1948 में जब समाजवादी नेता को हराने के लिए फ़ैज़ाबाद कांग्रेस ने राम जन्मभूमि का कार्ड खेला था

पुस्तक अंश: फ़ैज़ाबाद में 1948 में हुए उपचुनाव में समाजवादी नेता आचार्य नरेंद्र देव मैदान में थे. कांग्रेस ने उनके ख़िलाफ़ देवरिया के बाबा राघव दास को अपना प्रत्याशी बनाया. चुनाव प्रचार में कांग्रेस ने कहा था कि आचार्य नरेंद्र की विद्वत्ता का लोहा भले दुनिया मानती है, लेकिन वे नास्तिक हैं. मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की नगरी अयोध्या ऐसे व्यक्ति को कैसे स्वीकार कर पाएगी?

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अयोध्या में स्थापित श्रीराम की एक प्रतिमा. (प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

पुस्तक अंश: फ़ैज़ाबाद में 1948 में हुए उपचुनाव में समाजवादी नेता आचार्य नरेंद्र देव मैदान में थे. कांग्रेस ने उनके ख़िलाफ़ देवरिया के बाबा राघव दास को अपना प्रत्याशी बनाया. चुनाव प्रचार में कांग्रेस ने कहा था कि आचार्य नरेंद्र की विद्वत्ता का लोहा भले दुनिया मानती है, लेकिन वे नास्तिक हैं. मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की नगरी अयोध्या ऐसे व्यक्ति को कैसे स्वीकार कर पाएगी?

A statue of Hindu Lord Ram is seen after Supreme Court's verdict on a disputed religious site, in Ayodhya, India, November 10, 2019. REUTERS/Danish Siddiqui
(फोटो: रॉयटर्स)

(यह लेख वरिष्ठ पत्रकार और फ़ैज़ाबाद से प्रकाशित दैनिक जनमोर्चा के संपादक शीतला सिंह की किताब ‘अयोध्या: रामजन्मभूमि-बाबरी-मस्जिद का सच’ से लिए गए अंश का पहला भाग है. दूसरा भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

महात्मा गांधी की हत्या 30 जनवरी 1948 को हो चुकी थी. देश 15 अगस्त 1947 को आज़ाद हो गया था और दो टुकड़ों में बंट गया था. नया संविधान लागू नहीं हुआ था. नया संविधान रचना के दौर में था. उसी बीच सोमनाथ मंदिर को बनाने के लिए कांग्रेस के भीतर दो तरह के विचार विद्यमान थे.

इसी दौरान मस्जिद में मूर्तियां रखे जाने का कार्य कुछ हिंदुत्ववादी शक्तियों द्वारा 22/23 दिसंबर 1949 को किया गया. जिसे मूर्ति की स्थापना नहीं, ‘प्राकट्य’ की संज्ञा दी गई कि मूर्ति बाबरी मस्जिद के गुंबद में से स्वतः प्रकट हो गई है और मूर्ति के प्रकट होते ही ‘भये प्रकट कृपाला दीनदयाला’ का गायन उत्सव शुरू हो गया.

अयोध्या में ऐन चुनाव के बाद यह सब उस समय हुआ, जब विवाद कांग्रेस से सोशलिस्ट पार्टी के अलग होने और राजनीतिक नैतिकता के वहन के नाम पर इस्तीफे के बाद जन्मा.

आचार्य नरेंद्र देव के खिलाफ उम्मीदवार कौन बने, प्रमुख मुद्दे क्या हों, क्या पहले से चले आ रहे विवाद को ऐसे अवसर पर उठाया जाए? देश के विभाजन के फलस्वरूप देश का मुस्लिम समाज अपने भविष्य के प्रति शंकालु था. उसे यह भय सता रहा था कि कहीं विरोध का परिणाम यह तो नहीं होगा कि हमें देश की विभाजक मनोवृत्तियों का पोषक और पाकिस्तान समर्थक करार दे दिया जाए.

उसका यह भरोसा तो था कि बहुसंख्यक मुसलमान विभाजन का समर्थक नहीं था, लेकिन अंग्रेज़ों की कुटिल नीति जो देश को स्वतंत्र करने के लिए चल रही थी- विभाजन की अनिवार्यता बन गई. राजनीति से जुड़े कुछ लोग अधिक समय तक अपने को लाभ और सत्ता सुख से वंचित नहीं रखना चाहते थे. यानी गांधी और उनकी जय बोलने वाले दो खेमों में खड़े हो गए और विभाजन अस्तित्व में आ गया.

कांग्रेस कभी भी निष्ठाओं पर आधारित पार्टी नहीं, बल्कि एक मंच था जो स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत था. उससे जुड़े लोगों की भावी समाज की कल्पनाएं भिन्न-भिन्न थीं. यही कारण है कि बाद में जो राजनीतिक दल बने उनमें से अधिकांश कांग्रेस से ही टूट कर बने- वह चाहे हिंदू महासभा हो, मुस्लिम लीग हो या सोशलिस्ट पार्टी.

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गांधीजी का यही सुझाव था कि अब कांग्रेस को भंग कर देना चाहिए. लेकिन स्वतंत्रता के साथ सत्ता का संचालन और भावी समाज का निरूपण लोग अपने स्वार्थ, विचार और मान्यताओं तथा महत्वाकांक्षाओं के रूप में बनाये रखना चाहते थे.

देश के प्रतिष्ठित समाजवादी राजनेता आचार्य नरेंद्र देव के खिलाफ उम्मीदवार की खोज करते हुए कांग्रेस ने बरहज (देवरिया) से बाबा राघव दास को अपना प्रत्याशी बनाया. बाबा राघव दास वैसे तो अपने को गांधीवादी और विनोबा का शिष्य बताते थे, लेकिन इस चुनाव में उन्हें हिंदुत्व के प्रतीक के रूप में स्थापित करने का प्रयत्न हुआ.

नारा यह बना कि अनीश्वरवादी नरेंद्र देव अयोध्या की संस्कृति, परंपरा, मान्यता के विपरीत होंगे, इसलिए उन्हें हराया जाए. वे लगभग 1200 वोटों से हार गए. पंडित नेहरू का प्रयत्न था कि योग्य, यशस्वी, समझदार, स्वतंत्रता आंदोलन में सहयोगी नेताओं का विरोध नहीं होना चाहिए. किंतु यह सब उसी समय निरर्थक हो गया था जब तत्कालीन संयुक्त प्रांत में विधानमंडल दल का नेता, तत्कालीन भाषा में ‘प्रीमियर’, चुनने का प्रश्न आया था.

पंडित नेहरू ने कांग्रेस हाईकमान से प्रस्ताव भी पारित करा दिया था कि प्रीमियर आचार्य नरेंद्र देव को ही बनाया जाए. उन्हें राज़ी करने की ज़िम्मेदारी दूसरे बड़े कांग्रेसी नेता गोविंद बल्लभ पंत को सौंपी गई थी. उन्होंने पंडित नेहरू को बताया कि आचार्य जी प्रीमियर बनने के लिए तैयार ही नहीं हैं. इसलिए कांग्रेस के दूसरे विकल्प के रूप में सत्ता पंत के हाथ में आ गई.

भविष्य की राजनीति भी हाथ से निकलने न पाए, इसलिए अयोध्या से आचार्य नरेंद्र देव को हराना पंत की वैयक्तिक राजनीतिक आवश्यकता बन गई यानी राजनीतिक कांटे को खोदकर समाप्त करना. बाद की अयोध्या की घटनाएं तो इस राजनीति की परिणति थीं. क्योंकि उस समय न जनसंघ का जन्म हुआ था और न ही विश्व हिंदू परिषद का.

एडवर्ड सप्तम के राजा बनने पर अयोध्या में बनी तीर्थरक्षिणी सभा ने चंदा जुटाकर अयोध्या के स्थानों में नामांकित गुलाबी पत्थर लगाए थे. तब न ‘जय श्रीराम’ का नारा था और न ‘रामलला हम आए हैं, मंदिर यहीं बनाएंगे’ का नारा था.

बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखने वालों में जिन 6 लोगों का नाम प्रथम सूचना रिपोर्ट में दर्ज है, उनमें से अधिकांश आचार्य नरेंद्र देव के विरोधी और बाबा राघव दास के समर्थक थे.

बाबा राघव दास ने ही राम की बरही के नाम पर होने वाली उस सभा, जो बाबरी मस्जिद के बाहर 4 जनवरी, 1950 हो रही थी, में एक लाख पच्चीस हजार नवाह्न-मन्त्र-पाठ की घोषणा की थी. महाराजा इंटर कॉलेज की सभा में भाषण में कहा गया कि लोकतंत्र में जनता की इच्छा ही सर्वोपरि है. यदि मूर्ति हटाने का प्रयास किया गया तो मैं अपने पद से इस्तीफा दे दूंगा.

विश्व हिंदू परिषद का गठन 1964 में हुआ. 1984 तक उसके किसी प्रस्ताव में राम मंदिर का मुद्दा या इसका समर्थन या आंदोलन का उल्लेख नहीं मिलता है. जनसंघ ने भी अपने पुनरुत्थानवादी हिंदुत्व के स्थापना कार्यक्रम के लिए अखंड भारत का नारा दिया, लेकिन इस विवाद से दूर ही रहा.

जनता पार्टी के विघटन के बाद जब भारतीय जनता पार्टी बनी, तो वह भी 1989 के पूर्व तक इन प्रश्नों से दूर ही रही. लेकिन जब विश्व हिंदू परिषद शिलान्यास के लिए दबाव बना रही थी, तब 1989 में कांग्रेस के नेता और तत्कालीन प्रधानमंत्री अपने लोकसभा चुनाव अभियान की शुरुआत फ़ैज़ाबाद से करते हुए रामराज्य की स्थापना का संकल्प लेते हैं.

कांग्रेस अपने को मानवतावादी, धर्मनिरपेक्ष और संप्रदायवाद के विरुद्ध बताती है. उसी के कार्यकाल में मस्जिद में मूर्ति भी रखी गई थी. रहस्यमय परिस्थिति में कोर्ट के आदेश से मस्जिद का ताला भी खुलता है, शिलान्यास भी होता है और प्रदेश की भाजपा और केंद्र की कांग्रेस सरकार के मूकदर्शक की भूमिका में रहने के कारण मस्जिद को ढहा दिया गया और न मूर्ति रखने वालों को कोई सज़ा हुई, न तोड़ने वालों को.

मस्जिद ढहाने का मामला अभी विभिन्न प्रक्रियाओं से गुज़र रहा है. मंदिर निर्माण के लिए ईंटों को संगृहीत करने तथा उन्हें अयोध्या पहुंचाने के लिए सरकारी संरक्षण प्रदान किया गया. सरकार ने आंदोलनकारियों के साथ लिखित समझौता करके अपने घुटने टेक दिए.

बार-बार यह संदेश भी दिया गया कि वास्तविक मंदिर निर्माण की दिशा में हम ही प्रयत्नशील हैं. विहिप के विरुद्ध जिन शंकराचार्यों या धार्मिक लोगों के आंदोलन का समर्थन कांग्रेस के लोग करते थे, उनमें से कोई भी इस मस्जिद के अस्तित्व की रक्षा की बात नहीं करता.

हां, कांग्रेस के कुछ लोग इसे अनुचित मानते हैं, लेकिन न तो ऐसे लोगों की बात मूर्ति-प्राकट्यकाल में सुनी गई और न बाद में ही उनकी बातों को कहीं अहमियत मिली. यह अवश्य दिखा कि कई सांसद और विधायक राम मंदिर आंदोलन के सहयोगी बनकर बाकायदा भाजपा में शामिल होकर चुनाव लड़े और राम लहर में जीते भी.

अब तो कांग्रेस के नेता ही यह कहने लगे हैं कि जिनके प्रधानमंत्रित्वकाल में मस्जिद ध्वंस हुई वे धर्मनिरपेक्षता के प्रति नहीं, बल्कि हिंदुत्व के प्रति समर्पित थे. वे इस ध्वंस को इस रूप में भी देखते थे कि विहिप तथा उनके समर्थकों द्वारा यह कृत्य करके अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मारी गई थी.

यानी जिस मस्जिद को दिखा-दिखाकर, उसके लिए गढ़ा हुआ रक्तरंजित इतिहास बताकर देश की भोली भाली जनता को बहलाया जाता था, उसे मस्जिद ध्वंस कर समाप्त कर दिया गया है. यानी ‘जब बांस ही नहीं रह गया तो बंशी कहां से बजेगी!’ जब मस्जिद ही दिखायी नहीं देगी, तब आंदोलन से जुड़ाव की क्या आवश्यकता!

बाबरी मस्जिद विध्वंस एक ऐसी घटना थी जिसे राज्य से लेकर केंद्र तक की भूमिकाओं के निर्णय, कार्य और व्यवहार ने भारतीय संविधान के ढांचे को चुनौती दी. कथनी-करनी में अंतर, घोषणाओं, अमल और व्यवहार की दृष्टि से देखा जाए तो कोई भी दूध का धुला नहीं था…

अयोध्या. (फोटो साभार: विकिमीडिया)
अयोध्या. (फोटो साभार: विकिमीडिया)

…क्या यह माना जाए कि अयोध्या के इस प्राचीन विवाद, जिसकी नयी शुरुआत 22-23 दिसंबर, 1949 को ‘भये प्रकट कृपाला’ के रूप में हुई थी, उसके पीछे भी प्रमुख राजनीतिक कारण और उसका अल्पकालिक और दीर्घकालिक लाभ उठाने की प्रवृत्ति थी.

यही कारण है कि लगभग 33 वर्षों के लंबे समय तक इसमें उतावलापन नहीं देखा गया. 1950 के बाद से 1984 तक यह ठंडे बस्ते में पड़ा रहा, न पक्षकारों को कोई चिंता थी, न राजनीतिक दलों को ही.

अयोध्या के साधु-संत दर्शन के लिए जाते रहे. बाहर से आने वाले कुछ लोग भी दूसरे आकर्षक मंदिरों को देखने के बाद यहां के वीरान की तरह दिख रहे रामलला को जंगले के सीखचों से झांककर राम चबूतरे पर दान-चढ़ावा चढ़ाकर दरवाज़े के पास ही दूसरे अखंड कीर्तन के लिए मनीऑर्डर भेजते रहते थे.

मौके पर तैनात पुलिस के पास भी कोई काम नहीं था. वह दर्शन के लिए आए हुए लोगों के चमड़े का बेल्ट उतरवाने का ही काम करती थी. किसे पता था कि सुप्त पड़ी चिंगारी भीषण ज्वाला का रूप धारण कर लेगी!

1984 के बाद यह मामला देश की राजनीति की धुरी बन गया. कुछ राजनीतिक दलों को लगा कि इस मुद्दे पर राम के प्रति लोगों के दिलों में छिपी आस्था और विश्वास की भावना का शोषण कर उसे वोट में बदला जा सकता है.

राम ऐसा व्यापक चरित्र है, जो धर्मों और मान्यताओं के घेरे से बाहर 65 देशों में रामकथा और 29 देशों में रामकथा के मंचन के रूप में विद्यमान है. इसकी व्यापकता को भारत के संदर्भ में प्रयुक्त करने के बजाय विवाद के कारण संकीर्णता कहीं अधिक सहायक हो गई जो राजनीतिक लाभ व हानि का कारण बन गई. लाभ उठाने की प्रवृत्तियों के द्वंद्व के फलस्वरूप अयोध्या राजनीतिक दलों के हाथ का खिलौना बन गई.

