मोदी सरकार के पांच सालों में कितना स्वतंत्र रह पाया सुप्रीम कोर्ट

मोदी सरकार के पांच सालों के बाद सुप्रीम कोर्ट डरा हुआ, बंटा हुआ और कमज़ोर नज़र आता है, जो एक ताकतवर केंद्र सरकार को चोट पहुंचाने से बचता हुआ दिखता है.

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(फोटो: द वायर)

मोदी सरकार के पांच सालों के बाद सुप्रीम कोर्ट डरा हुआ, बंटा हुआ और कमज़ोर नज़र आता है, जो एक ताकतवर केंद्र सरकार को चोट पहुंचाने से बचता हुआ दिखता है.

फोटो: द वायर
फोटो: द वायर

1990 के बाद के दो दशकों के दौरान भारत के सुप्रीम कोर्ट की ताकत और क़द में खासी वृद्धि हुई है और इसे ‘दुनिया की सबसे शक्तिशाली अदालत’ के रूप में पहचान मिली हैं. इस अवधि के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने ‘कॉलेजियम’ प्रणाली की शुरुआत की.

इसी के माध्यम से न्यायिक नियुक्तियों को प्रमुखता दी गई और कई ऐसे मुद्दों पर हस्तक्षेप करके अपनी न्यायिक समीक्षा शक्तियों का विस्तार किया, जो पारंपरिक रूप से प्रशासनिक अधिकारियों के लिए आरक्षित थे.

सुप्रीम कोर्ट ने निरतंर आदेश जारी कर सामाजिक कल्याण, पर्यावरणीय सुरक्षा, चुनावी सुधार जैसे मुद्दों पर आदेश पारित किए गए और नए दिशानिर्देश जारी किए.

सुप्रीम कोर्ट की शक्तियों में वृद्धि केंद्र सरकार, विशेष रूप से गठबंधन की सरकारों की मुखरता में कमी के साथ ही देखने को मिली. सरकार से मोहभंग हुई जनता के लिए सुप्रीम कोर्ट उम्मीद की आखिरी किरण बनकर उभरा.

सरकार की निष्क्रियता की भरपाई के लिए न्यायपालिका को सक्रिय भूमिका निभाते देखा गया, जिसे कमज़ोर, समझौता करने वाला और भ्रष्ट समझा गया था. लेकिन 2014 के चुनावों ने परिदृश्य बदल दिया.

पिछले 30 वर्षों में पहली बार कोई सरकार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई और सुधारवादी भूमिका के बाद पहली बार न्यायपालिका का सामना एक ऐसी सरकार से हो रहा था, जो संख्याबल के मामले में बहुत मजबूत थी.

क्या सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार की इस नई मुखरता के संदर्भ में अपनी स्वतंत्रता को बरकरार रख पाया है? इसका जवाब हां नहीं हो सकता है और इसे कुछ उदाहरणों के साथ समझा जा सकता है.

न्यायिक नियुक्तियां

इंदिरा गांधी युग के कड़वे अनुभवों को, जिसमें न्यायाधीशों को नियुक्त किया गया, स्थानांतरित किया गया और सरकार के दबाव में रहना पड़ा, देखते हुए न्यायपालिका ने अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए एक समाधान ढूंढ़ा और न्यायाधीशों की कॉलेजियम प्रणाली शुरू की गई, जिसमें न्यायिक नियुक्तियों में सरकार की भूमिका कम कर दी गई.

हालांकि, 2014 के बाद न्यायिक नियुक्तियों को लेकर सत्ता का दखल बढ़ा. सत्ता में आने के तुरंत बाद एनडीए सरकार यह स्थापित करने में लग गई कि न्यायिक नियुक्तियों पर अंतिम फैसला किसका होगा.

बिना किसी हो-हल्ले के केंद्र सरकार ने वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल सुब्रमण्यम के प्रमोशन के प्रस्ताव को अस्वीकार करने वाली कॉलेजियम की सिफारिशों को दरकिनार कर दिया.

पूर्व सीजेआई आरएम लोढ़ा (फाइल फोटो: पीटीआई)
पूर्व सीजेआई आरएम लोढ़ा (फाइल फोटो: पीटीआई)

तत्कालीन सीजेआई आरएम लोढ़ा ने केंद्र के इस कृत्य का कड़ा जवाब दिया और कानून मंत्री को लिखा कि सरकार को भविष्य में कॉलेजियम को इस तरह अलग-अलग करने की एकतरफा नीति नहीं अपनानी चाहिए.

