‘जम्मू कश्मीर की मीडिया को खुद नहीं पता कि राज्य में क्या हो रहा है’

साक्षात्कार: जम्मू कश्मीर में मीडिया की स्वतंत्रता को बहाल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने वाली कश्मीर टाइम्स की कार्यकारी संपादक अनुराधा भसीन से विशाल जायसवाल की बातचीत.

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कश्मीर टाइम्स की कार्यकारी संपादक अनुराधा भसीन. (फोटो: द लीफलेट)

साक्षात्कार: जम्मू कश्मीर में मीडिया की स्वतंत्रता को बहाल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने वाली कश्मीर टाइम्स की कार्यकारी संपादक अनुराधा भसीन से विशाल जायसवाल की बातचीत.

कश्मीर टाइम्स की कार्यकारी संपादक अनुराधा भसीन. (फोटो: द लीफलेट)
कश्मीर टाइम्स की कार्यकारी संपादक अनुराधा भसीन. (फोटो: द लीफलेट)

केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रपति के आदेश से 5 अगस्त को जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को खत्म किए जाने से एक दिन पहले 4 अगस्त से ही राज्य में मोबाइल, लैंडलाइन और इंटरनेट सहित संचार के सभी संसाधनों पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया था. इसके पहले वहां भारी संख्या में अतिरिक्त सुरक्षा बलों को भी तैनात कर दिया गया था.

संचार माध्यमों पर रोक के साथ प्रदेश में अप्रत्याशित बंद का सामना कर रही जम्मू कश्मीर की मीडिया बेहद मुश्किल दौर से गुजर रही है. स्थानीय अख़बारों जैसे ग्रेटर कश्मीर, राइजिंग कश्मीर और कश्मीर रीडर की वेबसाइट्स 4 अगस्त से अपडेट नहीं हुई हैं.

कश्मीर टाइम्स का जम्मू संस्करण छप रहा है और अपनी वेबसाइट को अपडेट करने में भी सफल रहा लेकिन उसका कश्मीर संस्करण पूरी तरह से ठप्प पड़ा हुआ है.

राज्य में मीडिया की स्वतंत्रता को बहाल करने के लिए कश्मीर टाइम्स की कार्यकारी संपादक अनुराधा भसीन ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने तत्काल सुनवाई की मांग के लिए दाखिल याचिका पर फिलहाल सुनवाई नहीं की है.

कश्मीर का विशेष दर्जा हटाने के बाद उपजी परिस्थितियों पर कश्मीर टाइम्स की कार्यकारी संपादक अनुराधा भसीन से बातचीत.

केंद्र सरकार द्वारा जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को हटाने के फैसले को किस तरह से देखती हैं?

अनुच्छेद 370 को हटाया जाना बहुत ही चौंकाने वाला था. यह जम्मू कश्मीर और भारत के बीच में एक कानूनी ही नहीं बल्कि राजनीतिक और भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ था. एक मात्र भावनात्मक लिंक वही रह गया था.

हम अक्सर ये बात करते थे अगर आप इससे छेड़छाड़ करते हैं बहुत खतरनाक हो सकता है लेकिन हमने कभी नहीं सोचा था कि ये ऐसा कर ही देंगे. इसके बहुत सारे नुकसान हैं. आंतरिक और लोकतांत्रिक, कई तरीके से इसके नतीजे बुरे हो सकते हैं. जिस तरह से संविधान को तोड़-मरोड़कर इस पूरी प्रक्रिया को अंजाम दिया गया, वह भारतीय लोकतंत्र पर एक तरह का हमला है.

कानून साफ है कि विशेष दर्जे या अनुच्छेद 370 पर कोई भी संशोधन होता है तो उसे जम्मू कश्मीर की संविधान सभा कर सकती है, लेकिन जम्मू कश्मीर की संविधान सभा मौजूद नहीं है. अब अगर संशोधन करना है तो वह अधिकार जम्मू कश्मीर विधानसभा से पास होगा लेकिन जम्मू कश्मीर विधानसभा भी नहीं है. लेकिन यह अधिकार राज्यपाल, राष्ट्रपति या संसद को नहीं जा सकता है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह. (फोटो: पीटीआई)

जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को खत्म किए जाने से राज्य पर इसका क्या असर पड़ सकता है?

