असम में बोडो लोगों तक फिल्मों की पहुंच नहीं, इसलिए हम इन्हें उन तक पहुंचाते हैं: रजनी बसुमतारी

साक्षात्कार: असमी भाषा की फिल्म ‘राग’ और बोडो भाषा की फिल्म ‘जोलै: द सीड’ की निर्देशक और अभिनेत्री रजनी बसुमतारी से प्रशांत वर्मा की बातचीत.

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फिल्म निर्देशक रजनी बसुमतारी. (फोटो साभार: फेसबुक)

साक्षात्कार: असमी भाषा की फिल्म ‘राग’ और बोडो भाषा की फिल्म ‘जोलै: द सीड’ की निर्देशक और अभिनेत्री रजनी बसुमतारी से प्रशांत वर्मा की बातचीत.

फिल्म निर्देशक रजनी बसुमतारी. (फोटो साभार: फेसबुक)
फिल्म निर्देशक रजनी बसुमतारी. (फोटो साभार: फेसबुक)

बोडो भाषा की फिल्म जोलै: द सीड बनाने की प्रेरणा कहा से मिली?

90 के दशक में उत्तर-पूर्व में अलगाववादी आंदोलन शुरू हुआ था. इसके ख़िलाफ़ सेना ने ज़ोरदार काउंटर ऑपरेशन चलाया हुआ था. सेना के इस उग्रवाद विरोधी ऑपरेशन में गांव के लोगों को बहुत ज़्यादा कष्ट मिला.

ऑपरेशन के नाम पर रात में छापा मारा जाता था, लड़कों को उठा लिया जाता था. जिनकी खोज में छापा मारा जाता था, वो लोग तो घर में होते नहीं थे, लेकिन उनके घरवालों और गांव के लोगों को परेशान किया जाता था. सशस्त्र बल विशेषाधिकार क़ानून (आफ्सपा) के तहत ये ऑपरेशन चलाया जाता था.

मेरी फिल्म की कहानी तक़रीबन सत्य घटनाओं पर आधारित है. मेरे घर में भी ये हुआ था. मेरा परिवार भी इससे पीड़ित था. मेरे माता-पिता ने बहुत कुछ सहा. इसी पीड़ा से ये फिल्म बनाने की प्रेरणा मिली.

फिल्म की कहानी क्या है और फिल्म का ये नाम क्यों रखा गया?

एक समय पर लोग ऐसा महसूस करने लगे थे कि हमारी पीढ़ी और समुदाय ख़त्म हो रहा है. जोलै मतलब हिंदी में बीज होता है. असम में धान होता है तो उसका जो सबसे अच्छा हिस्सा होता है, अगली बार की फसल उगाने के लिए उसे अलग कर रख लिया जाता है.

फिल्म एक परिवार की कहानी है. पिता उग्रवादियों और सेना की मुठभेड़ के दौरान मारे जाते हैं. उनका बेटा उस वक़्त 13 साल का होता है.

ये लड़का आगे चलकर उग्रवाद के चंगुल में फंस जाता है. मां उसे रोकने की कोशिश करती है, लेकिन ऐसा हो नहीं हो पाता. इसके बाद मां का संघर्ष शुरू होता है.

मां डर के साथ जीने लगती है कि उनकी पीढ़ी ख़त्म हो गई. उनका परिवार अब आगे नहीं बढ़ेगा. इसी बात को हमने प्रतीकात्मक तौर पर बीज से जोड़ने की कोशिश की है.

ये फिल्म सिनेमाघरों में रिलीज़ नहीं हुई है. इसकी क्या वजह है?

मेरी ये फिल्म बोडो भाषा में हैं और बोडो भाषी क्षेत्रों में सिनेमा हाल न के बराबर हैं. सुदूर गांवों में बसे लोग शहर या कस्बों में सिनेमा देखने नहीं आ पाते हैं.

अभी मल्टीप्लेक्स बन गया है, लेकिन उन लोगों को उतना साहस नहीं है कि शहर आकर टिकट ख़रीदकर फिल्म देखे. पहले सिंगल स्क्रीन होते थे तो ये लोग देख भी लेते थे. अभी 300 का पॉपकॉर्न और 200 रुपये का टिकट ख़रीदकर वे कहां फिल्म देख पाएंगे.

