सौ से अधिक पूर्व नौकरशाहों के समूह-कॉन्स्टिट्यूशनल कंडक्ट ग्रुप ने एक बयान जारी कर कहा है कि यूएपीए के तहत 'ग़ैर क़ानूनी गतिविधियों' के अपराधीकरण को बनाए रखते हुए आईपीसी की धारा 124ए यानी राजद्रोह को हटाने से केंद्र सरकार और राष्ट्रीय स्तर पर सत्तारूढ़ पार्टी को पर्याप्त राजनीतिक लाभ मिलेगा.
क्या यासीन मलिक उन पर लगे आरोपों के लिए दोषी हैं? यह मानने का कोई कारण नहीं है कि वह नहीं है, लेकिन जो सरकार बरसों के संघर्ष का शांति से समाधान निकालने को लेकर गंभीर हैं, उनके पास ऐसे अपराधों से निपटने के और तरीके हैं.
'एक भारत-श्रेष्ठ भारत' और 'सबका साथ-सबका विकास' सरीखे नारे देने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने शासन में इस पर अमल करते नज़र नहीं आते हैं.
कोरोना वायरस महामारी के कारण दो साल के बाद इस साल 30 जून से 11 अगस्त तक अमरनाथ तीर्थयात्रा निर्धारित है. यात्रा से पहले कथित रूप से राष्ट्र-विरोधी संदेश फैलाने के लिए ‘सिख फॉर जस्टिस’ नाम के संगठन सहित कई अज्ञात व्यक्तियों और समूहों के खिलाफ केस दर्ज किया है.
जम्मू कश्मीर पुलिस की राज्य जांच एजेंसी ने 'द कश्मीर वाला' के कार्यवाहक संपादक यशराज शर्मा को समन जारी कर 2011 में पत्रिका में छपे एक विवादित लेख के संबंध में पूछताछ के लिए बुलाया था. लेख के प्रकाशन के समय यशराज की उम्र 12 वर्ष थी.
असम पुलिस के अनुसार, नागांव ज़िले में भीड़ को थाने में हिंसा के लिए उकसाने के मुख्य आरोपी आशिकुल इस्लाम ने उन्हें पुलिस वाहन से हथियारों की निशानदेही के लिए ले जाने के दौरान भागने की कोशिश की और पीछे चल रहे एस्कॉर्ट वाहन की चपेट में आने उनकी मौत हो गई.
यासीन मलिक को दो अपराधों - आईपीसी की धारा 121 (भारत सरकार के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ना) और यूएपीए की धारा 17 (यूएपीए) (आतंकवादी गतिविधियों के लिए राशि जुटाना) - के लिए दोषी ठहराते हुए उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई गई है. बीते 10 मई को मलिक ने 2017 में घाटी में कथित आतंकवाद और अलगाववादी गतिविधियों से संबंधित एक मामले में अदालत के समक्ष सभी आरोपों के लिए दोष स्वीकार कर लिया था.
ये पांचों उन छह लोगों में से हैं, जिन पर पहले ही कथित तौर पर पुलिस हिरासत में हुई सफीकुल इस्लाम की मौत के विरोध में नागांव ज़िले के बटाद्रवा थाने में आग लगाने का आरोप लगाया गया है. रविवार को पुलिस ने थाने में आगजनी के आरोपियों को 'अतिक्रमणकारी' बताते हुए उनके घरों को ध्वस्त कर दिया था. इनमें मृतक सफीकुल का घर भी शामिल है.
फरवरी 2020 में हुए दंगों के कथित साज़िश से संबंधित मामले में यूएपीए के आरोपी मोहम्मद सलीम ख़ान ने इस आधार पर ज़मानत मांगी है कि उन्हें हिरासत में दो साल पूरे हो चुके हैं और इस मामले में उनकी भूमिका बहुत सीमित और वीडियो फुटेज पर आधारित है. साथ ही उन्होंने अदालत को बताया कि उन्हें एक अन्य मामले में ज़मानत मिल चुकी है, जो उसी वीडियो फुटेज पर आधारित है.
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मदन बी. लोकुर ने राजद्रोह क़ानून को लेकर शीर्ष अदालत के हालिया आदेश को महत्वपूर्ण बताया और कहा कि इस क़ानून में कुछ अपवाद थे जहां राजद्रोह के आरोप लागू नहीं किए जा सकते पर यूएपीए की धारा 13 के तहत कोई अपवाद नहीं हैं. यदि यह प्रावधान बना रहता है, तो यह बद से बदतर स्थिति में जाने जैसा होगा.
इस साल जनवरी में दिल्ली की एक अदालत ने साल 2019 में सीएए और एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान कथित भड़काऊ भाषण देने के मामले में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्र शरजील इमाम के ख़िलाफ़ राजद्रोह का अभियोग तय किया था. इसी महीने सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह क़ानून पर विचार होने तक इससे संबंधित सभी कार्यवाहियों पर रोक लगाने का आदेश दिया था.
ऐसी संभावना है कि राजद्रोह का आसन्न अंत देश भर में पुलिस (और उनके आकाओं) को आलोचकों को डराने और पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं व विपक्षी नेताओं को चुप कराने के तरीके के रूप में अन्य क़ानूनों के उपयोग को बढ़ा देगा.
हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला स्थित राज्य विधानसभा परिसर के मुख्य द्वार पर खालिस्तान के झंडे लगाने और इसकी दीवारों पर आपत्तिजनक नारे लिखे जाने के मामले में ‘सिख फॉर जस्टिस’ संगठन के नेता गुरपतवंत सिंह पन्नू के ख़िलाफ़ ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) समेत अन्य संबंधित धाराओं में मामला दर्ज किया गया है. मामले की जांच के लिए सात सदस्यीय एसआईटी का गठन भी कर दिया गया है.
भारत का लोकतंत्र दिनदहाड़े दम तोड़ रहा है. प्रेस को घेरा जा रहा है, लेकिन उसे अडिग होकर खड़े होने के तरीके तलाशने होंगे.
कर्नाटक हाईकोर्ट की एक पीठ सलीम ख़ान नाम के एक शख़्स की याचिका पर सुनवाई कर रही थी. उनके ख़िलाफ़ 2020 में यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया गया था. एनआईए के अनुसार, ख़ान अल-हिंद समूह से जुड़े हुए हैं, जो कथित तौर पर आतंकी गतिविधियों में शामिल है.