आंकड़े बताते हैं कि मोदी सरकार के तीन साल में अर्थव्यवस्था के अच्छे दिन नहीं आए

मोदी यह समझाने की कितनी भी कोशिश करें कि उनके आने से बदलाव आया है, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि अर्थव्यवस्था से जुड़े अधिकांश क्षेत्रों में सरकार प्रगति करने के लिए जूझती नज़र आ रही है.

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Indian Prime Minister Narendra Modi gestures on stage during a community reception at SAP Center in San Jose, California September 27, 2015. REUTERS/Stephen Lam

प्रधानमंत्री मोदी भले ही जनता को यह समझाने की कितनी भी कोशिश करें कि उनके आने से देश में बदलाव की बयार आई है, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि अर्थव्यवस्था से जुड़े अधिकांश क्षेत्रों में सरकार प्रगति करने के लिए जूझती नज़र आ रही है.

फोटो: रॉयटर्स

अगर कोई मोदी सरकार द्वारा जारी किए गए अहम आर्थिक आंकड़ों के हिसाब से बात करे, तो पिछले तीन वर्षों में एनडीए का प्रदर्शन उम्मीदों से कमतर रहा है. 2014 के चुनावी भाषणों में मोदी ने जिस ‘अच्छे दिन’ का वादा किया था, वह दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा. जीडीपी और औद्योगिक उत्पादन के इंडेक्स की गणना करने के तरीके को ‘बदलने’ के बावजूद मोदी सरकार की कृपा से यूपीए सरकार के आखिरी दो साल बेहतर लगने लगे हैं और इसके अपने तीन साल कहीं ज्यादा खराब.

याद कीजिए, पदभार संभालने के कुछ महीने के बाद ही वित्त मंत्री अरुण जेटली ने काफी यकीन के साथ यह दावा किया था कि अर्थव्यवस्था अपने सबसे खराब दौर से निकल चुकी है और अब यह शिखर की ओर बढ़ रही है. तीन वर्षों के बाद सबसे निष्पक्ष आंकड़ों के मुताबिक 2016-17 के लिए जीडीपी वृद्धि दर का अनुमान 2013-14 की जीडीपी वृद्धि (6.9 प्रतिशत) के बराबर या उससे कम है.

आर्थिक विकास के हिसाब से 2013-14 यूपीए शासन का सबसे खराब साल था जब अर्थव्यवस्था को लेकर चारों ओर निराशा छाई हुई थी. 2014 के चुनावों में भाजपा ने इस तथ्य को खूब भुनाया था और अपने चुनाव प्रचार में अच्छे दिन का नारा दिया था. शुद्ध आंकड़ों के हिसाब से, अब तक के एनडीए शासन में संगठित क्षेत्र में जितनी नई नौकरियों का निर्माण हुआ है, वह यूपीए के आखिरी तीन साल की तुलना में आधे से भी कम है.

हर तीन महीने पर श्रम मंत्रालय द्वारा जारी किया जाने वाला यह आंकड़ा मोदी सरकार के लिए सबसे बड़ी शर्मिंदगी का सबब है. एनडीए की उपलब्धियों पर चर्चा करने के लिए बुलाए गए प्रेस कांफ्रेंस में जब अमित शाह से संगठित क्षेत्र में रोजगार निर्माण में आई गिरावट के बारे में सवाल पूछा गया, तो वे कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पाए.

रिपोर्ट के मुताबिक उन्होंने कहा, ‘125 करोड़ लोगों को रोजगार मुहैयार कराना नामुमकिन है…स्वरोजगार के रास्ते ही रोजगार आ सकता है.’

शाह के बयान का अर्थ यही निकाला जा सकता है कि श्रम बाजार में रोजगार की तलाश कर रहे युवाओं को अपनी चिंता खुद करनी पड़ेगी. निस्संदेह, आंकड़े बताते हैं कि हाल के दशकों में रोजगार में हुई वृद्धि में करीब 50 प्रतिशत योगदान स्वरोजगार का रहा है. यह मुख्यतः असंगठित क्षेत्र है, जिसमें 48 करोड़ के श्रमबल का करीब 85 फीसदी हिस्सा काम कर कर रहा है. आज तक किसी अध्ययन ने प्रामाणिक ढंग से भारत में स्वरोजगार की गुणवत्ता का आकलन नहीं किया है.

