छत्तीसगढ़: कॉरपोरेट से जंगल और ज़मीन बचाने के लिए आदिवासियों की जद्दोजहद

बीते 14 अक्टूबर से राज्य के सरगुजा, सूरजपुर और कोरबा ज़िले के बीस से ज़्यादा गांवों के आदिवासी हसदेव अरण्य क्षेत्र में कोयला खदान खोले जाने के ख़िलाफ़ धरना दे रहे हैं. उनका आरोप है कि कोल ब्लॉक के लिए पेसा क़ानून और पांचवीं अनुसूची के प्रावधानों की अनदेखी की गई है.

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(फोटो साभार: फेसबुक/@Savehasdeoaranya)

बीते 14 अक्टूबर से राज्य के सरगुजा, सूरजपुर और कोरबा ज़िले के बीस से ज़्यादा गांवों के आदिवासी हसदेव अरण्य क्षेत्र में कोयला खदान खोले जाने के ख़िलाफ़ धरना दे रहे हैं. उनका आरोप है कि कोल ब्लॉक के लिए पेसा क़ानून और पांचवीं अनुसूची के प्रावधानों की अनदेखी की गई है.

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फोटो साभार: फेसबुक/@Savehasdeoaranya

उदयपुर: छत्तीसगढ़ के उत्तरी भाग में करीब एक लाख सत्तर हजार हेक्टेयर में फैले हसदेव अरण्य के वन क्षेत्र में जंगलों पर उजड़ने का खतरा मंडरा रहा है. इन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों ने जंगलों को बचाने के लिए मोर्चा संभाल लिया है.

दरअसल इस पूरे वनक्षेत्र में कोयले का अकूत भंडार छुपा हुआ है और यही इन जंगलों पर छाए संकट का कारण भी है. पूरे इलाके में कुल 20 कोल ब्लॉक चिह्नित हैं, जिसमें से 6 ब्लॉक में खदानों के खोले जाने की प्रक्रिया जारी है.

एक खदान परसा ईस्ट केते बासेन शुरू हो चुकी है और इसके विस्तार के लिए केते एक्सटेंशन के नाम से नई खदान खोलने की तैयारी है. वहीं परसा, पतुरिया, गिधमुड़ी, मदनपुर साउथ में भी खदानों को खोलने की कवायद जारी है.

इन परियोजनाओं में करीब एक हजार आठ सौ बासठ हेक्टेयर निजी और शासकीय भूमि सहित सात हजार सात सौ तीस हेक्टेयर वनभूमि का भी अधिग्रहण होना है.

खदानों की स्वीकृति प्रक्रियाओं से ग्रामीण हैरान हैं और इसके विरोध में खुलकर सामने आ गए हैं. प्रभावित क्षेत्र के सैकड़ों आदिवासी व अन्य ग्रामीण लामबंद होते हुए विगत 30 दिनों से अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हुए हैं.

स्वीकृति प्रक्रिया में ग्राम सभा के फर्जी प्रस्तावों का उपयोग

मालूम हो कि यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के तत्कालीन मंत्री जयराम रमेश द्वारा साल 2009 में हसदेव अरण्य क्षेत्र को नो गो क्षेत्र घोषित किया गया था.

हालांकि साल 2011 में परसा ईस्ट केते बासेन और तारा कोल ब्लॉक में खनन की अनुमति यह कहते हुए दी कि ये बाहरी भाग में हैं और इनमें खनन परियोजनाओं से जैव विविधता को ज्यादा असर नहीं पड़ेगा, पर इसके बाद किसी भी अन्य परियोजना को अनुमति नहीं दी जा सकती.

इसके बाद भी फिर से इस क्षेत्र में नई परियोजनाएं शुरू की जा रही हैं. प्रस्तावित परियोजनाएं सरगुजा, सूरजपुर और कोरबा जिले के अंतर्गत हैं. तीनों ही जिले पांचवीं अनुसूचित क्षेत्र हैं, जहां पेसा कानून 1996 का प्रावधान है. इन क्षेत्रों में ग्राम सभा का निर्णय ही सर्वोपरि होता है.

पूरे क्षेत्र की 20 ग्राम सभाओं ने अक्टूबर 2014 में कोल परियोजनाओं के विरोध में प्रस्ताव पारित किया था. परसा कोल ब्लॉक के प्रभावित ग्राम साल्ही के रामलाल करियाम बताते हैं, ‘इस परियोजना के लिए फर्जी ग्राम सभा के माध्यम से अनुमति की प्रक्रिया की गई है जबकि इसकी लिखित शिकायत कलेक्टर सरगुजा से की गई है पर इस मामले में कार्रवाई तो दूर जांच तक नहीं की गई है.’

