नेताओं की हेट स्पीच, सोशल मीडिया और न्यूज़ चैनलों के ज़रिये समाज में कट्टरता और नफ़रत भरे विचारों को बिल्कुल सामान्य तौर पर परोसा जा रहा है और ऐसा करने वालों में सुरेश चव्हाणके अकेले नहीं हैं.
दिल्ली दंगों संबंधी मामले में दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अपूर्वानंद से पूछताछ के बाद कई मीडिया रिपोर्ट्स में दिल्ली पुलिस द्वारा लीक जानकारी के आधार पर उन्हें ‘दंगों का मास्टरमाइंड’ कहा गया. प्रामाणिक तथ्यों के बिना आ रही ऐसी ख़बरों का मक़सद केवल उनकी छवि धूमिल कर उनके ख़िलाफ़ माहौल बनाना लगता है.
अब जब देश में सारी व्यवस्थाएं धीरे-धीरे खुलने लगी हैं, तब ऐसा दिखाने की कोशिश हो रही है कि भूख और रोजी-रोटी की समस्या ख़त्म हो गई है. जबकि सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है.
जिस जगह पर 500 से अधिक सालों तक एक मस्जिद थी, वहां भव्य मंदिर बनेगा. इस मंदिर की आलीशान इमारत की परछाई में मुझे वो भारत डूबता दिख रहा है, जहां मैं पला-बढ़ा. फिर भी मेरा विश्वास है कि यह देश अपने मौजूदा शासकों के नफ़रत से कहीं अधिक बड़ा है.
कोरोना से बिगड़ती स्थितियों को संभालने में केंद्र सरकार की सारी नीतियां फेल हो चुकी हैं. सरकार की इस विफलता का ख़ामियाज़ा कई पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा.
जब सरकार ने दोबारा विमान सेवाएं शुरू कीं, तब एक केंद्रीय मंत्री ने कहा है कि स्वास्थ्य प्रमाण पत्र और क्वारंटीन सेंटर में रखने जैसी बातें व्यावहारिक नहीं लगतीं. हैरानी वाली बात है कि जो बात विमान के यात्रियों के लिए व्यावहारिक नहीं लग रही, वो मज़दूरों के लिए अति आवश्यक कैसे बन गई थी.
बीते दो महीनों में दिल्ली में हज़ारों लोगों के बीच खाना और राशन पहुंचाते हुए देखा कि हम भूख के अभूतपूर्व संकट से गुजर रहे हैं. सैकड़ों लोग बेबसी और अनिश्चितता के अंधेरे में जी रहे हैं, उन्हें नहीं पता कि अगला निवाला उन्हें कब और किसके रहमोकरम पर मिलने वाला है.
बीते दिनों लॉकडाउन में प्रवासी मज़दूरों की स्थिति को लेकर कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी और एक संगठन के मज़दूरों संबंधी सर्वे के आंकड़े पेश किए थे. इस पर शीर्ष अदालत का कहना था कि वह किसी भी निजी संस्थान के अध्ययन पर भरोसा नहीं करेगी क्योंकि सरकार की रिपोर्ट इससे इतर तस्वीर पेश करती है.
देशव्यापी लॉकडाउन की अवधि बढ़ने के बाद विभिन्न क्षेत्रों में सड़क किनारे या झुग्गी-बस्तियों में ज़िंदगी बिता रहे लोगों की मुश्किलें भी बढ़ गईं. हरियाणा के नूंह ज़िले के कुछ ऐसे ही मेहनतक़श परिवार केवल समाज के रहम पर दिन गुज़ार रहे हैं.
सब जानते हैं कि कोविड-19 एक घातक वायरस की वजह से फैला है, लेकिन भारत में इसे सांप्रदायिक जामा पहना दिया गया है. आने वाले समय में यह याद रखा जाएगा कि जब पूरे देश में लॉकडाउन हुआ था, तब भी मुसलमान सांप्रदायिक हिंसा का शिकार हो रहे थे.
सरकार द्वारा ग़रीबों की मदद के नाम पर स्वास्थ्य संबंधी मामूली घोषणाएं की गई हैं. हमें नहीं पता अगर कोई ग़रीब कोरोना से संक्रमित हुआ तो उसे उचित स्वास्थ्य सुविधा मिल सकेगी. अगर अस्पताल में भर्ती होने की नौबत आई तो बेड और वेंटिलिटर जैसी सुविधाएं मिलेंगी?
दंगा प्रभावित लोगों के लिए आम जनता की तरफ से किए जा रहे सभी प्रयास सराहनीय हैं, लेकिन यह कोई स्थायी समाधान नहीं है. दंगे में अपना सब कुछ खो चुके निर्दोष लोगों को सरकार की तरफ से सम्मानजनक मदद मिलनी चाहिए थी न कि उन्हें समाज के दान पर निर्भर रहना पड़े.
ग़ैर-भाजपा शासित प्रदेश सरकारों को नागरिकता संशोधन कानून का बहिष्कार करते हुए इसे निरस्त करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का रास्ता अख़्तियार करना चाहिए. साथ ही इस समस्या की जड़ 2003 वाले नागरिकता संशोधन को भी निरस्त करने की मांग करनी चाहिए.