केरल हाईकोर्ट ने कहा, सरकार या सेना के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी राजद्रोह नहीं 

यह मामला 2006 का है. सिमी की कथित खुफिया बैठक मामले में केरल हाईकोर्ट ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी की अदालत द्वारा दोषी क़रार दिए गए पांचों मुस्लिमों को बरी किया.

(फोटो साभार: swarajyamag.com)

यह मामला 2006 का है. सिमी की कथित खुफिया बैठक मामले में केरल हाईकोर्ट ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी की अदालत द्वारा दोषी क़रार दिए गए पांचों मुस्लिमों को बरी किया.

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नई दिल्लीः केरल हाई कोर्ट ने प्रतिबंधित संगठन स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) की कथित तौर पर खुफिया बैठक मामले में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) की विशेष अदालत द्वारा 2016 में दोषी करार दिए गए सभी पांच लोगों को बरी कर दिया.

यह मामला 2006 में सिमी की एक खुफिया बैठक आयोजित करने से संबंधित है.

लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक, अदालत का कहना है कि एनआईए की विशेष अदालत ने आरोपियों को दोषी ठहराने में गंभीर गलती की है.

इन सभी पांचों लोगों को भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए (राजद्रोह) और गैरकानूनी गतिवििधयों (रोकथाम) अधिनियम (गैरकानूनी संगठन की सदस्यता और गैरकानूनी गतिविधियों में भाग लेने) की धारा 10(ए) (1), 10 (ए) (2) और 13 (1) (बी) के तहत दोषी करार दिया था.

अभियोजन पक्ष का कहना है कि 2006 में स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आरोपियों ने ‘भारतीय स्वतंत्रता में मुस्लिमों की भागीदारी’ विषय पर अलुवा के पास पनाईकुलम के हैप्पी ऑडिटोरियम में एक गुप्त बैठक आयोजित की थी, जिसमें 17 लोगों ने हिस्सा लिया था. इस दौरान भड़काऊ भाषण दिया गया था.

इस बैठक में दूसरे आरोपी अब्दुल रसिक ने कथित तौर पर कहा था, ‘भारतीय सेना कश्मीर में मुसलमानों को मार रही है, वे मुसलमान जो कश्मीर में भारतीय सेना के ख़िलाफ़ जिहाद कर रहे हैं. देश में अन्य मुसलमानों को टाडा, एनएसए जैसे कानूनों के तहत प्रताड़ित किया जाता है.’

इस संबोधन के बाद तीसरे आरोपी अनसार नदवी ने कथित तौर पर कहा, ‘हमने भारत में जो कुछ भी देखा है, वह अंग्रेजों ने किया है. हमें उस दौर में पीछे देखना चाहिए जब निज़ाम और मुगल भारत पर शासन करते थे और इसके लिए तुम्हें सिमी के साथ लड़ना होगा और कोई भी सिमी को तबाह नहीं कर सकता.’

इस मामले की शुरुआती जांच स्थानीय पुलिस ने की और 2008 में इस मामले को एनआईए को सौंप दिया गया. एनआईए ने इस बैठक में हिस्सा लेने वाले 16 लोगों के ख़िलाफ़ 2011 में चार्जशीट दायर की थी.

एनआईए की अदालत ने रसिक और अंसार को 14 साल की सश्रम कैद की सजा सुनाई जबकि तीन अन्य पी ए शादुल, निज़ामुद्दीन और शम्मास को 12 साल कैद की सजा सुनाई, वहीं 11 लोगों को बरी कर दिया गया.

इनमें से एक आरोपी किशोर था और उसके ख़िलाफ़ चार्जशीट किशोर न्याय बोर्ड में अलग से दायर की गई, जिसे बाद में हाई कोर्ट ने खारिज करते हुए दोषियों को अपील करने की अनुमति दी.

भड़काऊ भाषण देने के कोई सबूत नहीं मिले

इन लोगों के भड़काऊ भाषण के कोई साक्ष्य नहीं मिले. एनआईए ने 11 लोगों को बरी किए जाने के ख़िलाफ़ भी अपील दायर की थी. हाई कोर्ट ने दोषियों और एनआईए दोनों की अपीलों पर संयुक्त रूप से विचार किया.

जस्टिस ए एम शफ़ीक और अशोक मेनन की पीठ ने कहा कि इस बात के कोई सबूत नहीं मिले हैं कि इस तरह के भड़काऊ भाषण दिए गए. अभियोजन पक्ष के मुख्य गवाह पनाईकुलम सलाफी मस्जिद के इमाम थे, जो 2006 से 2010 तक इस मस्जिद के इमाम रहे. उन्होंने मामले में चौथे आरोपी निजामुद्दीन के निमंत्रण पर इस बैठक में शिरकत की थी. उन्हें शुरुआत में इस अपराध में आरोपी बनाया गया था लेकिन बाद में वह सरकारी गवाह बन गए और सीआरपीसी की धारा 164 के तहत चार साल बाद उनका बयान दर्ज किया गया.

अदालत ने कहा कि गवाह के बयान को बिना पुष्टि के मूल साक्ष्य नहीं माना जा सकता. एक तो उनका बयान घटना के कई साल बाद दर्ज किया गया. अदालत ने कहा कि एक अन्य गवाह की गवाही भी मायने नहीं रखती क्योंकि उन्होंने प्रत्यक्ष तौर पर भड़काऊ भाषण नहीं सुना.

जस्टिस शफीक ने कहा, ‘इस तरह के साक्ष्यों की पुष्टि के अभाव में हम यह पाते हैं कि अभियोजन पक्ष बुरी तरह से असफल रहा है कि  भड़काऊ भाषण दिए गए थे.’

अदालत ने कहा कि अगर एक बार को मान भी ले कि भड़काऊ भाषण दिया गया तो यह राजद्रोह का मामला नहीं बनेगा.

अदालत ने कहा कि कथित तौर पर ये भाषण विद्वेषपूर्ण हो सकते हैं लेकिन इसकी सामग्री ऐसी नहीं थी कि यह राजद्रोह के दायरे में आए.

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