अनुच्छेद 370 का राजनीतिक प्रभाव देखें तो राज्य के सांप्रदायिकरण होने का अंदेशा है. एक राज्य को जिस तरह से बिना लोगों से पूछे हुए अलोकतांत्रिक तरीके से दो भागों विभाजित कर दिया गया, वह कतई जायज नहीं है.

इतने बड़े इलाके वाले राज्य का संचालन क्या एक केंद्रशासित प्रदेश के रूप में हो सकता है. इस पर सोचने की जरूरत है. इसमें एक राजनीतिक प्रभाव भी है. हालांकि, यह तो प्रतिबंधों में ढील देने के बाद ही पता चलेगा कि इसको लेकर लोगों की कितनी सहमति है.

कुल जनसंख्या में 13 मिलियन लोग हैं, जिसमें से आपने 9 मिलियन लोगों को अदृश्य तौर पर कैद में ही रखा हुआ है. इसके और क्या-क्या परिणाम सामने आ सकते हैं इसका अंदाजा तो हम प्रतिबंधों में ढील दिए जाने के बाद ही देख पाएंगे.

इसके आर्थिक नुकसान भी हैं. ये लोग विकास की बात कर रहे हैं. सपने बेचने की बात कर रहे हैं लेकिन क्या जम्मू कश्मीर की जनता वे सपने चाहती भी है. क्या वे इतने पिछड़े हुए हैं कि उन्हें विकसित होने के लिए उद्योगपतियों की जरूरत है? क्या उद्योगपतियों के अर्थव्यवस्था का मॉडल बर्बादी की तरफ नहीं ले जाने वाला होगा?

1950 के दशक में जम्मू कश्मीर में भूमि सुधार किए गए. उस ऐतिहासिक भूमि सुधार के कारण यहां की हर एक आबादी के पास कुछ न कुछ जमीन है. जमीन के साथ आत्मसम्मान और सशक्तिकरण का सवाल जुड़ा होता है.

इन भूमि सुधार ने सामाजिक और आर्थिक असमानता को काफी हद तक कम किया. मतलब असमानता तो है लेकिन राष्ट्रीय स्तर से तुलना करें तो यहां की असमानती इतनी भीषण नहीं है. हमने यहां पर कभी नहीं सुना कि लोग भूख से मरते हैं. लोगों के पास अपनी जमीन है वे अपना खाना उगा सकते हैं.

हमारे यहां पर आरक्षण की अलग व्यवस्था है. व्यापार के संबंध में देखें तो लीज, लैंड और अन्य लोगों के सहयोग से निवेश काफी हद तक आ भी रहे थे और जो थोड़ी बहुत निवेश नहीं हो रहे थे, उसका कारण तनाव था.

तनाव का हल तो आपने निकाला नहीं, अब अगर आप उस राज्य का राजनीतिक रूप बदलेंगे तो उससे हालात तो नहीं बदलने वाले हैं, बल्कि बदतर होने का अंदेशा है.

अनुच्छेद 370 को लेकर केंद्र सरकार का यह फैसला भारत के भविष्य पर क्या असर डालेगा?

यह सब बहुत ही खुफिया तरीके से और घाटी में एक तरह का डर का माहौल पैदा करके किया गया. बहुत बड़े आतंकी डर को दिखाकर अमरनाथ यात्रा रोक दी गई और यात्रियों को वापस भेज दिया गया. अगर इतना बड़ा खतरा था तो आपने चार दिन बाद इतना बड़ा कदम कैसे उठा लिया?

या तो आतंकी खतरा नहीं था या फिर चार दिन में आपके पास इतनी ताकत आ गई कि आप एक नया झटका भी दे सकते हैं. भारतीय लोकतंत्र के लिए यह इसलिए खतरनाक है क्योंकि देश की अवाम ने जिस सरकार पर भरोसा जताया, उसी सरकार ने उससे झूठ बोलने का काम किया.

जम्मू कश्मीर को लंबे समय से बंद जैसी चुनौतियां का सामना करना पड़ता रहा है. पहले की तुलना में इस बार का बंद किस तरह से अलग है?

राज्य में जिस तरह से प्रतिबंध लगाए गए, वे अप्रत्याशित हैं. जम्मू कश्मीर में यह पहली बार नहीं है, जब प्रतिबंध लगाए गए हैं. मानवाधिकार हनन भी बहुत होते रहे, इंटरनेट भी बंद रहा, कभी-कभी मोबाइल लाइंस भी आंशिक रूप से बंद हो जाती थी, लेकिन इस बार जो प्रतिबंध है वह पूरी तरह से है.

