क्यों कुपोषण से प्रभावित श्योपुर में बच्चों को पोषण केंद्रों में ले जाने से कतरा रहे हैं परिजन?

ग्राउंड रिपोर्ट: ‘भारत का इथोपिया’ कहे जाने वाले मध्य प्रदेश के श्योपुर में एक ओर मासूम कुपोषण से दम तोड़ रहे हैं तो दूसरी ओर उन्हें पोषण और इलाज उपलब्ध कराने के लिए बनाए गए पोषण पुनर्वास केंद्र ख़ाली पड़े हैं. केंद्रों पर बच्चों को पहुंचाने की ज़िम्मेदारी निभा रहे ग्रोथ मॉनिटर और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का कहना है कि ग्रामीण इन केंद्रों में आना ही नहीं चाहते.

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प्रतीकात्मक तस्वीर. (फोटो: द वायर/दीपक गोस्वामी)

ग्राउंड रिपोर्ट: ‘भारत का इथोपिया’ कहे जाने वाले मध्य प्रदेश के श्योपुर में एक ओर मासूम कुपोषण से दम तोड़ रहे हैं तो दूसरी ओर उन्हें पोषण और इलाज उपलब्ध कराने के लिए बनाए गए पोषण पुनर्वास केंद्र ख़ाली पड़े हैं. केंद्रों पर बच्चों को पहुंचाने की ज़िम्मेदारी निभा रहे ग्रोथ मॉनिटर और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का कहना है कि ग्रामीण इन केंद्रों में आना ही नहीं चाहते.

अपनी मां के साथ डेढ़ साल का लोकेश. (फोटो: दीपक गोस्वामी)
अपनी मां के साथ डेढ़ साल का लोकेश. (फोटो: दीपक गोस्वामी)

मध्य प्रदेश के श्योपुर जिले के विजयपुर तहसील अंतर्गत आने वाले ठाकुरपुरा गांव की चंदा डेढ़ वर्ष की है लेकिन उसका वजन पांच किलो भी नहीं है. अति गंभीर कुपोषित की श्रेणी में आने वाली चंदा को इलाज और उचित पोषण के लिए पोषण पुनर्वास केंद्र (एनआरसी) ले जाने के लिए चिह्नित किया गया है.

लेकिन आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और प्रशासन के प्रयासों के बावजूद चंदा के परिजन उसे एनआरसी ले जाने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं.

कुछ ऐसी ही कहानी नयागांव टीनापुरा के लोकेश की है. वह भी डेढ़ वर्ष का है. उसका कद और भार दोनों ही तय मानकों से कम हैं. जब हम लोकेश से मिले, तब भी उसे बुखार भी था.

कुपोषण के शिकार लोकेश को भी एनआरसी के लिए रेफर किया गया है लेकिन चंदा की ही तरह उसे भी परिजन एनआरसी लेकर नहीं जा रहे हैं.

ऐसे उदाहरण केवल विजयपुर तहसील में ही नहीं, श्योपुर जिले के लगभग हर आदिवासी बहुल गांव में देखने को मिलते हैं जहां परिजन गंभीर स्थिति होने पर भी अपने बच्चों को इलाज के लिए एनआरसी नहीं ले जाना चाहते हैं.

जिले की कराहल तहसील में तो पिछले दिनों एक मामला ऐसा देखने मिला जहां प्रशासन की टीम जब कुपोषित बच्चे को एनआरसी ले जाने के लिए पहुंची तो बच्चे की मां ने आत्महत्या तक की धमकी दे डाली.

गौरतलब है कि प्रदेश के महिला एवं बाल विकास विभाग (डब्ल्यूसीडब्ल्यू) के ही आंकड़े बताते हैं कि हर दिन राज्य में कुपोषण से पांच वर्ष तक के 92 बच्चे दम तोड़ते हैं. वहीं, श्योपुर जिला तो ‘भारत के इथोपिया’ के नाम से विख्यात है.

