‘उच्च शिक्षा पर हमला करने का मकसद सरकारों से सवाल पूछने वालों को ख़त्म करना है’

मानवाधिकारों से जुड़े समूह पीपुल्स कमीशन ऑन श्रिंकिंग डेमोक्रेटिक स्पेस ने देश में शिक्षा व्यवस्था का हाल जानने के लिए 17 राज्यों में 50 शैक्षणिक संस्थानों के छात्र-छात्राओं और शिक्षकों से बात कर रिपोर्ट जारी की है.

//

मानवाधिकारों से जुड़े समूह पीपुल्स कमीशन ऑन श्रिंकिंग डेमोक्रेटिक स्पेस ने देश में शिक्षा व्यवस्था का हाल जानने के लिए 17 राज्यों में 50 शैक्षणिक संस्थानों के छात्र-छात्राओं और शिक्षकों से बात कर रिपोर्ट जारी की है.

Students-protest-pti
एक विरोध प्रदर्शन के दौरान छात्र (फोटो: पीटीआई)

मानवाधिकारों से जुड़े पीपुल्स कमीशन ऑन श्रिंकिंग डेमोक्रेटिक स्पेस (पीसीएसडीएस) नाम के एक समूह ने देश में शिक्षा व्यवस्था और शैक्षणिक संस्थानों पर हो रहे कथित हमलों की सच्चाई जानने के लिए अप्रैल 2018 में एक समिति (जूरी) का गठन किया गया था.

इस समिति में सेवानिवृत्त जस्टिस होसबेट सुरेश और जस्टिस बीजी. कोल्से पाटिल, प्रोफेसर उमा चक्रवर्ती, अमित भादुड़ी, टीके. ओमन, वासंती देवी, घनश्याम शाह, मेहर इंजीनियर और कल्पना कन्नाबीरान के अलावा वरिष्ठ पत्रकार और द वायर  की पब्लिक एडिटर पामेला फिलिप शामिल थे.

समिति ने 17 राज्यों के 50 विश्वविद्यालयों/संस्थानों के छात्र-छात्राओं और शिक्षकों के अनुभवों और बयानों के आधार पर ‘भारतीय विश्वविद्यालय के परिसरों की घेराबंदी’ नाम की एक रिपोर्ट तैयार की है, जिसे बीते 7 मई को जारी किया गया.

पीसीएसडीएस के संयोजक अनिल चौधरी ने बताया 11 अप्रैल 2018 से 13 अप्रैल 2018 के बीच इन राज्यों से कुल 130 छात्र-छात्राओं और फैकल्टी सदस्यों के बयान लिए गए थे. उन्होंने समिति के सामने अपनी बात रखी.

दिल्ली में कॉन्स्टिट्यूशन क्लब समेत देश के विभिन्न राज्यों में भी इसे जारी किया गया. इस समूह का कहना है कि इस रिपोर्ट में उच्च शिक्षा व्यवस्था में लगातार किए जा रहे बदलाव और शैक्षणिक संस्थानों की संकटपूर्ण स्थिति को उजागर किया गया है.

समिति के समक्ष अपनी बात रखते हुए अहमदाबाद के एचके आर्ट्स कॉलेज के प्रोफेसर हेमंत शाह ने बताया, ‘बीते कुछ सालों में गुजरात में विश्वविद्यालयों की संख्या 15 से बढ़कर 50 से भी अधिक हो गई है. लेकिन उनमें से अधिकतर विश्वविद्यालयों में न तो बिल्डिंग है न प्रोफेसर, न कुलपति और न कर्मचारी.’

प्रोफेसर हेमंत शाह ने बताया कि शिक्षकों की कमी की स्थिति को इसी बात से समझा जा सकता है कि उनसे पूरे कॉलेज के दूसरे सेमेस्टर के छात्र-छात्राओं को एक साथ एक बड़े हॉल में पर्यावरण विज्ञान पढ़ाने के लिए कहा गया था और  उस हॉल की क्षमता 735 व्यक्तियों की थी.

इतनी बड़ी संख्या में बच्चों को एक साथ पढ़वाए जाने की वजह कॉलेज में पर्याप्त शिक्षकों का न होना था, जिसके कारण बच्चों को अलग-अलग ग्रुप में बांटकर पढ़ना मुमकिन नहीं था.