ऐसा कभी नहीं हुआ था. मैंने दुनिया में कहीं नहीं सुना कि लैंडलाइन फोन पर पाबंदी लगा दी जाती हो.

View of a deserted road during restrictions in Srinagar, August 5, 2019. REUTERS/Danish Ismail
5 अगस्त 2019 को प्रतिबंध के दौरान श्रीनगर का लाल चौक. (फोटो: रॉयटर्स)

आप लंबे समय से जम्मू कश्मीर में रिपोर्टिंग कर रही हैं. पूरे राज्य और खासकर घाटी में किस तरह के हालात देख रही हैं?

घाटी में ही नहीं बल्कि जम्मू क्षेत्र के राजौरी, पुंछ, रियासी, डोडा, किस्तवाड़ जैसे जितने भी मुस्लिम बहुल इलाके हैं वहां पूरी तरह से सन्नाटा पसरा हुआ है.

ये इलाके पिछड़े हैं और ये इसलिए भी नजरअंदाज हो गए क्योंकि घाटी में कम से कम कुछ मीडिया टीम जा रही हैं और पूरी घाटी में तो नहीं, कम से कम श्रीनगर में तो रिपोर्ट कर रही हैं.

वहां से कुछ न कुछ सूचनाएं आ रही हैं. लेकिन हमें यहां जम्मू में बैठे हुए कुछ पता नहीं चल रहा है कि राजौरी में क्या हो रहा है, पुंछ में क्या हो रहा है, रियासी में क्या हो रहा है, डोडा या किस्तवाड़ में क्या हो रहा है? जबकि ये सीमाई और पिछड़े इलाके हैं.

जनसांख्यिकी के कारण इनका सांप्रदायिकता का इतिहास रहा है. यहां पर 60 फीसदी मुस्लिम आबादी है और 40 फीसदी हिंदू आबादी है. वहां किस तरह का तनाव है, वहां क्या हो रहा है, ये हम अंजादा भी नहीं लगा पा रहे हैं.

कश्मीर में कुछ-कुछ अंदाजा है कि वहां क्या हो रहा है. मैंने जो राजौरी और पुंछ जैसे सीमाई इलाकों की बात की वहां का भी इतिहास रहा है. 1947 में पुंछ का विद्रोही धड़ा भारत के साथ नहीं रहना चाहता था. कश्मीर के लोगों ने कबाइलियों का विरोध किया था लेकिन पुंछ में उनका विद्रोह महाराजा की सेना के खिलाफ था और वे चाहते थे कि पाकिस्तान के साथ जाएं.

इसके बाद 1965 में पाकिस्तान ने उन्ही की भावनाओं को भड़काकर मुजाहिद्दीन खड़े कर दिए और जिब्राल्टर के नाम से एक ऑपरेशन शुरू किया. वहां एक विद्रोह भी भड़का जिसके बाद भारत पाकिस्तान में एक युद्ध भी हुआ. वॉर के दौरान और उसके बाद सेना के द्वारा आम लोगों पर काफी जुल्म भी हुआ.

1971 के युद्ध के बाद उन्होंने यथार्थ को स्वीकार कर लिया कि वे इतनी बड़ी सेना के सामने नहीं लड़ सकते हैं और उन्होंने शांतिपूर्वक भारत के साथ रहने का फैसला कर लिया. अब इसके बाद एक डर ऐसा भी लगता है कि उनके घाव फिर से हरे न हो जाएं.

भारत-पाकिस्तान के संबंधों पर केंद्र सरकार के इस फैसले का असर किस तरह से होगा?

इसका सीधा संबंध भारत-पाकिस्तान संबंधों से जुड़ा हुआ है. इस कदम के बाद ऐसा तो नहीं लगता है कि भारत और पाकिस्तान के रिश्ते बेहतर होंगे बल्कि तनाव की स्थिति नजर आ रही है.

वैश्विक नजरिये से देखें तो अफगानिस्तान को लेकर जल्द बातचीत होने वाली है. अमेरिका की उपस्थिति वाले उस इलाके में पाकिस्तान की जरूरत है. क्या इस बात का फायदा उठाकर पाकिस्तान न सिर्फ राजौरी, पुंछ बल्कि घाटी के लोगों की भावनाओं को नहीं भड़का सकता है.

