क्या प्रधानमंत्री मोदी हीन भावना से ग्रस्त एक डरे हुए व्यक्ति हैं?

असाधारण दिखना तानाशाह की मजबूरी होती है- यही बात उसकी सत्ता को वैधता देती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी असाधारण हो जाना चाहते हैं. पिछले पांच सालों में वह अनगिनत बार ख़ुद को असाधारण साबित करने की कोशिश करते रहे हैं.

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नरेंद्र मोदी. (फोटो: पीटीआई)

असाधारण दिखना तानाशाह की मजबूरी होती है- यही बात उसकी सत्ता को वैधता देती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी असाधारण हो जाना चाहते हैं. पिछले पांच सालों में वह अनगिनत बार ख़ुद को असाधारण साबित करने की कोशिश करते रहे हैं.

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नरेंद्र मोदी. (फोटो: पीटीआई)

वे घटनाएं गुज़र चुकी हैं और उनके मायने ख़त्म कर दिए गए हैं. पिछले पांच वर्षों में कई घटनाएं गुज़र चुकी हैं जिनके मायने अब ख़त्म हो चुके हैं. इन वर्षों में कुछ सतही विमर्श बनाए गए और बहुत जल्दी एक नए विमर्श को खड़ा कर पहले विमर्श को मिटा दिया गया.

राजनीतिक सत्ता की बदौलत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसा करने में क़ामयाब रहे हैं कि किसी विमर्श को स्थायित्व न मिले. अगर ढंग से सोचें तो यह विमर्शों के मज़ाक का दौर रहा.

यानी एक बौद्धिक प्रक्रिया को मज़ाक के तौर पर स्थापित किया गया. जिसने बौद्धिक चिंतन की ज़मीन के दायरे को समेटा है. समाज की एक बड़ी बौद्धिकता को उसमें खपा दिया गया है. यह सिमटना उस विचार को मज़बूत करता है जिसका प्रधानमंत्री प्रतिनिधित्व करते हैं.

तानाशाही प्रवृत्ति की यह ज़रूरत होती है कि वह सारी सत्ताएं अपने पास रखे. सारी सत्ताएं उसमें समा जाएं और उसी से निकलें. सारी सत्ताओं को हासिल कर लेना ही तानाशाही है.

प्रधानमंत्री के रूप में मोदी राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल करते हुए वह हासिल करने की कोशिश करते रहे जिसकी कमी शायद उनको हमेशा खलती रही. इन पांच सालों के दौरान वे जिन आयोजनों में शामिल होते रहे या जो आयोजन उनके द्वारा करवाए गए उसके ज़रिये हम इसे ठीक-ठीक समझने की कोशिश कर सकते हैं. उन आयोजनों में दिए गए संबोधनों से हम उन्हें समझने की कोशिश कर सकते हैं.

प्रधानमंत्री होते हुए वे सब कुछ हो जाना चाहते हैं. वे अपने को ज्ञानवान दिखाना चाहते हैं. एक वैज्ञानिक, एक गणितज्ञ, एक इतिहासकार, एक शिक्षाविद् और एक राजनीतिज्ञ भी.

एक व्यक्तित्व में वह हो जाना चाहते हैं जिसकी स्थापित सामाजिक प्रतिष्ठाएं हैं. जिनकी समाज में सर्व स्वीकार्य मान्यताएं हैं. जबकि एक व्यक्तित्व में यह सब कुछ होना संभव नहीं बनता. इसकी ज़रूरत भी नहीं है.

लेकिन असाधारण दिखना तानाशाह की मजबूरी होती है- यही बात उसकी सत्ता को वैधता देती है. ऐसे में वे असाधारण हो जाना चाहते हैं. पिछले पांच सालों में अनगिनत बार प्रधानमंत्री यही साबित करने की कोशिश करते रहे हैं- अपनी असाधारणता को, अपने सर्व ज्ञान को.

एक गणितज्ञ की तरह कनाडा में वे अलजेबरा का समीकरण समझाते हैं, विज्ञान के जानकार की तरह साइंस कांग्रेस से लेकर सैटेलाइट के बारे में वे बोलते हैं. इतिहास की समझदारी रखने वाले की तरह इतिहास के तथ्यों को पेश करते हैं.

उनको इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वे ग़लत तथ्य पेश कर रहे हैं. शिक्षाविद् की तरह बच्चों को परीक्षा के पहले उन्हें तैयारी कराते हैं. किसी राष्ट्र के सर्वोच्च पद पर रहते हुए इस तरह के आयोजनों में शामिल होना एक ज़रूरत हो सकती है. पर यह ज़रूरत नहीं, उनकी मंशा रही है जहां वे अपने को साबित करने की कोशिश में दिखते हैं और इसलिए वे इस तरह के आयोजन ख़ुद करवाते रहे हैं.