इस रिपोर्ट के संपादक अमित सेन गुप्ता कहते हैं, ‘हमने इन अलग-अलग कहानियों को इस रिपोर्ट में एक साथ लाकर यह दिखाने की कोशिश की है कि देश के विभिन्न कैंपसों की स्थिति कितनी खराब है. संस्थागत और सुनियोजित तरीके से उच्च शिक्षा व्यवस्था को खत्म किया जा रहा है और अगर इस स्थिति को अभी नहीं रोका गया तो तर्क करने वाले, सवाल पूछने वाले, जाति-जेंडर की बेड़ियों को तोड़कर आगे बढ़ने वाले लोग नहीं बचेंगें.’

वे आगे बताते हैं, ‘बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में जब भी इस तरह की कोई घटना घटती है तो वो बात मीडिया में आती है लेकिन ऐसी बहुत-सी घटनाएं हैं जो मीडिया में जगह नहीं बना पाती लेकिन वे बहुत ही गंभीर है. पंजाब विश्वविद्यालय के एक छात्र बूटा सिंह को विरोध करने की सज़ा पुलिस ने पूरी रात जेल में रखकर दी. उस छात्र को बुरी तरह से पीटा गया, गंदी-गंदी गालियां दी गईं.’

Higher Education Report

रिपोर्ट कहती है कि बीते कुछ सालों में विश्वविद्यालयों में फंडिंग में भारी कटौती की गई है, जिसके कारण शिक्षकों की नियुक्ति में कमी और कोर्स फीस में बहुत अधिक बढ़ोतरी हुई है. 

समिति के सामने कुछ ऐसे मामले आए, जिसमें फीस को 5,080 रुपये से बढ़ाकर 50,000 रुपये तक कर दिया गया है और इसके कारण मुख्य रूप से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग  (एससी, एसटी और ओबीसी) छात्रों का ड्रॉप-आउट दर काफी बढ़ गया है.

साथ ही रिपोर्ट में पाया गया कि बीते पांच सालों में प्रवेश प्रक्रिया का केंद्रीकरण हुआ है और नीतिगत परिवर्तनों के माध्यम से संस्थानों के निजीकरण में बढ़ोतरी हुई है. लगातार सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था पर हमला हुआ है और वहीं प्राइवेट संस्थान को बढ़ावा दिया गया.

पटना विश्वविद्यालय के छात्र रमाकांत ने समिति को बताया कि उनके विश्वविद्यालय में शिक्षकों की बहुत कमी है और इसका मुख्य कारण बार-बार फंड में कटौती होना है. उनका कहना है कि उनके विश्वविद्यालय में शिक्षकों की स्थायी नियुक्ति नहीं हुई है और एडहॉक शिक्षक भी हटाए जा रहे हैं. ऐसे में छात्र-छात्राओं को मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.

समिति को यही हाल देश के सबसे बड़े विश्वविद्यालयों में से एक दिल्ली विश्वविद्यालय का भी मिला. रमाकांत यहां के भी छात्र रहे हैं. वे बताते हैं, ‘वहां 5000 पद खाली होने के बावजूद भी सिर्फ एडहॉक पर शिक्षक रखे जाते हैं. बीते कई सालों से सिर्फ एडहॉक शिक्षक ही दिल्ली विश्वविद्यालय को चला रहे हैं.’

रिपोर्ट में बताया गया है कि मोदी सरकार के कार्यकाल में कई जगहों पर इतिहास को बदले जाने, शिक्षा के भगवाकरण और परिसरों के अंदर हिंदुत्ववादी शक्तियों की बढ़ोतरी की ख़बरें सुर्ख़ियों में रहीं. 

कई जगहों पर यह भी सामने आया कि विश्वविद्यालय के प्रमुख पदों पर सरकार के वफादारों की नियुक्ति हो रही है, जिसके कारण विश्वविद्यालयों में सांप्रदायिक मुद्दे बढ़ गए हैं और अल्पसंख्यक समुदायों के लिए भय का माहौल बन गया है. 

वर्धा और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली लड़कियों ने बताया कि किस तरह से उन्हें उत्पीड़न और सेक्सिज़्म के खिलाफ आवाज़ उठाने के कारण प्रशासनिक कार्रवाइयों का शिकार होना पड़ा.

