सहेला रे: कित गए वे लोग

कहते हैं कि इतिहास में नामों और तारीख़ों के अलावा कुछ सच नहीं होता जबकि कथा साहित्य में नामों और तारीख़ों के अलावा सब कुछ सच होता है. मृणाल पांडे के नए उपन्यास सहेला रे में तारीखें भी सच के क़रीब हैं, साथ ही किरदार भी सच्चाई के इतने नज़दीक हैं कि जानने वालों को उस ज़माने की न जाने कितनी वास्तविक छवियां यहां दिखाई देंगी.

मृणाल पांडे के बचाव में ‘गधा विमर्श’ क्यों?

वैशाखनंदन शब्द की उत्पति पर दर्जनों पोस्ट लिखकर ‘गधा विमर्श’ का ऐसा माहौल बना दिया गया है गोया जो वैशाखनंदन न समझ पाए वो भी उन्हीं के उत्तराधिकारी हैं.

मर्यादा की मारी चिंता और अफ़सोस का कर्मकांड

मृणाल पांडे में बाकी जो भी दुर्गुण हों, वे असभ्य और अशालीन होने के लिए नहीं जानी जातीं. वे किसी रूप में वामपंथी भी नहीं हैं. उन पर बीजेपी विरोधी होने का भी वैसा इल्ज़ाम नहीं रहा है, जैसा दूसरों पर है.