मधु लिमये याद दिलाते हैं कि लोकतंत्र बिना बुद्धि के सशक्त नहीं हो सकता

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अमृतकाल में बुद्धि अभद्र शब्द बन गया है. बुद्धिजीवियों का लगभग रोज़ अपमान किया जाता है. अपनी बुद्धिहीनता को नेता आभूषण की तरह पहनकर रौब जमाते हैं. राजनीति में बुद्धि नहीं तिकड़म और हिकमत से सब काम चल रहा है. मधु लिमये इसके बरक़स, एक बुद्धिशील राजनीतिज्ञ थे. 

क्या हम साहित्य से बहुत अधिक उम्मीद लगाए बैठे हैं?

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: साहित्य अकेला और निहत्था है: बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान के अन्य क्षेत्रों से समर्थन और सहचारिता नहीं मिल पा रहे हैं. पर कायर और चतुर चुप्पियों के माहौल में उसे निडर होकर आवाज़ उठाते रहना चाहिए. वह बहुत कुछ बचा नहीं पाएगा पर उससे ही अंतःकरण, निर्भयता और प्रतिरोध की शक्ति बचेगी.

समाज का काम कभी-कभी साहित्य के बिना चल सकता है, पर साहित्य का समाज के बिना नहीं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: साहित्य उन शक्तियों में से नहीं रह गया जो मानवीय स्थिति को बदल सकती हैं- फिर भी हमें ऐसा लिखना चाहिए मानो कि हमारे लिखने से स्थिति बदल सकती है.

अवध के पूर्वी द्वार की ‘कभी ज़मीं, कभी आसमां नहीं मिलता’ वाली नियति कब बदलेगी?

अवध की बलरामपुर रियासत गंगा-जमुनी तहज़ीब का पूर्वी द्वार कही जाती थी. 1997 में कुछ क्षेत्रों को मिलाकर इसे ज़िला बनाया गया तो रहवासियों ने विकास के सपने देखे. पर अब हाल यह है कि 2021 में नीति आयोग द्वारा जारी राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक में यह देश का सबसे बुरा प्रदर्शन करने वाला चौथा ज़िला रहा.

…नरक तुम्हारे भीतर है वह

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अज्ञेय द्वारा लिखित एकमात्र नाटक ‘उत्तर प्रियदर्शी’ सम्राट अशोक द्वारा पाटिलपुत्र में स्थापित नरक की कथा को लेकर था. इस नाटक, उसके मूल अभिप्राय की वर्तमान भारत के लिए प्रासंगिकता बिल्कुल स्पष्ट है. 

प्रेम की तरह कविता भी अपना समय रचती है…

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: महान कविता महान साम्राज्यों के लोप के बाद भी बची रहती है. हमारा समय भयानक है, हिंसा-हत्या-घृणा-फ़रेब से लदा-फंदा; समरसता को ध्वस्त करता; विस्मृति फैलाने और संस्कृति को तमाशे में बदलता समय; ऐसे समय में कविता का काम बहुत कठिन और जटिल हो जाता है.

भारतीय मानस में पश्चिम के समावेशन का उपनिवेशन में बदलना आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी ख़त्म नहीं हुआ

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हम स्वतंत्रता के पहले सर्जनात्मक और बौद्धिक रूप से अधिक स्वतंत्र थे और स्वतंत्रता के बाद पश्चिम के अधिक ग़ुलाम होते गए हैं.

‘सुंदर के स्वप्न’ हिंदी साहित्य के इतिहास में एक ज़रूरी हस्तक्षेप है

पुस्तक समीक्षा: 'सुंदर के स्वप्न' संत सुंदरदास के जीवन और रचनाओं के ज़रिये भारत की आरंभिक आधुनिकता, उसकी बहु-धार्मिकता और बहु-भाषिकता, हिंदी साहित्य के इतिहास और उसके काल-विभाजन तथा रीतिकाल को लेकर किए गए दुष्प्रचार पर सोचने पर विवश करती है.

