सूचना आयोग सूचना छिपाने में आरबीआई की मदद क्यों कर रहा है?

आरबीआई और सूचना आयोग का रवैया सरकारी बैंकों से 6 लाख करोड़ रुपयों का ऋण डकारने वालों को राहत देगा.

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आरबीआई और सूचना आयोग का रवैया सरकारी बैंकों से 6 लाख करोड़ रुपयों का ऋण डकारने वालों को राहत देगा.

RBI RTI 1

सरकारी बैंकों का ऋण डकारने वालों की सूचना देने से रिजर्व बैंक आॅफ इंडिया ने साफ इंकार कर दिया है. केंद्रीय सूचना आयोग ने भी रिजर्व बैंक के इस रवैये को हरी झंडी दिखा दी है.

सूचनाधिकार कार्यकर्ता सुभाषचंद्र अग्रवाल ने एक करोड़ से ज्यादा राशि का ऋण नहीं चुकाने वालों की सूची मांगी थी. रिजर्व बैंक द्वारा नहीं दिए जाने पर अग्रवाल ने केंद्रीय सूचना आयोग में अपील की थी.

आयोग ने 11 मई 2017 को हैरतअंगेज फैसला सुनाते हुए रिजर्व बैंक की गोपनीयता नीति का पक्ष लिया. जबकि ऐसे मामलों में स्वयं केंद्रीय सूचना आयोग ने हमेशा पारदर्शिता के पक्ष में फैसला सुनाता आया है. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी आयोग के ऐसे ग्यारह फैसलों पर संयुक्त सुनवाई में पारदर्शिता पर मुहर लगाई.

लिहाजा, अब अचानक केंद्रीय सूचना आयोग ने यू-टर्न लेकर गहरे विवादों को जन्म दिया है. आइए, देखें कि क्यों जरूरी है ऐसी सूचनाओं की पारदर्शिता? क्या है सुप्रीम कोर्ट का फैसला और क्या है रिजर्व बैंक तथा केंद्रीय सूचना आयोग का रवैया?

भारत की अर्थव्यवस्था एक बड़े बदलाव के दौर से गुजर रही है. नोटबंदी के बाद देश में काले धन की बहुलता पर आधारित व्यवसाय के सामने गंभीर चुनौतियां हैं.

साथ ही, जीएसटी के रूप में नए टैक्स ढांचे के शुरू होने तथा इसका दायरा विस्तृत होने के कारण भी नई जटिलताएं पेश होंगी. ऐसे में अर्थव्यवस्था को संभालने में सरकारी बैंकों की बड़ी भूमिका होगी. इस कारण अनुत्पादक ऋण तथा बड़े पैमाने पर कर्जमाफी के बोझ तले दबे सरकारी बैंकों की कार्यप्रणाली पर भी खुली चर्चा आवश्यक है.

लेकिन ताज्जुब है कि ऐसे गंभीर विषय को अनावश्यक तौर पर गोपनीय बना दिया गया है.

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार कलेंडर वर्ष 2016 के अंत तक सरकारी बैंकों का एनपीए 6.06 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है. यह नॉन-परफॉर्मिंग असेट है. यानि बैंक द्वारा ऋण के तौर पर दी गई राशि, जिसकी उत्पादक क्षमता समाप्त हो चुकी है तथा जिसकी वसूली संदिग्ध है.

आखिर इसकी सूचना से देश को वंचित कैसे रख सकते हैं आप?

सरकारी बैंकों से अरबों का ऋण लेकर डकारने की यह प्रवृति बढ़ी है. ऐसे ‘विलफुल डिफाल्टर्स‘ के संबंध में विभिन्न नागरिकों द्वारा सूचना मांगने का सिलसिला भी तेज हुआ है. केंद्रीय सूचना आयोग ऐसे मामलों में सूचना की पारदर्शिता के पक्ष में ही फैसले देता रहा है.

ऐसे ग्यारह मामलों में केंद्रीय सूचना आयोग के निर्णय के खिलाफ रिजर्व बैंक आॅफ इंडिया (आरबीआई) ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी. आरबीआई का तर्क था कि विभिन्न बैंकों ने अपने कर्जदारों से संबंधी सूचना वैश्वासिक नातेदारी के तहत उपलब्ध कराई है. ऐसी सूचना को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता.

आरबीआई बनाम जयंतीलाल मिस्त्री, ट्रांसफर्ड केसेस (सिविल) नंबर 91 से 101 वर्ष 2015 के रूप में चर्चित इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पारदर्शिता के पक्ष में बेहद स्पष्ट निर्णय सुनाया था.

