुईं, तय हुआ कि हर सुबह जॉगिंग के दौरान मिलेंगे. फिर एक दिन विनोद बैडमिंटन खेलकर लौटे कि कोई कच्चा-सा पल जन्मा और उन्होंने कविता के सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया. वे नहीं चाहते थे कि उनका और कविता का रिश्ता सिर्फ बातों तक ही सीमित रह जाए.

कविता उस वक़्त 28 साल की थीं, जब उन्हें विनोद खन्ना से मुहब्बत हुई. उनकी दुनिया अलग थी, विनोद तलाकशुदा थे, दो बच्चों के पिता पर फिर भी वे मना नहीं कर पाईं और उम्र में काफी बड़े विनोद का हाथ थाम लिया. कविता हर कदम पर उनके साथ रहीं, बच्चों का भी ख़याल रखा. वे हर मोड़ पर विनोद का भावनात्मक संबल बनी रहीं. जब उन्होंने राजनीति में क़दम रखा तो कविता हर समय उनके साथ मौजूद थीं.

वे उनके इलेक्शन कैंपेन प्लान किया करतीं. लेकिन कविता को एक शिकायत हमेशा रही कि विनोद साहब अपने मेडिटेशन में ज्यादा डूबे हुए रहते थे. उन्हें कम वक़्त देते हैं. पर विनोद यही मानते थे कि आत्मिक शांति के लिए यह ज़रूरी है. विनोद खन्ना जब अमेरिका से लौटे थे तब आत्मविश्वास खो चुके थे. पर कविता ने उन्हें हिम्मत दी, परिस्थितियों से लड़ने का हौसला दिया.

वैसे जब विनोद खन्ना लौटे तो सबसे ज्यादा खलबली मची अमिताभ बच्चन कैंप में. उस समय बॉलीवुड में बच्चन साहब नंबर वन थे पर उनके मेंटर रहे मनमोहन देसाई ने भी माना था कि उस वक़्त विनोद में एक ख़ास स्पार्क था… वो बस अपने आपको किसी भी तरह से सिद्ध करना चाहते थे.

उस दौर के बड़े फिल्म वितरक निजाम बताते हैं, ‘विनोद की फिल्म इंसाफ और सत्यमेव जयते ने निर्माण की 80 फ़ीसदी लागत पहले हफ्ते में ही वसूल कर ली थी. सलीम ख़ान साहब जो अमिताभ बच्चन के लिए कई फिल्में लिख रहे थे उन्होंने भी विनोद खन्ना की वापसी पर कहा था कि विनोद की ख़ासियत यही रही थी कि जब वो गए तब नंबर दो की पोज़ीशन पर थे और जब वापसी की तब भी सीधे दूसरे नंबर पर. गज़ब का कॉन्फिडेंस था उनके अंदर.’

फिल्मी दुनिया के उस चमक-दमक भरे माहौल को छोड़कर जाना हर किसी के बस में कहां होता है. फिर लौटकर वहीं से एक नई शुरुआत भी कितने कर पाते हैं.

जब एक बार उनके बेटे अक्षय से उनके पिता के संन्यास लेकर परिवार को छोड़कर जाने के बारे में सवाल किया गया, तब उन्होंने कहा, ‘हर किसी को अपना जीवन अपनी तरह जीने का अधिकार है और उन्होंने भी यही किया. उन्होंने अपनी ख़ुशी को चुना. अगर आप ख़ुश नहीं हैं तो आप अपने आसपास के लोगों को भी ख़ुश नहीं रख सकते.’

मीडिया में उनके आत्मकेंद्रित होने, घर-परिवार पर ध्यान न देने की ख़बरों के बावजूद किसी बेटे का पिता के घर छोड़ने के बारे में यह कहना बड़ी बात है. एक बार विनोद साहब से एक इंटरव्यू के दौरान किसी ने कहा कि वी आर प्राउड ऑफ यू, तब विनोद साहब तपाक से बोले… आई एम प्राउड ऑफ़ माइसेल्फ! शायद वो जानते थे कि जो ज़िंदगी उन्होंने गुज़ारी है, उसकी क़ीमत कम ही लोग दे पाते हैं.

नमन विनोद खन्ना साहब को.

(माधुरी आकाशवाणी जयपुर में न्यूज़ रीडर हैं)

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