सड़कों पर नाम-पता पूछने वाला ‘जय श्रीराम’ अब भेस बदलकर स्कूलों में पांव पसार रहा है

मुल्क की सियासत अब ज़्यादा शिद्दत से पहचान की राजनीति के गिर्द नाच रही है. राम को इमाम-ए-हिंद कहने वाले इक़बाल की दुआ को मदरसे की दुआ कहकर सीमित किया जा रहा है, लेकिन देश के बच्चे शायद इक़बाल की दुआ के सबक़ के माने समझ रहे हैं.

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प्रतीकात्मक फोटो (साभार: https://dpsbdn.org)

मुल्क की सियासत अब ज़्यादा शिद्दत से पहचान की राजनीति के गिर्द नाच रही है. राम को इमाम-ए-हिंद कहने वाले इक़बाल की दुआ को मदरसे की दुआ कहकर सीमित किया जा रहा है, लेकिन देश के बच्चे शायद इक़बाल की दुआ के सबक़ के माने समझ रहे हैं.

प्रतीकात्मक फोटो (साभार: https://dpsbdn.org)
प्रतीकात्मक फोटो (साभार: dpsbdn.org)

जिस देश में 9वीं कक्षा के बच्चों से पूछा जा रहा हो, गांधीजी ने आत्महत्या करने के लिए क्या किया और उसको सही ठहराने के लिए उनकी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ से दलील देने की चालाकी भी की जा रही हो, वहां साफ-साफ कहने, सुनने और देखने की सतर्कता को मिथ्या बताकर सियासत अपना काम निकाल लेती है.

यूं वायरल-युग के वीडियो और मैसेज के पीछे जम्हूरियत भी वायरल हो चुकी है. इसलिए प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री तक और स्थानीय प्रशासन से लेकर मीडिया तक सब ‘कहने’ और ‘सुनने’ की होशियारी में ‘सत्य के नए ही प्रयोग’ कर रहे हैं.

थोड़ा और साफ करूं तो देश के इतिहास के साथ प्रयोग, धर्म के साथ प्रयोग और प्रयोगों के साथ प्रयोग- हमें एक मुकम्मल ‘प्रयोगशाला’ में बदला जा रहा है. ऐसे में खुशकिस्मती से फैक्ट-चेक का ‘झुनझुना’ हाथ लग गया है. ये और बात है कि फैक्ट के सामने आने तक ‘राष्ट्रवाद’ का झंडा आसमान चूम चुका होता है और सत्य की हैसियत अफवाह से ज्यादा नहीं रह जाती.

कभी-कभी लगता है जम्हूरियत ही अफवाह है और मैं भी अफवाह हूं. अफवाह इस तरह कि मेरी एक तयशुदा पहचान है- मेरी भाषा, मेरा धर्म…और इससे इतर मेरी नागरिकता है, जो मेरी ‘तयशुदा पहचान’ की वजह से विश्वसनीय नहीं है.

मुल्क की सियासत अब ज्यादा शिद्दत से पहचान की इस राजनीति के गिर्द नाच रही है. सड़कों पर नाम-पता पूछने वाला ‘जय श्रीराम’ का नारा भेस बदलकर स्कूलों में ‘राष्ट्रवाद’ की पहचान के लिए अपने पांव पसार रहा है.

हमारे यहां पाठ्यक्रम के सहारे अपने राजनीतिक हितों को साधने की एक परंपरा पहले से है, अब बस ये होने लगा है कि विश्व हिंदू परिषद (विहिप) जैसे हिंदुत्ववादी संगठन स्कूलों में भी अपने राष्ट्रवाद को सुनिश्चित करने निकल पड़े हैं.

इन संगठनों की अपनी पोषित और प्रोत्साहित नफरत वाली विचारधारा है जिसके चलते उनको कुछ भी लग सकता है और लगा भी कि उनके होते हुए उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले के एक स्कूल में पारंपरिक प्रार्थना की जगह कैसे ‘मदरसे की प्रार्थना’ हो रही है?

शायद उनको ये भी मालूम रहा हो कि ये प्रार्थना तो पकिस्तान में भी की जाती है. और ये सब यहां इसलिए हो रहा है कि स्कूल के हेडमास्टर ‘फुरक़ान अली’ हैं, जो जबरन बच्चों से ‘लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी…’ पढ़वा रहे हैं.

तो मुराद पूरी हुई और इस हिंदुत्ववादी संगठन को ठीक-ठाक ‘देशद्रोही’ हाथ आ गया. ऐसे में इन कार्यकताओं को ये जानकर और ख़ुशी मिलनी चाहिए कि इस प्रार्थना के पीछे भी नेहरू की साज़िश है.