अमित सेन गुप्ता बताते हैं, ‘इन संस्थानों को तीन तरह से खत्म किया जा रहा है, पहला तो प्रशासन में अपने लोगों को बैठा देना और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) जैसे संगठनों को खुली छूट देना. दूसरा, निजीकरण. तीसरा दलित, मुस्लिम छात्र-छात्राओं के खिलाफ नीतियां बनाना और उनके लिए लगातार भेदभावपूर्ण वातावरण बनाना, फीस महंगी करना ताकि पिछड़े तबकों से लोग पढ़ने न आ पाएं.’

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय. (फोटो: पीटीआई)
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय. (फोटो: पीटीआई)

रिपोर्ट में कहा गया है कि टाटा इंस्टीटूट ऑफ सोशल साइंस (टिस) के कुछ कोर्स में फीस छह हज़ार से बढ़ाकर चालीस हज़ार तक कर दी गई जिसके कारण कई पिछड़े तबके से आने वाले छात्र-छात्राओं ने ड्राप आउट किया है.  लगातार दलित अध्ययन और महिला अध्ययन केंद्रों को ख़त्म किया जा रहा है, जिससे इन विषयों पर रिसर्च न हो सके. 

अपने बयानों में कई केंद्रीय विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं ने बताया कि विश्वविद्यालयों में एबीवीपी के सदस्यों द्वारा न ही छात्रसंघ चुनाव निष्पक्ष होने दिए जाते हैं और न ही यूनियनों को ठीक से काम करने दिया जाता है.

एफटीआईआई, जेएनयू, एचसीयू, दिल्ली विश्वविद्यालय, जादवपुर विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, लखनऊ विश्वविद्यालय, बीबीएयू, पंजाब विश्वविद्यालय, टीआईएसएस, गुवाहाटी विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों से कई छात्र-छात्रों और फैकल्टी सदस्यों ने बताया कि दक्षिणपंथी समूहों द्वारा अलग विचारधारा के कई सदस्यों को निशाना बनाया जाता है.

रिपोर्ट के अनुसार, कई बार छात्र-छात्राओं और फैकल्टी सदस्यों की आवाज़ दबाने के लिए उन पर दंगे भड़काने, अशांति फैलाने और राजद्रोह जैसे मामले दर्ज किए जाते है.

रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि मतभेद रखने वाली आवाज़ों का दमन और अपराधीकरण भी बढ़ गया है. विरोध प्रदर्शन करने पर पुलिस द्वारा छात्र-छात्राओं को पिटवाना आम बात हो गई है, साथ ही छात्रों के विरोध को रोकने के लिए कानूनी उपायों का भी भरपूर उपयोग किया गया.

रिपोर्ट में विस्तार से छात्र-छात्राओं और फैकल्टी सदस्यों के ऐसे कई मामलों का ज़िक्र है, जिन्हें विरोध प्रदर्शन का खामियाजा भुगतना पड़ा. इनमें से कई हाशिए के वर्गों से आते हैं.

जादवपुर विश्वविद्यालय के छात्र श्रमन गुहा अपने बयान में तृणमूल कांग्रेस और आरएसएस की छात्र इकाइयों द्वारा गुंडागर्दी की कई घटनाएं बताई हैं. उनका कहना है कि कैंपस में पुलिस बल के साथ आईबी के अधिकारी भी मौजूद रहते हैं और छात्र-छात्राओं को देशद्रोही बताकर टारगेट किया जाता है.

रिपोर्ट में कहा गया है कि शिक्षा के निजीकरण व लगातार फीस में बढ़ोतरी होने से परिसर की सामाजिक संरचना में बदलाव आ गया है. यह समाज के हाशिए पर रह रहे वर्गों को सीधा प्रभावित कर रहा है.

साथ ही शैक्षणिक संस्थान जाति, भाषा, लिंग, धर्म और क्षेत्र के आधार पर परिसर के अंदर और बाहर दोनों ओर से उत्पीड़न और भेदभाव को ख़त्म करने में विफल रहे हैं.

