राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने कहा कि संघ भारत के सभी मतों और संप्रदायों को एक मानता है. लोग अपने मत एवं संप्रदाय का पालन करते हुए संघ के कार्य कर सकते हैं. संघ कठोर नहीं है, बल्कि लचीला है.
न्याय और बराबरी रोकने वालों ने बदलाव की लड़ाई को सांप्रदायिक नफ़रत की तरफ मोड़ दिया है. मुस्लिमों के ख़िलाफ़ घृणा उपजाने के लिए तमाम नकली अफ़वाहें पैदा की गईं, जिससे ग़ैर मुस्लिमों को लगातार भड़काया जा सके. आज इसी राजनीति का नतीजा है कि लोग महंगाई, रोज़गार, शिक्षा की बात करना भूल गए हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने एनआईए द्वारा दायर उस याचिका पर यह सवाल किया, जिसमें केरल हाईकोर्ट द्वारा क़ानून के छात्र अल्लान शुहैब को ज़मानत देने के फ़ैसले को सही ठहराने वाले आदेश को ख़ारिज करने की मांग की गई है.
संसद में बहुमत हासिल करने के बाद दक्षिणपंथी यामिना पार्टी के 49 वर्षीय नेता नफ्ताली बेनेट ने बीते रविवार को शपथ ली. नई सरकार में 27 मंत्री हैं जिनमें से नौ महिलाएं हैं. बेनेट ने वतर्मान विदेश मंत्री याइर लापिद के साथ एक साझा सरकार के लिए सहमत हुए थे, जिसके तहत बेनेट 2023 तक देश के प्रधानमंत्री के रूप में काम करेंगे, जिसके बाद लापिद 2025 तक यह भूमिका संभालेंगे.
पश्चिम बंगाल में आठ चरणों के मतदान कार्यक्रम को भाजपा की रणनीति का हिस्सा बताया जा रहा है, हालांकि ममता बनर्जी भी अप्रत्याशित रूप में लंबे इस मतदान कार्यक्रम का लाभ अपने उम्मीदवारों के लिए डटकर प्रचार के साथ ही हरेक दौर के लिए सापेक्ष रणनीति बनाने के लिए उठा सकती हैं.
बीते साल नवंबर में केरल पुलिस ने माओवादियों से कथित संबंधों के आरोप में दो छात्रों को यूएपीए के तहत गिरफ़्तार किया था. कोच्चि में एनआईए की विशेष अदालत ने दोनों छात्रों को नौ सितंबर को ज़मानत दी है.
पश्चिम बंगाल भाजपा अध्यक्ष के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए टीएमसी के सांसद कल्याण बंदोपाध्याय ने कहा कि दिलीप घोष अशिक्षित और असभ्य व्यक्ति हैं. आप उन जैसे व्यक्ति से क्या सुनने की उम्मीद करते हैं.
चुनाव आयोग के मुताबिक माकपा के जाधवपुर से उम्मीदवार बिकास रंजन भट्टाचार्य ही ज़मानत बचाने लायक वोट हासिल करने में कामयाब रहे. वहीं भाकपा के किसी उम्मीदवार की ज़मानत नहीं बच सकी.
लोकसभा में पांच फीसदी से कम हुआ मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व, भाजपा से एक भी मुस्लिम सांसद नहीं होने समेत दिनभर की महत्वपूर्ण ख़बरें.
कहा जाता है कि बंगाल में वाम मोर्चे के लंबे शासन ने किसी ऐसे मंच को उभरने नहीं दिया, जिसका इस्तेमाल सांप्रदायिक शक्तियां राजनीतिक फायदे के लिए कर सकती थीं. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि ज़मीन पर हिंदू-मुस्लिम तनाव नहीं था. राज्य के मौजूदा सियासी मिज़ाज को उसी दबे हुए तनाव के अचानक फूट पड़ने के तौर पर देखा जा सकता है.
वामपंथी दल आज़ादी के बाद विकसित अपनी वह छवि नहीं बचा पाए हैं, जिसमें उन्हें सत्ता का सबसे प्रतिबद्ध वैचारिक प्रतिपक्ष माना जाता था. वे परिस्थितियों के नाम पर कभी इस तो कभी उस बड़ी पार्टी की पालकी के कहार की भूमिका में दिखने लगे.
केंद्र की मोदी सरकार में सत्ता का जो स्वरूप दिखाई दे रहा है, कुछ वैसा ही स्वरूप माकपा शासित राज्यों में दिखाई देता था.