अयोध्या प्रेमियों का यह विचार था कि यह शांति या सद्भाव-पूर्वक समाधान तक पहुंच सके- यह प्रयत्न होना चाहिए. लेकिन राजनीतिक स्वार्थ और लाभ के कारण यह किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका.

भारत में राम को मर्यादाओं और आदर्शों का मूर्तिमान स्वरूप माना जाता है, लेकिन इस मुद्दे का उपयोग लाभ उठाने के लिए झूठ, बेईमानी, दगाबाज़ी, कपट, चरित्र-हनन, दोषारोपण- सभी का आवश्यकतानुसार दुरुपयोग किया गया.

भये प्रगट कृपाला

करीब 7 बजे सुबह के जब मैं जन्मभूमि पहुंचा तो मालूम हुआ कि तखमीनन 50-60 आदमियों का मजमा कुफल जो बाबरी मस्जिद के कंपाउंड में लगे हुए थे, तोड़कर व नीज दीवार द्वारा सीढ़ी फांदकर अंदर मस्जिद मदाखिलत करके मूर्ति श्री भगवान की स्थापित कर दिया और दीवारों पर अंदर व बाहर सीता राम जी वगैरह गेरू व पीले रंग से लिख दिया.

का-नं- 70 हंसराज मामूरा-डियुटी मना किया, नहीं माने. पी-ए-सी- की गारद जो वहां मौजूद थी इमदाद के लिए बुलाया, लेकिन उस वक्त तक लोग अंदर मस्जिद में दाखिल हो चुके थे. अफसरान आला जिला मौका पर तशरीफ लाए और मसरूफ इन्तिज़ाम रहे.

बादहू मजमां तखमीनन 5-6 हज़ार इकट्ठा होकर मजहबी नारे व कीर्तन लगाकर अंदर जाना चाहते थे. लेकिन माकूल इंतजाम होने की वजह से रामसकलदास, सुदर्शनदास व 50-60 आदमी नाम नामालूम बलवा करके मस्जिद में मदाखलत करके मूर्ति स्थापित करके मस्जिद नापाक किया है. मुलाजिमान मामूरा डियुटी के बहुत-से आदमियों ने इसको देखा है.

उपरोक्त विवरण पुलिस-थाना अयोध्या में मुकदमा-संख्या 215: अपराध-सं- 167 पर 23-12-1949 को 19 बजे दर्ज किया गया.

23 दिसंबर, 1949 को प्रात: 9 बजे कांस्टेबल-नं० 7 माता प्रसाद ने थाना अयोध्या: ज़िला फ़ैज़ाबाद में पहुंचकर जो विवरण सब-इंस्पेक्टर रामदेव दुबे, थानाध्यक्ष को बोलकर बताया और जिसे हेड-मोहर्रिर परमेश्वर सिंह ने लिखकर प्रमाणित किया: उसके अनुसार 22/23 दिसंबर की रात बलवाइयों की एक भीड़ ने बाबरी मस्जिद में जबरदस्ती घुसकर मस्जिद को नापाक करते हुए वहां रामलला की मूर्ति स्थापित कर दी थी.

किसी को अनुमान नहीं था कि धारा 147/295/448 ताज़ीराते हिंद या इंडियन पेनल कोड के तहत दर्ज यह मुकदमा अगले 70 वर्षों तक भारतीय राज्य को दुख देगा और भारतीय संविधान में निहित पंथ-निरपेक्षता-जैसे मूल्यों के लिए खतरा बना रहेगा.

यहां फ़ैज़ाबाद के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक रहे, जिनके कार्यकाल में ही बाबरी मस्जिद को ध्वंस किया गया, उन डीबी राय ने अपने अंतिम दिनों में पुस्तक लिखी. इस पुस्तक में प्राथमिकी एक तथ्य है.

इसके बावजूद इस घटना को रक्त-रंजित इतिहास की सड़क-छाप प्रतियों के रूप में ऐतिहासिक सच मानकर प्रस्तुत किया गया है. इन प्रस्तुतियों से जनमानस को गुमराह करने का प्रयत्न किया गया. तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया. एक जगह राय लिखते हैं:

22/23 दिसंबर: 1949 ई- की रात में अयोध्या के विवादित भवन के मध्य गुंबद के नीचे कहा जाता है कि एक बहुत तेज़ अलौकिक रोशनी हुई और सुरक्षा में लगे गार्ड के संतरी, जो एक मुस्लिम था, का कथन है कि रोशनी की चकाचौंध कम होने पर उसकी आंखों ने जो देखा वह एक आश्चर्यजनक दृश्य था. उसका कथन है कि रोशनी समाप्त होने के बाद वहां पर अपने तीन भाइयों के साथ श्रीरामचंद्र की बालमूर्ति विराजमान थी.

जनता के सामने मूर्तियों को हटाना प्रशासन के वश में नहीं था. जनमानस के अनुसार इस घटना की जांच हुई थी और उस समय के जिलाधिकारी केकेके नायर और सिटी मजिस्ट्रेट गुरुदत्त सिंह ने त्याग-पत्र दे दिया था.

किंवदंती के अनुसार, बाबा अभयरामदास एवं अयोध्या के कुछ अन्य संतों ने उस समय के गार्ड में नियुक्त कांस्टेबल शेर सिंह से कहा था कि यदि वास्तव में वे शेर सिंह हैं तो उन्हें विवादित भवन में राम की मूर्ति को ले जाने दें. शेर सिंह अक्सर स्वामी अभयरामदास के यहां आता-जाता था. उनके साथ भांग-गांजा का सेवन भी किया करता था.

शेर सिंह भावनाओं में आकर 22/23 दिसंबर की रात में जब उसकी ड्यूटी रात 9 बजे से 12 बजे के बीच थी तो उसने महंत अभयरामदास व अन्य संतों को विवादित भवन में प्रवेश करा दिया और वहां पर इन साधुओं ने अष्टधातु की रामलला की मूर्ति स्थापित कर दी तथा पूजन में लग गए.

हज़ारों श्रद्धालु भी एकत्रित हो गए, क्योंकि गुप्त रूप से प्रचार किया गया था कि आज रामलला का प्रादुर्भाव होगा. 12 बजे के बाद शेर सिंह 1 घंटा तक ड्यूटी पर रहा और फिर 1 बजे जाकर उसने अपने साथी मुस्लिम कांस्टेबल को जगाकर संतरी-ड्यूटी पर भेजा.

जब वह ड्यूटी पर पहुंचा तो वहां पर रखी रोशनी की चकाचौंध में अष्टधातु की रामलला की मूर्ति का तेज देखकर वह अवाक रह गया. एक घंटा देर से ड्यूटी पर पहुचने के कारण उसकी भलाई शायद इसी में थी कि प्रादुर्भाव के कथन का समर्थन करता रहे.

कांस्टेबल माताप्रसाद के द्वारा दर्ज करायी गई रिपोर्ट के उलट ऊपर दिए गए तथ्य ‘अयोध्या: 6 दिसंबर का सत्य’ नामक किताब से उद्धृत हैं (पृष्ठ सं- 24): जिसके लेखक डीबी राय हैं, जिनके बारे में यहां बताना अप्रासंगिक न होगा कि जब 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद गिरायी गई थी, तब यही सज्जन फ़ैज़ाबाद के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक थे और मस्जिद गिराने में लगभग उसी भूमिका में थे जिसमें कोई विश्व हिंदू परिषद का कार्यकर्ता हो सकता था.

इनाम के तौर पर भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें दो बार सुल्तानपुर लोकसभा का टिकट दिया और वे दोनों बार जीते. भाजपा ने जब तीसरी बार उनका टिकट काट दिया तब वे भाजपा के खिलाफ निर्दल चुनाव लड़े और हार गए. जिन किंवदंतियों का वे उल्लेख कर रहे हैं उन जैसी असंख्य किंवदंतियां इस विवाद के दौरान फैलायी गई हैं और भोली भाली जनता उन पर विश्वास करती रही है.