फिल्म का ख़र्च तो एक बात है, लेकिन मैं समझती हूं कि लोगों में वो आत्मविश्वास या साहस नहीं है कि मल्टीप्लेक्स में जाकर फिल्म देख सकें.

इसके अलावा लोग शहरों से बहुत दूर गांवों में रहते हैं. शहरों में भी सिनेमाघर एक-दो जगहों पर ही हैं. मुख्य बोडो क्षेत्र कोकराझाड़ में एक सिनेमाघर है. उदालगुड़ी जो दूसरा मुख्य क्षेत्र है, वहां एक भी सिनेमाघर नहीं है.

फिल्म जोलै: द सीड का पोस्टर. (फोटो साभार: फेसबुक)
फिल्म जोलै: द सीड का पोस्टर. (फोटो साभार: फेसबुक)

इसलिए हम बोडो भाषा की फिल्में इस क्षेत्र के गांव-गांव में प्रोजेक्टर के माध्यम से दिखाते हैं. एक मंडल या समिति होती है, वे लोग हमारी फिल्मों को गांव-गांव ले जाकर प्रदर्शित करते हैं.

ये थियेटरिटिकल रिलीज़ तो नहीं है, लेकिन गांवों में मेरी फिल्म को रिलीज़ कर दिया गया है.

फिल्म दिखाने वाली समिति मतलब?

लोगों को फिल्म दिखाने का एक तरीका ढूंढ लिया गया है. इस क्षेत्र में ये काफी साल से चल रहा है. फिल्म दिखाने वाली समितियां होती हैं. वे लोग हमें किराया देकर हमसे फिल्म ले जाते हैं.

प्रति शो फिल्म का किराया तय हो जाता है. इसके बाद गांवों में फिल्म दिखाने की पूरी व्यवस्था ये लोग ही करते हैं.

टिकट बेचने से लेकर, फिल्म का पंडाल बनाने और लोगों के बैठने की व्यवस्था, प्रोजेक्टर… ये सारी व्यवस्था उनकी होती है और जो भी फायदा होता है, वो इनका होता है.

10 हज़ार से लेकर 15 या 16 हज़ार रुपये तक प्रति शो फिल्म का किराया मिल जाता है. शाम को अगर दूसरा शो भी चल गया तो किराये की आधी रकम मिल जाती है.

इन समितियों के साथ हमारे एक या दो लोग जाते हैं, जो फिल्म का प्रिंट पेन ड्राइव या डीवीडी में रखते हैं, क्योंकि फिल्म कॉपी होने का डर होता है.

मतलब यही व्यवस्था पूरे साल भर चलती रहती है?

नहीं-नहीं… बोडो फिल्म दिखाने की एक समयसीमा होती है. बोडो फिल्में पूजा के समय से ही दिखाई जानी शुरू होती हैं.

ये समय सितंबर से शुरू होता है, जो अधिकतम नवंबर में लक्ष्मी पूजा तक चलता है. इसके अलावा गांवों में इस समय दुर्गा पूर्जा के पंडाल भी सजे होते हैं, वहां हमारी फिल्में ख़ूब चलती हैं.

पंडालों में भी ये समितियां फिल्म दिखा देती हैं. पूरे दिन पूजा चलती है और रात को फिल्म का शो रख दिया जाता है.

इसी तरह से बोडो फिल्मों को ज़िंदा रखा जा रहा है.

यानी ये कहा जा सकता है कि बोडो क्षेत्र के लोगों में वो साहस या आत्मविश्वास नहीं कि वे शहर आएं और सिनेमा देखें, इसलिए आप उनके दरवाज़े तक सिनेमा ले जाते हैं?

साहस या आत्मविश्वास की वजह से सिनेमा न देख पाना, ये मुख्य कारण नहीं है. असल कारण उनकी पहुंच ही सिनेमा तक नहीं है. कोई 20 से 30 किलोमीटर चलकर फिल्म देखने नहीं जाएगा.

दिल्ली में आप सिनेमा देखने 20 किलोमीटर चले जाते हो क्योंकि वहां आने-जाने के साधन हैं, लेकिन गांवों में ऐसा नहीं है. गांव में ये सुविधा नहीं कि लोग अपना सब काम छोड़कर सिनेमा देखने शहर चले जाएं.

आत्मविश्वास का न होना दूसरा कारण है. मल्टीप्लेक्स नया कल्चर है. गांव के लोग उससे परिचित नहीं हैं. इसलिए हम सिनेमा उनके दरवाज़े तक पहुंचाने की कोशिश करते हैं.

इस पूरी प्रक्रिया में किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है?

छोटे सिनेमाघर बनाने के मांग कई सालों से सरकार से की जा रही है. सिर्फ बोडो क्षेत्र में ही नहीं, ये मांग पूरे असम की है. असम में उग्रवाद जब चरम पर था तो काफी सारे सिनेमाघर डर की वजह बंद हो गए. हिंदी सिनेमा देखने की मनाही थी.

और अगर आप हिंदी फिल्म नहीं दिखाते तो असमी भाषा की फिल्में इक्का-दुक्का ही आती हैं. इन एक-दो फिल्मों के दम पर आप सिनेमाघर नहीं चला सकते.

इसके अलावा 90 के दशक में टीवी आ गया था, सैटेलाइट आ गया था, इंटरनेट ने भी दस्तक दे दी थी. इस वजह से भी लोगों ने सिनेमाघर में जाना बंद कर दिया.

सिनेमाघरों बंद होने लगे तो किसी ने उसमें लकड़ी की मिल बना ली, किसी ने नर्सिंग होम खोल लिया तो किसी ने गेस्ट हाउस बना दिया.

हर जगह यही दिक्कत है और जगह-जगह छोटे सिनेमाघर बनाए जाने की मांग चल रही है. सरकार अगर इस ओर ध्यान देती तो काफी मदद मिल जाती.

अभी हम खुले मैदान में फिल्में दिखाते हैं. बारिश के समय बहुत कष्ट होता है. इस क्षेत्र के लोगों को फिल्में देखना पसंद है, इसलिए इस व्यवस्था में भी वे फिल्में देख रहे हैं.

बोडो क्षेत्र में फिल्म दिखाए जाने की सूचना के लिए लगा पोस्टर. (फोटो साभार: फेसबुक)
बोडो क्षेत्र में फिल्म दिखाए जाने की सूचना के लिए लगा पोस्टर. (फोटो साभार: फेसबुक)

आपका परिवार भी उग्रवाद से प्रभावित रहा है, जिसे आपने अपनी फिल्म में भी दिखाया है. आपके परिवार के साथ क्या हुआ था?

जोलै: द सीड में मेरी अपनी भी कहानी जुड़ी हुई है. उस दौरान यहां के लगभग सभी परिवारों को इस तरह की पीड़ा का सामना करना पड़ा.

दिसंबर 2003 में मेरा भाई गायब हो गया था और आज तक हमें उसके बारे में कुछ भी मालूम नहीं चल सका. मेरे माता-पिता अब नहीं रहे, लेकिन जब तक रहे उसका इंतज़ार करते रहे.

मेरी बहन के दो बेटे भी इस दौरान मारे गए. ये घटना मेरे भाई के गायब होने के एक-दो साल पहले की है.

मेरे माता-पिता की वेदना को मैंने देखा है. इसी पीड़ा से क्षेत्र के अन्य परिवार भी गुज़रे हैं. मैं हमेशा चाहती थी कि उनकी कहानी को दूसरे लोगों तक पहुंचाऊं. इसके लिए फिल्म से अच्छा ज़रिया और क्या हो सकता है.

असम में नॉलबाड़ी एक ज़िला है. उस समय जब अल्फा (उग्रवादी संगठन द यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम) अपने चरम पर था तो वहां बहुत सारे लड़के मारे गए. अभी वहां पर एक पूरी पीढ़ी ही नहीं है.

वहां आपको या तो बहुत बूढ़े लोग मिलेंगे या फिर 15-16 साल के बच्चे. वहां की एक पूरी पीढ़ी ही ख़त्म कर दी गई.

मुझसे बहुत सारे लोग कहते हैं कि अब बस करो… कितना उग्रवाद की बात करोगे, लेकिन बस कैसे करें. ये तो उतना पुराना मामला भी नहीं है. हम तो अभी भी भारत-पाकिस्तान विभाजन की बात करते हैं.

फिल्म जोलै: द सीड की शूटिंग के दौरान रजनी बसुमतारी. (फोटो साभार: फेसबुक)
फिल्म जोलै: द सीड की शूटिंग के दौरान रजनी बसुमतारी. (फोटो साभार: फेसबुक)

ये तो अभी 20 से 30 साल पुरानी ही कहानी है. इसे दर्ज किया जाना चाहिए, क्योंकि बाद में भूल जाएंगे. इसमें किसकी ग़लती थी किसकी नहीं, ये अलग बात है, लेकिन दर्ज तो होना चाहिए.

मैंने अपनी फिल्म में भी इसके लिए किसी को दोष नहीं दिया है. मैंने दिखाया है कि हिंसा से क्या होता है, एक परिवार… उसकी आने वाली पीढ़ियों और ख़ासतौर पर परिवार की औरतों पर क्या असर पड़ता है.

हिंसा से औरत सबसे ज़्यादा प्रभावित होती है. आदमी जब मारा जाता है तो पीछे वह रह जाती है. उसके पास न तो कोई कौशल है, न कोई प्रशिक्षण और न ही वह उतनी शिक्षित होती थी.

इस परिस्थितियों में उसे घर चलाना पड़ता है और बच्चों को पालना पड़ता है. फिल्म में मैंने उसी के संघर्ष को दिखाने की कोशिश की है.

आप असम के एक छोटे से कस्बे से हैं. बतौर करिअर फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कैसे आईं?

मैं असम में सोनितपुर जिले के रंगापाड़ा की रहने वाली हूं. मेरे पिता किसान थे. रंगापाड़ा में पढ़ने की इतनी सुविधा नहीं थी, इसलिए मुझे वहां से बाहर निकलना पड़ा.

मेरे सबसे बड़े भाई सिविल सर्वेंट हैं. उनका ही विचार था कि मैं पढ़ने के लिए बाहर जाऊं.

साल 1990 में मैं गुवाहाटी आ गई. यहां के हैंडिक गर्ल्स कॉलेज से असमी साहित्य में पढ़ाई की. पांच साल दिल्ली आ गई. यहां किताबों के संपादन और प्रकाशन की ट्रेनिंग ली.

गुवाहाटी में रहने के दौरान ही मैं अख़बारों और पत्रिकाओं में एक फ्रीलांसर के तौर पर लिखा करती थी. कक्षा नौ में थी तभी मेरी पहली लघु कहानी प्रकाशित हुई थी.

सिनेमा मुझे पसंद था. मेरी कहानियां जब छपने लगीं तो टीवी वगैरह में जो काम करते थे, उन्होंने कहा कि अच्छा लिखती हैं, हमारे लिए टीवी सीरीज़ लिख सकती हैं क्या?

इसके बाद कुछ-कुछ काम मिलने लगा तो सिनेमा के प्रति लगाव और बढ़ गया. फिर सोचा कि अगर लोगों को मेरी कहानियां पसंद आ रही हैं तो क्यों न मैं ख़ुद फिल्म बनाऊं.

बोडो क्षेत्र के एक गांव में जोलै द सीड फिल्म देखने के लिए पंडाल में जुटी भीड़. (फोटो साभार: फेसबुक)
बोडो क्षेत्र के एक गांव में जोलै द सीड फिल्म देखने के लिए पंडाल में जुटी भीड़. (फोटो साभार: फेसबुक)

साल 1995 में दिल्ली आकर मैंने स्क्रिप्ट लिखनी शुरू की. 2004 में असमी भाषा की फिल्म ‘अनुराग’ की स्क्रिप्ट लिखी. प्रोड्यूसर नहीं मिला तो ख़ुद ही प्रोड्यूस भी किया. मैंने इसका निर्देशन नहीं किया था.

दूसरी फिल्म असमी भाषा में एक फैमिली ड्रामा थी, जिसका नाम ‘राग’ था. एक निर्देशक के रूप में ‘जोलै: द सीड’ मेरी दूसरी फिल्म हैं. यह एक सामाजिक-राजनीतिक फिल्म है.

आप क्षेत्रीय सिनेमा से जुड़ी हुईं हैं. आपकी फिल्म ‘अनुराग’ को सात असम राज्य फिल्म पुरस्कार मिले थे. असमी सिनेमा को सरकार से कितनी मदद मिल पाती है?

सरकार से मदद मिलने की बात करें तो जो मनोरंजन कर होता है, उसमें थोड़ी राहत मिल जाती है. दर्शकों से जो मनोरंजन कर लिया जाता है, वह फिल्म के निर्माताओं को मिल जाता है.

असम सरकार ने 2014 में आई मेरी फिल्म ‘राग’ के लिए 60 प्रतिशत फंड किया था. ‘जोलै: द सीड’ को मैंने ख़ुद ही प्रोड्यूस किया.

फिल्म ‘राग’ पीवीआर के सहयोग से असम से बाहर भी देश के कुछ चुनिंदा सिनेमाघरों में रिलीज़ हुई थी. हालांकि एक ही हफ्ते बाद इसे सिनेमाघरों से उतार दिया गया था, क्योंकि किसी बड़े बैनर की फिल्म आ गई थी?

हां, यशराज बैनर की ‘गुंडे’ आ गई थी. बड़े बैनर फिल्म वितरकों से बोलते हैं कि हमें चार शो नहीं दोगे तो फिल्म का एक भी शो नहीं मिलेगा.

इसलिए हमारी फिल्में सिनेमाघरों में टिक नहीं पाती हैं. क्योंकि हमारी फिल्में से उन्हें कोई ख़ास फायदा तो नहीं होता और उन पर ऐसा कोई नैतिक दबाव भी नहीं होता, उन्हें तो बस पैसा कमाने से मतलब होता है.

हर राज्य के सिनेमाघरों में एक शो क्षेत्रीय सिनेमा के लिए तय होना चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं है. हम लोग इसकी मांग भी करते रहते हैं. क्षेत्रीय सिनेमा की सबसे बड़ी चुनौती भी यही होती है.

अन्य चुनौतियों की बात करें तो जितनी संख्या में सिनेमाघर होने चाहिए, उतने नहीं हैं. सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर बहुत ही ज़रूरी हैं. इसके अलावा सरकार को फिल्मों के लिए और ज़्यादा फंडिंग करनी चाहिए.

आपने प्रियंका चोपड़ा की फिल्म ‘मैरी कॉम’ में उनकी मां का किरदार निभाया था. ये फिल्म कैसे मिली थी?

उस फिल्म की कास्टिंग डायरेक्टर श्रुति महाजन ने किसी तरह मुझे फेसबुक पर देखा था. उन्होंने मुझसे फेसबुक पर ही संपर्क किया था. उस समय मेरी अपनी फिल्म की शूटिंग चल रही थी. तक़रीबन एक महीने बाद वो मैसेज मैं देख पाई थी.

फिर मैंने उन्हें जवाब दिया था कि अब तो काफी लेट हो गया है, लेकिन अभी अगर फिल्म की कास्टिंग नहीं हुई हो तो मैं ये रोल करने के लिए तैयार हूं. फिर दिल्ली से ही दो राउंड में मेरा ऑडिशन हुआ और मुझे ये रोल मिल गया.

उग्रवाद ने उत्तर-पूर्व के राज्यों सहित असम को काफी प्रभावित किया है. आज की बात करें तो क्या ये हल होने की तरफ बढ़ रहा है या स्थितियां और कठिन हो रही हैं?

ये मुद्दा हल होने की तरफ बढ़ रहा है. ऐसा इसलिए कह रही हूं क्योंकि हिंसा की घटनाएं काफी कम हो गई हैं.

अभी काफी खुलापन आ गया है. लोग बाहर आने-जाने लगे हैं. अब लोग अपनी ज़िंदगी को लेकर अलग नज़रिया रख रहे हैं. लोगों को ये पता चल गया कि हिंसा से कोई फायदा नहीं होने वाला.

जोलै: द सीड की शूटिंग के दौरान फिल्म का क्रू. (फोटो साभार: फेसबुक)
जोलै: द सीड की शूटिंग के दौरान फिल्म का क्रू. (फोटो साभार: फेसबुक)

हालांकि अभी कुछ नई दिक्कतें शुरू हो गई हैं, उससे मुझे डर लगता है. नई सरकार आने के बाद हमारी जो विविधता है, उसके प्रति आदर कम हो रहा है. अभी जो कुछ चल रहा है उसे हवा तो सत्ता प्रतिष्ठान ही देता है. ऐसा नहीं होना चाहिए.

अपनी भाषा, संस्कृति और धर्म थोपना नहीं चाहिए. ऐसा कहा जा रहा है कि एक संस्कृति, एक भाषा से एकता स्थापित होगी, लेकिन ऐसा करने से लोगों में अलगाव की भावना ही बढ़ेगी.

ऐसा न हो कि कुछ साल पहले यहां जो हुआ था, वैसी ही स्थितियां फिर पैदा हो जाएं.

इसलिए हमें सावधान रहना चाहिए. असल मुद्दों से ध्यान भटकाकर एक दूसरे को लड़ाने की जो मानसिकता है, लोगों को उसको समझना चाहिए.

यहां के लोगों को भी मैं यही कहना चाहती हूं कि कुछ भी हो लेकिन हिंसा का विकल्प नहीं होना चाहिए.

असम में एनआरसी की अंतिम सूची जारी हुई है. इसमें 19 लाख से ज़्यादा लोग बाहर हो गए हैं. इस पूरी कवायद पर क्या सोचती हैं.

असम एनआरसी की जो प्रक्रिया है, वो एक असफल प्रक्रिया है. टैक्सपेयर्स के करोड़ों रुपये इसमें ख़र्च कर दिए गए. इसे लेकर कहने के लिए मेरे पास ज़्यादा कुछ नहीं है.

‘जोलै: द सीड’ बोडो भाषा की फिल्म है. बोडोलैंड को असम से अलग करने की मांग अक्सर उठती है. इस पर क्या कहना चाहेंगी?

मेरे हिसाब से बोडोलैंड का अलग होना असम के लिए भी बुरी बात नहीं और बोडो समुदाय के लोगों के लिए तो ही बहुत अच्छा है.

बोडो लोगों को बोडोलैंड मिलने से वे उभर कर सामने आएंगे. एक उदाहरण से मैं समझाना चाहूंगी. असम के बाहर कोई कार्यक्रम होता है, जैसे दिल्ली में स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस समारोह हो तो उसमें असम के नृत्य के नाम पर बीहू और कुछ अन्य चर्चित नृत्यों को ही भेजा जाता है.

असम की संस्कृति में बोडो की जो संस्कृति है, उसे प्रदर्शन के लिए कभी नहीं भेजा जाता. इसमें हैरानी की कोई बात नहीं क्योंकि आदिवासियों की जो संस्कृति है, उसे हमेशा कमतर समझा जाता है.

कहीं फैशन शो होता है और उसमें असम की वेशभूषा के प्रदर्शन की बात हो तो वे लोग चादर मेखला (असम की एक पारंपरिक वेशभूषा) ही भेजते जाते हैं.

इसके लिए आप उन्हें (सत्ता प्रतिष्ठान) दोषी नहीं ठहरा सकते हैं, क्योंकि पिछले तमाम वर्षों से उसी वेशभूषा को ही मुख्य माना जाता रहा है.

बोडो लोगों की संख्या कम नहीं है. तकरीबन 25 लाख की आबादी है. अपनी ज़िंदगी जीने और अपनी पहचान स्थापित करने का उनको भी हक़ है.

मुझे लगता है कि भारतीय संविधान के तहत उन्हें एक अलग राज्य मिलना कोई बुरी बात नहीं है.

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