जिस साहस और आत्मविश्वास के साथ वे तथ्यों को पेश करते हैं, जिस भरोसे के साथ वे किसी विषय के ज्ञानी के तौर पर अपने को पेश करते हैं. क्या वह उतना ही सामान्य है जितना इन विषयों को लेकर प्रधानमंत्री का मज़ाक उड़ाया जाता रहा है.

अपने मज़ाक उड़ाए जाने के साथ ही वे अपने उस उद्देश्य को भी पूरा कर रहे होते हैं. जहां वे विमर्श, बौद्धिकता और ज्ञान को सतह पर लाते हैं, उसे और नीचे गिराते हैं. वहीं सत्ता की ताक़त से वे एक अबौद्धिकता को समाज में फैला भी रहे होते हैं.

हमें अपने प्रधानमंत्री की मनोदशा को समझने की कोशिश करनी चाहिए, उनकी उस मनोवृत्ति को समझने की कोशिश करनी चाहिए जिसमें वे जिस समाज का नेतृत्व करना चाहते हैं उसकी क्षमताओं के सामने ख़ुद को कितना कमज़ोर, अक्षम और हारा हुआ महसूस करते होंगे.

यह हार ही उनका डर है. यह समाज जिस ज्ञान को हासिल करने की क्षमता रखता है, उसके सामने अपनी अज्ञानता के डर से उनका व्यक्तित्व हर रोज़ जूझता होगा.

अपने संबोधनों में उनकी कोशिश होती है कि वे हर बार कुछ असाधारण कहें. किसी भी विषय पर विशेषज्ञ की तरह बोलें. हमें यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि वह क्या है जो प्रधानमंत्री को इतना आत्मविश्वास देता है. वह क्या है जो उन्हें एक ज्ञानी बनने को मजबूर करता है. वह क्या है जिसका सब मज़ाक उड़ाते हैं और वह क्या है जो इन सबके बीच छूट जाता है, इन सबके बीच वह क्या है जो टूट जाता है.

एक व्यक्ति जिसके पास पूरे राष्ट्र की सत्ता है, जिसके पास राष्ट्र का सबसे महत्वपूर्ण पद है, जहां से वह कभी भी राष्ट्र को संबोधित करने की ताक़त रखता है. वह ऐसा तब कर सकता है जब उसके ख़ुद के भीतर अपने अज्ञानी होने की मनोग्रंथि हो.

उसे अपने व्यक्तित्व और अज्ञानता के बारे में पता होता है पर वह उस मनोग्रंथि से उबरने की कोशिश करता है जिसे वह नहीं हासिल कर सका है. सारी सत्ताओं को हासिल करने के बावजूद यहां वह हारा हुआ महसूस करता है.

उसके पास दो ही तरीके बचते हैं या तो वह उस चीज़ को ख़त्म कर दे या उसे हासिल कर ले. प्रवृत्ति के तौर पर तानाशाह यही दो तरीके अपना सकता है.

राजनीतिक सत्ता को अलग-अलग तरीकों से हासिल किया जा सकता है पर ज्ञान की सत्ता को पाने की प्रक्रिया वह नहीं है.

उसके रास्ते अलग हैं और ऐसे में जब एक सर्वसत्तावादी व्यक्तित्व अपने को हारा हुआ महसूस करता है, क्योंकि उसे यह ज्ञान की सत्ता भी चाहिए. तब वह राजनीतिक सत्ता का उपयोग करते हुए यह स्थापित करने की कोशिश करेगा कि उसके पास ज्ञान की सत्ता भी है. वरना ‘हृदय सम्राट’ होने में कसर रह जाएगी.

यह स्थापित नहीं हो पाएगा कि वह सारी सत्ताओं का स्वामी है. वह उस लोकतंत्र के उलट करता है जहां कि सत्ताओं को विकेंद्रीकृत किया जाता है. वह सारी सत्ताएं अपने में समेटना चाहता है. अपने में सब कुछ हो जाना चाहता है.

अपने व्यक्तित्व को वह इतना बड़ा करता जाता है कि वह अपने को उभारने वाली संरचना को ही ख़त्म कर देता है. इसे हम इस रूप में भी देख सकते हैं कि इसी प्रवृत्ति ने भाजपा को ख़त्म कर ‘संगठन’ को ‘मोदी’ में तब्दील कर दिया है.

प्रधानमंत्री के डर को समझने के लिए आपको सिर्फ़ उन्हें सुनना ही ज़रूरी नहीं है. तथ्यों को रखते हुए उनके चेहरे के भाव को पढ़ना भी जरूरी होगा. उनका चेहरा बताता है कि वे जो कह रहे हैं और वे जो हैं उसमें कितनी चौड़ी खाई है.

