उनकी आंखों में जेएनयू क्यों खटकता है?

जेएनयू शिक्षा और संघर्ष का अनूठा उदाहरण है. जेएनयू का यही अनूठापन वर्चस्वशाली ताकतों और कट्टरपंथियों की आंखों में खटकता है.

/
(फोटो: पीटीआई)

जेएनयू शिक्षा और संघर्ष का अनूठा उदाहरण है. जेएनयू का यही अनूठापन वर्चस्वशाली ताकतों और कट्टरपंथियों की आंखों में खटकता है.

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय. (फोटो: पीटीआई)
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय. (फोटो: पीटीआई)

जेएनयू एक बार फिर से सुर्खियों में है. जेएनयू में न सिर्फ तीन सौ प्रतिशत फीस वृद्धि की गई है बल्कि मेस मैनुअल्स को लेकर भी जेएनयू छात्रसंघ और विद्यार्थियों का गुस्सा और प्रतिरोध सड़कों पर दिख रहा है.

कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री मोदी तक ने देर से ही सही अर्थशास्त्र में नोबल पुरस्कार जीतने वाले जेएनयू के पूर्व छात्र अभिजीत बनर्जी को बधाई दी थी. उसी जेएनयू को सत्तातंत्र द्वारा बहुत सुनियोजित तरीके से बर्बाद करने की कोशिश की जा रही है. जेएनयू के उप कुलपति प्रो. जगदीश कुमार अपने नियोक्ताओं की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं.

दरअसल संघ भाजपाई दक्षिणपंथी टोली हमेशा से जेएनयू से खौफजदा रही है. इसलिए जेएनयू की लोकतांत्रिक संवाद की संस्कृति, उसके प्रतिरोध की शक्ति और बौद्धिकता पर ताले लगाने की साजिश की जा रही है.

सत्ता में आने के दिन से ही जेएनयू को लेकर संघी भाजपाई नेताओं और मंत्रियों द्वारा ऊलजलूल बयानबाजी होती रही है. जेएनयू को कभी नक्सलवाद का अड्डा कहा गया तो कभी आतंकवाद की सराय. कभी जेएनयू के विद्यार्थियों को राष्ट्रद्रोही कहा गया कभी, मध्यवर्ग के इनकम टैक्स पर पलने वाला परजीवी समूह बताया गया.

जेएनयू के अध्यापकों-विद्यार्थियों ने इस तरह के बयानों की साजिश का पर्दाफाश ही नहीं किया बल्कि बौद्धिकता और संघर्ष की अपनी परंपरा के अनुसार कड़ा प्रतिवाद भी किया.

छात्रसंघ के इस साल के चुनाव में चारों पदों पर संयुक्त वामपंथी दलों की जीत से बौखलाए वीसी ने इसे व्यक्तिगत लिया था. इसीलिए उन्होंने पहले इस चुनाव को अवैध ठहराने की कोशिश की. इसमें भी जब कामयाबी नहीं मिली तो अब ऐसा लगता है कि फीस वृद्धि और नए मेस मैनुअल्स के मार्फत छात्र -छात्राओं को प्रताड़ित करने की नयी चाल चली गई है.

जेएनयू में पहली बार किसी वीसी द्वारा कैंपस में सीआरपीएफ जवानों को तैनात किया गया है. वीसी का कहना है कि यहां दंगा फसाद हो सकता है. जबकि जेएनयू का इतिहास गवाह है कि छात्रसंघ के चुनाव बिना बाहरी सुरक्षा और पुलिस फोर्स के संपन्न होते रहे हैं.

कैंपस में आरएसएस के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) की भी अच्छी उपस्थिति है. एबीवीपी से जुड़े छात्र भी जेएनयू की रवायत और न्यूनतम फीस में बेहतर पढ़ाई, गुणवत्तापूर्ण शोध और विमर्शमूलक माहौल को बनाए रखने के पक्षधर हैं.

जेएनयू ऐसा संस्थान है जहां उच्च वर्ग और कथित उच्च वर्ण से आने वाले छात्र भी जातिगत या समुदायगत भेदभाव पर करारा प्रहार करते हैं. सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को समझते-बूझते ये छात्र दलित, आदिवासी, स्त्री और पिछड़ों के आरक्षण की वकालत करते हैं.

