नोटबंदी के तीन साल बाद क्या इसके परिणाम की चर्चा कर सकते हैं?

नोटबंदी के समय कहा गया था कि इसके दूरगामी परिणाम होंगे. तीन साल हो गए, आगामी कितने साल में आएगी दूरगामी?

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(फाइल फोटो: रॉयटर्स)

नोटबंदी के समय कहा गया था कि इसके परिणाम दूरगामी होंगे. तीन साल हो गए, आगामी कितने साल में आएगी दूरगामी?

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फोटो: रॉयटर्स

8 नवंबर 2016 को भारत ने आर्थिक रूप से एक मूर्खता भरा ऐतिहासिक कदम उठाया था. जिसे आप नोटबंदी के नाम से जाने जाते हैं. अमेरिका होता तो वहां की संसद में इस फैसले को लेकर महाभियोग चल रहा होता मगर भारत में आर्थिक मूर्खता के इस फ़ैसले ने नरेंद्र मोदी को एक के बाद एक प्रचंड राजनीतिक सफ़लता दी.

नोटबंदी के समय कहा गया था कि इसके दूरगामी परिणाम होंगे. क्या हम नोटबंदी के तीन साल बाद नोटबंदी के दूरगामी परिणामों की चर्चा कर सकते हैं?

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग के आंकड़े लगातार बता रहे हैं कि नोटबंदी के बाद करोड़ों की संख्या में नौकरियां गई हैं.

मैं अपने गांव गया था. वहां मिलने आए कई नौजवानों ने बताया कि नोएडा की आईटी कंपनियों में सैलरी समय से नहीं मिल रहा है. दो-दो महीने की देरी हो रही है. दो साल से सैलरी नहीं बढ़ी है.

वह नौजवान गांव इसलिए आ गया क्योंकि कोई और जगह है नहीं. कम से कम सस्ते में रह तो सकता है. 7 नवंबर को एक सज्जन का मैसेज आया कि मोबाइल फोन बनाने वाली कंपनियों से भी लोगों को धड़ाधड़ निकाला जा रहा है. एक आंकड़ा यह भी कहता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में काम मिला है लेकिन वहां मज़दूरी घट गई है. कम पैसे पर ज़्यादा काम करने वाले हैं.

बाकी नक्सल और आतंक समाप्त करने की बात फ्रॉड थी और कैश खत्म करने की भी. नक्सल समस्या ख़त्म हो गई होती तो चुनाव आयोग को झारखंड जैसे छोटे राज्य में पांच चरणों में चुनाव कराने की दलील नहीं देनी पड़ती. वो भी तब जब मुख्यमंत्री कह रहे हों कि झारखंड में नक्सल समस्या ख़त्म हो गई है.

आतंकवाद का यह हाल है कि सरकार को नोटबंदी के तीन साल बाद कश्मीर में 90 से अधिक दिनों के लिए इंटरनेट बंद करना पड़ा है.

नोटबंदी ने एक बात साबित की है. भारत की जनता को बेवकूफ बनाया जा सकता है. अपना सब कुछ गंवाकर लाइन में लगी जनता प्रधानमंत्री मोदी के इस फैसले की वाहवाही कर रही थी.

बैंकरों की आंखों पर भी चश्मा लगा था. वे अपनी जेब से नोटों की गिनती में हुई चूक की भरपाई कर रहे थे. उन्हें लग रहा था कि किसी क्रांतिकारी कार्य में हिस्सा ले रहे हैं. नोटबंदी के बाद सबसे पहले बैंक ही बर्बाद हुए. बैंकरों की सैलरी तक नहीं बढ़ी.

8 नवंबर को एक और ख़बर आई है. रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भारत के कर्ज़ चुकाने की क्षमता को नेगेटिव कर दिया है. इसका कहना है कि पांच तिमाही से आ रहे अर्थव्यवस्था में ढलान से कर्ज़ बढ़ता ही जाएगा. 2020 में बजट घाटा जीडीपी का 3.7 प्रतिशत हो जाएगा जो 3.3 प्रतिशत रखने के सरकार के लक्ष्य से बहुत ज़्यादा है.

भारत की जीडीपी 6 साल में सबसे कम 5 प्रतिशत हो गई है. इसके 8 प्रतिशत तक पहुंचने के चांस बहुत कम हैं. फित्च और एस एंड पी दो अलग रेटिंग एजेंसियां हैं. इनके अनुसार भारत की अर्थव्यवस्था में स्थिरता है.

ज़ाहिर है अगर विदेशी निवेशकों को यह बताया जाए कि आप भारत में पैसे लगाएंगे तो रिटर्न का भरोसा नहीं तो इस रेटिंग से सरकार भी चिंतित होगी. इसलिए सुबह ही वित्त मंत्रालय का बयान आ गया, जिसमें कहा गया कि मूडी ने ज़रूर नेगेटिव किया है लेकिन विदेशी मुद्रा भंडार और स्थानीय मुद्रा की श्रेणी की रेटिंग में बदलाव नहीं किया है. उसकी रेटिंग स्थिरता बता रही है.

इसके बाद वित्त मंत्रालय से जारी बयान में कहा गया है कि भारत अभी भी दुनिया की सबसे तेज़ गति से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है. हमारी जीडीपी 5 प्रतिशत पर आ गई है और सरकार दुनिया की तेज़ गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था बता रही है.

वित्त मंत्रालय यह भी बता देता कि वह सेक्टर-सेक्टर पैकेज पैकेज क्यों बांट रहा है. क्या यही तेज़ गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था की निशानी है कि सरकार रियालिटी से लेकर बैंक सेक्टर को पैकेज देती रहे?

दुनिया के सौ अमीर लोगों में से एक और ग्लोबल निवेशक रे डालियो (Ray Daloi) ने प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ में ट्वीट किया है. मगर आप इस आदमी का डिटेल देखिए. ट्वीट भारत को लेकर करता है और अपना अधिकांश निवेश चीन में करता है. इसी साल अगस्त में इसका बयान है कि निवेशकों को चीन की तरफ जाना चाहिए वरना वे साम्राज्य गंवा देंगे.

ऐसे लोगों के खेल को समझना चाहिए. रेटिंग एजेंसियां भी भगवान नहीं हैं. 2008 की मंदी की भनक तक नहीं थी इन्हें, लेकिन भारत के ज़मीनी हालात बता रहे हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था प्रधानमंत्री मोदी के फैसलों के कारण पस्त हुई है. नोटबंदी उनमें से एक है.

वैसे कहा तो उन्होंने यही था कि पाई-पाई का हिसाब देंगे लेकिन एक पाई का हिसाब नहीं दिया. पाठक ही बता सकते हैं कि जिन सेक्टरों में आप काम कर रहे हैं, वहां कैसी ख़बरें हैं, सैलरी समय से मिल रही है या नहीं, सैलरी बढ़नी बंद हो गई और काम के घंटे बढ़ गए हैं, काम करने के हालात में तनाव का तत्व ज़्यादा हो गया है.

जिसकी नौकरी चली गई तो वह अपना समय कैसे बिता रहा है. साढ़े पांच साल बीत गए हैं. कब तक झूठ को गोदी मीडिया के सहारे छिपाया जाएगा.

(यह लेख मूल रूप से रवीश कुमार के फेसबुक पेज पर प्रकाशित हुआ है.)

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