झारखंड का एक गांव, जहां कहीं आने-जाने के लिए सेना की लेनी होती है अनुमति

ग्राउं​ड रिपोर्ट: झारखंड की राजधानी रांची के नज़दीक स्थित सुगनू गांव के लोगों को आर्मी कैंप की वजह से कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है.

चिलिया देवी अपने बच्चों के साथ ​बेटी की शादी का वो कार्ड दिखाती हुईं, जिसके कवर पेज पर लिखा हुआ है कि सुगनू गांव जाने वाले दोपहिया वालों के लिए पहचान पत्र के साथ-साथ हेलमेट आवश्यक है. (फोटो: असग़र ख़ान)

ग्राउंड रिपोर्ट: झारखंड की राजधानी रांची के नज़दीक स्थित सुगनू गांव के लोगों को आर्मी कैंप की वजह से कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है.

चिलिया देवी अपने बच्चों के साथ बेटी की शादी का वो कार्ड दिखाती हुईं, जिसके कवर पेज पर लिखा हुआ है कि सुगनू गांव जाने वाले दोपहिया वालों के लिए पहचान पत्र के साथ-साथ हेलमेट आवश्यक है. (फोटो: असग़र ख़ान)
चिलिया देवी अपने बच्चों के साथ बेटी की शादी का वो कार्ड दिखाती हुईं, जिसके कवर पर लिखा हुआ है कि सुगनू गांव जाने वाले बाइक सवार के लिए पहचान पत्र के साथ-साथ हेलमेट लगाना आवश्यक है. (फोटो: असग़र ख़ान)

रांची: ‘एक तो गांव में कोई शादी नहीं करना चाहता. कितनी मुश्किल से बेटी का ब्याह किए हैं, क्या बताएं. अब उसका पति कहता है कि इस गांव में शादी करके फंस गए हैं.’ चिलिया देवी की यह चिंता और उनके गांव की अन्य मांओं की तरह ही है, जिनकी बेटियां शादी करने लायक हो गई हैं.

झारखंड की राजधानी रांची के कोकर चौक से पांच किलोमीटर दूर पूरब में सुगनू गांव पड़ता है. यहां तकरीबन डेढ़ हजार घर हैं और गांव में सड़क, बिजली, पानी भी, पर आर्मी कैंप की चहारदीवारी से घिरे इस गांव को शहर से जोड़ने वाली अपनी कोई सड़क नहीं है.

चिलिया देवी इसी गांव की रहने वाली हैं. इन दिनों उन्हें और उनके पति मंगरू मुंडा को अपनी नवविवाहित पुत्री सुखवंती की चिंता सता रही है.

कच्चे मकान के द्वारी (दरवाजा) पर खड़ी चिलिया देवी शादी का कार्ड दिखाते हुए कहती हैं, ‘बीते 26 अप्रैल को मेरी बेटी की शादी थी. हमने कार्ड भी आर्मी वालों के मुताबिक ही छपवाया और उन्हें दे भी दे दिया था. लेकिन फिर भी बारात के दिन सेनावालों ने गाड़ियों को अंदर (प्रवेश) आने नहीं दिया.’

वे कहती हैं. ‘बारातवालों को काफी परेशानी हुई. उन्हें पांच किलोमीटर घूमकर खेत खलिहान के रास्ते आना पड़ा और बारात दो घंटे देर से दरवाजे पर पहुंची. इससे मेहमान (दामाद) और उनके रिश्तेदार काफी नाराज हैं. पता नहीं वे अब सुखवंती को लेकर सुगनू आएंगे भी या नहीं.’

मेहमान की नाराजगी और उनकी बात चिलिया देवी और उनके पति दिमाग में घर कर गई है. तीन बेटे और एक बेटी के इस परिवार की परेशानी अकेली नहीं, बल्कि पूरे गांव के लोग इस तरह की और कई अन्य समस्याओं से पिछले कई सालों से दो-चार हो रहे हैं.

झारखंड के सुगनू गांव जाने के लिए इसी आर्मी चेक पोस्ट से गुज़रना होता है. (फोटो: असग़र ख़ान)
झारखंड के सुगनू गांव जाने के लिए इसी आर्मी चेक पोस्ट से गुज़रना होता है. (फोटो: असग़र ख़ान)

सुगनू गांव डुमरदगा पंचायत में आता है, जो रांची के कांके प्रखंड में है. रांची-हजारीबाग राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 33 से गांव को जोड़ने वाला दो किलोमीटर का रास्ता दीपाटोली मिलिट्री कैंप के अधीन है.

सेना के अनुसार छपवाना पड़ता है शादी का कार्ड

गांववालों के मुताबिक जितनी बार भी वे शहर आते-जाते हैं उन्हें पहचान पत्र के तौर पर आधार कार्ड, वोटर आईडी या फिर ड्राइविंग लाइसेंस दिखाना पड़ता है.

अगर आप मोटरसाइकिल से हैं तो चालक के अलावा पीछे बैठने वाले व्यक्ति के लिए भी हेलमेट अनिवार्य हैं अन्यथा उसे प्रवेश नहीं करने दिया जाता है. शादी-ब्याह की जानकारी सेना को पहले से ही देनी पड़ती है और कार्ड के कवर पेज पर दोपहिया वालों के लिए हेलमेट लगाना अनिवार्य है- लिखवाना पड़ता है.

कई बार पूछताछ और चेकिंग के बाद हमें गांव जाने की एंट्री मिल सकी.

सुबह के नौ बजे थे, आर्मी कैंप की पिच वाली चौड़ी सड़क से बायीं तरफ मुड़कर कच्ची सड़क पर 200 मीटर और चलने के बाद मिलिट्री कैंप का चेक पोस्ट ख़त्म हो जाता है.

यहीं से गांव की सीमा शुरू हो जाती है. दोपहिया सवार लोग हेलमेट लगाए हुए आ-जा रहे हैं. भोला पाहन नाम के शख्स बाइक पर अपनी 12 साल की बेटी को लेकर रांची से गांव लौटे ही हैं.

भोला पाहन कहते हैं, ‘हम लोग आजाद नहीं हैं. यहां कोई लड़की देना नहीं चाहता और न ही लड़का. छेंका (रिश्ते करने वाला) वाले आते हैं, लेकिन गेट पर जवानों का जैसा रवैया रहता है, यहां से लौटने के बाद कभी नहीं आते.’

शादी का कार्ड जिस पर सेना के निर्देशानुसार दोपहिया वाहनों के लिए नियम प्रकाशित करवाना जरूरी होता है. (फोटो: असग़र ख़ान)
शादी का कार्ड जिस पर सेना के निर्देशानुसार दोपहिया वाहनों के लिए नियम प्रकाशित करवाना जरूरी होता है. (फोटो: असग़र ख़ान)

वे कहते हैं, ‘कोई रिश्तेदार आ गया तो उसे लाने के लिए हम लोगों को गेट पर अपना पहचान पत्र लेकर जाना पड़ता है. जवानों से कहना पड़ता है कि सर, इन्हें आने दीजिए ये हमारे रिश्तेदार हैं. गांव में ऑटो या रिक्शा कुछ नहीं आता है. खुद बीमार हैं या किसी मरीज को अस्पताल ले जाना है तो हेलमेट पहनाकर मोटरसाइकल से ले जाना मजबूरी है.’

जेल कहकर कोई रिश्ता नहीं करता

गांववालों का कहना है कि जब कोई रिश्तेदार या मेहमान गांव में आता है तब उन्हें सेना की सख्ती बहुत खलती है. क्योंकि मेहमानों के द्वारा पहचान पत्र दिखाने के बावजूद उन्हें आने नहीं दिया जाता है, जब तक कि गांव से उनका कोई परिचित अपना पहचान पत्र लेकर गेट पर उन्हें लेने नहीं पहुंच जाता.

गांववालों के अनुसार, इन्हें इस तरह की परेशानियों का सामना पिछले सात-आठ सालों से करना पड़ रहा है. हालांकि इससे पहले भी गांववाले इसी रास्ते से आना-जाना करते थे, लेकिन ऐसी दुश्वारियां नहीं थीं और न ही विदेशियों की तरह उन्हें चेकिंग से गुजरना पड़ता था.

सड़क के सवाल पर गांव के मुखिया जुगुन मुंडा कहते है, ‘लोगों की जिंदगी कैदियों जैसी हो गई है. सड़क की समस्या को लेकर नेता, सांसद, विधायक सबसे गुहार-मांग की, लेकिन बात सिर्फ आश्वासन तक आकर सिमट जाती है.’

आगे अंदर की तरफ कई छोटे-छोटे टोले हैं. डाडी टोला में एक घर के पास महिला समिति की बैठक के लिए महिलाओं का एक झुंड इकट्ठा हुआ है.

सुगनू गांव में महिला समिति की बैठक के लिए जमा हुईं महिलाएं. (फोटो: असग़र ख़ान)
सुगनू गांव में महिला समिति की बैठक के लिए जमा हुईं महिलाएं. (फोटो: असग़र ख़ान)

इसी झुंड में शामिल पोको देवी गांव की हालत पर चिंता जाहिर करने लगती हैं. बात करने पर इनकी चिंता भी बेटियों को लेकर चिलिया देवी जैसी ही मालूम पड़ती है.