जेएनयू भारत में मानविकी और समाजविज्ञान का सबसे प्रतिष्ठित संस्थान है. मौलिक चिंतन और बौद्धिकता के लिए जेएनयू पूरी दुनिया में जाना जाता है. जेएनयू केवल एक संस्था नहीं है बल्कि एक संस्कृति का नाम है. एक ऐसी संस्कृति जिसमें बौद्धिक खुलेपन, विवाद-संवाद, सहमति-असहमति और स्वतंत्र जीवन शैली की पूरी गुंजाइश है.

वस्तुतः यह हमला बदलते परिवेश में शिक्षण संस्कृति, बौद्धिकता, जन-पक्षधरता और लोकतांत्रिक मूल्यों पर आघात है. जेएनयू शिक्षा और संघर्ष का अनूठा उदाहरण है. जेएनयू का यही अनूठापन वर्चस्वशाली ताकतों और कट्टरपंथियों की आंखों में खटकता है.

जेएनयू पर पहला बड़ा हमला 9 फरवरी 2016 को बहुत सुनियोजित तरीके से सूचना प्रचार तंत्र और राजसत्ता की मिलीभगत से किया गया था. दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादी सत्ता स्थापित होते ही जेएनयू को बदनाम करके खत्म करने की साजिश रची जाने लगी थी. यह हमला उसी साजिश का नतीजा था. जेएनयू के विद्यार्थियों और प्राध्यापकों ने अपने अंदाज में इसका जवाब दिया.

जेएनयू की एक पूरी सांस्कृतिक विरासत है. इसके निर्माण के पीछे एक विचार था. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार और उनके शिक्षा मंत्री एनसी छागला जेएनयू को एक ऐसे संस्थान के रूप में देखना चाहते थे, जिसमें वैज्ञानिक सोच और प्रगतिशील माहौल हो.

जवाहरलाल नेहरू के नाम पर जून 1969 में स्थापित इस विश्वविद्यालय के पीछे कहीं न कहीं नेहरू का ही विजन था. नेहरू के सपनों का विश्वविद्यालय इंदिरा गांधी सरकार बनाना चाहती थी. इसके लिए देश भर से विभिन्न विचारधाराओं के बुद्धिजीवियों को बुलाया गया.

विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन-अध्यापन करने वाले बुद्धिजीवियों को भी यहां बुलाकर अवसर उपलब्ध कराया गया.  इन बु़द्धजीवियों में ज्यादातर वामपंथी विचारधारा से जुड़े हुए लोग थे. इसलिए जेएनयू शुरूआती दौर से ही वामपंथी विचारधारा का गढ़ बन गया.

(फोटो: पीटीआई)
(फोटो: पीटीआई)

जेएनयू को जनतांत्रिक शिक्षण संस्कृति के लिए जाना जाता है. यह माहौल वहां के प्रशासन, अध्यापक, कर्मचारी और विद्यार्थियों की आम सहमति से बना है. विश्वविद्यालय की निर्माण प्रक्रिया में विद्यार्थियों की सहभागिता के लिए छात्रसंघ स्थापित हुआ. जेएनयू भारत का पहला संस्थान है, जहां बाकायदा छात्रसंघ का संविधान है.

मजे की बात यह है कि छात्रसंघ और इसका संविधान भी विद्यार्थियों द्वारा ही बनाए गए. प्रकाश करात और रमेश दीक्षित ने छात्रसंघ बनाया. रमेश दीक्षित, सुनीत चोपड़ा और एसपी तिवारी ने मिलकर छात्रसंघ का संविधान लिखा. रमेश दीक्षित एक साक्षात्कार में कहते हैं कि किसी भी छात्रसंघ का चुनाव छात्रों द्वारा निर्वाचित निर्वाचक मंडल द्वारा ही कराया जाना, 1970 में निश्चित ही एक मौलिक परिकल्पना थी.

जेएनयू के पहले कुलपति जी. पार्थसारथी , पहले रेक्टर मूनिस रजा और पहले रजिस्ट्रार एनवीके मूर्ति की प्रेरणा से अकादमिक काउंसिल जैसी नीति निर्धारक समितियों में छात्रों की भागीदारी सुनिश्चित की गई. साथ ही विभिन्न किस्म की असमानताओं को दूर करने के लिए प्रवेश नीति में अनूठी आरक्षण की व्यवस्था बनी.

1972 में दूसरे छात्रसंघ का चुनाव हुआ. इसके बाद वीसी कोसी, रमेश दीक्षित, मधु प्रसाद, सुनीत चोपड़ा आदि छात्रों के सुझाव पर नए आरक्षण की व्यवस्था की गई. इस समिति द्वारा जाति, लिंग, क्षेत्र और आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गई. 1973 में इस आधार पर पहली बार दाखिले हुए.

आरक्षण के इस अनूठे और जनतांत्रिक प्रावधान के कारण दूरदराज के इलाकों के दलित, आदिवासी, गरीब और पिछड़े समुदाय के तमाम विद्यार्थी जेएनयू में दाखिल हुए. वस्तुतः जेएनयू भारत के सर्वाधिक दलित, वंचित, पिछड़े, स्त्री वर्गों के प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के सपनों को साकार करने का संस्थान बन गया.

जेएनयू पर इसीलिए हमला हुआ क्योंकि यथास्थितिवादियों को वंचित और पिछड़े समुदाय के बराबरी पर आने से परेशानी होती है. उनके विशेषाधिकार और वर्चस्व को जेएनयू से चुनौती मिलती है. ये हमला जेएनयू की जनतांत्रिक संस्कृति और गैर-बराबरियों को समाप्त करने के प्रयास पर हमला है.

जेएनयू की छात्र राजनीति का फलक बहुत व्यापक है. जेएनयू के विद्यार्थी देश और दुनिया की समस्याओं पर बहस करते हैं. यहां का हर विद्यार्थी राजनीतिक चेतना से संपन्न है. दलित, वंचित, पिछड़े समुदाय और दुर्गम क्षेत्रों से आने वाले प्रतिभावान छात्र-छात्राओं को यहां के माहौल में अपनी योग्यता को सृजित करने, खुद को साबित करने और राष्ट्र निर्माण में अपनी सहभागिता करने का अवसर मिलता है.

राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रभक्ति का मतलब बड़ा तिरंगा फहराना और टैंक रख देना नहीं है.जेएनयू के छात्र-छात्राएं पिछले सालों में निर्भया कांड जैसे सामाजिक मुद्दों से लेकर गरीबी-बेरोजगारी के प्रश्नों पर सड़कों पर जूझते रहे हैं.

जेएनयू लोकतांत्रिक मूल्यों और सामाजिक-आर्थिक आजादी के प्रश्नों को हमेशा बुलंद करता रहा है. सांप्रदायिकता और फासीवाद का पुरजोर विरोध कैंपस में होता रहा है. पूरी दुनिया में अमेरिका के बढ़ते साम्राज्यवाद और पूंजीवाद की तार्किक और तीखी आलोचना जेएनयू में लगातार बहुत सृजनात्मक ढंग से होती रही है.

जेएनयू में संघर्ष का लंबा इतिहास है. आपातकाल लगाने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को यहां के विद्यार्थियों ने जेएनयू में दाखिल नहीं होने दिया था. इसी दौरान जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष डीपी त्रिपाठी को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया था. साथ ही तमाम दूसरे छात्र भी जेल गए थे.

डेविड सेलबोर्न ने आपातकाल पर आधारित अपनी किताब ‘एन आई टू इंडिया’ में जेएनयू में छात्रों के आंदोलन पर करीब पचास पन्ने लिखे हैं. लोकतांत्रिक मूल्यों की इस लड़ाई में पढ़ाई के साथ-साथ रचनात्मक संघर्ष जारी था.