घाटी में तो पहले से ही गुस्सा ज्यादा था. उनमें पिछले 10 से भी अधिक सालों से गुस्सा पनप रहा है. नियमित कार्रवाई, छापेमारी, गिरफ्तारी, हिरासत में लिए जाने, पैलेट हमले, गोलियां मार देने और रोजमर्रा के ऐसे बहुत से कारणों से नए-नए लड़कों का रुझान उग्रवाद की ओर जा रहा था.

मैंने ऐसे बहुत से युवाओं से बात की, खासतौर पर दक्षिणी कश्मीर में जो बंदूक पकड़ना चाहते थे लेकिन बंदूक और पैसे की कमी उन्हें रोक रही थी. इस दौरान एक वैचारिक बदलाव भी नजर आ रहा था कि आजादी के बाद इस्लामिक जुड़ने लगा था. कुछ हालिया रिपोर्ट में ये बातें सामने आईं कि आईएसआईएस की विचारधारा की तरफ भी उनका झुकाव हो रहा था. इन सब हालात को देखते हुए अगर पाकिस्तान उसका इस्तेमाल करता है तो यह खतरनाक और भयावह होगा.

जम्मू कश्मीर में लगे मौजूदा प्रतिबंधों के बीच आपके संस्थान और जम्मू कश्मीर के अन्य मीडिया संस्थानों को किस तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है?

जम्मू कश्मीर की पूरी मीडिया की तो मैं बात नहीं कर सकती क्योंकि पिछले कुछ समय में जम्मू और कश्मीर का मीडिया क्षेत्रीय और सांप्रदायिक कारणों से विभाजित हो गए हैं.

जम्मू का मीडिया एक अति-राष्ट्रवाद वाला रुख अपनाता है. हमारा सबसे पुराना अखबार है तो हमने ये कोशिश की कि हम जम्मू और कश्मीर के बीच एक पुल का काम करें. दोनों क्षेत्र में हमारा एक संस्करण निकलता है. इस समय कश्मीर में नहीं निकल रहा है.

अब हमारा वहां से कोई सीधा संपर्क नहीं रह गया है. अपने रिपोर्टर से नहीं है, अपने सूत्रों से नहीं है, अपने खास लोगों से नहीं है. हम पूरी तरह से दिल्ली और विदेशी मीडिया में जो कुछ छप रहा है, उस पर निर्भर हैं.

उसके आधार पर मैं देख रही हूं कि कुछ अखबार निकल रहे हैं और बहुत बहादुरी और इनोवेटिव तरीके से अपनी अखबारें चला रहे हैं. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सूचना का अभाव है. न तो उनके पास सूचना है और न तो स्थानीय मीडिया के पास सूचना है.

स्थानीय पत्रकारों के पास बहुत ही सीमित और छनकर सूचनाएं पहुंच पा रही हैं. मैंने जो देखा है उसके अनुसार वो टीवी से जो सूचनाएं मिल रही हैं, उसी का इस्तेमाल करके अखबार छाप रहे हैं.

स्थानीय पत्रकारों को जो कुछ भी पता चल रहा है, उनके पास ऐसा कोई संसाधन नहीं है, जिसके माध्यम से वे उसकी पुष्टि कर सकें या उस खबर को बड़े परिप्रेक्ष्य में पेश कर सकें. प्रशासन उनका साथ नहीं दे रहा है और सुरक्षा बलों ने एक अजीब सा माहौल बना रखा है.

सबसे बड़ी बात यह है कि लोगों की आवाज बाहर नहीं आ पा रही है. जो आवाजें बाहर आ पा रही हैं, वो मीडिया के कुछ गैंग के माध्यम से सामने आ रही हैं. उनमें से भी अधिक पैराशूट पत्रकार हैं जो चॉपर से आ रहे हैं.

कुछ रिपोर्टिंग बहुत अच्छी भी हुई है. कल जब टीवी पर लोग बात कर रहे थे तो मैं रो-रोकर देख रही थी. मुझे उनके चेहरे पर दिख रहा था कि वो कितने टूट रहे हैं. स्थानीय पत्रकार कह रहे हैं कि उन्हें कर्फ्यू पास नहीं दिए जा रहे हैं, वो सारे ऊपर से आ रहे हैं.