वर्ष 2016 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनफएचएस-4) के मुताबिक, श्योपुर में पांच साल की उम्र तक के लगभग 55 प्रतिशत बच्चे कम वजन के हैं. जिले में बसने वाला सहरिया आदिवासी समुदाय कुपोषण से सबसे अधिक प्रभावित है.

2016 में जिले में कुपोषण से बच्चों की लगातार हो रही मौतों को देखते हुए प्रदेश की पूर्व भाजपा सरकार ने तो कुपोषण पर ‘श्वेत- पत्र’ लाने तक की घोषणा कर दी थी. वो बात अलग है कि उसने कभी इस पर गंभीरता नहीं दिखाई और बिना श्वेत-पत्र लाये ही सरकार बदल गई.

श्योपुर में कुपोषण की भयावहता को इस तरह भी समझा जा सकता है कि पूरे प्रदेश में यह एकमात्र जिला है जिसमें कुपोषित बच्चों की पहचान, उन्हें उचित इलाज मुहैया कराने में मदद, एनआरसी तक पहुंचाने और उनके स्वास्थ्य पर नजर बनाए रखने के लिए डब्ल्यूसीडब्ल्यू द्वारा ग्रोथ मॉनिटर के तौर पर युवकों को तैनात किया गया है.

बावजूद इन सब प्रयासों के कुपोषण से होने वाली मासूमों की मौत पर लगाम नहीं कस सकी है. बीते जुलाई माह में विजयपुर में एक के बाद एक लगातार कई मौतों ने फिर से श्योपुर को देश भर में सुर्खियों में ला दिया था.

नतीजतन कुपोषितों को पहचानकर उन्हें उचित इलाज और पोषण उपलब्ध कराने की संपूर्ण व्यवस्था कटघरे में आ गई थी. क्योंकि एक ओर कुपोषित बच्चे गांवों में दम तोड़ रहे थे तो दूसरी एनआरसी खाली पड़े थे.

विजयपुर का दौरा करने पर पता चला कि वर्तमान परिस्थितियां भी कोई जुदा नहीं हैं. 20 बिस्तरों वाले विजयपुर एनआरसी में केवल दो बच्चे भर्ती हैं. जबकि हमें क्षेत्र के दूर- दराज के गांवों में अनेक कुपोषित बच्चे जिंदगी और मौत के बीच झूलते मिले.

इस संबंध में बच्चों को एनआरसी तक पहुंचाने की जिम्मेदारी निभाने वाली आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और ग्रोथ मॉनिटर का कहना है कि लाख समझाने के बाद भी ग्रामीण अपने बच्चों को एनआरसी ले जाना नहीं चाहते हैं.

क्या है वजह

सवाल उठता है कि क्यों मां-बाप ही अपने कुपोषित बच्चों को इलाज से दूर रखे हुए हैं, उन्हें आंखों के सामने मरता देख रहे हैं?

क्या उनके पास इसकी कोई पुख्ता वजह है या फिर ग्रोथ मॉनिटर, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और प्रशासन ही अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने के लिए इन बातों को हवा दे रहे हैं?

इन्हीं सवालों के जवाब खोजने की कड़ी में विजयपुर के कुपोषणग्रस्त गांवों में चंदा और लोकेश से हमारी मुलाकात हुई थी.

सिर्फ चंदा और लोकेश ही नहीं, पिपरवास गांव में एक डेढ़ वर्षीय ऐसी बच्ची भी मिली जिसके हाथ-पैरों में मांस के नाम पर केवल खाल दिखाई दे रही थी. उसके पैर सीधे नहीं होते थे और वह बैठ तक नहीं सकती थी.

उस बच्ची की मां उसे जन्म देने के कुछ दिनों बाद ही चल बसी थी. बच्ची का अब तक नामकरण तक नहीं हुआ है.

आंगनबाड़ी कार्यकर्ता उसे एनआरसी ले जाने के लिए लगातार चक्कर काटती है लेकिन परिजन उसे एनआरसी न ले जाकर गांव आने वाले एक झोलाछाप डॉक्टर से ही इलाज करा रहे हैं.

