तीन घटनाएं, जो बताती हैं कि कश्मीर की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है

भाजपा मतदाताओं को यह दिखाने के लिए कि वह आतंक पर सख़्त है, उस मौजूदा कश्मीर नीति से छेड़छाड़ कर रही है, जो अलगाववादियों के साथ सामंजस्य लाने के उद्देश्य से बनाई गई थी. एक ऐसी नीति, जो राज्य को बर्बादी की कगार से वापस लाई थी.

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रिज़वान असद पंडित के ग़मगीन परिजन (फोटो: पीटीआई)

भाजपा मतदाताओं को यह दिखाने के लिए कि वह आतंक पर सख़्त है, उस मौजूदा कश्मीर नीति से छेड़छाड़ कर रही है, जो अलगाववादियों के साथ सामंजस्य लाने के उद्देश्य से बनाई गई थी. एक ऐसी नीति, जो राज्य को बर्बादी की कगार से वापस लाई थी.

रिज़वान असद पंडित के ग़मगीन परिजन (फोटो: पीटीआई)
रिज़वान असद पंडित के ग़मगीन परिजन (फोटो: पीटीआई)

हम जानते हैं कि बीते कुछ समय से जम्मू कश्मीर में हो रही घटनाएं हमें पीछे की ओर ले जा रही हैं. घाटी में बढ़ती मौतें, सशस्त्र उग्रवाद में घाटी के लोगों की बढ़ती भर्ती और बार-बार होने वाली कानूनी कार्रवाई और कर्फ्यू इस बात का संकेत दे रहे हैं, लेकिन बीते कुछ हफ़्तों में हुई तीन बड़ी घटनाएं पहले से बड़े खतरे का संकेत दे रही हैं.

पहली, इस महीने की शुरुआत में रिज़वान असद पंडित की पुलिस हिरासत में मौत. वह कथित तौर पर जमात-ए-इस्लामी जम्मू और कश्मीर (जेआईजेके) के कार्यकर्ता और स्कूल के प्रिंसिपल थे, जिन्हें राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने गिरफ्तार किया था.

दूसरी, जेआईजेके पर प्रतिबंध और तीसरा, जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) पर प्रतिबंध.

इन घटनाओं से लगता है कि जम्मू और कश्मीर में समय पीछे की ओर लौट रहा है. यह लगभग ऐसा लगता है कि मानो हम 1990 के उस दशक में लौट गए हैं, जब हिंसा, यातना और सामूहिक हत्या की घटनाएं आम थीं. और यह सब एक नीति के तहत जानबूझकर किया जा रहा है.

पंडित की मौत सबसे खतरनाक घटना है. गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज, श्रीनगर द्वारा की गई प्राथमिक अटॉप्सी रिपोर्ट में कहा गया है कि शरीर पर गहरे घाव के कारण अत्याधिक खून बहने के कारण उनकी मौत हुई. हालांकि अंतिम रिपोर्ट लगभग दो सप्ताह बाद आएगी, लेकिन स्पष्ट संकेत हैं कि पंडित को पीट-पीटकर मारा गया.

क्या है जेआईजेके और जेकेएलएफ ?

जेआईजेके की बात करें तो इसका लगभग 50 साल का इतिहास उतार-चढ़ाव भरा रहा है. यह संगठन शिक्षित मध्यम वर्ग और युवाओं के बीच लोकप्रिय है. पहले संवैधानिक रास्ते पर चलने के बाद संगठन ने उग्र कट्‌टरवाद का रास्ता अपनाया, लेकिन बाद में संवैधानिक राह की ओर लौट आया.

जेआईजेके, जमात-ए-इस्लामी-हिंद या उन समकक्ष संगठनों से अलग है, जिनकी कमान पाकिस्तान या पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) के हाथ में है. 1970 के दशक में संगठन ने खुले तौर पर राज्य के चुनावों में भाग लिया.

