मुसहरों को साबुन-शैंपू बांटकर लोकतंत्र अपना पाप धो रहा है

सीएम योगी के दौरे के पहले सार्वजनिक रूप से एक समुदाय पर ‘गंदगी और प्रदूषण’ का विचार आरोपित किया गया, जबकि आज़ाद भारत का लोकतंत्र उस समुदाय के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभा पाया है.

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सीएम योगी के दौरे के पहले सार्वजनिक रूप से एक समुदाय पर ‘गंदगी और प्रदूषण’ का विचार आरोपित किया गया, जबकि आज़ाद भारत का लोकतंत्र उस समुदाय के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभा पाया है.

फोटो: एएनआई
फोटो: एएनआई

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 25 मई को कुशीनगर के एक मुसहर बहुल गांव मैनपुर में आयोजित कार्यक्रम में भाग लिया और समाज के हाशिये पर जी रहे मुसहर समुदाय के बारे में कहा कि वे आदिवासी जनों जैसी ज़िंदगी जी रहे हैं. उन्हें सरकार मुख्यधारा में लाएगी.

मुख्यमंत्री के इस कथन को ध्यान से पढ़ें तो आप पाएंगे कि उन्होंने मान लिया है कि आदिवासियों की ज़िंदगी ठीक से नहीं गुज़र रही है. यह एक भूतपूर्व सांसद की स्वीकारोक्ति भी है. इसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए. उत्तर प्रदेश में सोनभद्र में आदिवासी जनों के कष्ट किसी से छुपे नही हैं. वे मुश्किल हालात में जीवन जी रहे हैं. आशा है कि मुख्यमंत्री जी उनकी ज़रूर सुध लेंगे.

अब आते हैं मुसहरों पर. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का कुशीनगर दौरा उनके स्थानीय अधिकारियों ने विवादस्पद बना दिया. उन्होंने मुसहर समुदाय के लोगों को साबुन और शैंपू दिया और कहा कि वे नहा धोकर ही मुख्यमंत्री की सभा में आएं. स्वच्छ भारत अभियान की दृष्टि से यह एक प्रशंसनीय क़दम हो सकता है लेकिन जिस तरीक़े से सार्वजनिक रूप से एक पूरे समुदाय में ‘गंदगी और प्रदूषण’ का विचार आरोपित किया गया, उसे प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता है.

सरकर के इस क़दम की आलोचना हुई. ऐसा संभव है कि मुख्यमंत्री ने ऐसा न कहा हो, लेकिन सरकार अपनी मंशा में होती है. वह अपने रोज़मर्रापन के बीच जो संदेश देती है, वह जनता सहित बाहरी दुनिया के लिए मायने रखता है. इसे सबसे ज़्यादा उसके अधिकारी जानते हैं.

जब उन्होंने मुसहर समुदाय के लोगों को साबुन, शैंपू दिए तो यह एक ही झटके में मुसहर समुदाय को उनके बहिष्कृत इतिहास से परिचित कराने जैसा था. यह मुसहर समुदाय की सदियों पुरानी पहचान में उन्हें खींच ले जाना था, जब उन्हें चूहा खाने के कारण अस्पृश्य और अपवित्र माना जाता था.

हालांकि यही एकमात्र कारण नहीं था. प्राचीन सामाजिक व्यवस्था ने अलग-अलग जातियों में अस्पृश्यता और अपवित्रता आरोपित करने के अलग-अलग कारण खोज रखे थे.

पूर्वी उत्तर प्रदेश के धान उपजाऊ इलाक़ों में मुसहरों के गांव पाए जाते हैं. मुसहर वनराजा और वनवासी के नाम से भी जाने जाते हैं. उनका मुख्य पेशा तालाब खोदना, ढाक और महुए के पत्तों से दोना पत्तल बनाना रहा है. वे धान के खेत से चूहों के बिल से उनके द्वारा छुपाई गई धान की बालें निकालकर उससे अनाज इकठ्ठा कर भोजन का जुगाड़ करते हैं. इससे उन्हें मुश्किल से दो जून की रोटी मिल सकती है.

वे गांव की बाहरी सीमा पर या खुले मैदानों और बागों में रहते आए हैं. इधर तकनीक ने प्लास्टिक के दोने और पत्तलों को बाज़ार में उतार दिया. इनके आने से उनकी जीविका छिन गई है. ऐसे बहुत से समुदाय हैं जिन्हें तकनीक ने दिया तो कुछ नहीं है लेकिन जो कुछ उनके पास है, उसे छीन लिया है. इसे ही कन्नड़ दलित विचारक डी. आर. नागराज ने टेक्नोसाइड कहा था. टेक्नोसाइड का मतलब किसी समुदाय की तकनीक से हत्या कर देना है.

