कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हमारे लोकतंत्र की एक विडंबना यह रही है कि उसके आरंभ में तो राजनीतिक नेतृत्व में बुद्धि ज्ञान और संस्कृति-बोध था जो धीरे-धीरे छीजता चला गया है. हम आज की इस दुरवस्था में पहुंच हैं कि राजनीति से नीति का लोप ही हो गया है.
ज्ञानपीठ पुरस्कार की 2023 के लिए की गई ताज़ा घोषणा में चर्चित अमृतकाल की अनुगूंज साफ़ सुनी जा सकती है. अकादमियां तो सरकार की छाया में काम करती हैं इसलिए जब-तब शायद विचलित हो जाएं, मगर साहित्य समुदाय में ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा ने बड़ी हलचल पैदा की है. सवाल उठने लगे हैं कि क्या ज्ञानपीठ ने समझौते का रास्ता चुन लिया है?
पुण्यतिथि विशेष: नामवर सिंह आधुनिक कविता और नई कहानी के अब तक के सबसे महत्वपूर्ण व्याख्याकार हैं. ऐसे व्याख्याकार, जिसने कविता के नए प्रतिमानों की खोज की तो तात्कालिकता के महत्व को भी रेखांकित किया. उनके व्याख्यानों की लंबी श्रृंखला ऐलान करती है कि उन्होंने हिंदी की वाचिक परंपरा को न केवल समृद्ध किया, बल्कि नई पहचान भी दी.
यह 1965 से भारतीय साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए प्रतिवर्ष दिए जाने वाले ज्ञानपीठ पुरस्कार का 58वां संस्करण है. यह भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रदान किया जाता है, जिसकी स्थापना 1944 में हुई थी. यह पुरस्कार दूसरी बार संस्कृत के लिए और पांचवीं बार उर्दू के लिए दिया जा रहा है.
जन्मदिवस विशेष: साहित्य में स्त्री की उपस्थिति एक विचारणीय बात है. जिस प्रकार से कला-संस्कृति-समाज सब पुरुषों द्वारा परिभाषित और व्याख्यायित रहे हैं, ऐसे में स्त्री और उसकी भूमिका को भी प्राय: पुरुषों ने परिभाषित किया है. इसीलिए जब स्त्री और उसके इर्द-गिर्द निर्मित संसार को एक स्त्री अभिव्यक्त करती है तो एक अलग दृष्टि-एक अलग पाठ की निर्मिति होती है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: एक तरह का 'सभ्य अंधकार' छाता जा रहा है, पूरी चकाचौंध और गाजे-बाजे के साथ. लेकिन, नज़र तो नहीं आती पर बेहतर की संभावना बनी हुई है, अगर यह ख़ामख़्याली है तो अपनी घटती मनुष्यता को बचाने के लिए यह ज़रूरी है.
जो लोग यक़ीन करते हैं कि भारत अब भी एक लोकतंत्र है, उनको बीते कुछ महीनों में मणिपुर से लेकर मुज़फ़्फ़रनगर तक हुई घटनाओं पर नज़र डालनी चाहिए. चेतावनियों का वक़्त ख़त्म हो चुका है और हम अपने अवाम के एक हिस्से से उतने ही ख़ौफ़ज़दा हैं जितना अपने नेताओं से.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जो हो रहा है और जिसकी हिंसक आक्रामकता बढ़ती ही जा रही है, उसमें लेखकों को साहित्य को एक तरह का अहिंसक सत्याग्रह बनाना ही होगा और यही नए अर्थ में प्रतिबद्ध होना है.
पुस्तक समीक्षा: वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण प्रताप सिंह ‘डरते हुए’ शीर्षक वाले अपने काव्यसंग्रह के माध्यम से बिल्कुल अलग अंदाज़ में सामने हैं. उनकी कविताएं उनके उस पक्ष को अधिक ज़ोरदार ढंग से उजागर करती है, जो संभवत: पत्रकारीय लेखन या ‘तटस्थ’ दिखते रहने के पेशेवर आग्रहों के चलते कभी धुंधला दिखता रहा.
विशेष: मुक्तिबोध ने कहा था ‘तय करो किस ओर हो तुम?’ और ‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’ वरवरा राव इस सवाल से आगे के कवि हैं. वे तय करने के बाद के तथा पॉलिटिक्स को लेकर वैज्ञानिक दृष्टि रखने वाले कवि हैं. उनके लिए कविता स्वांतः सुखाय या मनोरंजन की वस्तु न होकर सामाजिक बदलाव का माध्यम है.
जन्मदिन विशेष: रघुवीर सहाय की कविता राजनीतिक स्वर लिए हुए वहां जाती है, जहां वे स्वतंत्रता के स्वप्नों के रोज़ टूटते जाने का दंश दिखलाते हैं. पर लोकतंत्र में आस्था रखने वाला कवि यह मानता है कि सरकार जैसी भी हो, अकेला कारगर साधन भीड़ के हाथ में है.
अली सरदार जाफ़री को उनके अद्भुत साहित्य सृजन के साथ जीवट भरे स्वतंत्रता संघर्ष और अप्रतीम फिल्मी करिअर के लिए तो जाना ही जाता है. उर्दू व हिंदवी की नज़दीकियों, उर्दू में छंदमुक्त शायरी को बढ़ावा देने, सर्वहारा की दर्दबयानी और साम्यवाद के फलसफे के लिए भी याद किया जाता है.
मैनेजर पांडेय हिंदी में मार्क्सवादी आलोचना के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक रहे हैं. दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में प्रोफेसर रहने के अलावा उन्होंने बरेली कॉलेज और जोधपुर विश्वविद्यालय में भी प्राध्यापक रहे थे.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: विनीत गिल की किताब निर्मल जीवन और लेखन का सूक्ष्म-सजग-संवेदनशील पाठ है. हर बखान या विवेचन, हर खोज या स्थापना के लिए प्राथमिक और निर्णायक साक्ष्य उनका लेखन है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: लोकतंत्र में आलोचना, वाद-विवाद और प्रश्नवाचकता की जगहें सिकुड़ जाएं तो ऐसे लोकतंत्र को पूरी तरह से लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता.