सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी क़ानून संबंधी पुनर्विचार याचिका तीन जजों की पीठ को सौंपी

शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार की पुनर्विचार याचिका पर अपना फैसला एक मई को सुरक्षित रखते हुए टिप्पणी की थी कि देश में कानून जातिविहीन और एकसमान होने चाहिए.

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New Delhi: A view of the Supreme Court of India in New Delhi, Monday, Nov 12, 2018. (PTI Photo/ Manvender Vashist) (PTI11_12_2018_000066B)
(फोटो: पीटीआई)

शीर्ष अदालत ने एक मई को केंद्र सरकार की पुनर्विचार याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रखते हुए टिप्पणी की थी कि देश में कानून जातिविहीन और एक समान होने चाहिए.

New Delhi: A view of the Supreme Court of India in New Delhi, Monday, Nov 12, 2018. (PTI Photo/ Manvender Vashist) (PTI11_12_2018_000066B)
सुप्रीम कोर्ट (फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति कानून के तहत गिरफ्तारी के प्रावधान को हल्का करने संबंधी शीर्ष अदालत के 20 मार्च, 2018 के फैसले पर पुनर्विचार के लिए केंद्र की याचिका शुक्रवार को तीन जजों की पीठ को सौंप दी.

जस्टिस अरुण मिश्रा और जस्टिस उदय यू. ललित की पीठ ने कहा, ‘इस मामले को अगले सप्ताह तीन न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष रखा जाये.’

शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार की पुनर्विचार याचिका पर अपना फैसला एक मई को सुरक्षित रखते हुए टिप्पणी की थी कि देश में कानून जातिविहीन और एकसमान होने चाहिए.

केंद्र ने 20 मार्च के फैसले पर पुनर्विचार करने पर जोर देते हुए कहा था कि इससे समस्याएं पैदा होंगी, इसलिए इस पर फिर से विचार किया जाना चाहिए.

शीर्ष अदालत के इस फैसले के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में एससी/एसटी जातियों के संगठनों ने बड़े पैमाने पर प्रदर्शन किए थे.

इस फैसले का समर्थन करने वाले कुछ दलों ने दलील दी थी कि केंद्र की पुनर्विचार याचिका निरर्थक हो गई है क्योंकि संसद पहले ही इस फैसले को निष्प्रभावी बनाने के लिए अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचारों की रोकथाम) संशोधन कानून, 2018 पारित कर चुकी है.

इन दलों ने शीर्ष अदालत में पुनर्विचार याचिका पर फैसला होने तक संशोधित कानून पर रोक लगाने का अनुरोध किया था. शीर्ष अदालत ने कहा था कि यदि इस फैसले में कुछ गलत हुआ हो तो उसे पुनर्विचार याचिका के माध्यम से ठीक किया जा सकता है.

कोर्ट ने 30 अगस्त को संशोधित कानून पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था. यह संशोधित कानून अग्रिम जमानत की व्यवस्था खत्म करने के प्रावधान को बहाल करने से संबंधित था.

संसद ने पिछले साल नौ अगस्त को इस कानून के तहत गिरफ्तारी के मामले में कुछ उपाय करने संबंधी शीर्ष अदालत के फैसले को निष्प्रभावी करने के इरादे से एक विधेयक पारित किया था.

शीर्ष अदालत ने 20 मार्च को अपने फैसले में अनुसूचित जाति और जनजाति कानून के कठोर प्रावधानों का सरकारी कर्मचारियों और अन्य लोगों के खिलाफ बड़े पैमाने पर दुरूपयोग का संज्ञान लेते हुए कहा था कि इस कानून के तहत दायर किसी भी शिकायत पर तत्काल कोई गिरफ्तारी नहीं होगी.

न्यायालय ने कहा था कि अनेक मामलों में निर्दोष नागरिकों को आरोपी बनाया गया और लोक सेवक अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने से गुरेज करने लगे जबकि कानून बनाते समय विधायिका की ऐसी कोई मंशा नहीं थी.

न्यायालय ने यह भी कहा था कि यदि इस कानून के तहत दर्ज शिकायत पहली नजर में दुर्भावनापूर्ण लगती है और ऐसा लगता है कि इसमें कोई मामला नहीं बनता है तो इस कानून के तहत दर्ज मामलों में अग्रिम जमानत देने पर पूरी तरह प्रतिबंध नहीं है.

शीर्ष अदालत ने कहा कि इस कानून के तहत दर्ज मामले में गिरफ्तारी के प्रावधान के दुरूपयोग को देखते हुए किसी भी लोक सेवक की गिरफ्तारी उसकी नियुक्ति करने वाले सक्षम प्राधिकारी और गैर लोकसेवक के मामले में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक से मंजूरी लेने के बाद ही की जा सकेगी.

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपनी पुनर्विचार याचिका में कहा है कि 20 मार्च के न्यायालय के निर्णय में इस कानून के प्रावधानों को नरम करने के दूरगामी परिणाम होंगे. इससे अनुसूचित जाति और जनजाति के सदस्यों पर इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा.

केंद्र सरकार ने शीर्ष अदालत में कहा था कि उसके फैसले ने देश में बेचैनी, क्रोध, असहजता और कटुता का भाव पैदा कर दिया है.

मालूम हो कि एससी-एसटी एक्ट के प्रावधानों में बदलाव के बाद दो अप्रैल को दलित संगठनों की ओर से बुलाए गए भारत बंद के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों में हिंसा हुई थी जिसमें तकरीबन 11 लोगों की मौत हो गई थी.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

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