उत्तर प्रदेश: पीस पार्टी क्यों अलग-थलग पड़ गई है

गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव में सपा-बसपा को साथ लाने का दावा करने वाली पीस पार्टी शिवपाल यादव की पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है. पार्टी ने 17 लोकसभा सीटों अपने प्रत्याशी उतारे हैं, लेकिन किसी भी सीट पर सफलता तो दूर वह ठीक-ठाक प्रदर्शन करने के प्रति भी आश्वस्त नहीं है.

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पीस पार्टी के प्रमुख डॉ. अयूब. (फोटो साभार: फेसबुक)

गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव में सपा-बसपा को साथ लाने का दावा करने वाली पीस पार्टी शिवपाल यादव की पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है. पार्टी ने 17 लोकसभा सीटों अपने प्रत्याशी उतारे हैं, लेकिन किसी भी सीट पर सफलता तो दूर वह ठीक-ठाक प्रदर्शन करने के प्रति भी आश्वस्त नहीं है.

पीस पार्टी के प्रमुख डॉ. अयूब. (फोटो साभार: फेसबुक)
पीस पार्टी के प्रमुख डॉ. अयूब. (फोटो साभार: फेसबुक)

मार्च 2018 में गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव में सपा प्रत्याशी के रूप में प्रवीण निषाद की जीत के बाद निषाद पार्टी के अध्यक्ष डॉ. संजय निषाद और पीस पार्टी के अध्यक्ष डॉ. अयूब ने कुछ पत्रकारों को बातचीत के लिए बुलाया था.

इस बातचीत में डॉ. अयूब ने विस्तार से बताया कि कैसे वह गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव के लिए सपा प्रमुख अखिलेश यादव व बसपा प्रमुख मायावती को एक प्लेटफॉर्म पर लाने में कामयाब हुए.

उनका कहना था कि किसी को यकीन नहीं था कि गोरखपुर में भाजपा को हराया जा सकता है. बड़ी मेहनत से उन्होंने सपा प्रमुख अखिलेश यादव को समझाया कि यदि वे यहां से निषाद पार्टी को साथ लेकर चुनाव लड़ें और बहन जी समर्थन कर दें तो योगी को उनके गढ़ में ही हराया जा सकता है. ऐसा हुआ तो यूपी की राजनीति बदल जाएगी.

डॉ. अयूब का दावा था कि उन्होंने अखिलेश यादव और मायावती से कई मुलाकातें कीं और आखिरकार बात बन गई.

गोरखपुर से डॉ. संजय निषाद के बेटे प्रवीण निषाद को सपा के सिंबल पर चुनाव लड़ाया गया. बसपा ने समर्थन दिया. निषाद पार्टी और पीस पार्टी ने पूरा जोर लगाया. प्रवीण निषाद जीत गए और एक इतिहास बन गया.

इस बातचीत में डॉ. अयूब ने पूरे विश्वास के साथ दावा किया कि 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा के बीच गठबंधन बनेगा और निषाद पार्टी, पीस पार्टी व कई अन्य छोटे दल साथ आएंगे. इसके बाद यूपी में भाजपा का सफाया हो जाएगा.

डॉ. अयूब बहुत खुश और आत्मविश्वास से भरे नजर आ रहे थे. उन्होंने पूरी बातचीत में अपने को सपा-बसपा गठबंधन का डिजाइनर के बतौर पेश किया.

अब जब लोकसभा चुनाव आया तो सपा-बसपा-रालोद का गठबंधन तो बन गया लेकिन उसमें पीस पार्टी को जगह नहीं मिली. निषाद पार्टी भी ऐन चुनाव के वक्त सपा का साथ छोड़ भाजपा के साथ चली गई.

उपचुनाव में सपा-बसपा को साथ लाने का दावा करने वाली पीस पार्टी आज अलग-थलग पड़ गई है. वह शिवपाल यादव की पार्टी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है, लेकिन उसकी उपस्थिति सांकेतिक ही लग रही है. खुद डॉ. अयूब का मानना है कि यह समय उनके लिए प्रतिकूल है.

पीस पार्टी उत्तर प्रदेश में एक बड़ी संभावना के साथ उभरी थी लेकिन महज 11 साल के राजनीतिक जीवन में वह अलग-थलग पड़ गई है. वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में चार सीट जीतकर सबको चौंका देने वाली पीस पार्टी वर्ष 2017 के चुनाव में सभी सीटें हार गई.

अध्यक्ष डॉ. अयूब और उनके बेटे भी चुनाव हार गए. अब लोकसभा चुनाव में वह 17 सीटों पर चुनाव जरूर लड़ रही है लेकिन वह किसी भी सीट पर सफलता तो दूर ठीक-ठाक प्रदर्शन करने के प्रति भी आश्वस्त नहीं है.

शिवपाल यादव (दाएं) के साथ पीस पार्टी के प्रमुख डॉ. अयूब (बीच में). (फोटो साभार: फेसबुक)
शिवपाल यादव (दाएं) के साथ पीस पार्टी के प्रमुख डॉ. अयूब (बीच में). (फोटो साभार: फेसबुक)

खुद डॉ. अयूब मुस्लिम बहुल सीट डुमरियागंज से चुनाव लड़ने की घोषणा कर पीछे हट गए और फिर यहां से अपने बेटे को चुनाव में उतार दिया. हालांकि वह अपने खुद चुनाव न लड़ने का कारण प्रचार के लिए ज्यादा समय निकालना बता रहे हैं.

पीस पार्टी ने इस चुनाव में 30 लोकसभा सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे लेकिन 13 स्थानों पर उनके उम्मीदवारों के नामांकन खारिज हो गए.

संतकबीरनगर सीट जहां से डॉ. अयूब विधायक हुए थे वहां से उनके उम्मीदवार का पर्चा खारिज हो गया और उन्हें कांग्रेस प्रत्याशी के समर्थन का ऐलान करना पड़ा. पीस पार्टी मुस्लिम बहुल मऊ, घोषी आदि सीटों पर चुनाव लड़ रही है.

पीस पार्टी बनने की कहानी

पीस पार्टी के बनने और उसके पूर्वी उत्तर प्रदेश में उभरने की कहानी बहुत दिलचस्प है. डॉ. अयूब गोरखपुर जिले के बड़हलगंज में सर्जन थे और यहां जोहरा अस्पताल को संचालित कर रहे थे.

डॉ. अयूब की इस कारण शोहरत थी कि वह एक दिन में दर्जनों ऑपरेशन करते थे. ये ऑपरेशन ज्यादातर पेट में पथरी के होते थे. तराई क्षेत्र में भारी पानी के कारण पेट में पथरी के मरीज बहुत मिलते हैं.

अपने जोहरा अस्पताल और पथरी के ऑपरेशनों के कारण डॉ. अयूब को खूब शोहरत और पैसा मिला. उनके बारे में कई तरह की बातें सुनी जाने लगीं जैसे कि रिकॉर्ड ऑपरेशन के कारण उनका नाम गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज हो गया है हालांकि कभी इसका ठोस प्रमाण देखने को नहीं मिला लेकिन आम लोगों में उनकी एक विशेष छवि बन गई.

बड़हलगंज गोरखपुर जिले के चिल्लूपार विधानसभा क्षेत्र में आता है और यहां से बाहुबली नेता पूर्व मंत्री हरिशंकर तिवारी लगातार जीतते रहे थे. तिवारी और उनके लोगों से किसी बात पर डॉ. अयूब की ठन गई.

इसी कस्बे के निवासी पत्रकार राजेश त्रिपाठी चिल्लूपार की राजनीति में हरिशंकर तिवारी के वर्चस्व को पहले से चुनौती दे रहे थे. उन्हें डॉ. अयूब का साथ मिला.

राजेश त्रिपाठी बड़हलगंज कस्बे में घाघरा नदी के तट पर अंत्येष्टि स्थल को ‘मुक्ति पथ’ के रूप में बदलकर काफी चर्चित हो गए थे. मुक्ति पथ बनवाने के लिए उन्होंने पूरे जिले में चंदा एकत्र किया.

पैसा जुटाने के लिए वह थाईलैंड भी गए क्योंकि इस इलाके के लोग बड़ी संख्या में वहां रहते हैं. जनसहयोग से अंत्येष्टि स्थल पर घाट, विश्राम स्थल, महाकाल मंदिर आदि के बनाने से लोग उन्हें ‘मुक्तिपथ वाले बाबा’ कहने लगे.

वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में राजेश त्रिपाठी चिल्लूपार से चुनाव लड़ गए. उन्हें बसपा ने टिकट दिया. उन्होंने इस सीट से अजेय समझे जाने वाले हरिशंकर तिवारी को हरा दिया. चुनाव में डॉ. अयूब ने उनकी भरपूर मदद की थी.

हालांकि इस चुनाव में एक और शख्स ने पर्दे के पीछे से राजेश त्रिपाठी की मदद की. वह थे योगी आदित्यनाथ. उन्होंने चिल्लूपार क्षेत्र में बीजेपी प्रत्याशी के पक्ष में कोई सभा नहीं की क्योंकि इससे राजेश त्रिपाठी को नुकसान हो सकता था.

