पॉल रॉबसन की याद…

विशेष: पॉल रॉबसन पिछली सदी के सबसे प्रसिद्ध क्रांतिकारी सांस्कृतिक व्यक्तित्वों में से एक थे. विश्व शांति की अग्रणी और मानवाधिकारों की मुखर आवाज़ रॉबसन ने अफ़्रीकी-अमेरिकी अश्वेतों के साथ होने वाले नस्ल-भेद के ख़िलाफ़ अनथक संघर्ष किया था.

अमेरिका में भेदभाव विरोधी क़ानून में जाति को जोड़ने पर सिर्फ़ हिंदू ख़फ़ा क्यों हैं?

भले ही शास्त्रीय मान्यता न हो, व्यवहार में जातिगत भेद भारत के हर धार्मिक समुदाय की सच्चाई है. अमेरिका जाने वाले सिर्फ़ हिंदू नहीं, अन्य धर्मों के लोग भी हैं. अमेरिका के सिएटल में लागू जातिगत भेदभाव संबंधी क़ानून सब पर लागू होगा, सिर्फ़ हिंदुओं पर नहीं. फिर हिंदू ही क्यों क्षुब्ध हैं?

भारतीय आप्रवासियों के रास्ते क्या जातिगत भेदभाव विदेशों में भी पैठ बना रहा है

गूगल न्यूज़ में दलित अधिकार कार्यकर्ता थेनमोजी सौंदरराजन का जाति के मुद्दे पर होने वाला लेक्चर रद्द कर दिया गया. ख़बर आई कि भारतीय मूल के कथित ऊंची जाति से आने वाले कुछ कर्मचारियों ने सौंदरराजन को 'हिंदू-विरोधी' बताते हुए ईमेल्स भेजे थे.

‘भारत का प्रधानमंत्री होने का… अधिकार हमारा है’

रघुवीर सहाय की 'अधिकार हमारा है' एक नागरिक के देश से संबंध की बुनियादी शर्त की कविता है. यह मेरा देश है, यह ठीक है लेकिन यह मुझे अपना मानता है, इसका सबूत यही हो सकता है कि यह इसके 'प्रधानमंत्री' पद पर मेरा हक़ कबूल करता है या नहीं. मैं मात्र मतदाता हूं या इस देश का प्रतिनिधि भी हो सकता हूं?

क्या गांधी नस्लवादी थे?

उम्र के दूसरे दशक में गांधी निस्संदेह एक नस्लवादी थे. वे सभ्यताओं के पदानुक्रम यानी ऊंच-नीच में यक़ीन करते थे, जिसमें यूरोपीय शीर्ष पर थे, भारतीय उनके नीचे और अफ्रीकी सबसे निचले स्थान पर. लेकिन उम्र के तीसरे दशक तक पहुंचते-पहुंचते उनकी टिप्पणियों में अफ्रीकियों के भारतीयों से हीन होने का भाव ख़त्म होता गया.