प्रेमचंद के विचारों की प्रासंगिकता समझने के लिए उनका पुनर्पाठ ज़रूरी है

विशेष: हर रचनाकार और उसकी रचना अपना पुनर्पाठ मांगती है. इस कड़ी में 'ईदगाह' को दोबारा पढ़ते हुए प्रेमचंद के सामाजिक यथार्थ के चित्रण की सूक्ष्मता, अर्थ के व्यापक और विविध स्तरों को समझ पाने की एक नई दृष्टि मिलती है.

राष्ट्रवाद और डंडावाद

प्रेमचंद महात्मा गांधी की आंदोलन पद्धति के मुरीद थे. सशस्त्र आतंक के ज़रिये क्रांति या मुक्ति के नारे प्रेमचंद का खून गर्म नहीं कर पाते क्योंकि वे हिंसा के इस गुण या अवगुण को पहचानते थे कि वह कभी भी शुभ परिणाम नहीं दे सकती.

साहित्यिक कुपाठ के निशाने पर प्रेमचंद

जून महीने के आख़िरी हफ्ते में मासिक पत्रिका हंस के संपादक संजय सहाय ने कहा कि प्रेमचंद यथास्थितिवादी, प्रतिगामी थे और उनकी 25-30 कहानियों को छोड़कर अधिकतर कहानियां ‘कूड़ा’ हैं.

प्रेमचंद के विचारों को उनके जन्म के सौ साल बाद याद करने की ज़रूरत क्यों है…

विशेष: प्रेमचंद अगर आज के हालात, ख़ासकर तथाकथित संस्कृति बचाने वालों को देखते, तो शायद अवसाद में चले जाते. उन्हें संस्कृति राजनीतिक स्वार्थ-सिद्धि के लिए इस्तेमाल होने वाला महज़ साधन लगती थी और उनके अनुसार यही तथाकथित संस्कृति, सांप्रदायिकता को भी स्वार्थ पूरे करने के अवसर देती थी.

‘अपनी रचनाओं में स्त्रियों के लिए जो टैगोर, शरतचंद ने किया, वो अब के लेखक नहीं कर पाए हैं’

साक्षात्कारः हिंदी की वरिष्ठ लेखिका और साहित्यकार ममता कालिया का कहना है कि स्त्री विमर्श के लिए हमें सिमोन द बोउआर तक पहुंचने से पहले महादेवी वर्मा को पढ़ना पड़ेगा, जिन्होंने 1934 में ही लिख दिया था कि हम स्त्री हैं. हमें न किसी पर जय चाहिए, न पराजय, हमें अपनी वह जगह चाहिए जो हमारे लिए निर्धारित है.

दुलारे लाल भार्गव: जिन्हें निराला ‘साहित्य का देवता’ कहा करते थे

पुण्यतिथि विशेष: अपने समय की दो बेहद महत्वपूर्ण पत्रिकाओं ‘माधुरी’ और ‘सुधा’ को शिखर पर पहुंचाने में दुलारे लाल भार्गव के अप्रतिम योगदान को लेकर बहुत से लोग उन्हें लखनऊ की हिंदी पत्रकारिता का पितामह मानते हैं.