डीबी राय के उपर्युक्त कथन में कई विद्रूप विसंगतियां हैं. ये विसंगतियां किसी असावधानी या नाजानकारी की उपज नहीं हैं; बल्कि इन्हें सोचे-समझे तरीकों से मिथ और इतिहास के बीच के फर्क को मिटाने या किंवदंतियों को ही इतिहास मनवाने के प्रयास के रूप में लिया जाना चाहिए.

Ayodhya Babri Masjid PTI
(फाइल फोटो: पीटीआई)

पुनरुत्थानवादी शक्तियां अतीत का गौरवगान करने के लिए पूरी दुनिया में इतिहास के साथ यही सलूक करती हैं. यदि आप अयोध्या आ जाएं तो आपको फुटपाथों पर इतिहास की ऐसी किताबें बिकती मिल जाएंगी कि आपका दिमाग चकरा जाएगा. भ्रष्ट भाषा और खराब शैली में लिखी गईं ये किताबें लाखों-करोड़ों धर्मप्राण हिंदुओं को इतिहास की गंभीर पुस्तकों से अधिक प्रामाणिक लगती हैं.

वैसे भी हम इतिहास को सुरक्षित रखने या मिथ और इतिहास में फर्क करने वाले राष्ट्र नहीं हैं. राय फ़ैज़ाबाद के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक थे और यह मानने का कोई आधार नहीं है कि उन्होंने थाना अयोध्या में कांस्टेबल माताप्रसाद द्वारा 23 दिसंबर को दर्ज करायी गई एफआईआर नहीं देखी होगी, जिसमें उसने स्पष्ट कहा था कि रामसकलदास, सुदर्शनदास व 50-60 आदमी नाम नामालूम ने बलवा करके मस्जिद में मदाखलत कर के मूर्ति स्थापित करके मस्जिद नापाक किया है.

राय ने किसी ऐसे संतरी की कल्पना की है जो गार्ड-ड्यूटी पर था और जिसकी ड्यूटी के दौरान एक बहुत तेज़ अलौकिक रोशनी हुई और रोशनी की चकाचौंध कम होने पर उसकी आंखों ने जो देखा वह एक आश्चर्यजनक दृश्य था. उसका कथन है कि रोशनी समाप्त होने के बाद वहां पर अपने तीन भाइयों के साथ श्रीरामचंद्र की बालमूर्ति विराजमान थी.

यदि राय अपने लेखन में ईमानदार होते तो वे ये तथ्य न छिपाते कि 22/23 दिसंबर की उस ऐतिहासिक रात को जब रामलला प्रकट हुए तब वहां फ़ैज़ाबाद पुलिस लाइन से भेजी गई गारद में कोई मुसलमान कांस्टेबल नहीं था और गारद का एकमात्र मुस्लिम सदस्य हेड कांस्टेबल नं- 9 अबुल बरकत था.

मैंने विभूति नारायण राय, जो खुद उत्तर प्रदेश काडर के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी रहे हैं, से इस बारे में बात की. उनके अनुसार, उत्तर प्रदेश पुलिस की प्रचलित परंपरा और पुलिस मैनुअल के अनुसार हेड कांस्टेबल सशस्त्र पुलिस गारद का कमांडर होता है और कमांडर संतरी-ड्यूटी पर नहीं खड़ा होता.

पुलिस लाइन के रिकार्ड के मुताबिक 22/23 दिसंबर की रात को बाबरी मस्जिद पर जो सुरक्षा-गारद लगाई गई थी उसमें शेर सिंह नाम का कोई कांस्टेबल था ही नहीं. 1 फरवरी, 1950 को दाखिल चार्जशीट में भी गवाहों की सूची में शेर सिंह का नाम नहीं है जबकि गार्ड कमांडर अबुल बरकत तथा गार्ड के अन्य सदस्यों के नाम सम्मिलित हैं.

निर्माेही अखाड़े के वर्तमान महंत भास्करदास, जिनकी नियुक्ति उस समय अखाड़े ने जन्म स्थान चबूतरे पर पूजा-पाठ के लिए कर रखी थी, ने मुझे बताया था कि शेर सिंह नाम का एक पुलिसवाला उनके अखाड़े में आता-जाता था और साधुओं के साथ बैठकर गांजे की चिलम पिया करता था. गारद उसे ‘साधू’ कहकर चिढ़ाते थे कि यदि वह सचमुच का शेर है तो मस्जिद में रामलला की मूर्ति स्थापित कराने में उनकी मदद करे.

सारे तथ्यों को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि जिस समय बल-छल-पूर्वक मस्जिद में रामसकलदास और सुदर्शनदास के नेतृत्व में भीड़ ने रामलला की मूर्ति स्थापित की, उस समय कांस्टेबल-नं- 70 हंसराज संतरी ड्यूटी पर था.

डीबी राय ने सच जानने की कोशिश नहीं की. उन्होंने उन अनगिनत हिंदुत्ववादी इतिहासकारों में से एक बनना पसंद किया जिनके लिए मिथ और इतिहास में कोई फर्क नहीं होता.

पत्रकार सुमन गुप्ता ने महंत भास्करदास से एक लंबा इंटरव्यू लिया था, जिसमें उन्होंने शेर सिंह नामक पुलिसकर्मी के बारे में कई दिलचस्प तथ्य बताये थे. उनमें से एक यह था कि जन्मस्थान चबूतरे के पास चहारदीवार पर अरबी में अंकित अल्लाह को मिटाने का काम शेर सिंह ने ही किया था.

इसी प्रकरण के संबंध में विरक्त साधु तथा कांग्रेस के ज़िला मंत्री रहे अक्षय ब्रह्मचारी लिखते हैं कि-

‘23 दिसंबर की प्रात: काल, जिस रात में बाबरी मस्जिद में श्रीराम की मूर्ति रखी गई थी, प्रात: नौ बजे जिलाधीश ने बताया कि मुझे श्री भाईलाल द्वारा प्रात: छह बजे यह ज्ञात हुआ है कि मस्जिद में मूर्ति रख दी गई है. मैं उसे देखने गया था, वहां से मैं अभी लौटा हूं.’

यह उद्धरण अक्षय ब्रह्मचारी की पुस्तक ‘कौमी एकता की अग्नि-परीक्षा’ (1989) से लिया गया है. अक्षय ब्रह्मचारी 1949 में फ़ैज़ाबाद ज़िले की कांग्रेस-कमेटी के मंत्री थे और घोर आस्तिक वैष्णव साधु थे तथा रामवल्लभा-कुंज- मंदिर से संबद्ध थे. उन्होंने न सिर्फ पूरे देश में इस अन्याय के विरुद्ध गुहार लगायी, बल्कि इसके विरुद्ध यूपी कांग्रेस कमेटी के कार्यालय पर अनशन भी किया…

…सारे उपलब्ध तथ्य इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि मूर्ति रखे जाने के अगले 24 घंटों तक अयोध्या में न तो बहुत तनाव था और न ही मस्जिद के आस-पास इतनी भीड़ थी कि यदि प्रशासन मन से चाहता तो मूर्तियां हटा न पाता.

इस संबंध में अक्षय ब्रह्मचारी जिला मजिस्ट्रेट केकेकेके नायर के साथ मौके पर गए थे. वे लिखते हैं कि

‘मैं प्रात: 12 बजे जिलाधीश के साथ बाबरी मस्जिद गया. वहां मूर्ति रखी हुई थी. थोड़े-से आदमी मस्जिद के पास एकत्रित थे. उस समय सुलभता से मस्जिद की रक्षा की जा सकती थी और मूर्ति हटायी जा सकती थी. परंतु जिलाधीश ने इसे उचित नहीं समझा. प्रात: काल से ही लाउडस्पीकर द्वारा प्रचार होने लगा कि भगवान प्रकट हुए हैं. हिंदू दर्शन के लिए चलें. मैंने इस प्रचार को जिलाधीश के साथ उनकी कार में अयोध्या जाते समय फ़ैज़ाबाद और अयोध्या में उन्हें दिखलाया. उत्तेजना बढ़ती गई.’

