कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी में ऐसा आलोचनात्मक माहौल बन गया है कि भाषा को महत्व देना या कि उसकी केंद्रीय भूमिका की पहचान करना, उस पहचान को ब्योरों में जाकर सहेजना-समेटना अनावश्यक उद्यम मान लिया गया है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: आज अगर साहित्य और कलाएं निर्भयता का परिसर नहीं हैं, अगर वे निर्भय नहीं करतीं तो यह उनका नैतिक और सभ्यतामूलक कदाचरण होगा. भय के आगे आत्मसमर्पण करना भारतीय प्रश्नवाची परंपरा, लोकतंत्र और साहित्य-कलाओं की सामाजिक ज़िम्मेदारी के साथ विश्वासघात के बराबर होगा.
पुण्यतिथि विशेष: नामवर सिंह आधुनिक कविता और नई कहानी के अब तक के सबसे महत्वपूर्ण व्याख्याकार हैं. ऐसे व्याख्याकार, जिसने कविता के नए प्रतिमानों की खोज की तो तात्कालिकता के महत्व को भी रेखांकित किया. उनके व्याख्यानों की लंबी श्रृंखला ऐलान करती है कि उन्होंने हिंदी की वाचिक परंपरा को न केवल समृद्ध किया, बल्कि नई पहचान भी दी.
जन्मदिवस विशेष: साहित्य में स्त्री की उपस्थिति एक विचारणीय बात है. जिस प्रकार से कला-संस्कृति-समाज सब पुरुषों द्वारा परिभाषित और व्याख्यायित रहे हैं, ऐसे में स्त्री और उसकी भूमिका को भी प्राय: पुरुषों ने परिभाषित किया है. इसीलिए जब स्त्री और उसके इर्द-गिर्द निर्मित संसार को एक स्त्री अभिव्यक्त करती है तो एक अलग दृष्टि-एक अलग पाठ की निर्मिति होती है.
बीते दिनों आए विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद उत्तर भारत और दक्षिण भारत के लोगों और उनके प्रतिनिधि चुनने की प्राथमिकताओं पर लंबी बहस चली, तमाम सवाल उठाए गए. क्या वजह है कि इन क्षेत्रों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मिजाज़ में इतना अंतर है?
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: भारतीय समाज की लगभग स्वाभाविक हिंसा को संयमित करने के प्रयत्न अधिकतर विफल ही साबित हुए हैं. कहा जा सकता है कि महाभारत सदियों पहले हुए का मिथक या काव्य भर नहीं है: आज भी हम भारत और महाभारत में एक साथ हैं.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बर्बरता के लोकव्यापीकरण के इस युग में शक्तिशाली देश, जो मिनटों में युद्ध समाप्त करने की सैन्य और राजनयिक क्षमता रखते हैं, चुपचाप विभीषिका देख रहे हैं. सृजनधर्मियों के लिए यह बर्बरता और हिंसा के विरुद्ध आवाज़ उठाकर अपनी पक्षधरता सत्यापित करने का समय है.
किसी साहित्यिक रचना के पुनर्पाठ की प्रक्रिया उस शीशे को मांजने की तरह होती है, जिसकी चमक बार-बार रगड़ने से निखरती है. विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' इस दृष्टिकोण से ऐसी ही रचना है, जिसके पुनर्पाठों में ही कई-कई अर्थ-छवियां स्पष्ट होते हैं.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: आज जब कुछ शक्तियां गांधी को लांछित करने के सुनियोजित अभियान में लगी हैं, तब ‘ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित साहित्य में गांधी’ शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक याद दिलाती है कि गांधी कैसे अपने समय के लोकमानस में पैठे हुए थे.
प्रेमचंद मानते थे कि भारत न सिर्फ ब्रिटिश उपनिवेश के अधीन है बल्कि एक आंतरिक उपनिवेश भी है जो यहां के विशाल श्रमिक समाज को ग़ुलाम बनाए हुए है. जहां वे पूंजीवादी शोषण से मुक्ति की बात करते हैं, वही सामंती जकड़न, ब्राह्मणवाद, सांप्रदायिकता जैसे विचारों से भी उनका अनवरत संघर्ष चलता रहा है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी अंचल में ज़हराब की बाढ़-सी लाने का सोचा-समझा और राजनीतिक रूप से वोट-खींचू अभियान शुरू हो गया है. उसका लक्ष्य बढ़ती विषमताओं, बेरोज़गारी, महंगाई आदि के ज्वलंत मुद्दों से ध्यान हटा सांप्रदायिकता-हिंसा, भेदभाव और सामाजिक समरसता के भंग को बढ़ावा देना है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मौलाना अबुल कलाम आज़ाद द्वारा बग़ावत के इल्ज़ाम में उन पर चलाए गए एक मुक़दमे में क़रीब सौ साल पहले कलकत्ते की एक अदालत में पेश लिखित बयान ‘क़ौल-ए-फ़ैसल: इंसाफ़ की बात’ शीर्षक से किताब की शक्ल में सामने आया है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता के वितान में उच्छल भावप्रवणता और बौद्धिक प्रखरता, कस्बाई संवेदना और कठोर नागरिक चेतना, कुआनो नदी और दिल्ली, बेचैनी-प्रश्नाकुलता और वैचारिक उद्वेलन आदि सभी मिलते हैं.
इंदौर में हिंदी माध्यम से पढ़ाई करके आई एक इंजीनियरिंग छात्रा ने भाषा को लेकर मज़ाक उड़ाए जाने से क्षुब्ध होकर आत्महत्या कर ली. क्या इससे समझा जा सकता है कि छात्र अपनी मातृभाषा में ही ‘अपना सर्वश्रेष्ठ’ दे सकते हैं और उन पर शिक्षा का गैर-मातृभाषा माध्यम थोपकर कितनी प्रतिभाओं का संहार कर दिया जा रहा है!
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: महान कविता महान साम्राज्यों के लोप के बाद भी बची रहती है. हमारा समय भयानक है, हिंसा-हत्या-घृणा-फ़रेब से लदा-फंदा; समरसता को ध्वस्त करता; विस्मृति फैलाने और संस्कृति को तमाशे में बदलता समय; ऐसे समय में कविता का काम बहुत कठिन और जटिल हो जाता है.