उत्तर प्रदेश में मुसहरों सहित कई परिधीय समुदायों की तकनीक ने जीविका छीन ली. अब जो ज़िम्मेदारी लोकतंत्र को लेनी थी, वह उससे चूक सा गया लगता है. ऐसे समुदायों को शिक्षा चाहिए, रोज़गार चाहिए, ज़मीन चाहिए और सबसे बढ़कर राजनीतिक नुमाइंदगी चाहिए. उत्तर प्रदेश में मुसहर इस सबसे महरूम हैं. ऐसे समुदायों के लिए लोकतंत्र विश्वास दिलाता है कि उनकी बात एक दिन सुनी जाएगी. वे अपनी बात सुनाने के लिए ही मुख्यमंत्री से मिलने आए थे.

शासन सत्ता को बात सुनाने के लिए लोगों को एकत्र होना पड़ता है और चुनावों से लेकर प्रतिदिन के जीवन में शक्ति दिखानी पड़ती है. अपने वोट का मूल्य बताना पड़ता है. पिछले तीन दशकों में जिन समुदायों ने यह शक्ति हासिल कर ली है, वह अपनी आवाज़ शासन को सुना पा रहे हैं. जिन समुदायों के पास संख्या बल नहीं है वे पीछे रह जाते हैं. प्रख्यात समाजविज्ञानी प्रोफेसर बद्री नारायण की किताब ‘फ्रैकचर्ड टेल्स’ इस कहानी को विस्तार से बताती है. मुसहर भी ऐसा ही समुदाय है.

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कुशीनगर दौरे पर पहुंचे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जापानी बुखार के टीकाकरण की शुरुआत की. (फोटो: पीटीआई)

उत्तर प्रदेश में कुल 66 अनुसूचित जातियां हैं. 2011 की जनगणना के हिसाब से इनकी कुल जनसंख्या 4,13,57,608 है. उसमे से भी मुसहरों की कुल जनसंख्या 2,57,135 है जो उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जातियों की जनसंख्या के एक प्रतिशत से भी कम है (http://www.censusindia.gov.in/2011census/SCST-Series/SC14.html).

इतनी छोटी जनसंख्या होने के कारण मुसहर आसानी से दिखाई नहीं पड़ते हैं. यह भी ध्यातव्य है कि मुसहर समुदाय के पास ज़मीनें बिलकुल नहीं हैं और शिक्षा का स्तर निम्नतम है. मुश्किल से ही कोई मैट्रिक पास पहली पीढ़ी का मुसहर दिखेगा. इसलिए वे अभी सरकारी नौकरियों में भी नहीं हैं. ऐसे समुदाय के लिए आशा की एक ही किरण है, लोकतंत्र.

लोकतंत्र लोगों को पहचान देता है. उन्हें वितरणमूलक व्यवस्था के अधीन लाकर उन्हें रोज़ी रोज़गार देता है और सबसे बढ़कर उन्हें जीवन के हर क्षेत्र में प्रतिनिधित्व प्रदान करता है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी कुशीनगर की मुसहर बस्ती में यही वादा किया है.

उन्होंने पांच बच्चों को टीका लगाकर इंसेफलाइटिस टीकाकरण अभियान की शुरुआत की थी. मुख्यमंत्री ने मुसहर समुदाय के एक गांव मैनपुर में मुसहरों से वादा किया कि सरकार मुसहर बस्ती के हर परिवार को आवासीय पट्टा, खेती करने लायक ज़मीन, रहने के लिए घर, राशनकार्ड, पेंशन व बिजली उपलब्ध कराएगी. उन्होंने मुसहर बच्चों की पढ़ाई सुनिश्चित करने का निर्देश भी दिया.

अब सवाल यह है आने वाले वर्षों में पूर्वी उत्तर प्रदेश की मुसहर बस्तियों में बिजली का खंबा लगेगा, उन्हें खेती लायक ज़मीन मिल सकेगी और मुसहर लड़कियां और लड़के स्कूलों में सुबह ‘जन गण मन अधिनायक जय हे…’ का गान कर पाएंगी या नहीं? किसी मुसहर बस्ती में आज से पांच या दस साल बाद कोई मुख्यमंत्री जाने की सोचे तो क्या उसके अधिकारी उससे पहले ही साबुन लेकर पहुंच जाएंगे- मुसहरों नहलाने-धुलाने के लिए?

(लेखक ने हाल ही में जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान से पीएचडी की है.)

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