योगी ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उनकी हरिशंकर तिवारी से कट्टर राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता है जबकि डॉ. अयूब ने राजेश की मित्र के नाते मदद की.

राजेश त्रिपाठी, डॉ. अयूब और उनके चंद युवा साथियों में एक कॉमन बात यह थी कि ये सभी पंडित हरिशंकर तिवारी के उत्पीड़न के शिकार थे और वे उन्हें हराने के लिए एकजुट हुए थे.

पीस पार्टी के प्रमुख डॉ. अयूब. (फोटो साभार: फेसबुक)
पीस पार्टी के प्रमुख डॉ. अयूब. (फोटो साभार: फेसबुक)

राजेश त्रिपाठी 2012 का विधानसभा चुनाव भी जीते. वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में वह भाजपा में शामिल हो गए. इस चुनाव में वह हरिशंकर तिवारी के बेटे विनय शंकर तिवारी से हार गए.

वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में पूर्वांचल की राजनीति में परिवर्तनकारी समय था. इस चुनाव में योगी आदित्यनाथ पहली बार ताकतवर होकर उभरे. उन्होंने अपनी निजी सेना हिंदू युवा वाहिनी से जुड़े पांच कार्यकर्ताओं को न सिर्फ भाजपा से टिकट दिलवाया बल्कि उन्हें जिता भी दिया.

दूसरा महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम यह था कि गोरखपुर ही नहीं पूर्वांचल की ब्राह्मण राजनीति के केंद्र पंडित हरिशंकर तिवारी चिल्लूपार विधानसभा क्षेत्र से लगातार छह चुनाव जीतने के बाद पत्रकार राजेश त्रिपाठी से हार गए और उनकी पकड़ पूर्वांचल की राजनीति में कमजोर होने लगी.

राजेश त्रिपाठी की जीत से डॉ. अयूब को बहुत गहरे से जनता में परिवर्तन की छटपटाहट का एहसास हुआ. इस घटना के बाद डॉ. अयूब ने वर्ष 2008 में पीस पार्टी का गठन किया.

यह वह समय था जब पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में पिछड़े मुसलमानों में अच्छा आधार रखने वाली नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी संकटग्रस्त हो चुकी थी. इस पार्टी को बसपा से निकाले गए डॉ. मसूद ने बनाई थी लेकिन आगे चलकर यह दो भागों में बंट गई और मोहम्मद अरशद खान (जौनपुर से पूर्व विधायक) इससे अलग हो गए.

पीस पार्टी के गठन के बाद कुछ अखबारों में खासकर अल्पसंख्यकों के बीच ज्यादा लोकप्रिय उर्दू अखबारों में डॉ. अयूब के बड़े-बड़े विज्ञापन छपने लगे. इसमें डॉ. अयूब को बड़ी भीड़ को संबोधित करते दिखाया जाता था और इसमें वह भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का आह्वान करते थे.

वह देश के लिए दो बड़ी समस्याएं बताते- भ्रष्टाचार व एड्स और पीस पार्टी को इसका खात्मा करने के लिए गठित होना बताते. इन विज्ञापनों और पिछड़े मुस्लिम बहुल इलाकों खलीलाबाद, मेंहदावल, बांसी, डुमरियागंज, हाटा, पडरौना, पथरदेवा आदि स्थानों पर उनकी कुछ रैलियों ने अच्छा असर डाला.

पहला काम यह हुआ कि नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी का कैडर और जनाधार पीस पार्टी में शिफ्ट हो गया. इसी वक्त बाटला हाउस एनकाउंटर हुआ. इस घटना ने पूर्वांचल के मुसलमानों को जबर्दस्त तरीके से झकझोरा. इस घटना ने अल्पसंख्यकों के कांग्रेस, सपा, बसपा जैसे मुख्य राजनीतिक दलों से मोहभंग को और बढ़ाया.

आतंकवाद के नाम पर बेकसूर युवा मुसलमानों के उत्पीड़न पर चुप्पी साधे रहने वाले इन दलों से अलग हटकर कुछ नया करने की मुस्लिमों के बीच बहस और मंथन चलने लगा था. तभी लोकसभा चुनाव आ गए और इस चुनाव में सपा मुखिया मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह से गठबंधन कर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी. इसकी मुस्लिम समाज में जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई.

पीस पार्टी को अपने गठन के एक वर्ष बाद ही 2009 के लोकसभा चुनाव में भागीदारी करने का मौका मिला. पीस पार्टी ने 20 सीटों पर प्रत्याशी खड़े किए. उन्हें करीब एक फीसदी मत मिले लेकिन खलीलाबाद, डुमरियागंज सहित कुछ अन्य स्थानों पर उनकी पार्टी को मिले वोट से लोग चौंक गए.