पोस्टर लिखना और छोटी-छोटी सभाएं करना इस संघर्ष के हिस्सा थे. जेएनयू में कक्षाएं कभी बंद नहीं हुईं. अध्यापकों के न रहने पर वरिष्ठ छात्र जूनियर कक्षाएं पढ़ाते थे. जनता पार्टी की सरकार द्वारा आपातकाल की जांच के लिए बने शाह कमीशन की रिपोर्ट में भी जेएनयू के संघर्ष की दास्तान दर्ज है.

जेएनयू की शिक्षा-संस्कृति और आंदोलनधर्मिता से वर्तमान दक्षिणपंथी सत्ता खौफ खाती है. आखों में आखें डालकर जेएनयू के छात्र लुटियंस दिल्ली की राजसत्ता से सवाल पूछते हैं. ये नकारा सत्ता जवाब देने से घबराती है. इसलिए जेएनयू की आवाज को दबाने के लिए 9 फरवरी 2016 को बहुत सुनियोजित तरीके से उस पर जोरदार हमला किया गया.

इस घटनाक्रम के बाद गिरफ्तार किए गए छात्रसंघ पदाधिकारियों पर अदालत में शारीरिक हमला किया गया. इसके साथ जेएनयू की संस्कृति को विकृत करके विद्यार्थियों को देशद्रोही के रूप में इतना दुष्प्रचारित किया गया कि जेएनयू और मुनिरका के बीच संकरी सड़क चौड़ी खाई में तब्दील हो गई.

ऐसे माहौल में जेएनयू के छात्रों-अध्यापकों और पूरी बौद्धिक परंपरा के प्रति नफरत और हिंसा का व्यवहार किया जा रहा था. देश के तत्कालीन गृहमंत्री से लेकर मानव संसाधन विकास मंत्री तथा अन्य भाजपाई मंत्री-सांसद और अन्य नेता जेएनयू के खिलाफ लगातार जबानी हमले कर रहे थे.

गोलवलकर की विचारधारा के वारिस, जेएनयू और वामपंथी धारा को देशद्रोही घोषित करने के लिए बड़ी चालाकी से देश और हिंदुत्व को गड्डमड्ड करके पेश कर रहे थे. इस माहौल में, एक बार फिर जेएनयू ने रचनात्मक तरीके से दक्षिणपंथी हिंदूवादी सत्ता और राजनीति को जवाब देने का निर्णय किया.

चूंकि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और थोथी देशभक्ति के जुमले उछालकर जेएनयू को बदनाम किया जा रहा था, इसलिए जेएनयू में राष्ट्रवाद की अवधारणा पर बहस शुरू हुई.

(फोटो: ट्विटर/@UmarKhalidJNU)
(फोटो: ट्विटर/@UmarKhalidJNU)

खुले में होने वाली यह बहस राष्ट्रवाद पर कक्षाओं में तब्दील होती गई. इन कक्षाओं में जेएनयू के प्राध्यापकों के आलावा अनेक रचनाकारों और जन आंदोलनकारियों ने राष्ट्रवाद पर व्याख्यान दिए. इन व्याख्यानों में राष्ट्रवाद के स्वरूप, इतिहास और समकालीन संदर्भों के साथ उसके खतरे भी बताए-समझाए गए.

सत्ता में दोबारा आने के बाद ये ताकतें ज्यादा उग्र और हमलावर हुई हैं. हाल ही में जेएनयू छात्रसंघ के चुनाव में वामपंथी दलों की जीत से सरकारी पिट्ठू बना प्रशासन अधिक कुंठित हो गया है.

इस चुनाव में दलित पिछड़े आदिवासी आधार वाले छात्र संगठन बाप्सा का प्रदर्शन दक्षिणपंथी छात्र संगठन एबीवीपी के नजदीक रहा. संभव है इस कारण भी प्रशासन को जेएनयू ज्यादा खटकने लगा हो. इसलिए सत्ता के इशारे और एजेंडे पर शिक्षा के निजीकरण की प्रक्रिया के तहत जेएनयू के समूचे माहौल को बदलने की साजिश की जा रही है.