उक्त फैसला 16 दिसंबर 2015 को आया था. इसमें सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा-

आरबीआई के लिए जनहित सर्वोपरि होना चाहिए, न कि किसी बैंक का हित. आरबीआई का किसी भी बैंक के साथ कोई वैश्वासिक नातेदारी वाला संबंध नहीं है. आरबीआई पर किसी सरकारी या निजी बैंक का लाभ बढ़ाने का दायित्व नहीं है. इसलिए इनके बीच कोई ‘विश्वास‘ का संबंध नहीं है. आरबीआई पर व्यापक जनसमुदाय तथा जमाकर्ताओं के हितों की रक्षा का वैधानिक दायित्व है. उस पर देश की अर्थव्यवस्था तथा बैंकिंग सेक्टर के हितों की रक्षा का दायित्व है. इसलिए आरबीआई को सूचनाएं छुपाने के बजाय पारदर्शिता से काम करना होगा, भले ही इससे कुछ बैंकों को शर्मिंदा होना पड़े. आरबीआई का यह दायित्व है कि सूचना का अधिकार कानून का पालन करे तथा नागरिकों द्वारा मांगी गई सूचनाएं दे.

इसी फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा-

आरबीआई का यह तर्क निराधार है कि इन सूचनाओं को उजागर करने से देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान होगा. अपने फैसलों में केंद्रीय सूचना आयोग यह बता चुका है कि किस तरह इन सूचनाओं को उजागर करना देश के हित में है जबकि इन्हें गोपनीय रखने से देश को व्यापक आर्थिक नुकसान होगा. आरबीआई का यह तर्क भी हास्यास्पद है कि बैंकों की अनियमितताओं के बारे में नागरिकों को जानकारी मिलने से देश की आर्थिक सुरक्षा को खतरा होगा.

उक्त आलोक में सुप्रीम कोर्ट ने सभी ग्यारह फैसलों में केंद्रीय सूचना आयोग के फैसले को पूर्णतया सही करार दिया. रिजर्व बैंक को कोई राहत नहीं दी गई और मामला निरस्त कर दिया गया.

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय सूचना का अधिकार के अंतर्गत किसी भी बैंक के कर्जदारों की सूचना हासिल करने के मामले में एक ऐतिहासिक एवं मान्य निर्णय है.

अब तक सुप्रीम कोर्ट ने इसके विपरीत कोई निर्णय नहीं सुनाया है. लिहाजा यही वर्तमान में भारत में मान्य है. लेकिन हैरानी तब हुई, जब केंद्रीय सूचना आयोग ने अपने ही फैसलों तथा सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के विपरीत फैसला सुनाकर देश में सरकारी बैंकों का ऋण डकारने वालों के खिलाफ लड़ाई को कमजोर किया.

सूचनाधिकार कार्यकर्ता सुभाषचंद्र अग्रवाल ने वर्ष 2013 में आरबीआई से एनपीए संबंधी सूचनाएं मांगी थी. दो आवेदनों में उन्होंने एक करोड़ से ज्यादा ऋण के डिफाल्टरों की सूची, बैड-लोन कहकर ऋण माफी का विवरण इत्यादि की जानकारी मांगी थी.

उन्होंने ऐसे मामलों को वेबसाइट पर डालने तथा इस समस्या से निपटने के लिए उठाए गए कदमों की भी जानकारी मांगी थी.

आरबीआई ने जवाब दिया कि उनके पास सिर्फ 30 बड़े एनपीए की जानकारी आती है. यह पर्यवेक्षण के लिए आई गोपनीय सूचना है. यह भी तर्क दिया कि आरबीआई एक्ट 1934 की धारा 45-ई के अनुसार ऋण संबंधी सूचनाएं देने पर रोक है.

सूचना नहीं दिए जाने पर अग्रवाल ने केंद्रीय सूचना आयोग में अपील की. आयोग ने दोनों मामलों को मिलाकर एक डिविजन बेंच बनाया.

इसमें केंद्रीय सूचना आयुक्त मंजुला पराशर तथा सुधीर भार्गव ने सुनवाई की. इस दौरान आरबीआई ने तर्क दिया कि बैंकों द्वारा वैश्वासिक नातेदारी के आधार पर मिली सूचना को गोपनीय रखा जाता है.

दूसरी ओर, सूचना मांगने वाले सुभाषचंद्र अग्रवाल ने आरबीआई बनाम जयंतीलाल मिस्त्री मामले में सुप्रीम कोर्ट के पूर्णतया स्पष्ट निर्णय का हवाला दिया.

सूचना आयोग में सुनवाई के दौरान आरबीआई ने एक ऐसे मामले का आधार बनाया जिसका सूचना का अधिकार से कोई लेना-देना नहीं. यहां तक कि वह मामला सूचना कानून बनने से भी पहले का है.

सूचना का अधिकार अधिनियम देश में वर्ष 2005 में लागू हुआ. जबकि आरबीआई ने वर्ष 2003 की एक पुरानी रिट याचिका के सर्वथा भिन्न प्रसंग को सामने लाकर अनावश्यक जटिलता उत्पन्न कर दी. सेंटर फॉर पीआइएल बनाम हाउसिंग एंड अरबन डवलपमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड की वर्ष 2003 की एक रिट याचिका को आधार बनाया गया. इसका आरटीआई से कोई संबंध नहीं.

आरबीआई ने केंद्रीय सूचना आयोग में सुनवाई के दौरान बताया कि 2003 के उक्त मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 500 करोड़ से ज्यादा राशि के डिफाल्टरों की सूची मांगी है.