उत्तर प्रदेश सरकार या फ़ैज़ाबाद के जिला-प्रशासन ने इस दिशा में कोई प्रयास क्यों नहीं किया? यह सवाल आज भी कायम है.

क्या हुआ मुकदमा संख्या 215 का?

सरकार की ओर से श्री रामदेव दुबे, स- इंचार्ज: थाना अयोध्या, जिला फ़ैज़ाबाद, अभियोगी, पुलिस द्वारा दाखिल चार्जशीट के सभी अभियुक्त ज़मानत पर थे, लेकिन इन पर चलाए गए अभियोग की स्थिति के बारे में अभियोजन को इसकी प्रगति की कोई जानकारी ही नहीं है.

मुकदमा सं- 215/1949, धारा 147/295/448 (भादंवि), थाना कोतवाली अयोध्या, फ़ैज़ाबाद पर दिनांक 23-12-1949 को तत्कालीन थानाध्यक्ष उपनिरीक्षक श्री रामदेव दुबे की रिपोर्ट पर अभिरामदास, शिवदर्शन, रामसुभगदास, रामसकलदास व 50-60 अन्य व्यक्ति नाम-पता अज्ञात पंजीकृत हुआ था.

मुकदमे में विवेचनोपरान्त श्री अभिरामदास आदि पांच लोगों के विरुद्ध आरोप-पत्र दिनांक 01 फरवरी, 1950 को प्रेषित हुआ था. बहुत प्रयास किया, किंतु प्रकरण पुराना होने के कारण इस मुकदमे के निर्णय आदि के बारे में कहीं से कोई जानकारी नहीं मिल सकी. थाना-अभिलेखों में भी इस मुकदमे के परिणाम के बारे में कुछ भी स्पष्ट अंकित नहीं है.

Devotees look at a model of the proposed Ram temple that Hindu groups want to build at a disputed religious site in Ayodhya, India, October 22, 2019. REUTERS/Danish Siddiqui
अयोध्या में रखा राम मंदिर का मॉडल. (फोटो: रॉयटर्स)

फ़ैज़ाबाद के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने एक अगस्त, 2008 को लखनऊ हाईकोर्ट में इस आशय की एक रिपोर्ट भी दी थी कि बहुत प्रयास करने पर भी मुकदमे के अंतिम निर्णय के बारे में उन्हें कुछ भी पता नहीं चला.

अभियोग-पत्र में जिनका नाम शामिल किया गया था, वे थे- 1- अभिरामदास चेला यमुनादास, 2- रामविलासदास, 3- शिवदर्शनदास चेला गोविंददास, 4- रामसकलदास चेला सरयूदास, 5- वृन्दावनदास चेला रामबल्लभाशरण, 6- रामसुभगदास.

इन सभी के विरुद्ध अदालत में अभियोग-पत्र दाखिल करते समय लिखा गया कि ‘दिनांक 22/23 दिसंबर, 1949 को अभियुक्तों ने बाबरी मस्जिद में पुराना मंदिर जानकर मूर्ति स्थापित कर दिया जिसकी तफ़तीस होकर अभियुक्त धारा-147/448/295 ताज़ीरात हिंद में चालान किया जाता है, कार्यवाही मुनासिब की जाए.’

अभियोग-पत्र इस अर्थ में दिलचस्प है कि एफआईआर में उल्लिखित यह तथ्य कि ‘करीब 7 बजे सुबह के जब मैं जन्मभूमि पहुंचा तो मालूम हुआ कि तखमीनन 50-60 आदमियों का मजमा कुफल, जो बाबरी मस्जिद के कंपाउंड में लगे हुए थे, तोड़कर व नीज दीवार द्वारा सीढ़ी फांदकर अंदर मस्जिद मदाखिलत करके मूर्ति श्री भगवान की स्थापित कर दिया और दीवारों पर अंदर व बाहर सीताराम जी वगैरह गेरू व पीले रंग से लिख दिया’ का उल्लेख अभियोग-पत्र से गायब कर दिया गया और विवेचक ने अभियुक्तों को मदद करने के इरादे से उनकी इबारत ही बदल दी.

‘अभियुक्तों ने पुराना मंदिर जानकर उसमें मूर्ति स्थापित कर दी.’  इस प्रकार इस मुकदमे का स्वरूप ही बदल गया.

29 दिसंबर, 1949 को सिटी-मजिस्ट्रेट, फ़ैज़ाबाद ने धारा 145 में विवादित भवन को कुर्क करते समय इसके विवरण में ‘तीन गुंबद दर इमारत मय सहन के तथा चहारदीवारी लिखा जिसकी चैहद्दी उत्तर में छट्ठी पुरान और निर्माेही अखाड़ा दक्षिण- आराजी परती, पूरब-चबूतरा अंदर श्रीराम जी का ममलूके निर्माेही अखाड़ा व सहन मंदिर, पश्चिम-परिक्रमा’ लिखा.

मुकदमे के पक्षों में सरकार बनाम जन्मभूमि (बाबरी मस्जिद). यानी मस्जिद के बजाय कागज़ी तौर पर उस स्थान को मंदिर का स्वरूप देने की शुरुआत तभी हो गई थी और दाखिल आरोप-पत्र (1 फरवरी, 1950 को) में भी यही लिखा गया.

अयोध्या थाने के स्टेशन अफसर रामदेव दुबे ने 23 दिसंबर को जो प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करायी थी, उसमें मस्जिद में मूर्तियां रखने के लिए 3 व्यक्तियों को अभियुक्त ठहराया गया था. इनमें पहला नाम अभिरामदास का था. दूसरा रामशकलदास और तीसरा सुदर्शनदास था.

विवेचना के बाद जिन 6 लोगों को अभियुक्त बनाया गया- उनके नाम थे- 1- अभिरामदास, 2- रामविलासदास, 3- शिवदर्शन (सुदर्शन), 4- रामबालकदास, 5- वृन्दावनदास, 6- रामसुभगदास.

अभियोजन 1 फरवरी, 1950 को दायर किया गया था, जिसमें घटना के गवाहों की सूची इस प्रकार थी- 1- श्री रामदेव दुबे, थानाध्यक्ष अयोध्या, फ़ैज़ाबाद, 2- श्री हंसराज ड्यूटी पर नियुक्त कांस्टेबल, स्थान: जन्मस्थल, 3- श्री माताप्रसाद कांस्टेबल 409 पुलिस-लाइन, फ़ैज़ाबाद, 4- श्री रामअधार, कांस्टेबल, पुलिस-लाइन फ़ैज़ाबाद, 5- श्री अबुलबरकत, हेड कांस्टेबल, पुलिस-लाइन, फ़ैज़ाबाद, 6- श्री अर्जुन सिंह उप-पुलिस अधीक्षक फ़ैज़ाबाद, 7- श्री केकेकेके नायर, जिला मजिस्ट्रेट, 8- श्री शिवप्रसाद सिंह, सर्किल इंस्पेक्टर, 9- श्री हवलदार बल्देव सिंह, जेपीओ, फ़ैज़ाबाद.

इस मामले में पुलिस तथा सरकारी अधिकारियों के अतिरिक्त किसी अन्य को विवेचना में भी साक्ष्य-योग्य नहीं माना गया था. बाद में अदालत ने सभी अभियुक्तों को रिहा कर दिया था.

फ़ैज़ाबाद में हिंदू-महासभा के एक महत्वपूर्ण नेता गोपाल सिंह विशारद ने 16 जनवरी, 1950 को मुंसिफ सदर के यहां वाद सं- 2/1950 दायर किया कि राम-भक्त होने के कारण उन्हें रामलला के पूजा-पाठ की अनुमति दी जाए और मुसलमानों को विवादित स्थल पर जाने से रोका जाए.