बच्ची की करीब 65 वर्षीया दादी फूला बाई घर के बाहर बने चबूतरे पर गांव की ही कुछ औरतों के साथ बैठी थीं.

एनआरसी न ले जाने का कारण पूछने पर वे बताती हैं, ‘इसकी मां इसे जन्म देने के कुछ ही माह बाद चल बसी थी और अपने पीछे चार लड़कियां छोड़ गई थी. जिनमें से एक ये है. बाप हमेशा दारू के नशे में धुत रहता है और दादा खेतों में मजदूरी करने जाता है. घर पर रहकर इन बच्चियों के साथ- साथ परिवार का ख्याल मैं ही रखती हूं. मैं इसे लेकर एनआरसी चली गई तो बाकी तीन बच्चियों की देखभाल कौन करेगा?’

रामदीन आदिवासी विजयपुर के सर्वाधिक कुपोषण प्रभावित क्षेत्रों में से एक अगरा सेक्टर में रहते हैं. वे एकता परिषद से जुड़े हैं और कुपोषण के खिलाफ चल रही मुहिम का हिस्सा है.

डेढ़ साल की चंदा. (फोटो: दीपक गोस्वामी)
डेढ़ साल की चंदा. (फोटो: दीपक गोस्वामी)

वे बताते हैं, ‘कुपोषितों को एनआरसी न ले जाने का सबसे बड़ा कारण यही है कि सहरिया समुदाय परिवार नियोजन को लेकर जागरूक नहीं है. औसतन यहां हर आदिवासी के 3- 4  (कई मामलों में तो 6-8)बच्चे होते ही हैं. अब मां एक बच्चे को एनआरसी लेकर चली जाए तो बाकी बच्चों की देखभाल और खान-पान का संकट खड़ा हो जाता है. उनके पति शराब पीकर पड़े रहते हैं जिनका भरोसा नहीं होता कि वे एक दिन में घर लौटेंगे या दो दिन में.’

किशनपुरा गांव की रीना की भी यही कहानी है. रीना आठ माह की गर्भवती हैं. उनके दो बच्चे हैं, करीब तीन साल का एक बेटा और डेढ़ साल की बेटी पूनम. पूनम कुपोषित है और उसे एनआरसी के लिए चिह्नित किया गया है, लेकिन रीना उसे वहां नहीं ले जा रही हैं.

अगस्त माह में वह उसे एनआरसी लेकर गई थीं, लेकिन एनआरसी में रहने की तयशुदा अवधि 14 दिन को पूरा करने से पहले ही हफ्ते भर के अंदर लौट आईं. रीना कहती हैं, ‘मैं वहां रहूंगी तो मेरे बेटे का ख्याल कौन रखेगा?’

किशनपुरा गांव की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता इंद्रावती कुशवाह बताती हैं, ‘इसका पहला बच्चा भी कुपोषण का शिकार रहा था. तब रीना को कोई और बच्चा नहीं था तो यह पूरे 14 दिन वहां रहकर आई थी. आज वह बच्चा कुपोषण से बाहर आ चुका है. लेकिन पूनम के मामले में उसकी मजबूरी यही है कि अब उसे अपने बेटे की भी देखभाल करनी है. दो बच्चों के बीच दो साल का अंतर होना चाहिए लेकिन रीना ने इस बात की अनदेखी की. इससे उसके बच्चे भी कुपोषण का शिकार हो रहे हैं और अधिक बच्चे होने के चलते एक बच्चे को एनआरसी ले जाए या बाकियों का ख्याल रखे, यह संकट उसके सामने खड़ा हो गया है.’

वहीं, रामदीन एनआरसी न जाने के पीछे का एक और कारण गिनाते हुए कहते हैं, ‘ग्रामीणों को वहां की सुविधाएं भी नहीं भातीं. यहां गांव में वे खुले में शौच जाते हैं, खुले में घूमते-फिरते रहते हैं. एनआरसी में जाकर एक ही जगह बंद से हो जाने पर घुटन महसूस करते हैं. वहां बस बच्चे की देख-रेख और पलंग पर बैठे रहो. वे चलने-फिरने वाले लोग हैं, पर वहां जाम से हो जाते हैं.’