इसके शीर्ष नेता सैयद अली शाह गिलानी को तीन बार विधायक चुना गया. 1987 के हेराफेरी वाले चुनावों में हार के बाद मोहम्मद यूसुफ शाह उर्फ सैयद सलाहुद्दीन के भीतर कट्टरपंथ को जन्म दिया. इसके बाद, गिलानी और सलाहुद्दीन की अगुवाई में इस संगठन का इतिहास और 1990 में शुरू हुआ विद्रोह आपस में गुथ गए.

जेआईजेके, जो खुले तौर पर पाकिस्तान के हक में था, ने हिजबुल मुजाहिदीन को नेतृत्व और बड़ी संख्या में कार्यकर्ता उपलब्ध कराए. इसी हिजबुल मुजाहिदीन ने जेकेएलएफ के ‘आजादी’ के विद्रोह को पाकिस्तान में विलय में बदल दिया.

लेकिन भारत में हुई कार्रवाई के कारण संगठन के सैकड़ों कार्यकर्ताओं की मौत और गिरफ्तारी हुई, जिसके बाद जमात ने फिर से विचार किया. उस समय गुलाम मोहम्मद भट नेतृत्व कर रहे थे. विचार विमर्श के बाद खुद को उग्रवादी समूह से अलग कर लिया, जिसका मतलब था, खुद को सैयद अली शाह गिलानी और हिजबुल मुजाहिद्दीन के नेता सैयद सलाहुद्दीन से अगल करना था.

सलाहुद्दीन अब मुजफ्फराबाद में रहता है. उस समय गिलानी ने विरोध भी किया, लेकिन संगठन में गुलाम मोहम्मद भट के विचार को प्रमुखता दी गई, जिसके बाद गिलानी को जेआईजेके से अलग कर दिया गया.

भट ने ऑल पार्टीज हुर्रियत कॉन्फ्रेंस से एक प्रस्ताव पास करने को कहा कि वे राज्य विधानसभा चुनावों का विरोध नहीं करेंगे. ये चुनाव 2002 में हुए थे. इसके बाद गिलानी को एक राजनीतिक सलाहकार पद से हटा दिया गया.

2004 में, संगठन की शीर्ष-निर्णय लेने वाली संस्था, मजलिस-ए-शोरा ने निर्णय लिया कि वे ‘लोकतांत्रिक और संवैधानिक संघर्ष’ में हिस्सा लेंगे. 2008 में तत्कालीन अमीर, शेख मोहम्मद हसन ने आधिकारिक तौर पर घोषणा की कि वे हुर्रियत द्वारा बुलाए गए विधानसभा चुनावों के बहिष्कार का हिस्सा नहीं बनेंगे.

इन सालों में जमात प्रमुखों ने महसूस किया कि उग्रवाद के साथ जुड़ने के कारण उनकी सामाजिक-धार्मिक समूह के रूप में काम करने की क्षमता को नुकसान पहुंचा. जेआईजेके नेताओं ने फिर से अपने उस मकसद की ओर लौटने का निर्णय लिया, जहां वे अपने शैक्षणिक संस्थान चला रहे थे और युवाओं में पश्चिमीकरण के खिलाफ अभियान चला रहे थे.

जेकेएलएफ, जिसने कश्मीर में उग्रवाद की शुरुआत की, लेकिन यह उग्रवाद जेकेएलएफ के लिए नुकसानदायक साबित हुआ. उनके नेताओं की हत्या या गिरफ्तारी, कुछ हिजबुल मुजाहिदीन कार्यकर्ताओं के धोखे के बाद उन्होंने आधिकारिक तौर पर एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा की और उनके नेता यासीन मलिक को 1994 के मध्य में जेल से रिहा कर दिया गया.

पाकिस्तान से अपने संबंध खत्म करने के बाद जेकेएलएफ जम्मू कश्मीर में एक सांकेतिक फाॅर्स के तौर पर रहा. इसके बाद यासीन मलिक के लिए यह संतोषजनक बात थी कि 2005 में तब के नए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उनके साथ मुलाकात की. हालांकि इसका कोई परिणाम नहीं निकला यह अलग बात है.

क्या वे हिंसा की तरह वापस लौट रहे हैं?

