400 शिक्षाविदों ने आईआईटी कानपुर में जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न की निंदा की

आईआईटी कानपुर ने दलित शिक्षक सुब्रमण्यम सदरेला की पीएचडी थीसिस रद्द करने की सिफारिश की है, जिन्होंने अपने चार सहकर्मियों के ख़िलाफ़ उत्पीड़न का आरोप लगाया था.

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(फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स)

आईआईटी कानपुर ने दलित शिक्षक सुब्रमण्यम सदरेला की पीएचडी थीसिस रद्द करने की सिफारिश की है, जिन्होंने अपने चार सहकर्मियों के ख़िलाफ़ उत्पीड़न का आरोप लगाया था.

(फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स)
(फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स)

कानपुर: 160 देशों के 400 शिक्षाविदों ने ‘जातिगत भेदभाव और संस्थागत उत्पीड़न’ का सामना करने वाले आईआईटी कानपुर के एसोसिएट प्रोफेसर सुब्रमण्यम सदरेला के साथ एकजुटता व्यक्त की है.

बीते 14 मार्च को आईआईटी कानपुर ने निर्णय लिया कि ‘साहित्यिक चोरी’ (प्लेजरिज़्म) के आधार पर सदरेला की पीएचडी रद्द की जा सकती है. अकादमिक एथिक्स सेल द्वारा जांच में थीसिस को रद्द करने का कोई कारण नहीं पाए जाने के बावजूद विश्वविद्यालय की सीनेट ने पीएचडी को रद्द करने की सिफारिश की थी.

यह निर्णय सेवानिवृत्त न्यायाधीश द्वारा की गई जांच के दो महीने बाद आया. इस जांच में चार वरिष्ठ शिक्षकों को विश्वविद्यालय के आचरण नियमों और एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम के उल्लंघन का दोषी पाया गया था. आंतरिक जांच में भी इन चारों शिक्षकों- ईशान शर्मा, संजय मित्तल, राजीव शेखर और सीएस उपाध्याय को दोषी पाया गया था.

सदरेला ने आरोप लगाया था कि आरोपी प्रोफेसरों और अन्य लोगों ने अफवाहें फैलाईं थी कि उन्हें आरक्षण का फायदा मिला हैं और सवालों के जवाब देने में सक्षम नहीं हैं.

सदरेला का समर्थन करने वाले बयान पर अमेरिकी गणितज्ञ डेविड मुमफोर्ड, भारतीय भौतिक विज्ञानी एशोक सेन और सूचना सिद्धांतकार थॉमस कैलाथ सहित प्रसिद्ध शिक्षाविदों ने हस्ताक्षर किए हैं.

 

शिक्षाविदों ने अपने बयान में कहा है,  ‘एक अप्रैल 2019 को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक समाचार रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), कानपुर की सीनेट ने एयरोस्पेस इंजीनियरिंग विभाग में सहायक प्रोफेसर डॉ. सुब्रमण्यम सदरेला की पीएचडी डिग्री को रद्द करने की सिफारिश की है. वह उसी संस्थान के पूर्व छात्र हैं, यहां से उन्होंने एमटेक और पीएचडी की डिग्रियां प्राप्त की हैं.’

उन्होंने आगे कहा, ‘सदरेला दलित समुदाय से हैं और जनवरी, 2018 से आईआईटी कानपुर में पढ़ा रहें हैं. अगर पीएचडी रद्द कर दी गई तो इस वजह से उन्हें आईआईटी कानपुर में अपनी नौकरी से भी हाथ धोना पड़ सकता है. सीनेट के सुझावों को जल्द ही संस्थान के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स (बीओजी) के समक्ष रखे जाने की उम्मीद है, जहां अंतिम निर्णय होता है.’

शिक्षाविदों द्वारा जारी बयान में अप्रैल, 2018 को छपी एक अन्य मीडिया रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा गया है कि सदरेला के संस्थान में शामिल होती ही उन्हें चार वरिष्ठ प्रोफेसर- इशान शर्मा, संजय मित्तल, राजीव शेखर और चंद्रशेखर उपाध्याय के जातिगत भेदभाव और टिप्पणिओं का शिकार होना पड़ा.

बयान में बताया गया है कि इन शिक्षकों ने उनके खिलाफ जातिवादी टिप्पणी की और संस्थान में एक सहायक प्रोफेसर होने के लिए उनकी मानसिक फिटनेस पर सवाल उठाया, जिसके बाद सदरेला ने इस संबंध में चारों प्रोफेसरों के खिलाफ शिकायत की, जिसे संस्थान द्वारा गठित तीन-सदस्यीय समिति को जांच के लिए सौपा गया.

सदरेला ने अपनी शिकायत में यह भी कहा था कि उनके शोध पर झूठे आरोप लगाते हुए कई ईमेल भी अन्य शिक्षकों को भेजे जा रहे हैं.