वन अधिकार मान्यता कानून 2006 के तहत आदिवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने की मंशा रही है.

इस कानून की धारा 4 (5) और पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के आदेश (30 जुलाई 2009) के अनुसार जब तक वन संसाधनों पर व्यक्तिगत और सामुदायिक दावों के मान्यता की प्रक्रिया समाप्त नहीं हो जाती और संबंधित ग्राम सभा की लिखित सहमति नहीं मिल जाती है, तब तक किसी भी परियोजना के लिए वन भूमि का डायवर्जन नहीं हो सकता है.

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फोटो: ललन सिंह

ग्रामीणों का धरना

सरकारों के रुख को देखते हुए ग्रामीणों ने भी संघर्ष का मूड बना लिया है. हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के बैनर तले धरना की शुरुआत 14 अक्टूबर को बिलासपुर-अम्बिकापुर नेशनल हाईवे में स्थित सूरजपुर जिला के तारा ग्राम में ग्राम पंचायत के सरपंच की अनापत्ति के बाद धरनास्थल का चयन किया गया था.

19 अक्टूबर को सरपंच के द्वारा एसडीएम की अनुमति नहीं होने का हवाला देते हुए प्रदर्शनकारियों को धरनास्थल बदलने का नोटिस थमा दिया गया. प्रदर्शनकारियों ने तारा में ही दूसरे स्थान पर शांतिपूर्ण धरना शुरू कर दिया.

21 अक्टूबर से धरनास्थल को पुनः बदलते हुए सरगुजा जिला के परसा कोल ब्लॉक के प्रभावित गांव फतेहपुर में लगातार धरना किया जा रहा है. बार-बार धरनास्थल बदलने के बाद भी आंदोलनकारियों की संख्या कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है.

वर्तमान में इस आंदोलन में सरगुजा, सूरजपुर और कोरबा जिले के साल्ही, फतेहपुर, हरिहरपुर, घाटबर्रा, सैदू, सुसकम, परोगिया, तारा, मदनपुर, मोरगा, पुटा, गिधमुड़ी, पतुरियाडांड़,खिरटी, जामपानी, करैहापारा, धजाक, बोटोपाल, उचलेंगा, ठिर्री आमा, केतमा, अरसियां गांवों के सैकड़ों आदिवासी व अन्य ग्रामीण सैकड़ों की संख्या में प्रतिदिन शामिल हो रहे हैं.

कानूनों की अवहेलना

हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के संयोजक आलोक शुक्ला कहते हैं, ‘इन खनन परियोजनाओं की स्वीकृति की प्रक्रियाओं में पेसा कानून 1996, वन अधिकार मान्यता कानून 2006, भूमि अधिग्रहण कानून 2013 और तमाम कानूनों और संवैधानिक प्रावधानों की धज्जियां उड़ाते हुए कोल बेयरिंग एक्ट 1957 और कोयला खदान विशेष प्रावधान अधिनियम दिसंबर 2014 का उपयोग किया जा रहा है. साथ ही लगातार खनन परियोजनाओं की स्वीकृति प्रक्रियाओं को आगे बढ़ाया जा रहा है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘प्रस्तावित 6 परियोजनाओं में चोटिया कोल ब्लॉक नीलामी में बाल्को कंपनी को मिली है, अन्य 5 कोल ब्लॉक विभिन्न राज्य सरकारों को आवंटित हुई हैं, जिनके एमडीओ (माइन डेवलपर कम ऑपरेटर) अनुबंध अदानी कंपनी (और उसकी सहायक इकाइयों) को दिए गए हैं. वर्तमान में संचालित परसा ईस्ट केते बासेन का संचालन भी अदानी इंटरप्राइजेज लिमिटेड के द्वारा ही किया जा रहा है.’

आलोक आरोप लगाते हैं कि कॉरपोरेट घराने को पिछले दरवाजे से लाभ पहुंचाने के लिए एमडीओ का तरीका बनाया गया है और समृद्ध जैव विविधता से परिपूर्ण हसदेव अरण्य के जंगलों में कोयला खदानों की अनुमति दी जा रही है.

मदनपुर निवासी उमेश्वर सिंह आर्मो भी धरने में आए हैं और आलोक की इसी बात को आगे बढ़ाते हैं. उनका कहना है, ‘आज देश का 21 प्रतिशत कोयला छत्तीसगढ़ से जा रहा है,अगर वन समृद्ध वन संपदा, हसदेव बांगो बांध, असंख्य जीव जंतुओं, छत्तीसगढ़ के पर्यावरण  और बीस से भी अधिक गांवों को उजड़ने से बचाने के लिए कुछ लाख टन कोयला नहीं निकाला जाएगा तो क्या देश का विकास रुक जाएगा?’