पोको देवी के पति खेतिहर मजदूर हैं. इनकी दो बेटियां और एक बेटा है. इन्होंने पांच साल पहले एक बच्ची की शादी बहुत मुश्किल से की है, दूसरी बेटी की शादी के लिए उनकी मुश्किलें बीते पांच सालों में और बढ़ गई हैं.

वे नाराजगी जाहिर करते हुए कहती हैं, ‘मिलिट्री वाला किसी को आने-जाने नहीं देता है. हम लोगों के बेटी-बेटा ऐसे ही बूढ़े हो रहे हैं. नया रिश्ता लेकर गांव कोई आ नहीं रहा है. गांव जेल जैसा है, लोग ऐसा बोलते हैं.’

बिना पहचान पत्र आने की अनुमति नहीं

गांव की रीमा ने इस बार रांची के वीमेंस कॉलेज से 12वीं की परीक्षा पास की है. आगे की पढ़ाई भी करना चाहती हैं लेकिन कॉलेज जाने के लिए रोज मिलिट्री कैंप के गेट पर दिए जाने वाले इम्तेहान से तंग आ गई हैं.

वे कहती है, ‘एक बार मेरा आधार कार्ड कॉलेज में छूट गया था. मिलिट्री वाले मुझे अंदर आने नहीं दे रहे थे. मैंने उनसे कहा कि मैं सुगनू गांव की हूं, रोज आती जाती हूं, पहचान पत्र आज छूट गया है, जाने दीजिए. लेकिन उनका जवाब था कि पहचान पत्र छूट गया तो बाहर ही रहो. बहुत कहने के बाद मुझे उन लोगों ने जाने दिया. कभी-कभी लगता है कि रोज की परेशानियों से बेहतर है कि पढ़ाई ही छोड़ दूं.’

गांव में आठवीं तक का ही स्कूल है. दसवीं और बारहवीं की पढ़ाई के लिए लड़के-लड़कियों को रांची ही जाना पड़ता है. इसलिए इन्हे फोटोयुक्त पहचान पत्र को साथ ले जाना जरूरी होता है.

यहां कई लोग दिहाड़ी मजदूरी कर परिवार का पालन-पोषण करते हैं. गांववालों को मजदूरी से लेकर हर छोटी-बड़ी जरूरतों के लिए मिलिट्री (शहुरया द्वार, दीपाटोली मिलिट्री स्टेशन) के बने रास्ते ही अपनी जरूरत पूरी करनी पड़ती है. उनके मुताबिक जिस दिन मिलिट्री के सीनियर ऑफिसर आते हैं, उन्हें घंटों गेट पर रोक दिया जाता है.

इस बारे में सेना का पक्ष लिया गया, लेकिन उन लोगों ने इसे रिकॉर्ड करने या लिखने की अनुमति नहीं थी.

आर्मी कैंप से लगा सुगनू गांव की ओर जाने वाला रास्ता. (फोटो: असग़र ख़ान)
आर्मी कैंप से लगा सुगनू गांव की ओर जाने वाला रास्ता. (फोटो: असग़र ख़ान)

जो बातचीत हुई उससे उनका पक्ष कुछ इस तरह का था, ‘सड़क देना हमारी जिम्मेदारी नहीं, बल्कि सरकार की है. यहां से मानवता के आधार पर ही उन्हें आने जाने दिया जाता है. सड़क आर्मी कैंप की है. चेकिंग की प्रक्रिया बहुत नॉर्मल होती है. ये सबके साथ है. चेकिंग सिविलियन से लेकर आर्मी के स्पेशल ऑफिसर तक की होती है. यह सब सुरक्षा के दृष्टिकोण से किया जाता है. आज तक किसी भी सिविलियन को रोका नहीं गया है. सरकार ने जब सुगनू गांव में जमीन दी थी, तो उन्हें सुगनूवालों को रास्ता भी देना चाहिए था.’

2009 में गांववालों ने किया था लोकसभा चुनाव का बहिष्कार

हालांकि गांववाले भी यह मानते हैं कि उनके साथ कभी कोई बदसलूकी नहीं की गई है, लेकिन खुद की आजादी को लेकर उनके सवाल भी हैं. गांववालों का कहना है कि देश जब आजाद है और यह गांव भी किसी देश के बॉर्डर से नहीं लगता है तो हमें बार-बार क्यों भारतीय होने का प्रमाण देना पड़ता है?

यही सवाल गांव के मुखिया जुगुन मुंडा के भी हैं. वे कहते हैं, ‘यहां कभी कोई घटना नहीं घटी, न ही उग्रवादी या आतंकवादियों का इस गांव में कोई डर है. फिर भी चीन और पाकिस्तान के बार्डर जैसा व्यवहार गांववालों के साथ क्यों होता है.’