आवाज़ों का तुमुल कोलाहल लगातार बढ़ रहा है पर आवाज़ की जगहें कम हो रही हैं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: यह बहुत असाधारण समय है तो ऐसे में नागरिकता के कर्तव्य भी असाधारण होते हैं. ऐसे में हमारी सभ्यता का तकाज़ा है कि हम तरह-तरह से आवाज़ उठाएं, चुप न रहें. व्यापक जीवन, स्वतंत्रता-समता-न्याय के संवैधानिक मूल्यों, समरसता के पक्ष में और घृणा-हिंसा-हत्या-झूठ-अन्याय के विरुद्ध.

साहित्य को राजनीति की अधीनता से बहुत कुछ मुक्त रखने की कोशिश लगातार करते रहना चाहिए

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: राजनीति अपने आधिपत्य को फैलाने-बचाने के लिए हर दिन कोई नई तरक़ीब इस्तेमाल करती है, वैसे ही साहित्य को नवाचार में संलग्न होना चाहिए. यह कठिन है पर फिर सच्चा और ईमानदार साहित्य लिखना तो हमेशा ही कठिन रहा है. कठिनाई से निपटना साहित्य-धर्म है, उससे भागना नहीं.

पहाड़ों में दलित और स्त्रियों की स्थिति: ‘असल ग़ुलामी राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक है’

वीडियो: उत्तराखंड के पिथौरागढ़ ज़िले के गंगोलीहाट से संबंध रखने वाले कवि और पेशे से वेटनरी डॉक्टर मोहन मुक्त से उनके कविता संग्रह ‘हिमालय दलित है’ के विशेष संदर्भ में उनके रचनात्मक सरोकार, काव्य-भाषा, पहाड़ों में दलित एवं स्त्री के सवाल और मुस्लिम समाज एवं पसमांदा मुस्लिम समाज के हालात पर बातचीत.

पाश की कविता में स्वप्न और संघर्ष का स्थाई भाव है… वे सपनों को जिलाए रखते हैं

विशेष: क्रांतिकारी सपने देखता है. वह उसे विचार व कर्म की आंच में पकाता है. वह शहीद होकर भी संघर्ष की पताका को गिरने नहीं देता. उसे अपने दूसरे साथी के हाथों में थमा देता है. शहीद भगत सिंह ने जिस आज़ाद भारत का सपना देखा था, पाश उसे अपनी कविता में विस्तार देते हैं.

उर्दू शायरी उम्मीद की शायरी है…

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: उर्दू कविता, अपने हासिल की वजह से भारतीय कविता का बेहद ज़रूरी और मूल्यवान हिस्सा रही है. वह इस तरह हिंदुस्तान का ज़िंदगीनामा है जिसने कभी राजनीति और अध्यात्म के पाखंड को पकड़ने में चूक नहीं की है. उसमें समय के प्रति जागरूकता है, तो उसका अतिक्रमण भी.

वरवरा राव: कवि जीता है अपने गीतों में, और गीत जीता है जनता के हृदय में…

विशेष: मुक्तिबोध ने कहा था ‘तय करो किस ओर हो तुम?’ और ‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’ वरवरा राव इस सवाल से आगे के कवि हैं. वे तय करने के बाद के तथा पॉलिटिक्स को लेकर वैज्ञानिक दृष्टि रखने वाले कवि हैं. उनके लिए कविता स्वांतः सुखाय या मनोरंजन की वस्तु न होकर सामाजिक बदलाव का माध्यम है.

‘असद बज़्मे-तमाशा में, तग़ाफ़ुल पर्दादारी है’

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ग़ालिब ने अपनी शायरी का आलम घर, आग, तमाशे, ग़मेहस्ती, नाउम्मीदी, तमन्ना, बियाबान और उरियानी से रचा-गढ़ा. दिगंबरता को याने उरियानी को उनके यहां जैसे बरता गया है वह पश्चिमी न्यूडिटी की अवधारणा से बिल्कुल अलग है.

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