केंद्रीय सूचना आयोग में करीब 32 हज़ार अपील और शिकायतें लंबित, पिछले दो सालों में सर्वाधिक

कार्यकर्ताओं का कहना है कि मोदी सरकार को सूचना का अधिकार क़ानून में संशोधन करने के बजाय सूचना आयोगों में आयुक्तों की नियुक्ति करनी चाहिए ताकि आरटीआई क़ानून और मज़बूत बने.

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कार्यकर्ताओं का कहना है कि मोदी सरकार को सूचना का अधिकार क़ानून में संशोधन करने के बजाय सूचना आयोगों में आयुक्तों की नियुक्ति करनी चाहिए ताकि आरटीआई क़ानून और मज़बूत बने.

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नई दिल्ली: सूचना का अधिकार कानून में संशोधन करने की कोशिश और इससे संबंधित बहसों के बीच केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) में इस समय अपील और शिकायतों को मिलाकर कुल करीब 32,000 मामले लंबित हैं.

सीआईसी की वेबसाइट पर दी गई जानकारी के मुताबिक 23 जुलाई 2019 तक केंद्रीय सूचना आयोग में 28,442 अपीलें और 3,209 शिकायतें लंबित थे. इस तरह सीआईसी में कुल 31,651 मामले लंबित पड़े हैं.

पिछले करीब ढाई सालों में ये सर्वाधिक लंबित मामलों की संख्या है. इससे पहले एक अप्रैल 2017 को लंबित मामलों की संख्या 26,449 थी. आरटीआई को मजबूत करने की दिशा में काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं और पूर्व सूचना आयुक्तों का कहना है कि आयोगों में सूचना आयुक्त के पदों का खाली रहना इसकी सबसे बड़ी वजह है.

केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोग सूचना का अधिकार कानून के तहत सूचना मुहैया कराने के लिए सर्वश्रेष्ठ अपीलीय संस्थान हैं. सीआईसी में केंद्रीय सूचना आयुक्त समेत सूचना आयुक्तों के लिए कुल 11 पद हैं, लेकिन इस समय आयोग में सात आयुक्त ही नियुक्त हैं और चार पद खाली पड़े हैं.

इन चार खाली पदों को भरने के लिए सरकार ने इसी साल चार जनवरी को विज्ञापन जारी किया था, लेकिन करीब सात महीने का वक्त बीत जाने के बाद भी अभी तक कोई नियुक्ति नहीं हुई है.

पिछले साल 26 अप्रैल 2018 को सुप्रीम कोर्ट में सूचना आयुक्तों की जल्द नियुक्ति के लिए एक याचिका दायर की गई थी. उस समय तक करीब 23,500 से ज्यादा मामले लंबित थे. यानी लंबित मामलों की संख्या में कमी आने के बजाय करीब एक साल के भीतर इसमें 8,000 और मामलों की बढ़ोतरी हुई है.

इसी मामले में याचिकाकर्ता आरटीआई कार्यकर्ता कोमोडोर लोकेश बत्रा इस पर चिंता जाहिर करते हुए कहते हैं, ‘ये बेहद हैरानी की बात है कि एक तरफ सरकार आरटीआई कानून को मजबूत करने का दावा करती है, वहीं दूसरी तरफ ये लोग सूचना आयुक्तों की नियुक्ति नहीं कर रहे हैं.’

उन्होंने कहा कि पिछली बार सरकार ने चार आयुक्तों की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद की थीं. अधिकतर नियुक्तियां बिना कोर्ट के आदेश के नहीं हो रही हैं.

बत्रा ने कहा, ‘नियम के मुताबिक जैसे ही पद खाली होते हैं, उससे कुछ महीने पहले ही नियुक्ति प्रक्रिया शुरू कर दी जानी चाहिए, लेकिन सरकार ऐसा नहीं करती है. जब तक कोई कोर्ट नहीं जाता है और वहां से आदेश नहीं आता, तब तक कोई नियुक्ति नहीं होती है. ये आरटीआई के प्रभाव को कम करने की कोशिश है.’

साल 2018 में आरटीआई कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज, अमृता जौहरी और लोकेश बत्रा में सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर कर देश भर में सूचना आयुक्तों की जल्द नियुक्ति और नियुक्ति प्रक्रिया को पूरी तरह से पारदर्शी बनाने की मांग की थी.

कोर्ट ने इसी साल 15 फरवरी को दिए अपने एक बेहद महत्वपूर्ण फैसले में सभी खाली पदों पर छह महीने के भीतर भर्तियां पूरी करने का आदेश दिया था. जस्टिस एके सीकरी, जस्टिस अब्दुल नजीर और जस्टिस सुभाष रेड्डी की पीठ ने कहा कि केंद्रीय सूचना आयोग एवं राज्य सूचना आयोग में पद खाली होने से दो महीने पहले ही भर्ती प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए.

मौजूदा खाली पदों के संदर्भ में कोर्ट ने कहा कि अगर भर्ती प्रक्रिया शुरू हो चुकी है तो दो या तीन महीने में भर्तियां पूरी की जानी चाहिए और यदि प्रकिया शुरू नहीं हुई है तो छह महीने के भीतर देश के सभी सूचना आयोगों में भर्तियां पूरी की जानी चाहिए.

इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने सूचना आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया में उच्च स्तर की पारदर्शिता भी सुनिश्चित करने की बात कही थी.