स्किल डेवलेपमेंट मंत्रालय का मानना है कि इस श्रमबल के महज 5 फीसदी के पास औपचारिक कौशल है. ऐसे में बाकी के 95 फीसदी की गुणवत्ता का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है. यहां ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि एनडीए सरकार अपने तीन वर्षों में जॉबलेस ग्रोथ (बिना रोजगार के विकास) की यथास्थिति को तोड़ पाने में नाकाम रही है.

सरकार ने यह चौंका देनेवाला दावा किया है कि 7.5 करोड़ गरीबों को बांटे गये 3.15 लाख करोड़ रुपये के मुद्रा बैंक ऋण को स्वरोजगार मुहैया कराए जाने के तौर पर देखा जाना चाहिए. लेकिन ऐसा मानने में सिर्फ एक समस्या यह है कि इनमें से कई पुराने कर्जदार हैं. हुआ बस ये है कि उनके ऋण को दूसरे सार्वजनिक बैंकों से निकालकर मुद्रा बैंक के नाम कर दिया गया है. इसके अलावा, कई व्यक्ति जिन्होंने मुद्रा बैंक से 5 लाख रुपये तक का कर्ज लिया है, वे पहले से ही स्वरोजगार की श्रेणी में आते थे और उनका व्यवसाय शायद ही इतना बड़ा है कि वे दूसरों को नौकरी दे सकें.

भले ही, मोदी अपने अच्छे संवाद कौशल का इस्तेमाल लोगों को यह समझाने के लिए कर रहे हों कि एनडीए के आने बाद हालात पहले से बेहतर हुए हैं, लेकिन बढ़ती बेरोजगारी की हकीकत को झुठलाना आसान नहीं है.

कृषि की उलटी यात्रा

दूसरा क्षेत्र, आंकड़े जिसकी बदहाली बयान कर रहे हैं, वह है कृषि. कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी के मुताबिक, ‘एनडीए के तीन वर्षों में कृषि में महज 1.7 फीसदी की वृद्धि हुई है. यूपीए के आखिरी तीन वर्षों में कृषि क्षेत्र में 3.5 प्रतिशत की दर से विकास हुआ था. निश्चित तौर पर एनडीए को इस मामले में बदकिस्मत कहा जाएगा कि इसे लगातार दो सूखे का सामना करना पड़ा.’

मगर इससे यह सच्चाई नहीं बदल जाएगी कि मोदी ने किसानों को उनकी लागत पर 50 प्रतिशत मुनाफा दिलाने का वादा किया था. अपने इस वादे को निभाने में यह सरकार नाकाम साबित हुई है. बाद में कृषि मंत्रालय ने इस वादे से नीचे आते हुए यह कहा कि किसानों की आय 2022 तक दोगुनी कर दी जाएगी. इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि किसानों की आय में 2022 तक हर साल 10-12 प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी की दरकार होगी.

हाल ही में नीति आयोग ने कहा कि यह वादा पूरा करना भी मुश्किल होगा, क्योंकि किसानों की आय में पिछले तीन वर्षों में शायद ही कोई खास बढ़ोतरी दिखाई दी है. अन्य महत्वपूर्ण सूचकों को देखने पर भी यही राय बनती है कि अर्थव्यवस्था ने अब तक एक बिना अगर-मगर वाली तरक्की के रास्ते पर चलने का कोई संकेत नहीं दिया है.

पिछले छह महीने, यानी नवंबर से बैंक क्रेडिट (बैक साख) में वृद्धि की दर 4 प्रतिशत के करीब रही है, जो कि पिछले 60 वर्षों में सबसे कम है. हमें यह कहा गया था कि अर्थव्यवस्था में नए नोटों की आमद के बाद बैंक क्रेडिट में नाटकीय सुधार देखा जाएगा, क्योंकि बैंकों के पास काफी पैसा जमा हो गया है. लेकिन ऐसा होता हुआ नहीं दिख रहा है और इसका सीधा सा कारण यह है कि अर्थव्यवस्था में बहुत ज्यादा मांग नहीं है.

एनडीए के तीन वर्षों में निजी निवेश भी गति पकड़ता नहीं दिखाई दे रहा है, जबकि सड़क और रेलवे जैसे सरकारी विभागों ने बुनियादी ढांचे पर खर्चे को ठीक-ठाक मात्रा में बढ़ा दिया है. अर्थशास्त्री कींस का यह तर्क कि सार्वजनिक क्षेत्र के खर्च को बढ़ाने से निजी क्षेत्र द्वारा निवेश को प्रोत्साहन मिलता है, अब तक सही होता नहीं दिख रहा है.

बिजनेस स्टैंडर्ड के एक लेख में प्रमुख इंफ्रास्ट्रक्चर कंसल्टेंट विनायक चटर्जी ने कहा है कि 12वीं योजना अवधि (2012-17) में (जीडीपी के अनुपात में) बुनियादी ढांचे पर खर्च में जीडीपी के 4 प्रतिशत के करीब की सालाना कमी आई है.

जीडीपी के 4 प्रतिशत की कमी का अर्थ 80 अरब अमेरिकी डॉलर या 5 लाख करोड़ रुपये सालाना है. इसकी वजह निजी क्षेत्र का बुनियादी ढांचे से पूरी तरह से हाथ खींच लेना है.

ऐसा मुख्यतौर पर इसलिए है, क्योंकि भारत की बुनियादी ढांचा मुहैया कराने वाली बड़ी कंपनियां उन 50 बड़े समूहों में शुमार हैं, जिन पर भारतीय बैंको का 10 लाख करोड़ रुपये का कर्ज बकाया है.

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने हाल ही में कहा कि इन 50 कंपनियों द्वारा पैदा की गई समस्या ने सार्वजनिक बैंकों के कामकाज को चौपट कर दिया है. लेकिन, तीन सालों से एनडीए ने इस दिशा में कुछ भी नहीं किया.

अब कहीं जाकर इसने एक अध्यादेश जारी करके आरबीआई को कांग्रेस और भाजपा, दोनों को ही चुनावी चंदा देने वाले इन कारोबारी समूहों पर कार्रवाई करने का अधिकार दिया है.

व्यावसायिक घरानों पर बड़े बैंकों के बकाए की कीचड़ से भरी भ्रष्ट राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर से पर्दा उठना अभी बाकी है. पिछले तीन सालों से एनडीए इस समस्या को टालती रही और यूपीए पर आरोप मढ़कर ही काम चलाती रही, जबकि इस अवधि में खराब कर्ज दोगुना हो गया.

चूंकि निजी निवेश नहीं बढ़ रहा, इसलिए ‘मेक इन इंडिया’ का नारा भी कागज मे भी सिमट कर रह गया है.

अगर एनडीए को मेक इन इंडिया के तहत आईं कुछ अरब डॉलर की नई परियोजनाओं का नाम लेने को कहा जाए, तो उसके लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी. 2016-17 में 45 अरब डॉलर से ज्यादा के विदेशी निवेश का जो दावा किया गया है उसमें ज्यादा भाग विदेशी कंपनियों द्वारा पहले से चल रही परियोजनाओं के अधिग्रहण का है.

उदाहरण के लिए 2016-17 में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का सबसे बड़ा हिस्सा एस्सार रिफाइनरी का एक रूसी तेल कंपनी द्वारा 13 अरब डॉलर में अधिग्रहण के रूप में आया. इसी तरह के और अधिग्रहण हुए हैं.