हालांकि, गोपाल सुब्रमण्यम की इस असहमति के चलते दोनों पक्षों में टकराव की संभावना बढ़ गई. उन्होंने कहा कि सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में एमिकस क्यूरी की भूमिका के लिए उन्हें निशाना बनाया गया.

न्यायिक नियुक्तियों पर न्यायपालिका की प्रधानता को खत्म करने के इरादे से सरकार राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) के गठन के लिए जल्द ही संविधान में एक संशोधन ले आई. संशोधन की समयसीमा अधिक नहीं थी, 10 महीनों के भीतर ही सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 4ः1 के बहुमत से इसे रद्द कर दिया.

संवैधानिक समझदारी से इतर जो बात बहुमत के फैसले में समझ में आती है वह है कि न्यायिक नियुक्तियों में न्यायपालिका अपनी प्रधानता बनाए रखना चाहती है.

फैसले में यह स्वीकार किया गया कि कॉलेजियम व्यवस्था में सुधारों की आवश्यकता है और कहा गया कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक नया समझौता ज्ञापन (एमओपी) तैयार किया जाना चाहिए.

एनजेएसी के गठन के लिए जब से संवैधानिक संशोधन को रद्द किया गया केंद्र और कॉलेजियम के बीच सब ठीक नहीं हैं. केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने एनजेएसी के फैसले को ‘अनिर्वाचितों की निरंकुशता’ करार दिया था.

दोनों धड़ों के बीच विवाद का प्रमुख कारण जजों की नियुक्ति के लिए एमओपी को अंतिम रूप देना था.

सरकार और कॉलेजियम के बीच एमओपी को अंतिम रूप देने को लेकर पैदा हुए गतिरोध के कारण न्यायिक नियुक्तियों में देरी हुई. केंद्र ने जजों की नियुक्तियों और तबादलों के बारे में कॉलेजियम की सिफारिशों पर अपने पैर खींच लिए, जिसके कारण देशभर के उच्च न्यायालयों में खाली पड़े पदों में वृद्धि हुई.

कोलकाता और कर्नाटक की तरह कई हाईकोर्ट में आधे स्थान रिक्त पड़े हैं और वकील इन रिक्त पड़े पदों पर भर्तियों के लिए हड़ताल कर रहे हैं. 2016 में कॉलेजियम की सिफारिशों को लागू करने में केंद्र सरकार की देरी से तत्कालीन सीजेआई टीएस ठाकुर को अधिक पीड़ा हुई थी.

एक सार्वजनिक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए सीजेआई ठाकुर ने केंद्र सरकार से एक भावुक अपील कर न्यायिक नियुक्तियों के लिए त्वरित कार्रवाई करने की अपील की थी. वह संबोधन के दौरान इतने भावुक हो गए थे, उनकी आंखें नम हो गई थीं.

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पूर्व सीजेआई टीएस ठाकुर (फाइल फोटो: पीटीआई)

इस समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मौजूद थे. न ही उनकी आलोचना और न ही उनके आंसू सरकार को टस से मस कर सके. इस अवधि के दौरान देखा गया कि किस तरह सरकार न्यायिक नियुक्तियों के मामले में अपना अधिकार स्थापित कर रही थी.

जस्टिस केएम जोसेफ के प्रमोशन की सिफारिश पर सरकार कुंडली मारकर बैठ गई. जस्टिस राजीव शकधर, जस्टिस जयंत पटेल और जस्टिस एएम कुरैशी के विवादित तबादलों के मामले में भी यही रवैया देखने को मिला. संयोगवश, इन सभी जजों ने अपने न्यायिक करिअर में एक बार तो जरूर शक्तिशाली सरकारों के हितों के विपरीत जाकर फैसला सुनाया था.

कॉलेजियम द्वारा सुझाई गई सिफारिशों को केंद्र सरकार द्वारा नज़रअंदाज कर एक और रवैया देखने को मिला, जो व्यवस्थित रूप से बने कानून का उल्लंघन था. कानून कहता है कि एक बार कॉलेजियम द्वारा एक नाम की सिफारिश की गई तो सरकार उसे मानने के लिए बाध्य है ( इस लेख में इसके उदाहरण विस्तृत रूप में दिए गए हैं).