इस मुकदमे में फ़ैज़ाबाद के तत्कालीन डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट श्री जयकरननाथ उग्र ने राज्य व सरकार की ओर से बयान-हल्फी 25 अप्रैल, 1950 को दायर की. बयानहल्फी के पैरा 12 में कहा गया कि मुकदमे से संबद्ध संपत्ति बाबरी मस्जिद के नाम से जानी जाती है, यह मस्जिद लंबे समय से मुसलमानों द्वारा नमाज़ व पूजा के लिए इस्तेमाल होती है. इसका उपयोग श्री रामचंद्र जी के मंदिर के रूप में नहीं किया जाता है.

इसी बयान-हल्फी के पैरा 23 में कहा गया है कि 22 दिसंबर, 1949 की रात में कुछ शरारती तत्वों ने गलत ढंग से इसमें रामचंद्र जी की मूर्ति रख दी जिसके कारण प्रशासन को शांति व व्यवस्था बनाए रखने के लिए 29 दिसंबर, 1949 को धारा-145 के अंतर्गत अतिरिक्त सिटी-मजिस्ट्रेट मार्कण्डेय सिंह के आदेश से कुर्क करना पड़ा.

गोपाल सिंह विशारद द्वारा जिन पांच मुस्लिमों को इस मामले में प्रतिवादी बनाया गया था, वे थे- ज़हूर अहमद, हाजी फेकू, मो. खालिक, मो. शमी, मो. अच्छन मियां. ये सभी अयोध्या के सामान्य मुस्लिम नागरिक थे.

बढ़ती सांप्रदायिकता और कांग्रेस

अयोध्या के हालात पर अक्षय ब्रह्मचारी के अनुसार उन दिनों कहा जा रहा था कि…

…पाकिस्तान में एक भी मंदिर नहीं रह गया है, फिर अयोध्या में मस्जिद और कब्रिस्तान क्यों होना चाहिए? हम लोगों को मिलकर अयोध्या से मुसलमानों का चिह्न मिटा देना चाहिए. यह तभी संभव है जब कांग्रेस को उखाड़ फेंका जाए. अधिकांश कांग्रेस वाले इस विचार को पसंद करते हैं. परंतु जवाहरलाल नेहरू और कुछ थोड़े-से व्यक्ति मुसलमानों का साथ दे रहे हैं, उन्हें समाप्त करना होगा.

अयोध्या में अक्षय ब्रह्मचारी और सिद्धेश्वरी प्रसाद को नहीं रहने देना चाहिए. ये हिंदू धर्म को नहीं बढ़ने देना चाहते हैं. जिलाधीश केकेके नायर के ठहाके के बीच नारे लगते थे- अक्षय सिद्धेश्वरी का नाश हो, अक्षय-सिद्धेश्वरी को मार डालो. ये धर्मद्रोही हैं, मुसलमान हो गए हैं. मुसलमानों की रक्षा के लिए कांग्रेस-शासन पर प्रभाव डाल रहे हैं आदि.

प्रांतीय सरकार के सभासचिव गोविंद सहाय जी की एक विराट जनसभा में भी इन लोगों ने हुल्लड़ किया और नारे लगाकर लोगों को उत्तेजित किया.

बाबरी मस्जिद-श्रीराम जन्मभूमि के संबंध में नितांत निराधार, तथ्यहीन एवं मनगढ़ंत कहानियों का अनवरत प्रचार विज्ञप्तियों, पुस्तकों तथा परचों आदि के माध्यम से किया जाता रहा है और उन्हें सुना-सुनाकर धर्मभीरु सीधे-साधे हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को उभारकर उत्तेजित किया जाता रहा है.

इससे देश में सांप्रदायिक विद्वेष, घृणा, प्रतिशोध, तनाव, हिंसा एवं मुस्लिम विरोध का उन्मादी वातावरण पुन: व्याप्त हो रहा है. मंदिर निर्माण के आंदोलन के चलते अनेक स्थानों पर भयानक सांप्रदायिक दंगे हुए हैं. सैकड़ों निर्दाेष व्यक्तियों को हताहत किया गया है तथा करोड़ों की संपत्ति नष्ट की गई है.

अब कम ही लोग जानते हैं कि आखिर वे क्या कारण थे कि यह विवाद 22-23 दिसंबर, 1949 को ही क्यों आरंभ हुआ? वे कौन-सी परिस्थितियां थीं जो इसमें सहयोगी बनीं? वे कौन लोग थे, जो इसमें नायक बने? अधिकारियों, जनप्रतिनिधियों एवं जनता ने इसमें क्या भूमिका निभायी?

1947 में देश का विभाजन भयानक रक्तपात के बीच हुआ था और यह स्वाभाविक ही था कि देश में सांप्रदायिक तनाव उन दिनों अपने चरम पर था. फ़ैज़ाबाद इन सबसे अछूता नहीं रह सकता था. ख़ासतौर से इसलिए भी कि इसी ज़िले में अयोध्या स्थित थी, जिसमें पिछले सौ वर्षों के दौरान बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि विवाद को लेकर कई बार हिंसक घटनाएं हुई थीं.

आज़ादी के बाद काफी बड़ी संख्या में मुसलमान अवध से पाकिस्तान पलायन कर गए थे. सांप्रदायिक उन्माद के उस दौर में यह स्वाभाविक ही था हिंदुत्ववादी शक्तियों को लगा कि वह समय आ गया है जब वे बाबरी मस्जिद की जगह राम जन्मभूमि बना सकते हैं.

सांप्रदायिक हिंदुओं का नेतृत्व करने वाली हिंदू महासभा कभी भी बहुत प्रभावी राजनीतिक शक्ति नहीं रही थी-  किंतु कांग्रेस में ही ऐसी लोगों की कमी नहीं थी जिन्हें उसका समानधर्मा कहा जा सकता था. शीर्ष पर गांधी-नेहरू का उदार धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक नेतृत्व मौजूद था- पर प्रदेशों में और ज़मीनी स्तर पर ऐसे लोगों की कमी नहीं थी, जो अपनी सोच में हिंदू महासभा के नज़दीक खड़े होते थे.

आज हम चुनावों में जिस बेशर्मी के साथ धार्मिक मुद्दों और प्रतीकों का इस्तेमाल देखते हैं, लगभग उसी तरह की स्थिति आज़ादी के फौरन बाद हुए चुनाव में भी दिखायी देती है. फ़ैज़ाबाद चुनाव क्षेत्र में 1948 में हुए उपचुनाव में भी मंदिर का मुद्दा कांग्रेस के स्थानीय नेतृत्व ने प्रमुखता से उठाया था.

देश की आज़ादी के फौरन बाद आचार्य नरेंद्र देव और उनके साथ 11 विधायकों, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सदस्यों, ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया और नैतिक आधार पर उत्तर प्रदेश विधानसभा भी छोड़ दी. ये सभी 11 सदस्य जून-जुलाई, 1948 में हुए उपचुनाव में खड़े हुए. गजाधर प्रसाद को छोड़कर अन्य सभी उपचुनाव में हार गए.

कांग्रेस ने इन्हें हराने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी थी. यहां तक कि आचार्य नरेंद्र देव, जो फ़ैज़ाबाद सीट से उपचुनाव लड़ रहे थे जिसके अंतर्गत अयोध्या क्षेत्र भी आता था, को हराने के लिए कांग्रेस ने खुलकर राम जन्मभूमि का कार्ड खेला.

आचार्य नरेंद्र देव और बाबा राघव दास. (फोटो साभार: विकिपीडिया)
आचार्य नरेंद्र देव और बाबा राघव दास. (फोटो साभार: विकिपीडिया)

आचार्य नरेंद्र देव बनाम बाबा राघव दास

रिक्त सीटों का उप-चुनाव जून, 1948 में निर्धारित किया गया. आचार्य नरेंद्र देव ने फ़ैज़ाबाद विधानसभा-क्षेत्र, जिसका अयोध्या भी हिस्सा थी और लखनऊ से लेकर सीतापुर तक के क्षेत्र शामिल थे, से सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव के लिए नामांकन किया. सत्तारूढ़ कांग्रेस के समक्ष दोहरा संकट था.

पहला तो यह कि ऐसा उम्मीदवार कहां से लाये जो आचार्य जी के राजनीतिक कद, काठी और प्रतिष्ठा का हो! दूसरा यह कि कांग्रेस में ही शीर्ष स्तर पर कई नेता नहीं चाहते थे कि आचार्य जी के खिलाफ कोई उम्मीदवार खड़ा किया जाए.

आचार्य नरेंद्र देव अहमदनगर जेल में भी जवाहरलाल जी के साथ बंद थे. इसी जेल में जवाहरलाल जी ने ‘डिस्कवरी ऑफ’ इंडिया’ पुस्तक लिखी थी, जिसमें आचार्य जी का पुस्तक में सहयोग के लिए आभार प्रकट किया था.

तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की राय थी कि आचार्य जी के विरुद्ध कांग्रेस को उम्मीदवार नहीं खड़ा करना चाहिए. उस समय संयुक्त प्रांत आगरा व अवध सरकार के नेता को प्रीमियर कहा जाता था. 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू होने के बाद प्रीमियर का पदनाम मुख्यमंत्री हो गया.

प्रीमियर गोविंद वल्लभ पंत तथा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष विश्वम्भरनाथ त्रिपाठी- जैसे प्रदेश कांग्रेस के नेताओं की राय थी कि आचार्य नरेंद्र देव के खिलाफ प्रत्याशी ज़रूर उतारना चाहिए. उस समय भारतीय संविधान अस्तित्व में नहीं आया था.

गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935 के तहत बालिग मताधिकार के बजाय मतदाता वही हो सकता था, जो पढ़ा-लिखा हो, भू-स्वामी या काश्तकार हो, जो 5 रुपये लगान देता हो या आयकरदाता की श्रेणी में आता हो. इस प्रकार आम जनता नहीं, विशिष्ट वर्ग ही मतदाता की श्रेणी में होते थे.

उपचुनाव में कांग्रेस के पास समस्या थी कि वह सामाजिक, आर्थिक या धार्मिक कौन-सा चुनावी मुद्दा अपनाए, जिससे आचार्य जी से मुकाबला किया जा सके. कांग्रेस के रणनीतिकारों ने चुनाव के दौरान आचार्य नरेंद्र देव को अनास्थावादी, नास्तिक, बौद्ध मत का समर्थक और अयोध्या जैसी धार्मिक नगरी के मनोभावों एवं प्रचलित संस्कृति के अनुकूल न होना बताया.

इस चुनाव क्षेत्र में अयोध्या-फ़ैज़ाबाद नगरों के अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्र भी आता था. अयोध्या में यह मुद्दा प्रमुखता से उठाया गया और उनके विरुद्ध बाबा राघव दास नामक साधु को देवरिया ज़िले के बरहज कस्बे से उम्मीदवार के रूप में लाया गया.

बाबा राघव दास पूना के चितपावन ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे. प्रारंभिक शिक्षा के बाद 1913 में गुरु के रूप में उन्हें परमहंस अनन्त प्रभु मिले, जो देवरिया के बरहज कस्बे में सरयू के किनारे रहते थे. वहीं बाबा राघव दास ने सात वर्षों तक योग और दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया और 1920 के असहयोग आंदोलन, जिसका मुख्य केंद्र गोरखपुर था, में शामिल हुए.

बाद में वे गोरखपुर जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी चुने गए थे. बाबा राघव दास एक धार्मिक व्यक्ति ही नहीं, वरन कई धार्मिक संस्थाओं से जुड़े भी थे. वे संस्कृत पाठशाला, ब्रह्मचर्य-आश्रम और वेद-विद्यालय भी संचालित करते थे.

जिस चुनाव क्षेत्र में अयोध्या जैसा महत्वपूर्ण स्थल हो, जिसे भगवान राम की जन्मस्थली कहा जाता है, उसके लिए कांग्रेस के एक तबके द्वारा बाबा राघव दास को अनायास ही उपयुक्त उम्मीदवार नहीं माना गया.

आचार्य नरेंद्र देव को, जो समाजवादी रुझान के व्यक्ति थे, आसानी से नास्तिक और धर्मविरोधी घोषित किया गया जा सकता था और यही किया भी गया. अयोध्या चुनाव में जो बैनर-पोस्टर लगे उसमें इसे राम-रावण की लड़ाई बताया गया.

गोविंद बल्लभ पंत ने कांग्रेस प्रत्याशी बाबा राघव दास के समर्थन में अयोध्या के संतों-महंतों की सभाएं कीं. सभाओं में उनका कहना था कि राघव दास में तो गांधी जी की आत्मा बसती है. आचार्य नरेंद्र देव जिनकी विद्वत्ता का लोहा तो दुनिया भर में माना जाता है, लेकिन वे नास्तिक हैं. मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की नगरी अयोध्या ऐसे व्यक्ति को कैसे स्वीकार कर पाएगी?

इस चुनाव में पुरुषोत्तमदास टंडन भी प्रचार में शामिल हुए. उन्होंने भी आचार्य जी की नास्तिकता और अयोध्या की मर्यादा का सवाल उठाया था. बाबा अभिरामदास अयोध्या की हनुमानगढ़ी की उज्जैनिया पट्टी के महंत थे. (पूर्व-निवासी, दरभंगा, बिहार) वे उस चुनाव में राघव दास के प्रबल समर्थकों में थे.

आचार्य जी के समर्थकों में हनुमानगढ़ी के संतों जिनकी संख्या 500 से अधिक बतायी जाती है उसमें केवल दो लोग थे: एक महंत बाबा बनवारीदास, जिन्हें स्वतंत्रता-संग्राम-सेनानी बताया जाता है, समाजवादी कहे जाते थे. दूसरे बाबा रामहर्षदास.

विधानसभा चुनाव के बाद भी सांप्रदायिक माहौल बनाया जा रहा था. इसमें स्थानीय अधिकारी भी शामिल थे. बाबरी मस्जिद में मूर्ति तो 22-23 दिसंबर, 1949 की रात्रि में रखने का आरोप है, लेकिन इस क्षेत्र में कब्रें खोदने का काम 13 नवंबर, 1949 से ही हो रहा था.

इसकी सूचना अक्षय ब्रह्मचारी द्वारा सिटी-मजिस्ट्रेट को धारा 145 के तहत कार्रवाई करने के उद्देश्य से दी गई थी. उल्टे परिणाम यह हुआ कि 15 नवंबर, 1950 को ब्रह्मचारी के घर में तीन व्यक्तियों ने प्रवेश कर उन्हें आक्रांत किया और उनका सामान भी लूटा गया .

आचार्य नरेंद्र देव के खिलाफ राम-रावण-संवाद के नाम से ऐसे पर्चे बांटे गए और पोस्टर लगाए गए जिनमें रावणरूपी नरेंद्र देव को हराने तथा रामरूपी बाबा राघव दास को जिताने का आह्वान किया गया था.

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आचार्य नरेंद्र देव के खिलाफ चुनाव का संचालन उत्तर प्रदेश के प्रीमियर पंडित गोविंद बल्लभ पंत कर रहे थे. उनके दूसरे सहयोगी थे लालबहादुर शास्त्री, मोहनलाल गौतम, पुरुषोत्तमदास टंडन, एजी खेर इत्यादि. कांग्रेस में रहते हुए भी चंद्रभानु गुप्त, कमलापति त्रिपाठी, संपूर्णानंद, सुचेता कृपलानी तथा अलगूराय शास्त्री ने आचार्य नरेंद्र देव हराओ अभियान से अपने को अलग रखा.

