बांग्लादेश में ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट’ के शिकार हिंदू अल्पसंख्यक

ग्राउंड रिपोर्ट: साल 1965 में तत्कालीन पाकिस्तान सरकार ने शत्रु संपत्ति अधिनियम बनाया था, जिसे अब वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट के नाम से जाना जाता है. भारत के साथ जंग में हुई हार के बाद अमल में लाए गए इस क़ानून के तहत 1947 में पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से भारत गए लोगों की अचल संपत्तियों को शत्रु संपत्ति घोषित कर दिया गया था.

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बांग्लादेश के नौगांव जिले में वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट के शिकार कालीकांत मंडल अपने परिवार के साथ.

ग्राउंड रिपोर्ट: साल 1965 में तत्कालीन पाकिस्तान सरकार ने शत्रु संपत्ति अधिनियम बनाया था, जिसे अब वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट के नाम से जाना जाता है. भारत के साथ जंग में हुई हार के बाद अमल में लाए गए इस क़ानून के तहत 1947 में पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से भारत गए लोगों की अचल संपत्तियों को शत्रु संपत्ति घोषित कर दिया गया था.

बारिसाल स्थित एक प्राचीन हिंदू मंदिर.
बारिसाल स्थित एक प्राचीन हिंदू मंदिर. (फोटो: अभिषेक रंजन सिंह)

बांग्लादेश में ‘शत्रु संपत्ति अधिनियम’ वहां रहने वाले अल्पसंख्यकों खासकर हिंदुओं के लिए किसी मुसीबत से कम नहीं. उनका मानना है कि ये अधिनियम बांग्लादेश में रहने वाले हिंदुओं को उनकी जमीन-जायदाद से बेदखल करने का जरिया है.

बांग्लादेश में ‘शत्रु संपत्ति अधिनियम’ की वजह से लाखों हिंदुओं को अपनी जमीनें गंवानी पड़ी. मशहूर अर्थशास्त्री व ढाका विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर अबुल बरकत की रिसर्च के मुताबिक, वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट की वजह से बांग्लादेश में 1965 से 2006 के दौरान अल्पसंख्यक हिंदुओं के स्वामित्व वाली 26 लाख एकड़ भूमि दूसरों के कब्जे में चली गई.

बांग्लादेश में ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट’ की गाज वहां रहने वाले बौद्ध समुदाय पर भी गिरी है. चटगांव डिवीजन के अंतर्गत बंदरवन, रंगामाटी और खग्राछारी में 22 प्रतिशत बौद्ध समुदाय की भूमि इस कानून की भेंट चढ़ गई. साल 1978 में यहां बौद्ध धर्म को मानने वालों के पास 70 फीसदी भूमि थी, लेकिन साल 2009 में यह घटकर 41 प्रतिशत रह गई.

‘डिप्रिवेशन ऑफ हिंदू माइनॉरिटी इन बांग्लादेश लिविंग विथ वेस्टेड प्रॉपर्टी’ नामक किताब की प्रस्तावना में यह चिंता बांग्लादेश सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस रिटायर्ड मोहम्मद ग़ुलाम रब्बानी और प्रोफेसर अबुल बरकत प्रकट करते हैं.

वह लिखते हैं, ‘शत्रु संपत्ति कानून (वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट) की वजह से अल्पसंख्यकों खासकर हिंदुओं की 26 लाख एकड़ जमीन दूसरों के कब्जे में चली गई.’

साल 1965 में तत्कालीन पाकिस्तान सरकार ने ‘शत्रु संपत्ति अधिनियम’ बनाया था. भारत के साथ जंग में हुई हार के बाद यह कानून अमल में लाया गया. इसके तहत 1947 में पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से भारत गए लोगों की अचल संपत्तियों को ‘शत्रु संपत्ति’ घोषित कर दिया गया.

मुक्ति युद्ध के बाद 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख़ मुज़ीबुर्रहमान ने ‘एनिमी प्रॉपर्टी एक्ट’ का नाम बदलकर ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट’ कर दिया.