अब सरकार की कार्रवाइयां बताएंगी कि जेआईजेके और जेकेएलएफ फिर से वापस लौट रहे हैं और हिंसक अलगाववाद का रास्ता अख्तियार कर रहे हैं. यदि हां, तो इसके लिए सरकार खुद दोषी है. कड़े पुलिसिया तौर-तरीके और राजनीतिक समझ ने इन संगठनों को बेअसर कर दिया था. लेकिन अगर सरकार अब फिर उन पर नकेल कसनी पड़ रही है, तो उसे खुद से यह पूछना चाहिए कि यह स्थिति क्यों बनीं?

सरकार पुलवामा को अपनी कार्रवाई का कारण बता सकती है, लेकिन कश्मीर के मुद्दे से जुड़े विवादों का इतिहास पुलवामा से पहले से ही मौजूद है. यह साल 2016 और ऑपरेशन ऑल-आउट से चला आ रहा है, जिसके तहत, चाहे राजनीतिक विरोध का मामला रहा हो ,चाहे सशस्त्र उग्रवाद का, दोनों में अंतर किए बगैर एक आर-पार की नीति अपनायी गयी.

पुलवामा के संदर्भ में, अभी भी बहुत सारे स्पष्टीकरण आने बाकी हैं, सरकार को अपनी खुफिया विफलता के बारे में बताना चाहिए, जिसकी वजह से नियंत्रण रेखा पार करके भारी मात्रा में विस्फोटक सामग्री लाई गई और उसका इस्तेमाल असहाय सीआरपीएफ काफिले पर किया गया. सरकार अपनी इस विफलता को स्वीकार करने से बच नहीं सकती.

बीते सप्ताह जेआईजेके और जेकेएलएफ पर प्रतिबंध का स्पष्टीकरण दिया गया. लेकिन ये काम हो जाने के बाद दिए जाने वाले स्पष्टीकरण जैसे लगते हैं.

गृह मंत्रालय में अपने विश्वसनीय सूत्रों के लिए जाने जाने वाले एक रिपोर्टर ने एक रिपोर्ट में कहा कि 1990 में चार निहत्थे भारतीय वायुसेना (आईएएफ) के कर्मचारियों की हत्या से संबंधित एक मामला जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय में चल रहा है, जिसके हस्तांतरण की याचिका खारिज होने के बाद प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया गया.

रिपोर्ट से पता चलता है कि सरकार 1988-1990 में फैले उग्रवाद की फिर से जांच करना चाहती है. हालांकि 30 साल बाद इसमें कितना इंसाफ मिल सकेगा यह बड़ा सवाल है, वो भी तब जब यह पूरा मामला उग्रवाद व आतंकवाद से जुड़ा है.

एक वरिष्ठ अधिकारी के हवाले से एक दूसरी रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले कुछ वर्षों में कश्मीरी युवाओं को उग्रवाद में वापस लाने के लिए जेआईजेके जिम्मेदार है. वे भारत विरोधी भावना को बढ़ावा देने के लिए स्कूलों के अपने नेटवर्क का उपयोग कर रहे थे.

रिपोर्ट में एक अन्य रिपोर्ताज का खंडन किया गया है, जिसमें कहा गया कि स्थानीय उग्रवादियों की हत्या और उनके जनाज़े के दौरान उत्पन्न भावनाओं और स्थानीय कारणों से घाटी में आतंकवादी गुटों में भर्तियां बढ़ी हैं.

लेकिन जो हो रहा है, वह साफ तौर पर दिख रहा है. भारतीय जनता पार्टी पुलवामा हमले और उसके बाद पाकिस्तान के साथ टकराव को अपने चुनाव अभियान के लिए एक सुनहरे अवसर के रूप में देख रही है.

मतदाताओं को यह दिखाने के लिए कि वह आतंक पर सख्त है, उस मौजूदा कश्मीर नीति से छेड़छाड़ कर रही है, जो अलगाववादियों के साथ सामंजस्य लाने के उद्देश्य से बनाई गई थी. यह एक ऐसी नीति थी, जिसने बहुत कुछ हासिल किया था और राज्य को बर्बादी की कगार से वापस लाई थी.

(लेखक ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली में विशिष्ट शोधकर्ता हैं.)

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