माननीय प्रधानमंत्री के पदचिह्नों पर चलते हुए इस मामले में नेहरू की भूमिका पर बात की जाए, उससे पहले बच्चे की इस दुआ को लिखने वाले इक़बाल की एक बात सुन लेते हैं.

उन्होंने 1902 में ‘मख़्ज़न’ नामी पत्रिका में बच्चों की शिक्षा पर एक लेख लिखा था, जिसमें उनका कहना था- ‘तमाम क़ौमी-उरूज (राष्ट्र का विकास) की जड़ बच्चों की तालीम है.’ जी, इक़बाल ऐसा मानते थे कि भविष्य का देश का बच्चों की तालीम से बनता है.

मुझे ये बात थोड़ी बहुत उस समय प्रासंगिक लगी जब पीलीभीत वाले मामले में ही ‘बच्चे की दुआ’ पढ़वाने के जुर्म में हेडमास्टर को विहिप की शिकायत पर निलंबित कर दिया गया और इससे नाराज बच्चों ने प्रशासन को बताने की कोशिश की कि ‘हम देश की रक्षा करेंगे और जब तक हमारे टीचर वापस नहीं आते हम स्कूल नहीं जाएंगे.’

इन बच्चों को ये हौसला जरूर इसी तरह की प्रार्थना से मिला होगा. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक- ये बच्चे मानते हैं कि उनके शिक्षक के साथ गलत हुआ है और ये प्रार्थना एकता के बारे में है. इस मुल्क में आज के समय में बच्चे ‘सही-गलत’ और ‘एकता’ की बात कर रहे हैं तो सही मानों में इक़बाल की ये दुआ खतरनाक है.

अब प्रदेश के शिक्षा मंत्री भी कह रहे हैं कि निलंबन को वापस लिया जाएगा, उनको इस नज़्म में देशप्रेम की भावना भी नजर आने लगी है. यहां इस बात की चर्चा बहुत जरूरी है कि अपनी-अपनी सुविधा से हिंदू और मुसलमान बन जाने वाला ये देश बस कमाल का है कि एक मुसलमान टीचर के लिए हिंदू बच्चे और उनके माता-पिता भी आवाज उठा रहे हैं.

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अख़बार की रिपोर्ट बताती है कि बच्चों का कहना है कि उनका ये दाढ़ी-टोपी वाला शिक्षक अपनी जेब के पैसे भी स्कूल के लिए लिए खर्च कर देता है. रिपोर्ट में  बीईओ के हवाले से बताया गया है कि, अली अक्सर स्कूल के इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए अपने पैसे खर्च करते हैं, उन्होंने स्कूल में स्मार्ट क्लासरूम शुरू करने के लिए 65,000 रुपए का प्रोजेक्टर तक खरीद लिया.

ये भी बताया जा रहा है कि जिस काम के लिए उनको विभाग से 5,000 रुपये मिलते हैं उसके लिए वो सात हज़ार तक खर्च कर देते हैं. अली की पारिवारिक पृष्ठभूमि की बात करें तो उनके पिता सब्जी बेचा करते थे और जब वो चौथी क्लास में थे तो उनकी मां का निधन हो गया था.

सात भाई बहनों के साथ उनके लिए तालीम हासिल करना कितना कठिन रहा होगा इस का बस अंदाजी लगाया जा सकता. ऐसी संघर्ष और जद्दोजहद वाली ज़िंदगी से निकलकर आने वाले इस शिक्षक का अपने स्कूल और बच्चों से प्रेम भी समझ में आता है और बच्चे क्यों उनके लिए खाना तक छोड़ बैठे इसको भी समझा जा सकता है.

अब ऐसे शिक्षक को सम्मानित करने कि कोई बहुत अच्छी परंपरा हमारे यहां है नहीं तो किसी हिंदुत्ववादी संगठन की शिकायत पर उसको निलंबित तो किया ही जा सकता है.

लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी
ज़िंदगी शम्अ की सूरत हो ख़ुदाया मेरी

दूर दुनिया का मिरे दम से अंधेरा हो जाए!
हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाए!

हो मिरे दम से यूं ही मेरे वतन की ज़ीनत
जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत

इक़बाल की नज़्म ‘लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी…’(बच्चे की दुआ) को हम में से अक्सर लोगों ने अपने पाठ्यक्रम में पढ़ रखा है, बहुत से लोगों ने अपने स्कूल की असेंबली में गाया है, तो कइयों ने इसको बेहद खूबसूरत धुन और सुरीली आवाज में सुन रखा है.

कहने का मतलब ये है कि इक़बाल की बहुचर्चित नज़्मों और शायद ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा…’ के बाद यही वो नज़्म है जो लोगों की ज़बान पर है.

खैर इक़बाल ने अपनी ये ‘विवादित’ नज़्म कब लिखी इसकी स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन ये बात साफ है कि ऐसी नज़्में उनके लेखन काल के पहले दौर (1901 से 1905) में लिखी गई हैं. चूंकि उसके बाद इक़बाल ने बच्चों के लिए लिखना छोड़ दिया था.

इस नज़्म के लिए इक़बाल की आलोचना की गई और उन पर ‘चोरी’ का इल्ज़ाम भी लगाया गया है, लेकिन ये सच नहीं है. इल्ज़ाम लगाने वालों का कहना है कि इक़बाल ने माटिल्डा बेथम एडवर्ड्स (Matilda Betham Edwards) की कविता ‘अ चाइल्ड्स हाइम’ (A Child’s Hymn) को उर्दू में अनुवाद कर दिया है. पहले माटिल्डा की कविता देखिए:

GOD make my life a little light,
Within the world to glow,
A little flame that burneth bright,
Wherever I may go.

God make my life a little flower
That giveth joy to all,
Content to bloom in native bower,
Although the place be small.

God make my life a little song,
That comforteth the sad,
That helpeth others to be strong,
And makes the singer glad.

God make my life a little staff,
Whereon the weak may rest,
That so what health and strength I have,
May serve my neighbours best.

God make my life a little hymn
Of tenderness and praise,
Of faith, that never waneth dim,
In all His wondrous ways.

दरअसल इक़बाल ने बच्चों के लिए ऐसी कई नज़्में दूसरी भाषाओं की नज़्मों को सामने रख कर लिखीं, लेकिन इसको ‘चोरी’ नहीं कह सकते. क्योंकि उर्दू में बाकायदा इसके लिए एक शब्द ‘माख़ूज़’ प्रचलित है, जिसका अर्थ होता है ‘लिया गया.’

इक़बाल की ये नज़्म उनकी किताब ‘बांग-ए-दरा’ में शामिल है और उसके अक्सर संस्करण में इस नज़्म के साथ ‘माख़ूज़’ लिखा हुआ है. ज्ञानचंद जैन जैसे विख्यात आलोचक भी इस बात की चर्चा कर चुके हैं, इसलिए इक़बाल की आलोचना के बजाय उनको दाद देनी चाहिए कि उन्होंने इस तरह से लिखा कि पढ़ते हुए कहीं भी गुमान नहीं होता कि ये मूल रचना नहीं है.

गुमान तो ये भी है कि इक़बाल ने ये नज़्म देखी ही न हो, मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि उन्होंने 1902 में अपने लेख ‘बच्चों की तालीम ओ तर्बियत’ में लिखा कि- ‘उनका सबसे पहला फर्ज ये है कि उसका (बच्चों का) वजूद ज़ीनत का बाईस (ज़ीनत की वजह) हो और जैसाकि एक यूनानी शायर कहता है- ‘उसके हर एक काम में एक तरह की रोशनी हो जिसकी किरणें औरों पर पड़कर उनको दयानतदारी और सुलहकारी के साथ ज़िंदगी बसर करने का सबक देवें.’

इस पूरे लेख में ‘बच्चे की दुआ’ का एक संदर्भ मौजूद है और ये एहसास होता है कि इक़बाल तक माटिल्डा बेथम एडवर्ड्स की कविता किसी यूनानी शायर के माध्यम से पहुंची होगी. लेकिन हर हाल में इस नज़्म की रचनात्मकता इक़बाल की अपनी है.

यहां इन बातों को दर्ज करने की जरूरत नहीं थी लेकिन इक़बाल को अक्सर बहाने से दरकिनार करने की कोशिश की गई है, इसलिए ये बातें मुझे ज़रूरी लगीं कि उनसे असहमति के साहित्यिक और सियासी संदर्भ बहुत हैं. मैं ख़ुद इक़बाल से कई जगहों पर बहुत सहमत नहीं हूं लेकिन मैं इस बिना पर उनको रद्द कर देने या उनको चोर कह देने के पक्ष में भी नहीं हूं.

पाकिस्तान के बनने में भी इक़बाल की भूमिका पर भी बहुत बात की जा सकती है लेकिन उनकी नज़्मों में मौजूद हिंदुस्तानियत पर भी बात मुमकिन है.

गांधी, नेहरू और इक़बाल

कहते हैं इक़बाल पाकिस्तान के हामी थे, इस्लामी शायर थे और ऐसी बहुत सी सच्ची-झूठी बातें हैं, जिसकी बुनियाद पर उनसे नफरत और मोहब्बत की जा सकती है. शायद इसलिए गांधीजी ने भी उनसे मोहब्बत की थी.

गांधीजी के विचार में, ‘कौन ऐसा हिंदुस्तानी दिल है जो इक़बाल का हिंदुस्तान हमारा सुनकर धड़कने नहीं लगता, अगर कोई ऐसा दिल है तो मैं इसे उसकी बदनसीबी समझूंगा.’ फिर इक़बाल के निधन पर गांधीजी ने अपने एक उर्दू ख़त में ये भी लिखा कि- ‘जब उनकी मशहूर नज़्म हिंदुस्तान हमारा पढ़ी तो मेरा दिल भर आया और जेल में तो सैंकड़ों बार मैंने इस नज़्म को गाया होगा.’