जातीय संसद यानी नेशनल असेंबली में पारित विधेयक भाषण में उन्होंने कहा था, ‘भारत और बांग्लादेश दो स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र हैं. बांग्लादेश के निर्माण में भारत के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता, इसलिए जब बांग्लादेश और भारत आपस में बंधु हैं तो शत्रु संपत्ति कानून का कोई औचित्य नहीं है.’

15 अगस्त 1975 को शेख़ मुज़ीब की राजधानी ढाका में उनके निवास पर हत्या कर दी गई. लिहाज़ा बांग्लादेश में रहने वाले अल्पसंख्यकों की बेहतरी का जो ख्वाब उन्होंने देखा था उसे आघात पहुंचा.

शेख हसीना के आने के बाद

अवामी लीग के बाद क्रमशः इक्कीस वर्षों तक बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और जातीय पार्टी की सरकारें रहीं. इस दौरान वहां रहने वाले अल्पसंख्यकों की अचल संपत्तियां खुर्द-बुर्द होती रहीं. दो दशक बाद 23 जून 1996 को अवामी लीग सत्ता में आई और शेख़ हसीना प्रधानमंत्री बनीं.

अपने कार्यकाल के आखिरी साल 2001 मे उन्होंने ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट’ में बदलाव कर इसका नाम ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी रिटर्न एक्ट’ कर दिया. अवामी लीग सरकार के इस फैसले का मकसद बांग्लादेश में रहने वाले अल्पसंख्यकों को उनकी अचल संपत्तियों का लाभ दिलाना था.

इस संशोधित कानून के तहत अल्पसंख्यकों की जब्त की गई जमीनों से संबंधित मुकदमे का फैसला 90 दिनों में और 180 दिनों के भीतर याचिकाकर्ताओं को उक्त भूमि पर दखल-कब्जा दिलाने का लक्ष्य रखा गया था.

लेकिन अक्टूबर 2001 में बांग्लादेश जातीय संसद (नेशनल असेंबली) के चुनाव में बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) दोबारा हुकूमत में आई और ख़ालिदा ज़िया प्रधानमंत्री बनीं. बीएनपी सरकार ने ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी रिटर्न एक्ट’ में पिछली सरकार द्वारा किए गए प्रावधानों को ठंडे बस्ते में डाल दिया.

बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना. (फोटो: रॉयटर्स)
बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना. (फोटो: रॉयटर्स)

हिंदुओं के मुकदमे

जनवरी 2009 में अवामी लीग फिर सत्ता में आई और प्रधानमंत्री शेख़ हसीना की अगुवाई वाली सरकार ने ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी रिटर्न एक्ट’ को दोबारा प्रभावी बनाने का फैसला किया. साल 2013 में इस बाबत हर जिले में फास्ट ट्रैक कोर्ट गठित की गई. ताकि अपनी जमीन से बेदखल हो चुके अल्पसंख्यकों को उनकी संपत्ति वापस मिल सके.

हालांकि इस समय ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी रिटर्न एक्ट’ से जुड़े करीब 10 लाख अल्पसंख्यकों खासकर हिंदुओं के मुकदमे बांग्लादेश के विभिन्न अदालतों में लंबित हैं.

बांग्लादेश भूमिहीन किसान समिति के महासचिव सुबल सरकार बताते हैं, ‘अवामी लीग की सरकार ने एनिमी प्रॉपर्टी एक्ट में काफी तब्दीली की, लेकिन अल्पसंख्यकों को जितना फ़ायदा मिलना चाहिए उतना नहीं मिला है. ये कानून वैसे लोगों के लिए मुफ़ीद बन गई है, जो अल्पसंख्यकों की जमीन पर कब्जा करना चाहते हैं. सरकार को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए,वरना वह दिन दूर नहीं जब बांग्लादेश में अल्पसंख्यक पूरी तरह भूमिहीन हो जाएंगे.’