आरटीआई की दिशा में काम करने वाला गैर सरकारी संगठन सूचना के जन अधिकार का राष्ट्रीय अभियान (एनसीपीआरआई) की सदस्य अंजलि भारद्वाज ने कहा कि सरकार को सूचना आयुक्तों की नियुक्ति कर के आरटीआई कानून को और मजबूत बनाना चाहिए लेकिन वे इसमें संशोधन करने इसे सरकार की कठपुतली बना रहे हैं.

उन्होंने कहा, ‘सरकार आरटीआई कानून में संशोधन करके केंद्रीय एवं राज्य सूचना आयुक्तों की सैलरी और उनका कार्यकाल खुद निर्धारित करना चाहती है. इसका मतलब बिल्कुल साफ है कि सरकार सूचना आयोग एवं सूचना आयुक्तों की स्वतंत्रता छीनना चाहती है, ताकि वे सरकार के खिलाफ कोई फैसला न करें, ताकि आयुक्त किसी ऐसी जानकारी जनता को मुहैया कराने का आदेश न दें जिसे सरकार सार्वजनिक नहीं करना चाहती है.’

यदि आरटीआई संशोधन विधेयक राज्यसभा से भी पारित हो जाता है तो केंद्रीय सूचना आयुक्त (सीआईसी), सूचना आयुक्तों और राज्य के मुख्य सूचना आयुक्तों के वेतन और कार्यकाल में बदलाव करने की अनुमति केंद्र को मिल जाएगी. फिलहाल आरटीआई कानून के मुताबिक एक सूचना आयुक्त का कार्यकाल पांच साल या 65 साल की उम्र, जो भी पहले पूरा हो, का होता है.

अभी तक मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त का वेतन मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त के वेतन के बराबर मिलता है. वहीं राज्य मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्त का वेतन चुनाव आयुक्त और राज्य सरकार के मुख्य सचिव के वेतन के बराबर मिलता है.

कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव संगठन के सदस्य और आरटीआई कार्यकर्ता वेंकटेश नायक कहते हैं कि सरकार पूरी तरह से लोकतांत्रिक प्रक्रिया का दमन कर रही है और जनता के संवैधानिक अधिकार आरटीआई को काफी कमजोर किया जा रहा है.

उन्होंने कहा कि आरटीआई संशोधन विधेयक लाने से पहले जनता से कोई राय सलाह नहीं ली गई. सरकार की प्राथमिकता सूचना आयुक्तों की नियुक्ति करने की होनी चाहिए, न कि इसमें संशोधन कर इसे कमजोर बनाने की.

पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त और कई सूचना आयुक्त भी आरटीआई संशोधन कानून के खिलाफ बोल रहे हैं और मांग कर रहे हैं कि आयोगों में खाली पदों को भरा जाए.

पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त श्रीधर आचार्युलु और यशोवर्धन आजाद ने कहा कि आरटीआई कानून साल 2005 में व्यापक विचार विमर्श और राय सलाह के बाद पास किया था. उस समय के विधेयक में भी एक प्रावधान रखा गया था कि एक उपायुक्त की नियुक्ति की जाएगी, जो केंद्र सरकार के निर्देशों के आधार पर काम करेंगे.

पूर्व आयुक्तों ने कहा, हालांकि संसद की स्थाई समिति ने इस प्रावधान को विधेयक से हटाने का प्रावधान दिया था. अगर ये इसी रूप में पास हो जाता तो सूचना आयुक्त प्रशासन में एक क्लर्क की तरह होते.

सूचना का अधिकार अधिनियम 15 जून 2005 को संसद से पास किया गया था, लेकिन इससे पहले इस एक्ट को संसद की स्थायी समिति के पास विचार-विमर्श के लिए भेजा गया था. शुरू में ऐसा आंका गया था कि मुख्य सूचना आयुक्त का वेतन केंद्र सरकार के सचिव के वेतन के तर्ज पर रखा जाएगा और सूचना आयुक्त का वेतन भारत सरकार के संयुक्त सचिव या अतिरिक्त सचिव के बराबर रखा जाएगा.

लेकिन स्थायी समिति की रिपोर्ट देखकर ये बात स्पष्ट हो जाती है कि समिति ने सूचना आयुक्तों के वेतन के मुद्दे को काफी गंभीरता से लिया था. कमेटी ने लिखा, ‘सूचना आयोग इस एक्ट के तहत एक महत्वपूर्ण अंश है जो कि कानून के प्रावधानों को लागू करेगा. इसके लिए जरूरी है कि सूचना आयोग अत्यंत स्वतंत्रता और स्वायत्तता के साथ काम करे’.

इसलिए कमेटी ने सुझाव दिया कि सूचना आयोग की स्वतंत्रता को ध्यान में रखते हुए सूचना आयुक्तों का कद मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त के बराबर होना चाहिए.

श्रीधर आचार्युलु और यशोवर्धन आजाद ने कहा, ‘संसदीय समिति की इन सभी सुझावों को नजरअंदाज करते हुए अब सरकार कह रही है कि आरटीआई विधेयक जल्दबाजी में पास किया गया था. ये बिल्कुल गलत है. हकीकत ये है कि आरटीआई संशोधन विधेयक को बिना विचार विमर्श के लाया गया है जिसकी वजह से सूचना आयुक्तों की स्वतंत्रता प्रभावित होगी.’

उन्होंने कहा, आरटीआई कानून अंधेरे में रौशनी की तरह है. भारी संख्या में ग्रामीण भारत के लोग और गरीब आरटीआई के जरिए राहत पा रहे हैं. एक 10 रुपये का आवेदन उनके लिए आशा की किरण है.

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