बिलक़ीस का क़िस्सा हर हिंदुस्तानी को सुनना और उसके मायने समझना ज़रूरी है

बिलक़ीस बानो को किसने सत्रह सालों तक उसके मताधिकार से वंचित रखा? कौन था गुजरात का मुखिया और किसके हाथ हिंदुस्तान की हुकूमत थी? क्यों सालों-साल बिल्किस अपने कुनबे के साथ भटकती रही पूरे भारत, जगह बदलती हुई, पोशीदा ज़िंदगी बिताती हुई? क्यों वह वहां महफूज़ न थी, जिसे वह अपना वतन कहती है?

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गुजरात के दाहोद जिले में मतदान करने के बाद बिल्किस बानो (फोटो साभार: भूपेंद्र राणा/इंडियन एक्सप्रेस)

बिलक़ीस बानो को किसने सत्रह सालों तक उसके मताधिकार से वंचित रखा? कौन था गुजरात का मुखिया और किसके हाथ हिंदुस्तान की हुकूमत थी? क्यों सालों-साल बिलक़ीस अपने कुनबे के साथ भटकती रही पूरे भारत, जगह बदलती हुई, पोशीदा ज़िंदगी बिताती हुई? क्यों वह वहां महफूज़ न थी, जिसे वह अपना वतन कहती है?

गुजरात के दाहोद जिले में मतदान करने के बाद बिल्किस बानो (फोटो साभार: भूपेंद्र राणा/इंडियन एक्सप्रेस)
गुजरात के दाहोद जिले में मतदान करने के बाद बिलक़ीस बानो (फोटो साभार: भूपेंद्र राणा/इंडियन एक्सप्रेस)

बिलक़ीस बानो की यह तस्वीर देखिए. बुर्के में, चेहरा खुला और आंखें कैमरे को सीधे देखती हुईं, और एक उंगली उठी हुई जिस पर एक निशान है जो मिटता नहीं. वह निशान जो हिंदुस्तान का हर शहरी एक तमगे की तरह पहनता है एक रोज़ पांच साल में.

वह इसका सबूत है कि वह उन करोड़ों में एक है जिसमें ताकत है अपने देश के वर्तमान और भविष्य का रास्ता तय करने की. वह भारत की एक मतदाता है, भारत के संविधान के पहले पन्ने पर लिखे इन शब्दों का हिस्सा: हम भारत के लोग.

‘मैं सत्रह साल तक वोट नहीं दे सकी क्योंकि हम लगातार भाग रहे थे. आज मैंने अपना वोट दिया है और मेरा वोट देश की एकता के लिए है… मैं अपने देश की जनतांत्रिक व्यवस्था में यकीन करती हूं और चुनाव की प्रक्रिया पर मेरा भरोसा है.’

बिलक़ीस बानो अकेली नहीं है. उसके साथ उसका शौहर याकूब है और चार साल की बच्ची है. हिंदुस्तान की राजधानी से कोई 900 किलोमीटर दूर गुजरात के दाहोद जिले के देवगढ़ बारिया के मतदान केंद्र के बाहर यह जो औरत खड़ी है, वह सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि हम सबके लिए.

वह सिर्फ अपने मताधिकार का इस्तेमाल नहीं कर रही, हमें बता रही है कि हिंदुस्तानीयत यों ही नहीं मिल जाती. उसे हासिल करना पड़ता है.खून और पसीने की कीमत के साथ.

किसने बिलक़ीस को सत्रह सालों तक उसके मताधिकार से वंचित रखा? कौन था गुजरात का मुखिया और किसके हाथ हिंदुस्तान की हुकूमत थी? और क्यों सालों-साल बिलक़ीस अपने कुनबे के साथ भटकती रही पूरे भारत, जगह बदलती हुई, पोशीदा ज़िंदगी बिताती हुई? क्यों वह वहां महफूज न थी, जिसे वह अपना वतन कहती है?

आज वह अपने चार बच्चों और शौहर के साथ एक कमरे की पनाहगाह में है. उस राज्य में जिसे भारत के सभी ताकतवर लोगों ने विकास का आदर्श ठहराया है.

उस राज्य में जिसे एक बार आकर महसूस करने की दावत वह देता दिखता है जिसे सदी का नायक कहा जाता है. जब वह अपनी लुभावनी मुस्कान के साथ यह न्योता दे रहा था, तब क्या वह सोच पाया होगा कि एक बिलक़ीस है जो जिसके लिए यह निमंत्रण एक जाल हो सकता है!

बिलक़ीस का किस्सा हर हिंदुस्तानी को सुनना और उसके मायने समझना ज़रूरी है और 23 अप्रैल की अहमियत को भी दर्ज करना ज़रूरी है. क्योंकि इस रोज़ देश की सबसे बड़ी अदालत ने बिलक़ीस के साथ हुई नाइंसाफी का एक हिसाब किया है.

याद रहे सिर्फ एक हिसाब! उसने 2002 की 3 मार्च को बिलक़ीस के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के लिए गुजरात सरकार की जवाबदेही तय की है. उसे बिलक़ीस बानो को 50 लाख रुपये, एक नौकरी और उसकी पसंद की रहने की जगह देने का आदेश दिया है.

बिलक़ीस सबसे बड़ी अदालत के पास दोबारा आई थी. उसने गुजरात सरकार के पांच लाख के मुआवजे को ठुकरा दिया और अदालत से कहा कि उसके साथ जो अन्याय हुआ है, यह मुआवजा उसकी गंभीरता के लिहाज से तुच्छ है. अदालत ने उसकी बात समझी, इसकी हमें तसल्ली होनी चाहिए.

बिलक़ीस का किस्सा आंसू लाने को और आपकी दया उपजाने के लिए नहीं बल्कि उसके धीरज, जीवट और संघर्ष को समझने के लिए जानना ज़रूरी है, जिसके बिना नागरिकता का अधिकार रखा नहीं जा सकता.

इस लंबे संघर्ष में बिलक़ीस अकेली न थी. उस आदिवासी स्त्री और उसके परिवार को याद कीजिए जिसने बिलक़ीस को कपड़े दिए, उसे पनाह दी और जो उसके साथ हुए अत्याचार की गवाह के तौर पर टिकी रही. गुजरात में खासकर ऐसे मामलों में गवाही पर टिके रहना कोई मामूली दिल-गुर्दे की बात नहीं.

कातिलों से भागती बिलक़ीस को अहमदाबाद, बड़ोदा, मुंबई, लखनऊ, दिल्ली में जिन्होंने अपने साथ रखा, उन्हें भी याद कीजिए. उन्हें, जिन्होंने बिलक़ीस के इंसाफ के लिए लड़ने के हौसले को ज़िंदा रखा, उसका हाथ थामा और बार-बार खूनियों की निगाह के सामने से उसे अदालत की दहलीज पार करने में मदद की.

यह ज़रूर याद रखिए कि न उनका उससे खून का रिश्ता था, न जात का और न जो उसके हम-मजहब ही थे. वे लेकिन खुद को उसकी हम-शहरी मानते थे. उन्होंने इंसाफ की इस जद्दोजहद में सिर्फ बिलक़ीस को अपनी नागरिकता बरकरार रखने में सहायता न दी, अपनी नागरिकता साबित की और उसका हक़ अदा किया.

नागरिकता अकेले नहीं, साथ हासिल की जाती है. राष्ट्रीयता भी ऐसे ही रची जाती है. संविधान की प्रस्तावना में जो चौथा और अहम वादा है जो हम भारत के लोग खुद से करते हैं भारतीयता उपलब्ध करने के लिए वह है बंधुत्व हासिल करने का.

इस बंधुत्व के बिना हम बाकी तीन वादे, आज़ादी, बराबरी और इंसाफ हासिल करने के पूरे नहीं कर सकते. बिलक़ीस ने जो वोट डाला है वह किसके लिए है, हमें मालूम नहीं, लकिन वह निश्चय ही उसके खिलाफ है जिसने गुजरात की बागडोर अपने हाथ में होने के बावजूद बिलक़ीस के नागरिक अधिकार की हिफाजत न की.

यह चूक नहीं थी, यह उसका एक फैसला था. उसे इसकी शर्म नहीं कि उसके राज्य की एक निवासी को कहना पड़ा कि उसे इंसाफ उस राज्य की अदालत में भी नहीं मिल सकता, कि वह उसे हिफाजत का एहसास दिला न सका और जिसने उसकी इंसाफ की तलाश में उसका साथ न दिया.

बिलक़ीस का वोट ऐसे शासक के खिलाफ अविश्वास मत है. यह हमारा इम्तिहान है. हम बिलक़ीस के साथ हैं या उसे पनाह न दे पाने वालों के?

23 अप्रैल 2019 के दिन को आने में वक्त लगा है. एक दिन आएगा जब इसे पंडिता रमाबाई के जन्मदिन के साथ बिलक़ीस बानो के नाम दर्ज किया जाएगा, जब इस दिन तक पहुंचने के सफ़र की कहानी भारत के स्कूल की राजनीति शास्त्र और साहित्य की हर किताब में अनिवार्य पाठ के तौर पर लिखी और पढ़ी जाएगी.

जब हमारी आने वाली पीढ़ियां इस कहानी को पढ़ें, तो उन्हें गगन सेठी की वह उदास मुस्कराहट भी याद रहे कि और जाने कितनी बिलक़ीस थीं, जो इस इंसाफ की राह में खेत रहीं. वह उस भारतीयता की कीमत है जो हमारी है लेकिन चुकाई उन्होंने है जिनके नाम हम नहीं जानते.

हमारी बच्चियों और उनकी बच्चियों को ऐसी किताबें ज़रूर मिलेंगी. हम हिंदुस्तान को ज़रूर वापस हासिल कर सकेंगे. अभी तो हमें सिर्फ यह नारा लगाना है: बिलक़ीस बानो जिंदाबाद!

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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