पंडित गोविंदवल्लभ पंत ने लखनऊ से चुनाव अभियान की  शुरुआत करते हुए कहा था कि कांग्रेस के खिलाफ दिया गया वोट पंडित जवाहरलाल नेहरू तथा सरदार पटेल द्वारा देश को मजबूती देने की दिशा में बाधक होगा. ऐसा प्रयास दुनिया में यह धारणा बनाएगा कि भारतीय जनता को दासता से मुक्त कराने के लिए जिन नेताओं ने आंदोलन चलाया, जनता उनके साथ नहीं है.

यह कश्मीर से संबंधित संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के प्रयत्नों को भी कमज़ोर करेगा. विदेशी मामलों में भारत को कमज़ोर बनाएगा. यदि चुनाव में कांग्रेस हार जाती है तो इससे निजाम के हाथ मजबूत होंगे. वे यह प्रचार करेंगे कि देश पंडित नेहरू की इस मांग के साथ नहीं है कि हैदराबाद का जनतंत्रीकरण करके इसका विलयन भारत में किया जाना चाहिए.

कांग्रेस की हार से कश्मीर के हमलावरों को अपना अभियान लंबे समय तक चलाने में मदद मिलेगी. भारत संयुक्त राष्ट्र संघ में अपने उद्देश्यों की पूर्ति नहीं कर पाएगा. संयुक्त राष्ट्र संघ आयोग जो कश्मीर में शीघ्र ही आ रहा है, कांग्रेस के खिलाफ दिया गया वोट उसे प्रभावित करेगा. यह गांधी की आत्मा को भी ठेस पहुंचाएगा.

यह पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल, जो गांधी जी के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं, को क्षति पहुंचाने वाला होगा. कांग्रेस उम्मीदवार बाबा राघव दास वास्तव में गांधी जी के महान भक्त और अनुयायी हैं.

अयोध्या में महंतों और धार्मिक नेताओं की सभा में पंडित पंत ने यह भी आश्वासन दिया था कि उनके धार्मिक मनोभावों की रक्षा की जाएगी. उनके हिंदी-प्रेम को ध्यान में रखा जाएगा. जमींदारी उन्मूलन से उनका नुकसान नहीं होगा. कांग्रेस हिंदी और उनकी प्राचीन सभ्यता की रक्षा करेगी. समाजवादी तो वास्तव में हिंदुस्तानी-आधारित नागरी और फारसी लिपि के समर्थक हैं. जो कांग्रेस का विरोध कर रहे हैं वे देश के दुश्मन हैं.

पुरुषोत्तमदास टंडन ने एक सभा में एक भाषा और संस्कृति वाला देश बनाने की अपील की थी. (जनता, 27 जून, 1948)

आचार्य नरेंद्र देव अपने विरोधियों द्वारा किये जा रहे इन प्रचारों पर शांत रहे. चुनाव के बाद उन्होंने 20 मार्च, 1955 को लिखे गए लेख में अपनी आंतरिक व्यथा और कांग्रेस द्वारा उठाए गए इन प्रश्नों का जवाब दिया था कि कांग्रेस ने उन्हें हराने के लिए किन-किन हथकंडों और दुष्प्रचारों का उपयोग किया.

उनका यह भी कहना था कि उन्हें हराने के लिए रामचंद्र के नाम का उपयोग करना गांधी जी की आत्मा के अनुकूल नहीं था. उन्होंने यह भी लिखा था कि कांग्रेस के कुछ प्रमुख नेताओं ने भी महिलाओं से कहा कि वे वोट न देने जाएं, उनका वोट मतपेटिका में डाल दिया जाएगा.

नेशनल हेराल्ड के संपादक एम. चलपति राव ने भी आचार्य नरेंद्र देव के खिलाफ कीचड़ उछालने के प्रयत्नों का विरोध किया था. (नेशनल हेराल्ड, 19 जून, 1948) (आचार्य नरेंद्र देव, बीबी केसकर और बीकेएन मेनन, 1971, खंड 4, पृष्ठ-100)

चुनाव अभियान के लिए अयोध्या की अस्मिता बचाओ के नारे लगाने वाली टोलियां भी बनी थीं जो खास तौर पर अयोध्या में सक्रिय थीं. देश विभाजन के दंश से गुजर रहा था और ‘उत्तर प्रदेश’ राज्य का नाम तक नहीं तय हो पाया था.

इसका नाम आर्यावर्त भी प्रस्तावित हुआ था. यह प्रस्ताव खासकर उन लोगों की ओर से था जिन्हें हिंदू परंपरावादी बताया जाता था. प्रगतिशीलता और सर्वधर्म समभाव जिन्हें नापसंद था. अयोध्या में धार्मिक उन्माद बढ़ाने के लिए राम जन्मभूमि का मुद्दा जो शांत था, वह भी उठा.

उस समय फ़ैज़ाबाद में केकेके नायर जिला मजिस्ट्रेट और गुरुदत्त सिंह सिटी मजिस्ट्रेट के पद पर आसीन थे. इस उपचुनाव में आचार्य जी लगभग 1,200 वोटों से हार गए तो बाबा राघव दास की जीत पर ‘नास्तिक हारा व बाबा राघव दास जीते’ के नारे भी लगे.

स्थानीय अभिसूचना इकाई की रिपोर्ट के अनुसार जीत के बाद महाराजा इंटर कालेज में सभा हुई उसमें कहा गया कि तुर्कों ने राम मंदिर गिराकर मस्जिद बना दी है, वह हमें वापस चाहिए. बाबा राघव दास ने भी कहा कि कोई धार्मिक स्थल तोड़ा नहीं जाना चाहिए. यह तो अत्याचार की श्रेणी में आता है.

उनके इस कथन को बाद में मस्जिद परिसर में मूर्ति रखने वालों ने अपने पक्ष में सहमति माना और यह भावना प्रबल हुई कि मस्जिद को ही अंततः कुछ परिवर्तनों के साथ राम जन्मभूमि मंदिर बना दिया जाए.

पंडित गोविंदवल्लभ पंत भी आचार्य जी की हार में अपने बड़े विरोधी का अवसान देख रहे थे. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष विश्वम्भरनाथ त्रिपाठी तो इसे अपनी नीतियों की विजय की संज्ञा दे रहे थे. इस संदर्भ में यह उल्लेख आवश्यक होगा कि 1936 में संयुक्त प्रांत विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिला था.

पंडित नेहरू की यूपी- प्रीमियर पद की पहली पसंद आचार्य नरेंद्र देव ही थे. उन्होंने कांग्रेस हाईकमान से भी यह निर्णय करवा लिया था. यह तथ्य उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा प्रकाशित ‘आचार्य नरेंद्र देव’ ग्रंथ में तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारी के द्वारा लिखी भूमिका में भी उल्लिखित है कि कांग्रेस ने आचार्य जी को प्रीमियर बनाने का प्रस्ताव भी किया था.

लेकिन हाईकमान के प्रस्ताव के बावजूद आचार्य जी नहीं, बल्कि गोविंद बल्लभ पंत ही प्रीमियर बने थे. बताया जाता है कि वे स्वयं इस पद के लिए लालायित थे. हाईकमान की ओर से आचार्य जी से वार्ता करने एवं प्रीमियर-पद के लिए राज़ी करने का दायित्व पंत जी को ही सौंपा गया था.

उन्होंने पंडित जी को बताया था कि आचार्य नरेंद्र देव जी से बात हुई. वे किसी भी कीमत पर प्रीमियर बनने के लिए तैयार नहीं हैं.

फ़ैज़ाबाद के समाजवादी नेता बाबू सर्वजीतलाल वर्मा बताते थे कि पंत जी ने इस संबंध में आचार्य जी से कभी कोई बात ही नहीं की थी. उनकी समझदारी थी कि आचार्य जी जैसे पद के निर्लोभी व्यक्ति इस संबंध में कभी कोई इच्छा नहीं प्रकट करेंगे. जब वैकल्पिक नेतृत्व का सवाल उठेगा तो वे ही सर्वमान्य नाम बनकर उभरेंगे. यही हुआ भी.