वे आगे जोड़ते हैं, ‘असल बात विकास की नहीं, बल्कि नीयत की है. कॉरपोरेट के मुनाफे के सामने सरकारों को विनाश दिखना बंद हो गया है.’

पर्यावरण और आदिवासी मान्यताएं

धरने में शामिल लोगों का कहना है कि पूरा इलाका सघन वनों से भरपूर है. यही क्षेत्र हसदेव बांगो (मिनीमाता बांगो बांध) का कैचमेंट एरिया है. खदानों के खुलने से हसदेव व चोरनई नदियों का अस्तित्व संकट में आ जाएगा, जिससे बांध पर भी सूखे का संकट आ जाएगा, जबकि इसी बांध के पानी से ही करीब चार लाख तिरेपन हजार हेक्टेयर खेती की जमीन सिंचित होती है.

साथ ही, इस इलाके के जंगल हाथी, भालू, हिरण और अन्य दुर्लभ वन्य जीवों के प्राकृतिक निवास हैं. खदानों से इनके अस्तित्व पर भी संकट आ जाएगा.

बता दें कि इस पूरे क्षेत्र में हाथियों का लगातार आवागमन होता रहता है और आए दिन हाथी मानव द्वंद की घटनाएं होती रहती हैं. वन क्षेत्र कम होने से यह समस्या और भी विकराल रूप धारण कर सकती है.

परसा कोल ब्लॉक के प्रभावित ग्राम घाटबर्रा में जनवरी 2018 में तीन महिलाओं तथा जनवरी 2019 में परसा गांव में एक बुजुर्ग और ईंट भट्ठे में काम करने वाली नवविवाहित युवती की हाथियों के हमलों में जान जा चुकी है.

आदिवासियों के आंदोलन के दौरान ही आठ हाथियों का दल क्षेत्र में विचरण कर रहा था, जिसकी चेतावनी वन विभाग के द्वारा साल्ही, हरिहरपुर, फतेहपुर और घाटबर्रा के ग्रामीणों को सतर्क रहने के लिए जारी की गई थी. गांवों के कोटवारों द्वारा भी मुनादी की गई थी.

पर हैदराबाद की कंपनी विमटा लैब लिमिटेड द्वारा परसा कोल ब्लॉक की पर्यावरणीय स्वीकृति के लिए तैयार किए गए ईआईए (पर्यावरणीय प्रभाव आकलन) रिपोर्ट में इस क्षेत्र में साल 2013 के बाद हाथियों का आवागमन नहीं होना दर्शाया गया है.

कोल ब्लॉक के कोर जोन में पाए जाने वाले कई तरह के सरीसृप, चिड़ियों की कई प्रजातियां, स्तनधारी वन्य जीव जंतु, प्राकृतिक जल स्रोत, छोटे नाले और उनमें रहने वाली मछलियां और अन्य जलीय जीव तथा संस्कृति से जुड़े महत्वपूर्ण प्रजाति के पेड़ पौधों का जिक्र तक नहीं है.

यहां तक कि करमी पेड़ और जिंवटी मछली तक ईआईए रिपोर्ट से नदारद हैं, जबकि पूरे सरगुजा संभाग के ग्रामीण अंचल में मनाए जाने वाले करमा त्योहार का नाम ही करमी पेड़ से पड़ा है.

प्रदर्शन में आई संतरा बाई,फूलबाई, शकुंतला टोप्पो आदि महिलाओं ने बताया, ‘करमी पेड़ की हम लोग पूजा करते हैं, करमा त्योहार में गांव के लोग करमी पेड़ की डाली को एक निश्चित स्थान में गाड़कर उसके इर्द गिर्द करमा लोकनृत्य करते हैं. ‘जिंवटी मछली’ भी हमारी संस्कृति में पूजनीय है. जिंवतिया त्योहार में हम महिलाएं व्रत रखकर इस मछली की पूजा करती हैं और बाद में उसे वापस नदी में छोड़ देती हैं. जन्म से लेकर मृत्यु तक के हमारे संस्कार प्रकृति से जुड़े हैं. नदियां, पहाड़, पेड़-पौधे इनसे ही हमारी जिंदगी जुड़ी है, हम इन्हें उजड़ने नहीं देंगे.’