बीते पांच साल में फाइलों को दबाने, सुझावों को न मानने और भेजे गए नामों को केंद्र सरकार द्वारा अपने हिसाब से चुनने का एक सतत पैटर्न देखा गया. कुछ मामलों में कई महीनों तक फाइलों को लंबित रखा गया जबकि कुछ मामलों में केंद्र सरकार ने कॉलेजियम की सिफारिश के 48 घंटे के भीतर कार्रवाई की.

कॉलेजियम की सिफारिशों पर सरकार की ओर से बार-बार की जा रही टिप्पणी के जवाब में सुप्रीम कोर्ट असहाय और संशय में दिखाई दिया. विरोध के कुछ संकेत भी दिए, लेकिन ज्यादा फायदा नहीं हुआ.

पूर्व चीफ जस्टिस लोढ़ा, ठाकुर और खेहर इस संबंध में बहुत सक्रिय रहे. मौजूदा सीजेआई रंजन गोगोई ने केंद्र के समक्ष अपनी नाखुशी जताकर देरी की. हालांकि, केंद्र ने इन सब की खास परवाह नहीं की.

राजनीतिक हितों से संबंधित मामलों के संदेहास्पद फैसले

2014 से पहले सुप्रीम कोर्ट राजनीतिक हितों से जुड़े मामलों में सरकार के ख़िलाफ़ जाने में संकोच नहीं करता था. 2जी लाइसेंस रद्द करने और कोयला घोटाला मामलों से यह साफ है.

हालांकि एनडीए सरकार के आने के बाद सितंबर 2014 में कोल-गेट मामले का फैसला सुनाया गया, लेकिन इसकी सुनवाई यूपीए -2 के आखिरी चरण में हुई, जिस दौरान अदालत ने कई मौखिक टिप्पणियां दीं ( जिसमें, अब तक की सबसे प्रसिद्ध टिप्पणी ‘सीबीआई पिंजरे में बंद तोता है’ भी शामिल है), सरकार को यह बुरी तरह से चुभा था.

अदालत के हस्तक्षेप से मीडिया और जनता से वाहवाही भी मिली, जिसने भ्रष्ट्राचार और कुशासन के ख़िलाफ़ न्यायपालिका की इस कार्रवाई को सराहा. लेकिन 2014 के बाद सत्तारूढ़ पार्टी के राजनीतिक हितों से संबंधित मामलों पर कार्यवाही करते हुए सुप्रीम कोर्ट का दब्बूपन से भरा पक्ष दिखाई दिया.

राजनीति से जुड़े मामलों जैसे सहारा-बिड़ला, लोया, भीमा-कोरेगांव, रफाल, आधार आदि फैसलों पर बहुत आलोचना हुई. अदालत सरकार के खिलाफ जाने में संकोच करती रही.

सहारा-बिड़ला डायरी केस

सहारा-बिड़ला डायरी मामले में अदालत को इसी तरह की चुनौती का सामना करना पड़ा. यह जनहित याचिका एनजीओ ‘कॉमन कॉज़’ ने दायर की थी, जिसमें सहारा और बिड़ला समूह की कंपनियों के कार्यालयों पर छापा मारते हुए आयकर विभाग द्वारा प्राप्त दस्तावेजों के संबंध में अदालत की निगरानी में जांच की मांग की गई थी.

इस डायरी में कथित रूप से नरेंद्र मोदी और अन्य भाजपा नेताओं को रिश्वत के रूप में करोड़ों रुपये देने का जिक्र था. याचिकाकर्ता ने ललित कुमारी मामले के आधार पर अपनी याचिका में अपील की कि इस मामले में एफआईआर और अदालत की निगरानी में जांच कराई जाए, क्योंकि इसमें कहा गया था कि जब एक संज्ञेय अपराध की शिकायत दर्ज की जाती है तो एफआईआर दर्ज कराना अनिवार्य है.