काली अर्थव्यवस्था और जीएसटी

एनडीए का एक और दावा काले धन की अर्थव्यवस्था को साफ करने का था. इसके लिए विदेशों से अवैध काला धन लाने के लिए कठोर कानून बनाया गया और 2016-17 में आय घोषणा की कई योजनाएं लाई गईं, जिसमें नोटबंदी ने मदद की. मगर इस सबके बावजूद ऐसा नहीं लगता कि अघोषित आय पर कर लगा कर सरकार कुछ ज्यादा जमा कर पाई है. इन कदमों के परिणामों को नोटबंदी से भारत के अनौपचारिक क्षेत्र को हुए गंभीर नुकसान के संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए.

एनडीए अब भी नोटबंदी के चलते अनौपचारिक क्षेत्र में उत्पादन और नौकरियों को हुए नुकसान को लेकर इनकार की मुद्रा में है. जबकि आज भी भारत के किसी भी हिस्से में प्रॉपर्टी को पूरी तरह चेक भुगतान से बेचने में दिक्कत आ रही है. आजादी के बाद पहली ऐसा हुआ कि कोई टैक्स प्रधानमंत्री के नाम से लगाया गया (प्रधानमंत्री गरीब कल्याण सेस), जिसके तहत बैंकों में 500/1000 के नोट जमा कराने वाले अपनी काली आय घोषित कर सकते थे और 50 फीसदी तक का टैक्स भर सकते थे. इस कसरत के बाद 31 मार्च, 2017 तक सरकार 2,500 करोड़ रुपये ही जुटा सकी.

वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) एक ऐसा ही रुकावट पैदा करने वाला सुधार है, जिससे होने वाला फायदा इस बात पर निर्भर करेगा कि इसे किस तरह लागू किया जाता है. खासतौर पर यह देखते हुए कि यह सुधार तब लागू किया जा रहा है, जब नोटबंदी का नकारात्मक असर पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है. हमें यह देखना होगा कि छोटे कारोबारों और कारोबारियों पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है.

सरकार को डर है कि अगर व्यापारी कम टैक्स दरों का फायदा उपभोक्ताओं तक नहीं पहुंचाते हैं, तो इससे महंगाई बढ़ सकती है. आखिर, 3-4 प्रतिशत की कम महंगाई दर इस सरकार की एक उपलब्धि रही है, जिसे यह सरकार हाथ से जाने नहीं देना चाहेगी.

कुल मिलाकर अपने तीन वर्षों में प्रधानमंत्री राजनीतिक अर्थव्यवस्था को लेकर अपनी पहलकदमी में बेहद ध्वंसकारी रहे हैं. उन्होंने यह भूमिका ‘कायापलट करने वाले बदलाव’ के नाम पर जानबूझ कर चुनी है. लेकिन राजनीतिक पार्टियों को मिलनेवाले चंदे में पूरी पारदर्शिता लाने की मांग पर वे ऐसे बदलाव के साथ खड़े होने के लिए तैयार नहीं दिखे.

राम माधव जैसे पार्टी के विचारकों का तर्क है कि जनता मोदी के (नोटबंदी जैसे) परिवर्तनकारी विचारों में भागीदारी कर रहे हैं, भले ही इसके लिए उन्हे कुर्बानियां क्यों न देनी पड़े. पार्टी के के प्रति नरम हृदय रखनेवाले स्तंभकार और राज्य सभा सांसद स्वपन दास गुप्ता ने कहा है कि बुनियादी बदलाव लाने की दिशा में मोदी के जटिल विचार अभी ‘आकार ले रहे हैं’.

कोई नहीं जानता कि भविष्य में ये ध्वंसकारी शक्तियां क्या गुल खिलाएंगी. वही लोग जो आज मोदी में यकीन करते हुए कुर्बानियां देने को तैयार हैं, बाद में मोदी से सवाल पूछना शुरू कर सकते हैं. आखिरकार इतिहास में सबसे लोकप्रिय नेताओं को भी कभी न कभी ऐसे सवालों का सामना करना पड़ा था. मोदी को इस मामले में अपवाद मानने की कोई वजह नहीं.

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