उनके लिए सर्वज्ञान का पहलू इतना अहम है कि ग़ैरज़रूरी जगहों पर वे इसका प्रदर्शन करते रहे हैं. कनाडा में गणित के सूत्र के ज़रिये कनाडा और भारत के रिश्तों की व्याख्या करते हुए जब वे इसे ग़ैरज़रूरी तरीके से समझा रहे होते हैं तो उन्हें देखा जा सकता है.

चुनाव के पहले डीआरडीओ द्वारा किए गए सैटेलाइट अभियान पर दिए गए संबोधन से भी समझा जा सकता है. वे पूरे अभियान की सूक्ष्मता को बताने की कोशिश कर रहे होते हैं. जबकि उनके हावभाव से उनकी अनभिज्ञता भी दिख रही होती है.

उनके इतिहास पर दिए गए तथ्यों से भी यह समझा जा सकता है कि बगैर संदर्भों के ग़ैरज़रूरी तरीके अपनाकर वे ज्ञान में हस्तक्षेप करना चाहते हैं.

ऐसे में वे इतिहास के ग़लत तथ्यों को भी पेश करते रहे हैं. वह ग़लत तथ्य को पेश क्यों करते हैं, क्या यह उनकी मंशा है. क्या यह उनके लिए लिखे गए स्क्रिप्ट की तथ्यात्मक कमी है. यह दोनों बातें संभव है.

पर इतने संसाधनों के रहते हुए ग़लती का बार-बार दोहराया जाना उनके संबोधन के लिए लिखी गई स्क्रिप्ट की तथ्यात्मक कमी भर नहीं है, बल्कि यह उस प्रक्रिया का हिस्सा है जहां वे ज्ञान को ध्वस्त करना चाहते हैं.

ग़लत तथ्य और झूठ उस ज्ञान पर चोट करता है जिसे सही तथ्य के ज़रिये सर्वमान्य बनाया गया है. ज्ञान, तथ्य और वैज्ञानिकता का सहारा लेता है. वे ग़लत तथ्य और झूठ के ज़रिये ज्ञान की पूरी व्यवस्था पर चोट करते हैं.

इस पूरी प्रक्रिया में उनका वैचारिक व्यक्तित्व ज्ञान को न हासिल कर पाने की स्थिति में उसे ढहा देना चाहता हैं. उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए इन ग़लत तथ्यों पर होने वाला विमर्श बहुत कम दायरे में ठीक हो पाता है जबकि राजनीतिक सत्ता के इस्तेमाल से वे अपने ज्ञान को सर्व सामान्य बना देते हैं.

जब वे हार्वर्ड के बजाय हार्ड वर्क पर ज़ोर देते हैं तो उनका मक़सद क्या है. क्या यह महज़ एक स्टेटमेंट के तौर पर आता है. अपने अवचेतन की मनोदशा में वे ज्ञान के प्रतीक पर हमला करते हैं. उस प्रतीक पर जिसे दुनिया ने सबसे बड़ा मान रखा है.

सबसे बड़े संस्थान को नकारते हुए वे ज्ञान के उस प्रतीक को नकार रहे होते हैं. ज्ञान की अहमियत को कम कर रहे होते हैं. ऐसा ज्ञान जो उनकी पहुंच से बाहर है. वे अपने हार्ड वर्क यानी कार्यकलाप को बड़ा बताने की कोशिश करते हैं.

ज्ञान का डर है जिससे वे अलग-अलग तरीकों से हर मोर्चे पर जूझ रहे होते हैं. इस पूरी प्रक्रिया को यहां से भी समझा जा सकता है कि पिछले पांच सालों में ज्ञान की संस्थाओं के साथ उनके संघर्ष सबसे ज़्यादा तेज़ रहे.

वे अपनी राजनीतिक ताक़त से ज्ञान पर हमला करते रहे और ज्ञान निर्माण के संस्थान उनके प्रति उग्र दिखे. तकरीबन सभी विश्वविद्यालय व अन्य शिक्षा के संस्थानों से उनके ख़िलाफ़ आव़ाज उठती रही.

यह दो तरह की विचार सत्ताओं का संघर्ष है. ज्ञान की सत्ता के ढहने से प्रधानमंत्री के विचार और सर्ववादी सत्ता की शाखाएं मज़बूत होंगी. सारी सत्ताओं को अपने पास रखने की तानाशाही प्रवृत्ति तभी सफल हो सकती है जब वे उस चीज़ को ख़त्म कर दें जिसे वह हासिल नहीं कर सकते.

वे इसी कोशिश में लगे हैं कि हासिल न कर पाने की स्थिति में उस चीज को ध्वस्त कर दिया जाए. यहां जो बात प्रधानमंत्री पर कही गई है वह थोड़े बहुत बदलावों के साथ उन सब पर लागू होगी जो सारी सत्ताओं के स्वामित्व का विचार रखते हैं. दुनिया की अलग-अलग भाषाओं के शब्दकोश इसी को तानाशाही कहते हैं.

(लेखक जेएनयू में फेलो हैं.)

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