बांग्लादेश कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के महासचिव मोहम्मद बदरूल आलम ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी रिटर्न एक्ट’ में अभी तक हुए बदलावों को अल्पसंख्यकों के हितों के लिए नाकाफी मानते हैं.

उनका कहना है, ‘एनिमी प्रॉपर्टी एक्ट या वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट बनाने का मतलब है किसी समुदाय विशेष के हितों की अनदेखी करना. इस तरह के काले कानून को पूरी तरह से खत्म करने का साहस सरकार को दिखाना चाहिए.’

बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में

बांग्लादेश कृषक फेडरेशन के महासचिव ज़ायद इक़बाल ख़ान बताते हैं, ‘साल 1971 के मुक्ति युद्ध के समय काफी संख्या में बांग्लादेशी हिंदू भारत में बस गए. उनमें ज्यादातर लोगों के चाचा, भाई और बहन बांग्लादेश छोड़कर नहीं गए. यहां रहने वालों की जमीनें उनके पुरखों के नाम पर हैं. ऐसे में उनकी संपत्ति को वेस्टेड प्रॉपर्टी घोषित कर बेदखल करना नाइंसाफी है. साल 1965 में शत्रु संपदा अधिनियम लागू होने वक्त पाकिस्तान था, लेकिन 1971 के बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में भारत की मदद और उनके हजारों सैनिकों के बलिदान का क्या यही प्रतिफल है.’

‘डिप्रिवेशन ऑफ हिंदू माइनॉरिटी इन बांग्लादेश लिविंग विथ वेस्टेड प्रॉपर्टी’ किताब की प्रस्तावना में बांग्लादेश सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस (रिटायर्ड) मोहम्मद गुलाम रब्बानी ने भी लिखा है,

‘शत्रु संपत्ति अधिनियम की वजह से बांग्लादेशी हिंदू कितने परेशान हैं, इस बात का एहसास मुझे उस वक्त हुआ जब मैं साल 1969 में ढाका हाईकोर्ट में वकालत कर रहा था. मेरे पास तीन हिंदू भाईयों से जुड़ा एक मामला आया. उनमें एक भाई 1952 में भारत चला गया. बाकी दो भाई नौगांव जिले में रह गए. राजशाही डिवीजन के अधिकारियों ने भारत गए उस व्यक्ति की जमीन को वेस्टेड प्रॉपर्टी घोषित कर दिया.नतीजतन उन्होंने हाईकोर्ट में मुकदमा दायर किया. इस मामले में उस हिंदू परिवार की जीत हुई और उन्हें वापस जमीन का कब्जा मिल गया.

दूसरा मामला बोगरा जिले का था. यहां एक हिंदू कारोबारी की चावल और ऑयल मिलें थी. साल 1962 में वह कारोबारी भारत चले गए, लेकिन उनके दो सगे भतीजे बांग्लादेश में ही रहने का फैसला किया. सरकार ने उनकी संपत्ति को ‘शत्रु संपत्ति’ घोषित कर दिया. पीड़ित पक्ष ने हाईकोर्ट में मुकदमा किया और कई वर्षों बाद उन्हें जीत मिली.’

नौगांव जिले का एक हिंदु बहुल गांव पतिसर
नौगांव जिले का एक हिंदु बहुल गांव पतिसर. (फोटो: अभिषेक रंजन सिंह)

जस्टिस रब्बानी लिखते हैं, ‘बांग्लादेश में इस तरह के लाखों मुकदमे अदालतों में लंबित हैं. वहां चंद ऐसे मामलों में जीत कोई मायने नहीं रखता. लिहाजा सरकार और न्यायपालिका को इस कानून के खात्मे पर गंभीरता से विचार करना चाहिए क्योंकि यह कानून अमानवीय और असंवैधानिक है.’