आंदोलन में शामिल मंगल सिंह आर्मो, मंगलदास, देवसाय मरपच्ची, राजू ,नरेश, युनुस टोप्पो और उनके साथ आए अन्य लोग भी इस बात से हामी रखते हैं. उनका कहना है कि खदान खुलने से हजारों आदिवासियों समेत अन्य परिवारों को विस्थापित होकर बेघर होना पड़ेगा, जिससे गांव के बिखरने के साथ ही प्राचीन आदिवासी संस्कृति भी विलुप्त हो जाएगी.

महीने भर से आंदोलन कर रहे इन प्रदर्शनकारियों ने दीपावली का त्योहार भी धरनास्थल पर ही मनाया. इस दिन आदिवासियों ने जल,जंगल और जमीन की रक्षा का संकल्प लेते हुए प्रत्येक गांव की तरफ से ग्राम रक्षा के प्रतीक विभिन्न देवी देवताओं के नाम से दिए जलाए और पारंपरिक करमा नृत्य किया.

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फोटो: ललन सिंह

‘जंगल कट जाएंगे तो हम सब कहां जाएंगे?’

धरने में उपस्थित चारपारा निवासी शिवकुमारी तल्ख शब्दों में विरोध जताते हुए कहती हैं, ‘इन्हीं वनों से हम आदिवासियों को पुटु-खुखड़ी (प्राकृतिक जंगली मशरूम), तेंदूपत्ता, सालबीज, चिरौंजी, महुआ तथा जरूरत की अन्य चीजें प्राप्त होती हैं, जिस पर हमारी परंपरागत आजीविका निर्भर है. इलाके के जंगलों में दुर्लभ प्रजाति की औषधीय वनस्पतियां प्राकृतिक रूप से पाई जाती हैं, जिससे हम सब स्थानीय निवासी अपना उपचार करते हैं. जंगलों पर ही हम सब निर्भर हैं, जंगल कट जाएंगे तो हम सब कहां जाएंगे, हम अपनी जमीन और जंगल उजड़ने नहीं देंगे.’

हरिहरपुर निवासी जनपद पंचायत उदयपुर के सदस्य बालसाय कोर्राम का यह भी आरोप है कि खदान का विरोध करने वालों को प्रताड़ित किया जा रहा है.

वे कहते हैं, ‘तरह-तरह के हथकंडे अपनाकर हमें अपने गांव और जमीन से बेदखल करने का षड्यंत्र किया जा रहा है. खदानों का विरोध करने वालों को कई तरह से प्रताड़ित किया जाता है. मैंने भी इस परियोजना की पर्यावरणीय स्वीकृति के लिए ग्राम बासेन में आयोजित जनसुनवाई के दौरान खदान खोलने का विरोध किया था. अदानी कंपनी के लोग बार-बार मुझे खदान का विरोध न करने और ग्राम सभा में सहमति का प्रस्ताव पारित करवाने का दबाव बनाते रहे, पर मैंने मना कर दिया. तब कंपनी के इशारे पर मेरे ऊपर जमीन का फर्जी पट्टा बनवाने का आरोप लगाते हुए कूटरचित आवेदन के आधार पर उदयपुर थाने मे एफआईआर दर्ज करवाया गया. उस मामले में मुझे और मेरी पत्नी को 45 दिनों तक जेल में रहना पड़ा.’

1 नवंबर को राज्य के स्थापना दिवस पर आंदोलन को समर्थन देने दलित आदिवासी मंच, सोनाखान, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (कोरबा),गोंडवाना स्टूडेंट यूनियन,पोंड़ी (कोरबा), किसान महासभा (सरगुजा), कोयला श्रमिक संघ, विश्रामपुर (सूरजपुर) सहित कई संगठनों के लोग पहुंचे थे.

आंदोलनकारियों ने हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के माध्यम से प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को पत्र लिखकर गैरकानूनी तरीकों और फर्जी ग्राम सभा प्रस्तावों से हो रही खदानों की अनुमति निरस्त करने की मांग की है. वहीं उधर आदिवासी महासभा बस्तर संभाग ने भी छत्तीसगढ़ के राज्यपाल को आंदोलन की मांगों के समर्थन में अल्टीमेटम देते हुए पत्र लिखा है.

घाटबर्रा के जयनंदन सिंह पोर्ते कहते हैं, ‘सरकार हमारी मांगों को अनसुना कर रही है. अगर यहां से हमारी आवाज़ नहीं सुनाई दे रही है तो हम पदयात्रा करते हुए प्रदेश की राजधानी रायपुर भी जाएंगे पर खदान नहीं खुलने देंगे.’

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)