चंदा और लोकेश के मामले में यही हुआ था. चंदा के परिजन उसे अभी एनआरसी नहीं ले जा रहे हैं लेकिन जुलाई माह में उसकी मां मनोज उसे एनआरसी लेकर गई थी. बच्ची की हालात इतनी गंभीर थी कि उसे खून भी चढ़ाया गया था. इसके बावजूद भी मनोज केंद्र में बिना बताए चंदा को लेकर गांव भाग आई थी.

ठाकुरपुरा की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता लक्ष्मी परमार बताती हैं, ‘एनआरसी में बच्चे को कम से कम 14 दिन इलाज और पोषण के लिए रखा जाता है. इस दौरान पौष्टिक खान-पान और इलाज उपलब्ध कराया जाता है. बच्चे के वजन पर नजर रखी जाती है. स्वास्थ्य में सुधार होने पर उसे छुट्टी दे दी जाती है. लेकिन मनोज हफ्ते भर के अंदर ही एनआरसी से ऐसी भागी कि अपने कपड़े, बर्तन और अन्य सामान तक वहीं छोड़ आई.’

इस संबंध में चंदा के दादा नरेश से बात करने पर उन्होंने बताया, ‘वो हरियाली अमावस्या का समय था. सारे बच्चे और उनकी माताएं गांव चले गए थे जिससे एनआरसी खाली हो गया था. मनोज को अकेले वहां अच्छा नहीं लग रहा था. वह घुटन महसूस कर रही थी. ऊपर से बच्ची भी हमें याद कर रही थी तो वह भाग आई.’

लोकेश भी करीब पांच-छह माह पहले एनआरसी रहकर आ चुका है. लेकिन अब उसकी मां गजरी न ले जाने का कारण पूछने पर कई शिकायतें बताती हैं.

वे बताती हैं, ‘वहां देखभाल नहीं होती. मैं लोकेश को कमजोर लेकर गई थी और कमजोर ही लाई. खाना-पीना तो मिलता है लेकिन अच्छा नहीं लगता वहां. बैठे- बैठे उल्टा और ज्यादा बीमार हो जाते हैं. दवा भी नहीं देते. बच्चों को बुखार चढ़ रहा हो और उनसे कहो तो ढंग से इलाज भी नहीं करते. कोई अच्छी जगह हो तो हम ले जाने के लिए मानें. जब यही बात उन लोगों से कहते हैं तो बोलते हैं कि ले जाओ तुम अपने बच्चे को यहां से.’

श्योपुर जिले के कराहल सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) में संचालित एनआरसी. (फाइल फोटो: दीपक गोस्वामी)
श्योपुर जिले के कराहल सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) में संचालित एनआरसी. (फाइल फोटो: दीपक गोस्वामी)

लोकेश के पिता फूलसिंह इसके साथ एक कारण और गिनाते हैं. वे बताते हैं, ‘एनआरसी में 14 दिन बच्चे को रखने के एवज में सरकार एक प्रोत्साहन राशि हमें देती है. एनआरसी से लौटे आज 5-6 महीने हो गए लेकिन अब तक हमें वह राशि नहीं मिली है. तब से पूछ-पूछकर थक गये लेकिन बस कह देते हैं कि मिल जाएगी, पर मिली नहीं है.’

गजरी बताती हैं कि उस समय उनके सहित गांव की तीन महिलाएं अपने बच्चों को एनआरसी लेकर गई थीं, अब तक किसी के भी खाते में पैसे नहीं आए हैं. ग्रामीणों के मुताबिक यही कारण है कि अभी गांव में तीन कुपोषित बच्चे एनआरसी ले जाने के लिए चिह्नित किए गए हैं, लेकिन परिजन लेकर नहीं जा रहे हैं.