स्थानीय मीडिया को इस तरह के भेदभाव का भी सामना करना पड़ रहा है. इसका मतलब है कि हर तरह की कोशिश की जा रही है कि यहां से स्वतंत्र मीडिया को पूरी तरह से खत्म कर दिया जाए. यह कोई अच्छी चीज नहीं है.

आप बात करते हैं जम्मू कश्मीर के लोगों को समान अधिकार देने की तो सबसे पहले आपने जो अब तक अधिकार मिले हुए थे आपने वो भी खत्म कर दिए हैं. दूसरी बात है कि इसका प्रभाव हिंदुस्तान के लिए अच्छा नहीं है. कल को कोई भी बहाना बनाकर इसी तरह का काम दूसरे राज्यों के साथ भी किया जा सकता है.

हमने बहुत से प्रतिबंध देखे हैं. मैं पिछले 30 साल से काम कर रही हूं, उससे पहले से ही यहां पर प्रतिबंध लगते रहे हैं लेकिन 30 साल से तो मैंने खुद देखा है. 1990 के दशक में जब सेना और आतंकियों के बीच मुठभेड़ होती थी तब पत्रकार उसमें पिस जाते थे और मारे भी जाते थे. कई मार खाए और कई जेल भी गए.

इस दौरान पत्रकारों पर झूठे केस भी कर दिए जाते थे, जिससे वे उन्हीं चीजों में उलझे रहें और उन्हें बाकी चीजों के लिए समय ही न मिले. वित्तीय लेन-देन रोक देना और सरकारी दफ्तरों में पहुंच न देना जैसी चीजें भी हो रही थीं.

जब आर्थिक तौर पर किसी मीडिया संस्थान को तोड़ने की कोशिश होती है तो चाहे हम लड़ते रहें लेकिन उसका असर तो होता है. हम बजट पर चलते हैं तो हमें अपने बजट में कटौती करनी पड़ी और संचार के सस्ते संसाधनों पर निर्भर होना पड़ा लेकिन आज संचार के साधन भी बंद कर दिए गए हैं.

ये चाहते हैं कि आहिस्ता-आहिस्ता जम्मू कश्मीर में जितना भी मीडिया है, वो सरकार का पब्लिसिटी विभाग बन कर रह जाए.सरकार जो ये बोल रही है कि फेक न्यूज सर्कुलेट होते हैं, अफवाह फैलते हैं फिर वो लोगों को भड़काते हैं.

हम भी ये मानते हैं कि ये होते हैं लेकिन इस गैप को पेशेवर मीडिया ज्यादा अच्छे से भर सकता है. फेक न्यूज और अफवाहों का काउंटर करने के लिए एक प्रमाणिक आवाज होनी चाहिए वरना वो तो और बढ़ेंगी.

अगर अफवाहों को फैलाने के लिए सोशल मीडिया या व्हाट्सऐप का इस्तेमाल होता है तो किस वजह से इन्होंने फोन लाइन बंद की. लैंडलाइन पर तो कोई सोशल मीडिया नहीं चलता है न?

10 अगस्त को लगाई गई आपकी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि तत्काल सुनवाई के लिए आपको रजिस्ट्रार के सामने एक ज्ञापन देना पड़ेगा. इस पर क्या कहना है?

मुझे भारत के संविधान पर उम्मीद है. भारत के लोकतंत्र पर भरोसा है. इस वक्त भारत का लोकतंत्र खतरे में है. बहुत जरूरत है कि लोकतंत्र पर जो हमले हो रहे हैं, प्रेस स्वतंत्रता पर जो हमले हो रहे हैं उसके लिए खड़ा हुआ जाए.

स्वतंत्र मीडिया लोकतंत्र को मजबूत करने में बहुत ही अहम भूमिका अदा करती है तो उसके लिए हम लड़ते रहेंगे.

जम्मू कश्मीर की मीडिया को अक्सर सरकारी प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है और इस बार के हालात बेहद खराब हैं. इस दौरान देश के मीडिया संगठनों के समर्थन से कितनी संतुष्ट हैं?

मीडिया संगठनों का रवैया हमेशा से नकारात्मक रहा है. अभी उस दिन एडिटर्स गिल्ड ने बहुत ही हल्का-फुल्का सा बयान जारी कर दिया. हम हमेशा कहते हैं कि हालात एक्स्ट्रा-ऑर्डिनरी बन गए हैं लेकिन यहां तो एक्स्ट्रा-ऑर्डिनरी भी नॉर्मल बन गया था.