(फोटो साभार: फेसबुक)
(फोटो साभार: फेसबुक)

खलीलाबाद में उनका प्रत्याशी एक लाख से ज्यादा वोट पा गया तो डुमरियागंज में भी उसके वोट 80 हजार से ज्यादा थे. इसके बाद तो पीस पार्टी चल निकली. प्रदेश में 2010 में कई स्थानों पर हुए उपचुनावों में पार्टी को बहुत अच्छा वोट मिला.

डुमरियागंज और लखीमपुर में पीस पार्टी को कांग्रेस और सपा से भी अधिक वोट मिले. इन दोनों चुनावों में डॉ. अयूब ने उम्मीदवारों के चयन में सतर्कता बरती थी और मुस्लिम बहुल इलाकों में भी मुस्लिम प्रत्याशी के बजाय दूसरी जातियों के लोगों को टिकट दिया था. उनका गणित मुसलमान विशेषकर पिछड़ा मुसलमान, अति पिछड़े और प्रत्याशी के जाति का जोड़ था.

इस चुनाव में डॉ. अयूब भ्रष्टाचार और एड्स को ही देश की सबसे बड़ी समस्या बताते हुए चुनाव प्रचार कर रहे थे. इस चुनाव में सपा, बसपा व अन्य दलों द्वारा आरोप लगाया जा रहा था कि पीस पार्टी को आरएसएस-भाजपा ने ही खड़ा किया है.

वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान मेरी डॉ. अयूब से उनके बड़हलगंज स्थित नर्सिंग होम में मुलाकात हुई. उन्होंने देश की बड़ी समस्या के बतौर भ्रष्टाचार और एड्स को बताया.

एड्स कैसे देश का सबसे बड़ा राजनीतिक सवाल है, इस पर वह कुछ बोल नहीं पाए. भाजपा और संघ द्वारा पीस पार्टी को खड़ा किए जाने के सवाल पर वह चिढ़े नहीं और उनका जवाब था कि उनके लिए कांग्रेस और सपा दुश्मन नंबर एक हैं, भाजपा नहीं. उस वक्त उनके पास आजमगढ़ के कई युवा बैठे हुए थे. हालांकि इस इंटरव्यू में उन्होंने बाटला हाउस एनकाउंटर पर कुछ नहीं बोला.

2012 में यूपी की पांचवीं सबसे बड़ी पार्टी बन गई थी पीस पार्टी

2009 के लोकसभा और 2010 के विधानसभा उपचुनाव में अच्छा वोट पाने से चुनाव लड़ने के इच्छुक नेता पीस पार्टी की ओर आकर्षित हुए. 2012 के विधानसभा चुनाव में पीस पार्टी में शामिल होने के लिए दूसरे दलों और चुनाव लड़ने के इच्छुक नए लोगों की होड़ लग गई.

ऐसे लोगों में रिटायर्ड नौकरशाहों से लेकर दबंग राजनेता तक थे. पीस पार्टी ने सभी को स्वीकार कर लिया. उनकी पार्टी प्रदेश के 403 सीटों में से 208 स्थानों पर चुनाव लड़ गई. पार्टी चार सीटों पर जीत गई हालांकि 25-30 सीटों पर चुनाव जीतने के दावे किए जा रहे थे.

इस चुनाव में पार्टी को 4.54 फीसदी (17,84,258) डॉ. अयूब संतकबीरनगर की खलीलाबाद सीट से विधायक बन गए तो डुमरियागंज से मलिक कमाल युसूफ, रायबरेली से दबंग नेता अखिलेश सिंह और कांठ (मुरादाबाद) से अनिसुर्रहमान चुनाव जीते.

निषाद पार्टी के प्रमुख संजय निषाद के साथ पीस पार्टी के प्रमुख डॉ. अयूब. (फोटो साभार: फेसबुक)
निषाद पार्टी के प्रमुख संजय निषाद के साथ पीस पार्टी के प्रमुख डॉ. अयूब. (फोटो साभार: फेसबुक)

डॉ. अयूब हमेशा छोटे दलों को मोर्चा बनाने की कोशिश करते रहे. उन्होंने एक बार अपना दल, बुंदेलखंड कांग्रेस, परिवर्तन मोर्चा, भारतीय लोकहित पार्टी और अति पिछड़ा महासंघ से मिलाकर गठबंधन बनाया.