इसके बाद आतंरिक जांच में इन चारों शिक्षकों को दोषी पाया गया और कार्रवाई के आदेश दिए गए. इस मामले की जांच इलाहबाद हाईकोर्ट के एक रिटायर्ड जज ने भी की और डॉ सदरेला द्वारा लगाए गए सभी आरोपों को सही पाया. इसमें से संजय मित्तल और चंद्रशेखर उपाध्याय को डिमोट करने का फैसला लिया गया था और इशान शर्मा को चेतावनी देकर छोड़ दिया गया था.

वहीं, राजीव शेखर को इस बीच आईआईटी धनबाद में निदेशक के पद पर नियुक्त किया गया था और इस तरह आईआईटी कानपुर में संस्थागत कार्रवाई से वह बच गए.

शिक्षाविदों ने यह भी कहा कि आईआईटी कानपुर का फैकल्टी फोरम जाति आधारित उत्पीड़न के दोषी पाए गए इन चार प्रोफेसरों के पक्ष में था. उन्होंने चारों लोगों को बचाने और उनके कानूनी खर्चे को उठाने की मांग की थी.

15 अक्टूबर 2015 को भेजे गए एक गुमनाम ईमेल के जरिए दलित शिक्षक सुब्रमण्यम सदरेला के खिलाफ प्लेगरिज्म के आरोप लगाए गए थे. ये मेल संस्थान के कई फैकल्टी सदस्यों को भेजे गए थे.

इस मामले में एथिक्स सेल द्वारा सौंपी गई रिपोर्ट में कहा गया, ‘शोधकर्ता के शोध कार्य में किसी तरह की साहित्यिक चोरी (प्लेजरिज्म) का आरोप नहीं है. समिति को लगता है कि उनके शोध कार्य को रद्द करने की जरूरत नहीं है.’

समिति ने कहा कि सदरेला अपने शब्दों में पैसेज को दोबारा लिखे और संशोधित शोध को एक महीने में जमा करें और संस्थान के निदेशक से लिखित में माफी मांगे. हालांकि बावजूद इसके उनकी पीएचडी थीसिस रद्द करने की सिफारिश की गई.

डॉ. सदरला ने इन सिफारिशों का अनुपालन किया और अनुशंसित समय अवधि के भीतर अपडेट करके थीसिस और माफी के लिए पत्र प्रस्तुत किया।  हालांकि, 14 मार्च 2019 को संस्थान की सीनेट की बैठक में, डॉ. सदरेला की पीएचडी को रद्द करने के लिए मतदान किया.

बता दें कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए शिक्षकों के पदों पर नियुक्ति में संवैधानिक रूप से अनिवार्य आरक्षण को लागू करने में आईआईटी कानपुर काफी पीछे है. संस्थान के 394 शिक्षकों में से डॉ. सदरेला समेत सिर्फ चार एससी श्रेणी के शिक्षक हैं.

इसके अलावा, ड्रॉप आउट करने वाले या बाहर निकाले गए सभी छात्रों में से तीन-चौथाई छात्र-छात्राएं सामाजिक रूप से हाशिए वाले वर्गों से ही आते हैं, जिनमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और विकलांग छात्र -छात्राएं शामिल हैं.

शिक्षाविदों का कहना है कि संस्थान की ऐसी तस्वीर को देखते हुए डॉ. सदरेला की बात सही लगती है जिसमें उन्होंने कहा कि उनकी पीएचडी रद्द करने का प्रस्ताव उनको प्रताड़ित करने का एक तरीका है.

बयान के अंत में लिखा गया है कि इस पर हस्ताक्षर करने वाले  विद्वान, शिक्षाविद, कार्यकर्ता और अन्य लोग आईआईटी-कानपुर द्वारा वहां के दलित शिक्षक डॉ. सदरेला के प्रति किये जा रहे व्यवहार और कार्रवाइयों से चिंतित हैं.

उन्होंने कहा, ‘हम संस्थान के सीनेट से डॉ. सदरेला की थीसिस को रद्द करने की अपनी सिफारिश को वापस लेने  का आह्वान करते हैं और संस्थान की अकादमिक एथिक्स सेल की सिफारिशों का पालन करने का अनुरोध करते हैं, जिसमें पाया गया है कि थीसिस को रद्द करने का कोई कारण नहीं है.’

बयान में शिक्षाविदों ने अपील कर कहा है, ‘हम आईआईटी-कानपुर से आग्रह करते हैं कि वे सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों से आने वाले छात्र-छात्राओं और शिक्षकों के प्रति नफरत, शत्रुता और अलगाव के वातावरण पर संज्ञान लें और इन समस्याओं से निपटने के लिए सक्रिय कदम उठाएं.’

अपील पर हस्ताक्षर करने वाले लेखकों के नाम यहां हैं.

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