आज तो एक्स्ट्रा-ऑर्डिनरी से भी ज्यादा हो गया है. वह इसलिए क्योंकि बात आजादी की नहीं है, बात मानवाधिकार की नहीं है, बात नागरिक अधिकारों के हनन की नहीं है. आज सवाल कश्मीरियों की पहचान के संकट का है जिसे खत्म कर दिया गया है.

दूसरा उनको खतरा यह है कि यहां जनसांख्यिकी परिवर्तन लाया जाएगा. भाजपा और आरएसएस की ऐसी विचारधारा है कि कश्मीर को वेस्ट बैंक बनाने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा.

Indian security personnel stands guard behind a roadblock along a deserted street during restrictions in Jammu, August 5, 2019. REUTERS/Mukesh Gupta
(फोटो: रॉयटर्स)

दिल्ली स्थित मुख्यधारा की मीडिया यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि जम्मू कश्मीर के हालात को ‘शांत’ हैं. इस रिपोर्टिंग को किस तरह से देखती हैं?

मीडिया को थोड़ा पेशेवर रवैया अपनाना चाहिए. डर कर या अपने स्वार्थ के लिए झूठी खबरें दिखाएंगे तो वे एक गलत तस्वीर पेश कर रहे हैं. पत्रकार का लोकतंत्र में एक अहम रोल है. उसे लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाता है.

उसका मतलब है कि हम जनता और सरकार के बीच में एक माध्यम हैं. अगर हम सिर्फ सरकार की लाइन पर चलेंगे और हम यह देखना ही नहीं चाहेंगे कि एक बड़ी संख्या में जनता को हमारे नजरों से छुपा दिया गया तो यह एक बड़ा मुद्दा है.

अनुच्छेद 370 को हटाने और भारी संख्या में अतिरिक्त सुरक्षा बलों को तैनात कर जम्मू कश्मीर को बंद करने की पूरी प्रक्रिया में केंद्र सरकार के रवैये को किस तरह से देखती हैं?

पहले एक हफ्ते तक सरकार का रवैया यह रहा कि घाटी में तो सब कुछ ठीक है, लोग खुश हैं. आप लोगों ने डोभाल साहब के ड्रामे देखे होंगे. डोभाल साहब लोगों से मिल रहे हैं, वो उनकों खाने खिला रहे हैं. यह एक तरह की तस्वीर पेश की जा रही है.

अचानक जब ये सारी याचिकाएं अदालत में गईं उसके बाद से सरकार की स्थिति बदल गई और वे कहने लगे कि नहीं-नहीं, इससे तो सुरक्षा के हालात पैदा हो जाएंगे. इसका मतलब है कि कुछ विरोधाभास है.

अगर आपने सुरक्षा कारणों से बंद रखा गया है तो वे खुश कहां से थे. अगर आपको ये डर है कि वे विरोध में निकल आएंगे और आप कह रहे हैं कि वे बाहर निकल आएंगे तो वे खुश कैसे हैं.

सरकार लगातार यह जताने की कोशिश कर रही है कि राज्य में हालात सामान्य हैं. अंतरराष्ट्रीय मीडिया रिपोर्टिंग पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं. आपकी जानकारी के अनुसार फिलहाल हालात कैसे हैं?

मैं यहां के हालात के बारे में कुछ नहीं कह सकती हूं. मैं जो भी अंदाजा लगा रही हूं वो रिपोर्ट्स को पढ़कर लगा रही हूं. बाकी का अंदाजा मैं अपनी 30 साल की फील्ड रिपोर्टिंग के आधार पर लगा रही हूं.

उस अंदाजे के मुताबिक घाटी में पहले से ही मानवाधिकारों के हनन, राजनीतिक साजिशों, चुनाव में धांधली आदि पर काफी गुस्सा था तो यह एक अलग लेवल का मामला है, जहां पर आपने उनकी पूरी पहचान पर ही सवाल उठा दिया. तो मैं नहीं समझती कि वो प्रतिक्रिया नहीं देंगे. मेरे अंदाज से बीबीसी ने जो वीडियो जारी किए, वैसे हालात संभव हैं.

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