जेएनयू के छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने अपने बयान  में शिक्षा के मकसद पर सवाल उठाया है. उन्होंने कहा, ‘इस देश में ज़्यादातर लोग सिर्फ छोटी-मोटी नौकरी पाने के लिए पढ़ रहे हैं. कोई भी पढ़ने के लिए नहीं पढ़ रहा और न ही शिक्षा के विचार को कोई विश्वविद्यालय सिखाता है. मैं जिस राज्य से आता हूं वहां कोई शिक्षा नहीं दी जा रही, सिर्फ नौकरी पाने के लिए कुछ एक्ज़ाम पास करने की ट्रेनिंग दी जा रही है.’

उन्होंने सबको शिक्षा का समान अधिकार देने की बात करते हुए कहा कि जब तक ये चुनावी पार्टियां जीडीपी का 6% शिक्षा पर लगाने के लिए नहीं तैयार होती तब तक हालात बदलना मुश्किल है. सरकारों को शिक्षा का बजट बढ़ाना होगा.

लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र करुणेश द्विवेदी और अंकित सिंह बाबू बताते हैं कि लखनऊ विश्वविद्यालय में लगातार फीस बढ़ोतरी की जा रही है और स्टूडेंट वेलफेयर फंड का भी उपयोग ठीक जगह नहीं किया जाता था.

वे कहते हैं, ‘हमने इन सब मांगों के साथ प्रदर्शन किया और योगी आदित्यनाथ को काले झंडे दिखाए जिसके कारण हमें 23 दिन जेल में काटने पड़े. हमारे साथ बुरी तरह से मारपीट की गई और जेल में टॉर्चर किया गया. हममें से कइयों को सस्पेंड कर हमारे करिअर को ख़त्म कर दिया गया. हमें हॉस्टल से भी निकला दिया गया.’

रिपोर्ट के अनुसार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति विरोधी नीतियों को लागू किए जाने से छात्र असुरक्षित महसूस करते हैं.

Rohith vemula-protest PTI
(फाइल फोटो: पीटीआई)

हैदराबाद विश्वविद्यालय में आंबेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन के अध्यक्ष सन्नाकी मुन्ना बताते हैं, ‘रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के बाद हमारे संगठन के 50 से अधिक छात्र-छात्राओं को निष्कासित किया गया है. यह रोहित का संगठन है और इसीलिए प्रशासन का दमन इस पर सबसे ज़्यादा है. हैदराबाद विश्वविद्यालय में आरक्षण ठीक से लागू नहीं किया जाता है. पिछड़े वर्गों और जातियों से आने वाले लोगों की संख्या लगातार घट रही है और उनकी आवाज़ उठाने वाले संगठनों को निशाना बनाया जाता है.’

टिस के छात्रसंघ के अध्यख फहाद अहमद भी संस्थान का वही हाल बताते हुए अपने बयान में टिस की बढ़ती हुई फीस (जो 76,000 रुपये प्रति सेमेस्टर तक पहुंच गई है)और फंड में कटौती की बात करते हैं. उनका कहना है कि सुनियोजित तरीके से पिछड़े वर्गों और जातियों से शिक्षा से दूर रखा जा रहा है.

रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली विश्वविद्यालय और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय जैसी जगहों पर यह बात भी सामने आई कि जेंडर के आधार पर हो रहे भेदभाव और यौन उत्पीड़न जैसे मुद्दों पर मुखर रहने वाली छात्राओं को टारगेट किया जाता है और उन्हें प्रशासनिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है.

रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि कई बड़े कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में यौन उत्पीड़न जैसी समस्याओं से निपटने के लिए समीतियां तक नहीं हैं.

दलित मानवाधिकार अभियान के सदस्य अभय फ्लेविया ज़क्सा ने समिति से बात करते हुए कहा, ‘आज के दौर में एसटी/एससी और ओबीसी छात्रों की बौद्धिक लिंचिंग हो रही है. यह तीन तरीकों से किया जाता है- शारीरिक भेदभाव, राजकोषीय भेदभाव और एसटी/एससी व ओबीसी छात्रों के शैक्षिक विकास के लिए बनाई गई नीतियों में बाधाएं खड़ा करना.’

एक उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि आरक्षण के एक नए निर्देश के तहत, मध्य प्रदेश के अमरकंटक में इंदिरा गांधी ट्राइबल नेशनल यूनिवर्सिटी में प्रोफेसरों, सहायक प्रोफेसरों और एसोसिएट प्रोफेसरों के लिए 52 पदों का विज्ञापन दिया गया. हालांकि, एसटी और एससी उम्मीदवारों को एक भी पद नहीं दिया गया है. यह साफतौर पर भेदभाव है.