यह कहानी सिर्फ इस एक गांव की नहीं है. दूसरे गांवों में भी हितग्राही प्रोत्साहन राशि के लिए भटक रहे हैं. दाउदपुर गांव की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के पति बताते हैं, ‘एक कुपोषित बच्चे को हम एनआरसी में भर्ती कराकर आए थे, अब तक खाते में पैसे तक नहीं आए हैं. दो महीने हो गये हैं. उसकी मां हमारे पीछे पड़ी है. वो हमसे मांगती है. हम कहां से दें? हम लगातार डॉक्टरों से बोल रहे हैं लेकिन वो बस इतना कहकर टाल देते हैं कि डाल रहे हैं. अब वे कैसे एनआरसी जाएं और हम उन्हें क्या कहकर पहुंचाएं?

विजयपुर में तैनात एक ग्रोथ मॉनिटर भी प्रोत्साहन राशि न मिलने की बात को स्वीकारते हैं. वे नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘इन लोगों की आर्थिक स्थिति बहुत खराब है. सभी मजदूरी करके पेट पालते हैं. इनके बच्चों की संख्या ज्यादा होती है तो मजदूरी के लिए इधर-उधर भागते हैं. हर दो-तीन महीनों में फसल काटने और बोने का समय आ जाता है. उस समय इन्हें एनआरसी ले जाने का कहो तो कोई नहीं जाता. एनआरसी खाली होने का सबसे बड़ा कारण यही है. अभी बाजरे की फसल कट रही है, काटेंगे नहीं तो अगले दो महीने खाएंगे क्या? जनवरी तक बाजरा कटेगा, फिर फरवरी में आलू खुदेंगे, उसके बाद गेंहूं और फिर सरसों.’

वे आगे बताते हैं, ‘यही आर्थिक चुनौती देखते हुए शासन ने प्रावधान किया था कि 14 दिन तक बच्चे को एनआरसी रखने पर 120 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से 1,680 रुपये की प्रोत्साहन राशि दी जाएगी. इससे एनआरसी में पहुंचने वाले कुपोषित बच्चों की संख्या में काफी वृद्धि हुई थी. लेकिन अब हालात यह हैं कि जुलाई से प्रोत्साहन राशि रुकी हुई है. जिन्हें हमने एनआरसी में भर्ती कराया था, वे रोज हमसे जवाब मांगते हैं. जबकि जिन्हें भर्ती कराने जाते हैं, वे जाते नहीं हैं.’


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हालांकि, श्योपुर में विभिन्न वर्ग और पेशे के लोग मानते हैं कि आदिवासियों के अधिक बच्चे होते हैं इसलिए उनका कोई बच्चा मर भी जाए तो उन्हें फर्क नहीं पड़ता. इसलिए वे बच्चों को एनआरसी ले जाने से परहेज करते हैं.

लेकिन यह बात यथार्थ से कोसों दूर नजर आती है क्योंकि हम जितने भी कुपोषित बच्चों से मिले उनके परिजन अच्छी-खासी फीस चुकाकर उनका इलाज झोलाछाप डॉक्टरों से करा रहे थे.

जहां लोकेश को एक दिन पहले ही गांव आने वाले एक डॉक्टर को दिखाया गया था, जिसने 220 रुपये लिए थे, तो कुछ ही दिन पहले एक झोलाछाप डॉक्टर फूला बाई की ‘अनाम’ पोती के इलाज के एवज में 900 रुपये ले गया था.

अगर उन्हें अपने बच्चों की फिक्र नहीं होती तो मामूली मजदूरी पाने वाले आदिवासी उनके इलाज पर इतना पैसा खर्च नहीं करते.

बहरहाल, ग्रोथ मॉनिटर कहते हैं, ‘एनआरसी में भर्ती होने वाले बच्चों की संख्या में काफी वृद्धि हो सकती है यदि सरकार एनआरसी के निर्माण कुपोषण प्रभावित गांवों के ठीक बीचों-बीच करा दे. आज हालात यह हैं कि विजयपुर तहसील की एकमात्र एनआरसी विजयपुर मुख्यालय में ही है. जबकि कुपोषण के सर्वाधिक मामले अगरा सेक्टर से आते हैं जो कि विजयपुर से करीब 50 किलोमीटर दूर है.’