बात यहीं ख़त्म नहीं होती कि आजादी के सिर्फ एक हफ्ते बाद 21 अगस्त 1947 को गांधीजी नोआखाली (मौजूदा बांग्लादेश) में थे, जहां एक गांव में हिंदुस्तान और पाकिस्तान के झंडे एक साथ लहरा रहे थे.

वहां गांधीजी ने अपनी प्रार्थना सभा में इक़बाल का ये शेर पढ़ा- मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना… उसके बाद दुआ की कि अपनी समस्याओं को हल करने के लिए हिंदुस्तान और पाकिस्तान कभी तलवार न उठाएं. एक समय ऐसा भी था, जब गांधीजी ने इक़बाल को जामिया मिलिया इस्लामिया की जिम्मेदारी सौंपने की कोशिश थी, हालांकि इक़बाल ने मना कर दिया था.

इन सब बातों की राजनीतिक व्याख्या भी मौजूद है लेकिन समझने वाली बात ये है कि इस मुल्क ने वो ज़माना भी देखा है जहां विचारों की असहमति से परे भी इंसान इंसान ही थे. अब तो हमारे पास नफरत करने की सबसे बड़ी वजह यही है कि इक़बाल, पाकिस्तान और उर्दू तीन ख़तरनाक चीजें एक साथ…

अब वक्त आ गया है कि प्रधानमंत्री के पदचिह्नों पर चलते हुए नेहरू की भूमिका पर भी बात कर ली जाए तो मेरे पास पहला हवाला ये है कि ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में जवाहरलाल नेहरू ने इक़बाल के बारे में अपने विचार व्यक्त किए हैं और बताया है  कि ‘इक़बाल अंतिम समय में सोशलिज्म के बहुत करीब हो गए थे.’

और पाकिस्तान के हिमायती होने के बाद भी पाकिस्तान बनने के खतरे से वाकिफ हो गए थे. हालांकि कुछ लोग इसको नेहरू की बदनीयती वाली राय भी बताते हैं. खैर नेहरू ने इक़बाल के निधन से पहले उनसे एक लंबी मुलाकात की थी, जहां बहुत सी बातें हुई थीं और उसी मौके पर इक़बाल का कहा ये जुमला बहुत मशहूर हुआ था कि ‘जवाहरलाल आप मोहिब्ब-ए-वतन (देशभक्त) हैं और जिन्नाह सियासतदां.’

हां, इक़बाल और नेहरू के अपने वैचारिक मतभेद थे इसके बावजूद दोनों एक दूसरे की बहुत इज्ज़त करते थे. शायद इसलिए इक़बाल के निधन पर नेहरू ने हिंदुस्तान की आजादी के संघर्ष के प्रति उनके प्रेम को याद किया था और कहा था कि हिंदुस्तान ने एक चमकदार सितारा खो दिया लेकिन उनकी महान नज़्में आने वाली पीढ़ी के दिमाग में उनकी यादों को ताजा रखेगी और उनको प्रेरित करेगी.

अजीब बात है कि आज नेहरू के कहे को प्रमाण की जरूरत नहीं है लेकिन आज इक़बाल की दुआ को मदरसे की दुआ कहकर सीमित किया जा रहा है, तो ये भी समझाया जा रहा है कि मदरसों में राष्ट्रवाद का सबक नहीं पढ़ाया जाता, देशभक्ति नहीं सिखाई जाती.

राम को इमाम-ए-हिंद कहने वाले इक़बाल ने क्या नहीं लिखा यहां तक कि ऋग्वेद के गायत्री मंत्र पर आधारित एक नज़्म ‘आफ़ताब’ भी लिखी. लेकिन सबसे बड़ी बात तो यही है कि वो पाकिस्तान का हामी था. गोया बात दुआ की थी ही नहीं, नफरत की थी, भेदभाव की थी जो सत्ता के संरक्षण में फल-फूल रही है.

भाषा-साहित्य या कोई भी ऐसी चीज़ जो दो मुल्कों को जोड़ सकती है उस पर हमला तेज़ हो गया है. संयोग से भारत में ऐसे तमाम प्रतीक किसी न किसी तौर पर मुसलमानों से जोड़ दिए गए हैं इसलिए मुसलमान इस हमले की ज़द में हैं.

इसके बावजूद पीलीभीत के बच्चों को सलाम करने को जी चाहता है, जो न सिर्फ इक़बाल की दुआ पढ़ते हैं बल्कि उनको इसमें एकता का सबक भी नजर आता है.