सुप्रीम कोर्ट ने एनपीए तथा माफ राशि का भी विवरण मांगा है. इसका विवरण देते हुए आरबीआई ने सुप्रीम कोर्ट को शपथपत्र में बताया था कि सभी डिफाल्टर जानबूझकर ऐसा नहीं करते.

संभव है कि उन्हें नुकसान के वास्तविक कारण हों. कई बार परिस्थितियां ऐसे कर्जदारों के नियंत्रण से बाहर चली जाती हैं. कुछ लोग सही नीयत के बावजूद डिफाल्टर हो सकते हैं. इसलिए उनके नाम उजागर करने से उनके व्यवसाय पर बुरा असर पड़ेगा.

इससे उनकी सेहत सुधरने के बजाय और बिगड़ सकती है. ऐसी सूचनाएं बैंक के पास आने से बैंक को ऐसे गलत रवैये से निपटने में मदद मिलती है. लेकिन ऐसी सूचना को सार्वजनिक करने से कोई लाभ नहीं होगा.

आरबीआई ने केंद्रीय सूचना आयोग को यह भी बताया कि एनपीए रोकने की दिशा में केंद्र सरकार द्वारा एक समिति बनाकर कदम उठाए जा रहे हैं. इसकी जानकारी सुप्रीम कोर्ट को दी जा रही है.

समिति की कई बैठकें हो चुकी हैं तथा उसकी अनुशंसा आने का काम अंतिम चरण में है. यह सारा कुछ सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत किया जा रहा है.

आरबीआई के इन तर्कों को आधार मानते हुए केद्रीय सूचना आयोग ने 11 मई 2017 को हैरतअंगेज फैसला सुनाते हुए रिजर्व बैंक की गोपनीयता नीति का पक्ष लिया.

आयोग ने लिखा,‘चूंकि ऐसा ही एक मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है, इसलिए उसके निर्णय की प्रतीक्षा करना न्यायहित में होगा. उस फैसले के बाद आवेदक चाहे तो पुनः सूचना आयोग में द्वितीय अपील कर सकते हैं.’

इस तरह केंद्रीय सूचना आयोग ने सुभाष चंद्र आयोग की अपील खारिज कर दी. जबकि कानून का ककहरा जानने वाला भी साफ बता देगा कि सुप्रीम कोर्ट में चल रहे 2003 के मामले का इससे कोई संबंध नहीं.

वह मामला सूचना का अधिकार से संबंधित है ही नहीं. वह मामला तो एनपीए रोकने संबंधी कदमों का है. उसमें 500 करोड़ से ज्यादा राशि के डिफाल्टरों तथा उससे निपटने के प्रयासों की मोनिटरिंग हो रही है. जबकि सुभाषचंद्र अग्रवाल द्वारा मांगी गई सूचना का संबंध आरटीआई एक्ट से है.

इस पर सुप्रीम कोर्ट का आरबीआई बनाम जयंतीलाल मिस्त्री वाला निर्णय लागू होगा. एक प्रासंगिक एवं निर्णित मामले के बजाय वर्ष 2003 के एक अनिर्णित और अप्रासंगिक मामले को आधार बनाकर केंद्रीय सूचना आयोग ने अपनी शक्तियों का खुला दुरूपयोग किया है.

जाहिर है कि केद्रीय सूचना आयोग ने इस मामले में यू-टर्न लेकर सूचना का अधिकार कानून का मजाक बना दिया है. एनपीए और कर्जदारों की सूचना पर आयोग ने अब तक सुनाए गए अपने फैसलों में पारदर्शिता का पक्ष लिया है. अब सुप्रीम कोर्ट के किसी अन्य किस्म के मामले को आधार बनाकर सूचना से वंचित करना बेहद चिंताजनक प्रवृति का संकेत है.

इस फैसले से देश भर के सूचना अधिकार कार्यकर्ता और बैंक-ऋण लूट पर नजर रखने वाले कार्यकर्ता हतप्रभ हैं. अग्रवाल ने भी इसे दुखद बताते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निर्णय के बाद केंद्रीय सूचना आयोग का यह रवैया हैरान करने वाला है.

उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का आरबीआई बनाम जयंतीलाल मिस्त्री वाला निर्णय ‘लाॅ आॅफ द लैंड’ है. इसके बजाय एक अन्य किस्म के लंबित मामले को आधार बनाया गया तो कभी कोई न्याय ही नहीं मिलेगा. यह एक अंतहीन प्रक्रिया हो जाएगी.

जाहिर है कि आरबीआई और सूचना आयोग का रवैया सरकारी बैंकों से 6.06 लाख करोड़ रुपयों का ऋण डकारने वालों को राहत देगा. इससे सांठ-गांठ करने वाले बैंक अधिकारियों को भी राहत मिलेगी.

एक बात और. अरबों रुपये डकारने वाले विलफुल डिफाल्टर्स की गोपनीयता की रक्षा की जा रही है. जबकि दो-चार लाख रुपये के कर्जदार छोटे व्यवसायियों की सूची अखबारों के विज्ञापनों में दिख जाती है. बड़े डिफाल्टरों से यह सहानुभूति क्यों?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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