गौरतलब है कि अगरा सेक्टर 80 आदिवासी गांवों का टोला है और हर गांव कुपोषण प्रभावित है. लेकिन वहां के गांवों से विजयपुर आने-जाने के लिए सड़कें तक नहीं हैं. यातायात का कोई साधन नहीं है. स्वयं का वाहन होने पर ही वहां से विजयपुर आया-जाया जा सकता है.

ग्रोथ मॉनिटर बताते हैं कि सामाजिक संगठन लंबे समय से विजयपुर एनआरसी को अगरा सेक्टर में स्थानांतरित करने या वहां एक नया एनआरसी बनाने की मांग कर रहे हैं लेकिन सरकार सुन नहीं रही है.

वे कहते हैं, ‘शहर में ही यदि कोई बीमार हो जाए तो लोग कुछ फासले पर ही बने अस्पताल में मरीज को भर्ती करवाने में कतराते हैं, यहां तो फासला कई किलोमीटर का है. वे डरते हैं कि एक बार मां और बच्चा विजयपुर पहुंच गया तो उन्हें देखने कैसे जाएंगे? क्योंकि उनके पास अपना तो कोई वाहन होता नहीं है. इसलिए झोलाछाप डॉक्टर ही उनका सहारा हैं.’

इन्हीं सारी चुनौतियों के बीच क्षेत्र के छतरीपुरा गांव की तीन महीने की पारो कुछ ही दिन पहले दम तोड़ चुकी है. परिजन उसे एनआरसी लेकर नहीं पहुंचे थे. कारण वही थे, अपने दूसरे बच्चों का ख्याल, घर का कामकाज और मजदूरी, एनआरसी की गांव से अधिक दूरी और साथ ही सरकारी योजनाओं की जानकारी का अभाव.

कुपोषण से जान गंवा चुकी तीन महीने की पारो की मां और दादी. (फोटो: दीपक गोस्वामी)
कुपोषण से जान गंवा चुकी तीन महीने की पारो की मां और दादी. (फोटो: दीपक गोस्वामी)

पारो की मां रामबाई बताती हैं, ‘एक डॉक्टर साहब गांव आते हैं, उनसे इलाज कराया था लेकिन दवा लगी नहीं.’

पारो की दादी सरवदी कहती हैं, ‘पारो को ले जाने वे (एनआरसी के लोग) आए थे. हम लेकर नहीं गये. हमें क्या पता था कि वो मर जाएगी. हमें तो बस यही डर था कि इसकी मां को दूध नहीं बनता, यहां तो मांगकर या खरीदकर उसे पिला देते हैं, वहां कैसे दूध का इंतजाम होगा? भूखी- प्यासी वो मर जाएगी.’

रामबाई का अब दो वर्षीय एक लड़का बचा है. देखने पर वह भी कमजोर नजर आता है. यह पूछने पर कि क्या इसे एनआरसी ले जाना पड़ा तो ले जाएंगी? वे इनकार कर देती हैं और कहती हैं कि बहुत काम है, वह कौन देखेगा?

रामबाई और सरवदी की बातों से मालूम चल रहा था कि उन तक सरकारी योजनाओं की जानकारी अब तक नहीं पहुंची है, जो कहीं न कहीं सरकारी प्रयासों की विफलता है.

रामबाई के बेटे का इलाज भी एक झोलाछाप डॉक्टर ही कर रहा है. इसका कारण यह भी है कि क्षेत्र में सामान्य स्वास्थ्य सुविधाओं की मौजूदगी न के बराबर है.

रामदीन बताते हैं, ‘पूरे अगरा सेक्टर में 80 गांव हैं और एक उप स्वास्थ्य केंद्र है जो एक डॉक्टर के भरोसे है.’ ग्रामीण बताते हैं कि छोटे बच्चों के इलाज से वहां इनकार कर दिया जाता है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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