इसके पहले उन्होंने ओम प्रकाश राजभर की भारतीय समाज पार्टी और अमर सिंह के लोकमंच से गठबंधन बनाया. यह गठबंधन टूटा तो अजीत सिंह की रालोद से नाता जोड़ा. अजीत सिंह कांग्रेस के साथ चले गए तो नया गठबंधन बना.

वर्ष 2012 के चुनाव डॉ. अयूब हेलीकॉप्टर से दौरा कर रहे हैं. उनकी सभाओं में अच्छी-खासी भीड़ होती थी. सभाओं में बड़ी संख्या में मुसलमान उनको सुनने आते थे. अपने भाषणों में वह मुस्लिमों के बीच शिक्षा, आरक्षण की बात करते और कांग्रेस को भाजपा से भी ज्यादा सांप्रदायिक बताते थे.

दागियों को पार्टी में लिए जाने पर वह सफाई देते हैं कि उन्हें अपनी जान का खतरा है और हमला हो चुका है. अपने मिशन को पूरा करने के लिए उन्हें ऐसी ताकतों की जरूरत है. सत्ता में आने पर वह ऐसी ताकतों का सदुपयोग कर दिखा देंगे.

2017 में सभी सीट पर हार

डॉ. अयूब 2012 में मिली सफलता का सदुपयोग नहीं कर सके. चुनाव बाद डॉ. अयूब को छोड़ उनके सभी विधायक इधर-उधर चले गए. वह पूरे पांच वर्ष पसमांदा मुसलमानों (जिनका सर्वाधिक समर्थन उन्हें मिल रहा था) के लिए संघर्ष का कोई रोडमैप नहीं बना पाए.

2014 का लोकसभा चुनाव पार्टी 51 स्थानों से चुनाव लड़ी लेकिन किसी भी सीट पर सफलता नहीं मिली. उसे 0.25 फीसदी (5,18,724) वोट मिले. डॉ. अयूब डुमरियागंज से चुनाव लड़े. उन्हें 99,242 मत मिले और वह चौथे स्थान पर रहे. मुस्लिम मतों के विभाजन के वजह से भाजपा जीत गई.

इस हार से उन्हें झटका लगा. वर्ष 2017 के चुनाव में उन्होंने निषाद पार्टी से गठबंधन बनाया और नारा दिया कि मुसलमान व निषाद मिलकर यूपी में सरकार बनाएंगे. चुनाव में निषाद पार्टी को अच्छा वोट (72 सीटों पर 5,40,339 मत) मिला लेकिन पीस पार्टी मुसलमानों का वोट पाने में नाकाम रही. उसे 68 सीटों पर सिर्फ 1.56 फीसदी यानी 2,27,998 वोट मिले.

खुद डॉ. अयूब खलीलाबाद से और बेटे इंजीनियर मो. इरफान मेंहदावल से हार गए.

दो चुनाव में मिली असफलता से पीस पार्टी हाशिये पर जाने लगी लेकिन लोकसभा उपचुनाव में गोरखपुर में मिली जीत से उसे उम्मीद जगी कि अब उसे मुख्यधारा की राजनीति में आने का मौका मिलेगा लेकिन सपा-बसपा गठबंधन ने उन्हें किनारे लगा दिया.

गठबंधन से किनारे लगाए जाने पर उन्होंने कांग्रेस से बातचीत शुरू की. वह कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी से दो बार मिले लेकिन अत्यधिक सीटों की मांग के कारण बात नहीं बनी.

पीस पार्टी एक दर्जन से अधिक सीटों की मांग कर रही थी. कांग्रेस चाहती थी कि निषाद पार्टी और पीस पार्टी दोनों एक साथ कांग्रेस से गठबंधन करें तो उन्हें ज्यादा सीट दी जा सकती है लेकिन निषाद पार्टी की कांग्रेस के साथ आने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसे भरोसा था कि सपा-बसपा गठबंधन उन्हें कम से कम दो सीट तो दे ही देगा लेकिन जब उसे एक से ज्यादा सीट मिलती नजर नहीं आई तो वह भाजपा के साथ चली गई.

अब पीस पार्टी अकेले पड़ गई. अलग-थलग पड़ता देख उसने शिवपाल यादव की पार्टी के साथ गठजोड़ कर लिया. डॉ. अयूब ने बातचीत में माना कि पीस पार्टी के लिए यह प्रतिकूल समय है.

वह कहते हैं कि यदि सपा-बसपा ने उन्हें साथ लिया होता तो निषाद पार्टी भी भाजपा के साथ नहीं जाती. यदि आज इस कारण मुस्लिम, निषाद, दलित व अति पिछड़े वोटों में बंटवारा हो रहा है तो वह इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं.

(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)