जस्टिस अरुण मिश्रा और अमिताव रॉय की पीठ ने याचिका खारिज कर दी लेकिन यह याचिका खारिज करने का साधारण मामला नहीं था. अदालत ने यह कहते हुए इस मुद्दे को हमेशा के लिए निरस्त कर दिया कि ‘उठाए गए सवाल अपराध साबित करने और एफआईआर दर्ज करने के लिए पर्याप्त नहीं है.’

अदालत बस मामले को खारिज कर सकती थी, याचिकाकर्ता को अन्य वैधानिक उपायों का लाभ उठाने के लिए कह सकती थी. इसके बजाय, अदालत ने मामले की पूरी तरह से देखा और यह माना कि डायरी की एंट्री साक्ष्य अधिनियम की धारा 34 के अनुसार सबूत के तौर पर स्वीकार्य नहीं हैं.

दस्तावेजों की स्वीकार्यता मुद्दा नहीं था, बल्कि उसकी अगले चरणों में जांच की जा सकती थी. सुनवाई के दौरान ही यह मुद्दा उठा. इस मामले में पूर्ण जांच ही अन्य चीजों से पर्दा हटा सकती है, जिससे डायरी में दर्ज एंट्री की प्रामाणिकता का पता चल सकता है.

इसलिए सबूत के तौर पर दस्तावेजों की स्वीकार्यता नहीं होने के आधार पर जांच को बंद करना घोड़े के आगे गाड़ी (कार्ट) लगाने जैसा है. यह निर्धारित करना कि क्या जांच के आदेश दिए जाए, सुप्रीम कोर्ट ने सबूतों की स्वीकार्यता के संबंध में निचली अदालत के मापदंड को लागू किया.

यह फैसला उस कानूनी सिद्धांत के खिलाफ है, जिसमें कहा गया कि एफआईआर दर्ज करने के लिए केवल आरोप लगाना ही पर्याप्त है. अदालत का यह नजरिया 2जी मामले में अपनाए गए नजरिए से अलग था, जिसमें अदालत ने याचिकाकर्ता द्वारा दी गई सामग्री की जांच अदालत की निगरानी में कराने के आदेश दिए थे.

जज लोया केस

फोटो: द कारवां/पीटीआई
फोटो: द कारवां/पीटीआई

लोया मामले में भी ठीक ऐसा ही हुआ. यह विवादित मामला बड़े रसूखदार नेताओं से जुड़ा हुआ था. मामला सीबीआई जज बीएच लोया की मौत के संदेह से जुड़ा हुआ है. जज लोया सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले की सुनवाई कर रहे थे, जिसमें भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को साज़िश के आरोपों का सामना करना पड़ा था.

जज लोया की मौत की स्वतंत्र जांच की मांग करने वाली याचिकाओं को न केवल अदालत ने खारिज कर दिया बल्कि अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि उनकी मौत प्राकृतिक कारणों से हुई है.

वकील गौतम भाटिया ने टिप्पणी की थी कि ‘फैसला निचली अदालत के फैसले जैसा है, जिसे बिना सुनवाई के दिया गया.’ यह फैसला जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ (पीठ में वह, सीजेआई दीपक मिश्रा और जस्टिस खानविलकर थे) ने उन न्यायिक अधिकारियों के बयान पर अविश्वास जताया, जिन्होंने कहा था कि लोया की प्राकृतिक कारणों से मौत हुई है.

अदालत ने उन न्यायिक अधिकारियों के साथ जिरह की अनुमति देने से इनकार कर दिया. अदालत को यह देखना चाहिए था कि याचिकाकर्ता स्वतंत्र जांच की मांग कर रहे थे और अपराध का शक होने पर जांच की मांग करना एक पर्याप्त आधार है.

जांच की मांग के लिए सभी सामग्रियों के साथ अपराध साबित करने की जरूरत नहीं है लेकिन राज्य सरकार की विवेचनात्मक जांच रिपोर्ट के आधार पर सभी सवाल धरे के धरे रह गए. यह फैसला संतुष्ट करने में असफल रहा.

इस मामले के सभी निष्कर्ष यह दिखाते हैं कि निष्पक्ष प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया. अदालत को यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे निष्कर्ष देकर वह इस मुद्दे को हमेशा के लिए बंद कर रही है.

अदालत को इस मुद्दे पर स्थाई चुप्पी साधने से पहले जज लोया के परिवार के सदस्यों की तरह, इस मुद्दे को प्रकाश में लाने वाली कारवां पत्रिका के पत्रकारों आदि की तरह सभी हितधारकों की बातों को सुनना चाहिए था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने निष्पक्षता और पारदर्शिता के इस तरह के विचारों को पूरी तरह से नजरअंदाज किया.

भीमा कोरेगांव

रोमिला थापर और चार अन्य प्रमुख लोगों ने भीमा कोरेगांव मामले से संबंधित जनहित याचिका दायर कर पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, वर्णन गोंजाल्विस, वरवरा राव और अरुण फरेरा के ख़िलाफ़ यूएपीए आरोपों को लेकर एसआईटी जांच की मांग की.

उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र पुलिस द्वारा की गई जांच पक्षातपूर्ण थी. इस मामले को जस्टिस चंद्रचूड़ की असहमति के साथ 2ः1 के बहुमत से ख़ारिज कर दिया गया था. तत्कालीन सीजेआई दीपक मिश्रा और जस्टिस खानविलकर की बहुमत राय ने महाराष्ट्र पुलिस की जांच का समर्थन किया.

जस्टिस चंद्रचूड़ ने असहमति जताते हुए कहा कि यह राजनीतिक अहसमति जताने की वजह से हुई गिरफ्तारी का मामला है. चंद्रचूड़ सिंह द्वारा रखे कुछ तथ्यों पर विचार न करने के बावजूद यह बहुमत राय दी गई. जबकि बहुमत की राय तथ्य ‘ए’ पर आधारित था, जबकि असहमत पक्ष की राय तथ्य ‘ए+बी’ पर आधारित थी.

बहुमत ने ‘बी’ तथ्य को जोड़े जाने की परवाह नहीं, जिस कारण असहमति पैदा हुई. बहुमत पक्ष ने इन तथ्यों की अनदेखी की. याचिका के रद्द होने से उस प्रचार को बल मिला, जिसमें सरकार की नीतियों पर सवाल उठाने वालों को शहरी नक्सल (अर्बन नक्सल) बताया गया.

रफाल मामला

रफाल मामले में भी अदालत का नजरिया आलोचना से परे नहीं था. रक्षा सौदों में न्यायिक समीक्षा की सीमित संभावना का हवाला देकर भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के आदेश से इनकार करते हुए अदालत ने कहा कि निर्णय लेने की प्रक्रिया सही थी.

अदालत ने विमानों की कीमतों के तर्क को स्वीकार करते हुए निष्कर्ष निकाला कि सरकार ने ऑफसेट पार्टनर के तौर पर रिलायंस के चुनाव में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं किया था. इस मुद्दे के विश्लेषण के लिए कि क्या सौदे में कथित प्रक्रियात्मक अनियमितता से भ्रष्टाचार की शंका को बल मिला, जिससे अदालत की निगरानी में जांच करानी चाहिए.

अदालत ने कहा कि सौदे की खूबियों की समीक्षा करने की कोई जरूरत नहीं थी. अदालत इसी रुख पर कायम रही. दोनों पक्षों की ओर से रखे गए तथ्यों में विरोधाभास था.

उचित यह होता कि तथ्यों को इकट्ठा करने का काम किसी स्वतंत्र एजेंसी को सौंपना चाहिए था लेकिन इसके बजाए अदालत ने दालत ने चुनाव लड़ने वाले दलों में से एक को खारिज कर दिया और एक तरफा पक्ष सुनने के बाद मुद्दे को बंद कर दिया.

हालांकि, जल्द ही अदालत की फजीहत हुई क्योंकि सरकार ने कहा कि फैसले में तथ्यात्मक गलतियां थी और इसमें सुधार की जरूरत है. सौदे की कीमतों के संबंध में कैग की रिपोर्ट के संदर्भ में फैसले का अवलोकन और संसदीय लेखा समिति द्वारा इसके सत्यापन को सरकार द्वारा सीलबंद लिफाफे में अदालत को दी गई गलत जानकारी करार दिया गया.

चूंकि अदालत ने समीक्षा याचिकाओं के लिए खुली अदालत में विस्तृत सुनवाई का फैसला किया है, इसलिए अधिक टिप्पणी करना अनुचित है.

कोर्ट ने अब इस मामले की सुनवाई प्राथमिकता के आधार पर करने का निर्णय लिया. और केंद्र की उस आपत्ति को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि याचिकाकर्ता द्वारा जो सबूत पेश किए जा रहे हैं, वे विशेषाधिकार वाले कागजात हैं और उन पर सुनवाई नहीं की जानी चाहिए.

सीबीआई-आलोक वर्मा विवाद

आलोक वर्मा. (फोटो: पीटीआई)
आलोक वर्मा. (फोटो: पीटीआई)

सीबीआई-आलोक वर्मा के मामले में न्याय में देरी हुई. इस मामले ने एक सीधा-सपाट सवाल खड़ा किया कि सीबीआई निदेशक के रूप में आलोक वर्मा को पद से कैसे हटाया गया क्योंकि इसके लिए दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम के अनुसार उच्चाधिकार प्राप्त चयन समिति के अनुमोदन की आवश्यकता थी.

सीजेआई की अगुवाई वाली पीठ ने शुरुआत में सीलबंद लिफाफे में वर्मा के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के आरोपों का विवरण मांगा था लेकिन बाद में अदालत ने आरोपों के बारे में जानने के बजाए खुद को चयन समिति से मंजूरी की जरूरत तक ही सीमित रखा.

जब अदालत ने 10 जनवरी को आलोक वर्मा की बहाली का निर्देश दिया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी क्योंकि वर्मा के कार्यकाल के केवल तीन सप्ताह ही बचे थे. उनकी बहाली चयन समिति से मंजूरी मिलने के अधीन थी.

बहरहाल, इस मामले में देरी ने यह सुनिश्चित कर दिया कि जो भी शक्तियां वर्मा को सीबीआई चीफ पद से हटाना चाहती थी, वे किसी भी तरह के कानूनी पचड़े में फंसे बिना ऐसा करने में सफल रहीं.

मनी बिल के रूप में आधार अधिनियम

सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया एक और समस्याग्रस्त फैसला आधार को लेकर फैसला था, जहां अदालत ने स्वीकार किया कि मनी बिल के रूप में आधार अधिनियम को पेश करना अवैध नहीं है.

जस्टिस एके सीकरी की अध्यक्षता में बहुमत से लिए गए निर्णय में कहा गया कि चूंकि अधिनियम की धारा 7 में कहा गया है कि आधार का इस्तेमाल सब्सिडी देने, भारत सरकार की ओर से मिलने वाले लाभ और सेवाओं के लिए किया जाएगा. इसे मनी बिल के रूप में  माना जा सकता है.

जस्टिस एके सीकरी. (फोटो: पीटीआई)
जस्टिस एके सीकरी. (फोटो: पीटीआई)

हालांकि यह बहुत ही हैरान कर देने वाला तर्क है. संविधान के अनुच्छेद 110 के अनुसार, एक मनी बिल में केवल केंद्र सरकार द्वारा धन ख़र्च करने और प्राप्त करने से संबंधित प्रावधान शामिल हो सकते हैं.

सब्सिडी, सेवाओं, लाभों के वितरण से पहले किसी व्यक्ति की पहचान को जिस तरह से प्रमाणित किया जाता है, वह मनी बिल की चिंता नहीं हो सकती है.

फैसले की आलोचना करते हुए आलोक प्रसन्ना कुमार ने द वायर  में लिखा था:

मनी बिल में केवल केंद्र सरकार द्वारा धन प्राप्त करने और ख़र्च करने के प्रावधान शामिल होते हैं. बहुमत का निर्णय कहीं भी इसके अर्थ से मेल नहीं खाता. न ही उन्होंने किसी भी जगह यह बताया है कि इस तरह के (आधार जैसे) किसी विधेयक को पास करने के लिए मनी बिल को इस्तेमाल करने का क्या असर हो सकता है. और न ही कहीं आधार के प्रावधानों को अलग करने के प्रयास किया गया है कि क्या इनमें से कोई अनुच्छेद 110 के दायरे में आते हैं.

जस्टिस चंद्रचूड़ ने मनी बिल के रूप में आधार कानून को पारित करने को संविधान में धोखाधड़ी बताया था. संविधान पीठ के फैसले के विधायी प्रक्रिया में दूरगामी परिणाम होंगे क्योंकि इससे सरकार भारत के समेकित कोष के साथ दूरस्थ संबंधों का हवाला देकर किसी भी बिल को मनी बिल के रूप में पेश कर राज्यसभा को पूरी तरह से बायपास करेगी.

नोटबंदी और चुनावी बॉन्ड को दी गई चुनौती: समय पर सुनवाई नहीं

Demonetisation Reuters File
नोटबंदी के दौरान लगे पोस्टर (फाइल फोटो: रॉयटर्स)

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई में देरी करते हुए विवादित मामलों में फैसले लेने से बचा जा सके, ये चलन भी देखने को मिला.

नवंबर 2016 में नोटबंदी की घोषणा होने के बाद से इस फैसले को चुनौती देते हुए कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई. इन याचिकाओं में यह कानूनी बिंदू उठाए गए कि क्या सरकार ने बिना आरबीआई बोर्ड से उचित विचार विमर्श के नोटबंदी की एकतरफा घोषणा की.

25 नवंबर 2016 को सुप्रीम कोर्ट सरकार के इस फैसले की संवैधानिकता की जांच करने को तैयार हो गया. नोटबंदी के बाद के खुलासों और अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति को देखकर इस तरह की कई चिंताएं प्रासंगिक लगती हैं. हालांकि, इन याचिकाओं पर प्रभावी सुनवाई नहीं हुई.

ठीक ऐसा ही हाल इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को चुनौती देने वाली याचिकाओं का हुआ. ये याचिकाएं वित्त अधिनियम 2017 के पारित होने के तुरंत बाद दायर की गई थीं, जिससे इस योजना में विधायी संशोधन हुए.

हालांकि, यह मामला मार्च 2019 तक ही दर्ज हुआ, तब तक अधिकतर इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे जा चुके थे. इन मामलों पर समय पर विचार नहीं करना बहुत बड़ी चिंता का विषय रहा, चुनाव आयोग ने खुद कहा कि इस योजना के राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता पर खतरनाक प्रभाव रहे.

न्यायिक प्रशासन में कार्यपालिका का हस्तक्षेप?

एक और चिंतनीय बात उस समय सामने आई, जब जजों द्वारा नियुक्ति और पीठ के गठन जैसे न्यायपालिका के प्रशासनिक मामलों में सरकार के दखल का खुलासा किया. 12 जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जजों ने ऐतिहासिक साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस कर इसके संकेत दिए.

प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रमुखता से पत्रकारों से बात करने वाले जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा कि न्यायिक प्रशासन में ‘सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है और बीते तीन महीनों से भी कम समय में इतना कुछ हुआ है, जो नहीं होना चाहिए था.’

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जनवरी 2018 में सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जजों द्वारा की गयी प्रेस कॉन्फ्रेंस (फोटो: रॉयटर्स)

जजों ने मीडिया को तत्कालीन सीजेआई दीपक मिश्रा को उनके द्वारा लिखा पत्र भी सौंपा, जिसमें कहा गया था कि जिसमें अन्य बातों के साथ यह भी कहा गया था कि देश और न्यायपालिका पर दूरगामी प्रभाव डालने वाले मामलों को जूनियर बेंचों को सौंपा जा रहा है.

इस मुद्दे पर अधिक स्पष्ट रूप से जस्टिस कुरियन जोसेफ ने बताया, जिन्होंने अपने रिटायरमेंट के बाद टाइम्स ऑफ इंडिया  को दिए साक्षात्कार में कहा कि न्यायपालिका पर बाहरी दबाव था.

‘बाहर से कोई व्यक्ति चीफ जस्टिस (पूर्व सीजेआई दीपक मिश्रा) को नियंत्रित कर रहा था. बाहरी प्रभाव के कई ऐसे मामले सामने आए, जैसे किसी चुनिंदा केस को किसी चुनिंदा पीठ के लिए आवंटन कराना हो या सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट में किसी जज की नियुक्ति करानी हो. खासकर राजनेताओं से संबंधित केसों के आवंटन को लेकर खूब पक्षपात हुआ.’

इस पृष्ठभूमि में यह ध्यान रखना होगा कि जस्टिस अरुण मिश्रा (जो सहारा-बिड़ला मामले में पीठ की अध्यक्षता कर रहे थे) की अध्यक्षता वाली पीठ को लोया केस का आवंटन किया गया था और प्रेस कॉन्फ्रेंस में इसी मामले को निशाने पर लिया गया था. इस मामले की सुनवाई बाद में सीजेआई की अध्यक्षता वाली पीठ ने की.

जस्टिस चेलमेश्वर ने नियुक्तियों में सरकारी हस्तक्षेप पर चर्चा के लिए पूर्ण अदालत की बैठक बुलाने की बात कहते हुए इसी तरह की टिप्पणी की थी. कर्नाटक हाईकोर्ट की जज कृष्णा भट्ट की पदोन्नति को रोकने के लिए केंद्र सरकार ने सीधे तौर पर कर्नाटक हाईकोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस दिनेश माहेश्वरी (अब सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत) को पत्र लिखा था.

केंद्र द्वारा इस तरह सीधे उच्च न्यायालयों से बातचीत करने के तरीके की निंदा करते हुए जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा था कि न्यायपालिका और सरकार के बीच सांठगांठ लोकतंत्र की हत्या जैसी है.

पस्त और कमजोर हुई न्यायपालिका

अपने प्रचंड बहुमत के मद में चूर मोदी सरकार का कई मामलों में न्यायपालिका के साथ टकराव हुआ. पांच साल में केंद्र के साथ चले टकराव की वजह से न्यायपालिका पस्त और कमजोर हुई.

इसके साथ ही अदालत के विवादों  (मेडिकल कॉलेज रिश्वत मामले, रोस्टर विवाद, पूर्व सीजेआई दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव) से न्यायपालिका विभाजित नजर आई, जिससे अदालतों की नैतिकता पर लोगों का भरोसा कम हुआ.

साथ ही यह कहना अतिश्योक्ति होगा कि सुप्रीम कोर्ट ने इस अवधि के दौरान संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए अपनी सुधारवादी भावना का प्रदर्शन नहीं किया, संभव है कि ऐसा किया गया हो, लेकिन पूरी ताकत के साथ ऐसा नहीं किया गया.

Narendra Modi at Dinner-Hosted-by-CJI Gogoi
नवंबर 2018 में सीजेआई रंजन गोगोई द्वारा दिए गए डिनर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू

हालांकि नागरिक स्वतंत्रता से जुड़े मामलों में, जहां कोई राजनीतिक हित शामिल नहीं है, अदालत ने संविधान के परिवर्तनकारी विजन में विस्तार करते हुए प्रगतिशील रुख अपनाया. यह निजता के मामले, सबरीमाला, आईटी अधिनियम की धारा 66ए, धारा 377 और आईपीसी की धारा 497 को रद्द करने के फैसलों में स्पष्ट था.

अदालत ने देर से ही सही, सरकार को लोकपाल नियुक्त करने को कहा. सरकार की पांच साल की निष्क्रियता के बाद ऐसा किया गया. दिल्ली-उपराज्यपाल मामले में संवैधानिक पीठ का फैसला भी उल्लेखनीय है क्योंकि अदालत ने उपराज्यपाल के जरिए दिल्ली को नियंत्रित करने के केंद्र सरकार के प्रयासों का विरोध करते हुए दिल्ली में चुनी हुई सरकार के फैसले को प्राथमिकता दी.

हालांकि इस मुद्दे पर कि दिल्ली में सेवाओं को नियंत्रित करने की शक्तियां किसके पास है, सुप्रीम कोर्ट किसी निर्णय पर नहीं पहुंचा और इस मामले को बड़ी बेंच के पास भेज दिया गया.

कर्नाटक विधानसभा मामले में अदालत का आधी रात की सुनवाई सराहनीय रही. इससे यह सुनिश्चित हुआ कि सरकार गठन में उचित लोकतांत्रिक परंपराओं का पालन किया जाए. लेकिन ये मामले न्यायपालिका की आजादी के ऊपर छाए संदेह के घने बादलों के बीच एक हल्की-सी उम्मीद की किरण जैसे हैं.

संक्षेप में कहे तों मोदी सरकार के पांच सालों के बाद सुप्रीम कोर्ट आसानी से डर जाने वाला, अस्थायी, बंटा हुआ और कमज़ोर नज़र आता है, जो ताकतवर हो चुकी केंद्र सरकार द्वारा चोट पहुंचाए जाने से बचता हुआ दिखता है.

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