उन्होंने कहा, ‘साल 1932 के वीलेज मैप में सुगनू गांव का रास्ता यही (आर्मी कैंप वाला रास्ता) दिखाता है. वर्षों से इसी रास्ते से गांववाले आते-जाते रहे हैं. 1974 में यहां मिलिट्री कैंप के लिए जमीन अधिग्रहण की गई थी. लेकिन गांववालों के आने-जाने पर कभी कोई प्रतिबंध या रोक नहीं लगाई गई.’

मुखिया कहते हैं, ‘2010-11 तक लोगों को आने-जाने में किसी तरह की परेशानी नहीं हुई, लेकिन इसके बाद यह चेकिंग की प्रक्रिया शुरू हो गई. 2017 में आर्मी वालों ने चारों तरफ से बाउंड्री बना दिया और गांव चहारदीवारी में कैद हो गया. जब मैंने उनके अधिकारियों से कहा कि अगर आप हमारे रास्ते बंद कर रहे हैं तो कोई वैकल्पिक रास्ता दीजिए. ऐसा कानून भी कहता. लेकिन वो कहते हैं कि सरकार से मांगिए, हम नहीं देंगे.’

सुगनू गांव के मुखिया जुगुन मुंडा. (फोटो: असगर ख़ान)
सुगनू गांव के मुखिया जुगुन मुंडा. (फोटो: असगर ख़ान)

आर्मी कैंप सात किलोमीटर में फैला हुआ है. इसके इर्द-गिर्द बुटी मोड़ के बाजार, खेलगांव समेत शहर के कई स्कूल और मोहल्ले लगते हैं.

गांव के लोग स्वतंत्र सड़क की मांग को लेकर 2009 में लोकसभा चुनाव का बहिष्कार भी कर चुके हैं. रांची से भाजपा के पांच बार सांसद रहे 77 वर्षीय रामटहल चौधरी की ससुराल इसी गांव में है. उनका मानना हैं कि मिलिट्रीवालों का रवैया गांववालों पर जुल्म की तरह है और यह मानवाधिकार का उल्लंघन भी है.

गांव के लिए स्वतंत्र सड़क दिलाने के प्रयास पर रामटहल चौधरी केंद्र और राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार पर आरोप लगाते हुए कहते है, ‘मैंने बीसों बार इस मुद्दे को संसद में उठाया. सरकार की तरफ से कोई कोशिश ही नहीं की गई. जो थोड़ी बहुत गांववालों को छूट मिली हुई है उसके लिए बहुत लड़ाई की है मैंने. पहले यहां मिलिट्रीवाले घर तक नहीं बनाने देते थे.’

गांव में पहली बार किसी मुख्यमंत्री का दौरा

आयुसीमा के आधार पर 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए रामटहल चौधरी का टिकट काट दिया गया. लेकिन वो नहीं माने और भाजपा के ही खिलाफ चुनावी मैदान में निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर मोर्चा खोल दिया.

खास बात यह है कि भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़कर जीतने वाले संजय सेठ के लिए मुख्यमंत्री रघुबर दास 28 अप्रैल को वोट मांगने गांव आए थे. इससे पहले कभी किसी मुख्यमंत्री ने सुगनू गांव का दौरा नहीं किया था.

गांव के लोग बताते हैं कि उन्होंने एक छोटी सभा की थी. रांची में 6 मई को वोट डाले गए थे. सुगनू गांव में कोईरी, कुर्मी, आदिवासी, साहू से लगभग छह हजार वोटर हैं. कांग्रेस के प्रत्याशी सुबोधकांत सहाय ने यहां कोई चुनावी सभा नहीं की थी.

सुगनू गांव में सीएम के साथ-साथ मौजूद रहे स्थानीय विधायक और भाजपा नेता जीतू चरण राम कहते हैं, ‘सड़क का मुद्दा 35 साल पुराना है, न कि पांच पहले का. रोड के लिए हमने बहुत लड़ाई लड़ी है. गांववाले स्वतंत्र रूप से आ-जा नहीं सकते हैं. माननीय मुख्यमंत्री साहब ने कहा था कि उनके (आर्मी) हायर अथॉरिटी और सिविलियन के साथ बैठकर सड़क के मुद्दे को हल किया जाएगा.’

सांसद और विधायक के अनुसार उनकी लड़ाई भी सुगनू गांव को अब तक आजादी नहीं दिला पाई है. अब गांववालों के मुताबिक मुख्यमंत्री के वादे के बाद उन्हें उम्मीद है कि जल्द ही सड़क भी मिल जाएगी और आजादी भी.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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