फर्जी दस्तावेजों के जरिये जमीनों पर कब्जा

दक्षिण बांग्लादेश स्थित बारिसाल डिवीजन अंतर्गत दश्मिना उप-जिले में हिंदुओं की अच्छी संख्या है. अस्सी वर्षीय विभूति रंजन चक्रवर्ती बताते हैं कि डेढ़ सौ वर्षों से उनका परिवार यहां रहता है. विभाजन से पहले दश्मिना गांव में उनके संयुक्त परिवार में सत्तर बीघा जमीन थी. लेकिन 1947 में उनके दो भाइयों ने भारत जाने का फैसला किया.

कुछ वर्षों तक भाइयों के हिस्से की जमीन उनके कब्जे में रही, लेकिन 1965 में शत्रु संपत्ति कानून बनने के बाद सरकार ने उसे एनिमी प्रॉपर्टी घोषित कर दिया. बिना चास कई वर्षों तक जमीन परती रही, लेकिन 1971 में स्थानीय मुसलमानों ने फर्जी कागजों के जरिये जमीनों पर कब्जा कर लिया. फिलहाल वे सात बीघा जमीन के दखलकार हैं और इसी से वह अपना और अपने परिवार का गुजारा चलाते हैं.

बांग्लादेश के बारिसाल डिवीजन अंतर्गत दश्मिना उपजिले में उत्तम चक्रवर्ती अपनी पत्नी के साथ.
बांग्लादेश के बारिसाल डिवीजन अंतर्गत दश्मिना उपजिले में उत्तम चक्रवर्ती अपनी पत्नी के साथ. (फोटो: अभिषेक रंजन सिंह)

उत्तम चक्रवर्ती का किस्सा भी कुछ ऐसा ही है. 1947 से पहले उनके बाप-दादा झालोकाठी जिले में रहते थे. 1946 के नोआखाली दंगे की आग उनके गांव तक पहुंच गई. गांव के ज्यादातर हिंदू अपना घर-बार छोड़कर भारत चले गए. लेकिन उनका परिवार दश्मिना आकर बस गया.

झालोकाठी में उनके सौ बीघा जमीन पर गैर-हिंदुओं ने कब्जा कर लिया. एक मंदिर में पुजारी उत्तम चक्रवर्ती के पास चार बीघा जमीन है. उनके परिवार में उनकी पत्नी मिनाली चक्रवर्ती और दो छोटे बच्चे हैं.

बारिसाल स्थित दत्तापाड़ा गांव निवासी मेघना तालुकदार के संयुक्त परिवार में कभी डेढ़ सौ बीघा जमीन थी. बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के बाद उनके कई परिजन भारत चले आए, लेकिन उनके पति और उनके दो भाइयों ने बारिसाल में ही रहने का फैसला किया. भारत गए उनके परिजनों की जमीनों को सरकार ने वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट घोषित कर दिया.

मेघना बताती हैं, ‘उनकी जमीनों को वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट के तहत जब्त करना एक गलत फैसला है क्योंकि उनके परिजन भारत जाने के समय अपने हिस्से की भूमि उनके नाम कर दी थी.’

राजधानी ढाका से ढाई सौ किलोमीटर दूर नौगांव (पूर्व में राजशाही जिला) स्थित है अतरई. छह हजार की आबादी वाले इस गांव में करीब सौ घर हिंदुओं के हैं.

बांग्लादेश के नौगांव जिले में वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट के शिकार कालीकांत मंडल अपने परिवार के साथ.
नौगांव जिले में कालीकांत मंडल अपने परिवार के साथ. (फोटो: अभिषेक रंजन सिंह)

65 वर्षीय कालीकांत मंडल के पास पांच बीघा जमीन है. वह बताते हैं, ‘पहले यहां हिंदुओं और मुसलमानों की आबादी बराबर थी. बंटवारे के समय अतरई समेत राजशाही के ज्यादातर संपन्न हिंदू भारत चले गए. पश्चिम बंगाल में उनका कोई रिश्तेदार नहीं था इसलिए उनका परिवार यहीं रहना मुनासिब समझा.’

1971 के मुक्ति युद्ध में पाकिस्तानी सेना द्वारा हिंदू बहुल जिलों- खुलना, राजशाही, रंगपुर और चट्टोग्राम (चटगांव) में बड़े पैमाने पर कत्लेआम किया गया. जान बचाने के लिए काफी संख्या में यहां के हिंदुओं ने भारत में शरण ली, जिनमें उनके चाचा और दो चचेरे भाई भी शामिल थे.

उनके हिस्से की जमीन पर कई वर्षों तक उन्होंने खेती की, लेकिन साल 1990 में उक्त भूमि पर खेती नहीं करने का सरकारी फरमान सुनाया गया. वे बताते हैं, ‘कस्टोडियन की तरफ से मुझे एक नोटिस भी मिला.’

उनके मुताबिक सरकारी आदेश का पालन करते हुए उन्होंने अपने परिवार की जमीन पर कोई दावा-दलील नहीं किया, लेकिन कुछ वर्षों बाद स्थानीय लोगों ने उस जमीन पर कब्जा कर लिया.

अल्पसंख्यकों से किए वादे नहीं हुए पूरे

पिछले साल दिसंबर में संपन्न हुए नेशनल असेंबली के चुनाव में सत्ताधारी अवामी लीग और मुख्य विपक्षी पार्टी बीएनपी ने अपने चुनावी घोषणा पत्रों में अल्पसंख्यक हितों को खास तरजीह दी थी.

अवामी लीग को वैसे भी हिंदुओं की हितैषी पार्टी मानी जाती है और हिंदू मतदाता भी अवामी लीग के मजबूत वोट बैंक माने जाते हैं. अपने घोषणा पत्र में अवामी लीग ने सत्ता में आने पर ‘राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग’ गठित करने का वादा किया था. जबकि बेगम खालिदा जिया के नेतृत्व वाली बीएनपी ने अपने घोषणा-पत्र में ‘अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय’ बनाने का वादा किया था.

Bangladesh National Assembly Photo Abhishek Ranjan
बांग्लादेश की नेशनल असेंबली (फोटो: अभिषेक रंजन सिंह)

चुनाव में बीएनपी और उसके सहयोगी दलों ने कुल बारह अल्पसंख्यकों को उम्मीदवार बनाकर हैरान जरूर किया था. वहीं सत्ताधारी अवामी लीग ने 18 अल्पसंख्यक उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारा था, जिनमें पंद्रह हिंदू, दो बौद्ध और एक ईसाई थे.

अवामी लीग के सभी अल्पसंख्यक उम्मीदवार चुनाव जीतने में सफल रहे. जनवरी 2020 में अवामी लीग सरकार को एक साल पूरे हो जाएंगे, लेकिन राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग बनाने का जो वादा प्रधानमंत्री शेख हसीना ने किया था,वह अभी तक पूरा नहीं हो सका.

पिछले साल नेशनल असेंबली के चुनाव के समय बांग्लादेश हिंदू-बौद्ध-क्रिश्चियन एकता परिषद अवामी लीग सरकार को पांच-सूत्रीय ज्ञापन सौंपा था. उक्त ज्ञापन में वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट की वजह से अपनी जमीन गंवा चुके अल्पसंख्यकों को वापस दखल-कब्जा दिलाने की मांग की गई थी. साथ ही, यह मांग भी थी कि सरकार उन नेताओं पर कार्रवाई करे, जिन पर अल्पसंख्यकों की संपत्ति हड़पने के आरोप लगे हैं.

रंगपुर का ज़मींदार काशी में ली अंतिम सांस

1947 के विभाजन के समय भारत और पूर्वी-पश्चिमी पाकिस्तान दोनों तरफ से लाखों लोगों का पलायन हुआ. वे अपनी चल-अचल संपत्तियों को छोड़ महफूज ठिकाने की तलाश में निकले. जयपुर में रहने वाले सुधेंदु पटेल का परिवार भी उन्हीं लोगों में एक है.

वह बताते हैं कि उनके पिता केशवलाल पटेल बांग्लादेश के रंगपुर डिवीजन में नामी ज़मींदारों में शुमार थे. रंगपुर डिवीजन स्थित पार्बतीपुर, नीलफामारी, लालमुनीरहाट और कुडीग्राम के कई मौज़ों में उनकी ज़मींदारी थी. निःसंतान होने की वजह से उनके मामा नंद किशोर लाला ने अपनी जायदाद करीब 2,200 बीघा जमीन केशवलाल पटेल के नाम कर दी.

सुधेंदु बताते हैं, ‘बंटवारे के समय ज्यादातर रिश्तेदार पूर्वी पाकिस्तान से बनारस आ गए. कई लोगों ने मेरे पिता को भारत जाने की सलाह दी, लेकिन वे जमींदारी का मोह नहीं छोड़ सके. मोहम्मद अली जिन्ना की बहन फ़ातिमा जिन्ना की पार्टी से वे रंगपुर से चुनाव भी लड़े. 1971 में जब बांग्लादेश बना उसके बाद भी वह रंगपुर में ही रहे. हालांकि, इस बीच उनकी आधी जमीनें सीलिंग एक्ट में चली गईं और शेष जमीन एनिमी प्रॉपर्टी घोषित हो गई. बुढ़ापे और बीमारियों की वजह से 1984 में वह बनारस आ गए और दो साल बाद 1986 में उनका देहांत हो गया. रंगपुर में जिस ज़मींदारी की वजह से उन्होंने अपने परिवार को छोड़ दिया. उनके मरने के बाद उनकी सारी जमीनों पर स्थानीय लोगों ने कब्जा कर लिया.’

Bangladesh Patel Family
केशवलाल पटेल, बांग्लादेश में उनकी जमीन के कागज और सुधेंदु पटेल (बाएं से दाएं)

संतोष कुमार सरकार बांग्लादेश सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं. मूलतः रंगपुर के रहने वाले सरकार ने केशवलाल पटेल की जमीनों को सीलिंग और वेस्टेड पॉपर्टी एक्ट से मुक्त कराने के लिए कई वर्षों तक मुकदमा भी लड़ा. लेकिन पटेल की मृत्यु के बाद उनके परिवार के किसी सदस्यों ने कोई रुचि नहीं दिखाई.

वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट से जुड़े कई मुकदमों की पैरवी कर रहे संतोष कुमार सरकार बताते हैं, केस नंबर 604/2017 सुंदर मुखोपाध्याय वगैरह बनाम बांग्लादेश सरकार और केस नंबर 655/ 2013 महेंद्रनाथ बैरागी वगैरह बनाम बांग्लादेश सरकार में उनके मुव्वकिलों की जीत हुई.

इस फैसले को बांग्लादेश सरकार ने अपीलेट ट्रिब्यूनल में चुनौती दी, लेकिन यहां भी फैसला उनके पक्ष में रहा. न्यायिक आदेश के बावजूद उनके मुव्वकिलों को जमीन पर दखल-कब्जा नहीं मिल पाया है.

उनके मुताबिक, बांग्लादेश में वेस्टेड प्रॉपर्टी से जुड़े फैसलों का तब तक कोई महत्व नहीं है, जब तक कि पीड़ित पक्षकारों को उनकी जमीनों पर शांतिपूर्ण कब्जा न मिल जाए.

संतोष कुमार सरकार कहते हैं, ‘बांग्लादेश से हिंदुओं के पलायन की सबसे बड़ी वजह वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट है. एनिमी प्रॉप्रटी एक्ट लागू होने से पहले यानी 1961 में बांग्लादेश में 18 फीसदी हिंदू थे, लेकिन 1981 में इनकी संख्या घटकर 12 फीसदी रह गई और 2001 की जनगणना के अनुसार यहां महज 10 फीसदी हिंदू रह गए हैं. इस लिहाज से देखें तो 1964 से 2001 के दौरान 8.1 मिलियन हिंदू बांग्लादेश से पलायन कर गए.’

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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