सत्ता में बैठी सवर्ण सामंती शक्तियां दलित, वंचित, पिछड़े और स्त्री समुदाय को सस्ती और स्तरीय शिक्षा से महरूम करने का सुनियोजित षड्यंत्र कर रही हैं. इसीलिए लगातार जेएनयू छात्र समुदाय को बदनाम करने और उनके लोकतांत्रिक अधिकारों को खत्म करने की कोशिश की जा रही है.

कथित गोदी मीडिया के मार्फत जेएनयू में फीस वृद्धि को समय के साथ बदलाव के रूप में दिखाया जा रहा है. यह कहा जा रहा है कि जेएनयू के छात्र दस रुपये महीने की हॉस्टल फीस में रहना चाहते हैं. जबकि अन्य संस्थानों की फीस कई गुना ज्यादा है.

यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि जेएनयू के विद्यार्थी रात भर आजादी से घूमने और भोगविलास में लिप्त रहते हैं. ग्यारह बजे रात को लाइब्रेरी बंद होने और हॉस्टल लौटने में इन छात्रों को क्यों परेशानी हो रही है?

मीडिया तंत्र द्वारा फैलाए गये इस प्रकार के झूठ से जेएनयू की छवि खराब हो रही है. सच्चाई यह है कि जेएनयू की ढाबा संस्कृति हो या लाइब्रेरी की पढ़ाई वहां के शिक्षण माहौल को उन्नत बनाए रखने में बहुत कारगर है.

जेएनयू की दीवारों पर उकेरे गये नारे, विचार और चित्र अपने आप में इसकी कहानी बयां करते हैं. जेएनयू के छात्र आज उस माहौल को बनाए रखने और शिक्षा के मौलिक अधिकार की लड़ाई सड़क पर लड़ रहे हैं.

छात्रों का कहना है कि हमारी लड़ाई हॉस्टल की फीस वृद्धि को लेकर नहीं है बल्कि मेस के सर्विस चार्ज और इक्विटी चार्ज को लेकर है. साथ ही लाइब्रेरी को ग्यारह बजे बंद करने और वापस हॉस्टल पहुंचने के समय को लेकर है. ये एक किस्म की तानाशाही और संवेदनहीनता है.

जेएनयू में चालीस प्रतिशत छात्र ग्रामीण परिवेश से आए हुए हैं जबकि करीब पचीस फीसदी छात्र ऐसे हैं जिनके अभिभावक की आमदनी प्रति माह बारह हजार रुपये से कम है. ऐसे में ये छात्र लागू किए गये सर्विस चार्ज और इक्विटी चार्ज दे सकते हैं?

जेएनयू प्रशासन के अनुसार हॉस्टल फीस में आंशिक कटौती की गई है. एक नया घटनाक्रम और सामने आया है. प्रशासनिक भवन के समीप स्थापित विवेकानंद की प्रतिमा के पास अभद्र शब्दों में लिखावट की गई है.

प्रशासन का आरोप है कि यह हरकत आंदोलन करने वाले छात्रों द्वारा की गई है. जबकि छात्रों का कहना है कि यह जेएनयू को बदनाम करने की साजिश है.

याद करिए फरवरी 2016 को अंधेरे में जिन नकाबपोशों ने ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ जैसे नारे लगाए थे, वे आज तक नहीं पकड़े गये हैं. उनका न पकड़ा जाना साजिश की तरफ इशारा करता है.

इस बिना पर जेएनयू को ‘टुकड़े- टुकड़े गैंग’ कहकर दुष्प्रचारित किया गया और छात्रों को राष्ट्रद्रोही बताया गया. वह दरअसल एक साजिश का हिस्सा था. इसी तरह आज विवेकानंद की प्रतिमा पर अपशब्द लिखवाए गये हैं, ताकि आंदोलन और जेएनयू को बदनाम किया जाए.

इसलिए शिक्षा के निजीकरण और सत्तातंत्र द्वारा जेएनयू को बदनाम और बर्बाद करने की नीयत के खिलाफ प्रतिरोध करने की जिम्मेदारी सिर्फ जेएनयू के छात्र समुदाय की ही नहीं है बल्कि पूरे नागरिक समाज की जिम्मेदारी है.

(लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं.)