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के छात्र राकेश विश्वकर्मा कैंपस में जातीय भेदभाव का ज़िक्र करते हैं, ‘कुलपति ने आरएसएस के कार्यक्रम में डेढ़ लाख रुपये खर्च किए है, लेकिन जब छात्र भगत सिंह और आंबेडकर पर कार्यक्रम करना चाहते थे, तो इजाज़त नहीं दी गई और हमें देशद्रोही और अर्बन नक्सल तक कहा गया.’

New Delhi: AISA students protesting against ABVP activists in New Delhi on Wednesday. PTI Photo(PTI2_22_2017_000201A)
दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रदर्शन करते छात्र (फोटो: पीटीआई)

रिपोर्ट में दिए गए कई बयानों से ये बात भी सामने आई कि सांप्रदायिक माहौल के कारण कश्मीरी और पूर्वोत्तर से आने वाले छात्र-छात्राएं असुरक्षित महसूस करते हैं. उन्हें उनकी पहचान के कारण निशाना बनाया जाता है और कोई भी व्यवस्थित क़ानून या नीति न होने के कारण लगातार भेदभाव का सामना करना पड़ता है.

इस समिति में शामिल में उमा चक्रवर्ती ने द वायर  से बातचीत में कहा, ‘कैंपस के भगवाकरण और शिक्षा के निजीकरण के बहुत से अनुभव लोगों ने साझा किए. सांप्रदायिक माहौल इस कदर बढ़ा दिया गया है कि कश्मीरी और पूर्वोत्तर से आने वाले छात्र-छात्रों के लिए स्थिति बहुत खराब हो गई है. वे बहुत असुरक्षित महसूस करते हैं. लेकिन हालात इतने खराब हैं कि एक कश्मीरी छात्र को कैंपस से निकाला गया पर उसके ऊपर इतना दबाव है कि वह अपनी बात तक खुलकर नहीं रख पाया. उसने हमसे कैंपस के बाहर बहुत थोड़े समय के लिए ही बात की.’

अमित सेन गुप्ता कहते हैं, ‘ये नेता नहीं चाहते कि छात्र-छात्राएं समाज की दिक्कतों को जानें और उनके खिलाफ आवाज़ उठाएं, इनका मकसद है कि अधिक से अधिक लोग मार्केट में काम करें वो भी सस्ते दामों पर. ये नहीं चाहते कोई शूद्र आगे बढ़कर प्रोफेसर बने बल्कि इनका मकसद है कि जिसका जो काम इस समाज ने बना दिया है वही करे.’

समिति अपनी रिपोर्ट में इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि भारत में उच्च शिक्षा पर लगातार सुनियोजित हमला किया जा रहा है और बीते चार सालों में यह स्थिति और भी गंभीर हो गई है. समिति ने इसके पीछे का कारण बताते हुए लिखा है कि पढ़े-लिखे शिक्षित नागरिक ही तर्क करते हैं और सरकार से सवाल पूछते हैं, जो वर्तमान सरकार को बिल्कुल गवारा नहीं है.

साथ ही समिति इस निष्कर्ष पर भी पहुंची है कि लगातार फंड में कटौती, फीस बढ़ोतरी और छात्रों की छात्रवृत्ति ख़त्म करने से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग जैसे तबकों से आने वाले छात्रों को विशेष रूप से निशाना बनाया जा रहा है और इन छात्रों को शिक्षा से दूर किया जा रहा है.

समिति ने यह भी पाया कि लगातार विश्वविद्यालयों में हिंदुत्व ताकतों का बढ़ना और पाठ्यक्रम का भगवाकरण करके देश की लोकतांत्रिक मूल्यों और धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को ख़त्म किया जा रहा है. साथ ही बीते चार सालों में सत्ता से सवाल पूछने वाली आवाज़ों का अपराधीकरण और दमन भी बढ़ गया है.

जूरी ने इन कई स्थितियों पर अपनी गंभीर चिंता व्यक्त की है और कहा कि अगर इन्हें तुरंत संबोधित नहीं किया जाता है तो न केवल भारत में उच्च शिक्षा के लिए, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के लिए बहुत बड़ा खतरा है.

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq