भारत में समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह गौर करना दिलचस्प है कि राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों से जुड़े भाग चार में संविधान के अनुच्छेद 44 में निर्माताओं ने उम्मीद की थी कि राज्य पूरे भारत में समान नागरिक संहिता के लिए प्रयास करेगा. लेकिन आज तक इस संबंध में कोई कार्रवाई नहीं की गई है.

New Delhi: A view of the Supreme Court of India in New Delhi, Monday, Nov 12, 2018. (PTI Photo/ Manvender Vashist) (PTI11_12_2018_000066B)
(फोटो: पीटीआई)

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह गौर करना दिलचस्प है कि राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों से जुड़े भाग चार में संविधान के अनुच्छेद 44 में निर्माताओं ने उम्मीद की थी कि राज्य पूरे भारत में समान नागरिक संहिता के लिए प्रयास करेगा. लेकिन आज तक इस संबंध में कोई कार्रवाई नहीं की गई है.

New Delhi: A view of the Supreme Court of India in New Delhi, Monday, Nov 12, 2018. (PTI Photo/ Manvender Vashist) (PTI11_12_2018_000066B)
सुप्रीम कोर्ट (फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को देश के नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता तैयार किए जाने पर बल दिया और अफसोस जताया कि सर्वोच्च अदालत के ‘प्रोत्साहन’ के बाद भी इस मकसद को हासिल करने का कोई प्रयास नहीं किया गया.

जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पीठ ने कहा कि यह गौर करना दिलचस्प है कि राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों से जुड़े भाग चार में संविधान के अनुच्छेद 44 में निर्माताओं ने उम्मीद की थी कि राज्य पूरे भारत में समान नागरिक संहिता के लिए प्रयास करेगा. लेकिन आज तक इस संबंध में कोई कार्रवाई नहीं की गई है.

पीठ ने 31 पेज के अपने फैसले में कहा, ‘हालांकि हिंदू अधिनियमों को वर्ष 1956 में संहिताबद्ध किया गया था, लेकिन इस अदालत के प्रोत्साहन के बाद भी देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू करने का कोई प्रयास नहीं किया गया है ….’

द हिंदू के अनुसार, फैसले ने कहा गया 1985 में शाह बानो के मामले में इस न्यायालय के उकसाने के बावजूद सरकार ने समान नागरिक संहिता लाने के लिए कुछ नहीं किया.

न्यायालय ने ध्यान दिलाते हुए कहा कि गोवा एक ‘बेहतरीन उदाहरण’ है जहां समान नागरिक संहिता है और धर्म की परवाह किए बिना सब पर लागू है, ‘सिवाय कुछ सीमित अधिकारों की रक्षा करते हुए.’

गोवा में प्रचलित इस संहिता के तहत राज्य में पंजीकृत विवाह करने वाला एक मुस्लिम व्यक्ति बहुविवाह नहीं कर सकता है, एक विवाहित जोड़ा समान रूप से संपत्ति साझा करता है, विवाह पूर्व समझौते जरूरी होते हैं और तलाक के बाद पुरुष और महिला के बीच संपत्ति समान रूप से विभाजित होती है.

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला एक ऐसे मामले में आया है जिसमें यह सवाल उठा था कि गोवा के निवासियों का अधिकार पुर्तगाली नागरिक संहिता, 1867 से नियंत्रित होगा या भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 से नियंत्रित होगा.

जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पीठ ने अपने फैसले में कहा कि देश में कहीं भी रह रहे गोवावासी का संपत्ति से जुड़ा उत्तराधिकार और दाय अधिकार पुर्तगाली नागरिक संहिता, 1867 से नियंत्रित होगा.

शीर्ष अदालत ने इस सवाल पर भी गौर किया कि क्या पुर्तगाली नागरिक संहिता को विदेशी कानून कहा जा सकता है.

पीठ ने कहा कि ये कानून तब तक लागू नहीं होते जब तक कि भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं हो और पुर्तगाली नागरिक संहिता भारतीय संसद के एक कानून के कारण गोवा में लागू है.

पीठ ने कहा, ‘इसलिए पुर्तगाली कानून जो भले ही विदेशी मूल का हो, लेकिन वह भारतीय कानूनों का हिस्सा बना और सार यह है कि यह भारतीय कानून है. यह अब विदेशी कानून नहीं है. गोवा भारत का क्षेत्र है, गोवा के सभी लोग भारत के नागरिक हैं.’

बता दें कि, गोवा तब तक एक पुर्तगाली उपनिवेश था जब तक इसे भारत का हिस्सा नहीं बनाया गया था.

हालांकि, 2018 में भारत के एक विधि आयोग परामर्श पत्र ने कहा था कि इस स्तर पर देश में समान नागरिक संहिता न तो आवश्यक है और न ही कोई इसकी मांग कर रहा है. आयोग ने कहा था कि धर्मनिरपेक्षता देश में व्याप्त बहुलता का खंडन नहीं कर सकती है.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)