ब्लाइंड क्रिकेट: विश्व कप फाइनल में पहुंची टीम इंडिया की कड़वी ​हकीकत

पैसे और संसाधनों के अभाव और व्यवस्था की घोर असंवेदनशीलता के बावजूद भारत की ब्लाइंड क्रिकेट टीम विश्वकप के फाइनल में पहुंच गई है.

ब्लाइंड क्रिकेट टीम. फोटो: पीटीआई

पैसे और संसाधनों के अभाव और व्यवस्था की घोर असंवेदनशीलता के बावजूद  भारत की ब्लाइंड क्रिकेट टीम विश्वकप के फाइनल में पहुंच गई है.

ब्लाइंड क्रिकेट टीम. फोटो: पीटीआई
ब्लाइंड क्रिकेट टीम. फोटो: पीटीआई

‘हम पेशेवर नहीं हैं. खेल से कोई आय नहीं होती. उल्टा जेब से लगाना पड़ता है. मेरे एक बैट का खर्च 15 हजार और जूतों का 8 से 10 हजार रुपये है. इतना मेरा वेतन भी नहीं है. छह महीने तक घर खर्च में कटौती करने पर इतने पैसों का इंतज़ाम हो पाता है.’

अगर कहा जाए कि यह बयान एक क्रिकेट खिलाड़ी का है जो एक वर्तमान भारतीय टीम का कप्तान भी है तो शायद ही कोई इस बात पर यकीन करे. लेकिन यह सच है. यह बयान भारतीय ब्लाइंड क्रिकेट टीम के मौजूदा कप्तान अजय कुमार रेड्डी का है जिनकी अगुवाई में भारतीय टीम रविवार को दूसरे ब्लाइंड ट्वेंटी-20 विश्वकप के फाइनल में बंगलुरु के एम. चिन्नास्वामी स्टेडियम में उतरेगी.

भारतीय ब्लाइंड क्रिकेट टीम बानगी है इस बात की कि क्रिकेट को धर्म मानने वाले देश में क्रिकेट के साथ ही सौतेला व्यवहार हो रहा है. जो ब्लाइंड क्रिकेटर देश को सम्मान दिलाने से बस एक कदम दूर है. वे पैसे और संसाधनों के अभाव में ढंग से प्रैक्टिस तक नहीं कर पाते हैं. उनके पास ढंग का रोजगार नहीं है. मेहनत-मजदूरी करके मुश्किल से अपना पेट भरते हैं. कर्ज पर पैसा लेकर क्रिकेट खेलने जाते हैं.

केतनभाई पटेल ने इस विश्वकप में अपनी बल्लेबाजी से भारत को कई मैच जिताए हैं. इससे पहले वे दो एकदिवसीय और एक टी-20 विश्वकप खेल चुके हैं. यह उनका चौथा विश्वकप है. केतन पटेल 2014 के एकदिवसीय विश्वकप में मैन ऑफ द टूर्नामेंट भी रहे हैं. 2006 से वे टीम का हिस्सा हैं. पिछले टी-20 विश्वकप के फाइनल में वे मैन ऑफ द मैच भी रहे थे.

गुजरात के वलसाड जिले के रहने वाले केतन कुछ समय पहले तक एक स्थानीय कंपनी में प्रोडक्ट पैकिंग का काम किया करते थे. उन्हें महज़ 50 रुपये प्रतिदिन का मेहनताना मिलता था. दिसंबर 2014 में भारतीय टीम एकदिवसीय विश्वकप खेलने दक्षिण अफ्रीका गई, तब उन्होंने नौकरी छोड़ दी.

केतन बताते हैं, ‘विश्वकप जीतकर वापस लौटने पर हमें देशभर में सराहना मिली. केंद्रीय खेल मंत्रालय ने 5 लाख और केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्रालय ने दो लाख रुपये का इनाम दिया. गुजरात सरकार ने भी अपने राज्य के खिलाड़ियों को 10 लाख रुपये नकद और सरकारी नौकरी देने की घोषणा की. लेकिन वह वादा अब तक पूरा नहीं हुआ. हम अब भी उम्मीद लगाए बैठे हैं, कम से कम नौकरी तो मिल जाए. अगर नौकरी न मिली तो फिर से वही पैकिंग वाला काम करना पड़ेगा.’

यही हाल टीम के एक अन्य सदस्य गणेश बाबूभाई मुहुंदकर के हैं. वे भी दिहाड़ी मजदूर हैं. इंडियन ओवरसीज बैंक में काम करने वाले मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के सोनू गोलकर डेढ़ दशक तक ज़ोनल क्रिकेट खेलने के बाद 2015 में इंग्लैंड दौरे के लिए पहली बार भारतीय टीम में चुने गए.

वे बताते हैं, ‘हमारे क्रिकेट के लिए न बुनियादी सुविधाएं हैं, न संसाधन और न हमें कोई आर्थिक सहयोग मिलता है. हमें अपनी किट समेत सभी जरूरी संसाधन ख़ुद ही जुटाने होते हैं. बोर्ड बस बड़े टूर्नामेंट में ही अफोर्ड कर पाता है. ज़ोनल स्तर पर तो आने-जाने तक सभी इंतजाम हमें ही करने होते हैं. रोजमर्रा के खर्चों में कटौती कर पैसा बचाते हैं, ताकि क्रिकेट के लिए जरूरत पड़ने पर किसी के आगे हाथ न फैलाना पड़े.’

गौरतलब है कि भारत की ब्लाइंड क्रिकेट टीम विश्व की एकमात्र टीम है जिसने ब्लाइंड क्रिकेट के तीनों बड़े खिताब जीते हैं, लेकिन टीम के कप्तान आंध्र प्रदेश के अजय कुमार रेड्डी, जो स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद में काम करते हैं और बमुश्किल इतना वेतन पाते हैं कि अपनी बीवी-बच्चों का पेट भर सकें.

अपना दर्द बयां करते हुए वे कहते हैं, ‘हमें कभी वो सम्मान नहीं मिला जिसके हम हकदार रहे. एक ओर सामान्य क्रिकेटरों को खेलने के एवज में करोड़ों रुपये मिलता है तो वहीं हम खुद से पैसा लगाकर खेलते हैं. हमारे क्रिकेट में सामान्य क्रिकेट से अधिक एकाग्रता चाहिए. बावजूद इसके संसाधनों का इतना अभाव है कि किसी भी बड़े टूर्नामेंट से पहले 15-20 दिन ही हम अभ्यास कर पाते हैं. वहीं पाकिस्तान तीन महीने तक अभ्यास कर मैदान में उतरता है. वहां ब्लाइंड क्रिकेटरों को बहुत समर्थन है. उनके लिए क्रिकेट अकादमी हैं. खिलाड़ियों को वेतन मिलता है. सरकार और पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड का उन्हें पूरा समर्थन है. पर हमारी न तो सरकार मदद करती और न भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) ने हमें मान्यता दी है.’

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ ब्लाइंड क्रिकेट टीम. फाइल फोटो

2006 से टीम में शामिल ओडिशा के मोहम्मद ज़फ़र इकबाल की शिकायत है कि उन्हें रोज अभ्यास का मौका नहीं मिलता.

वे कहते हैं, ‘हमारे लिए कोई क्रिकेट अकादमी नहीं है. एक अकादमी अभी केरल में खुला है. केरल जाना तो संभव नहीं. जब अभ्यास करना हो तो एक दिन के 500 रुपये खर्च करने पड़ते हैं. पहले ग्राउंड के लिए आग्रह करो, जो कि खाली होने पर ही मिलता है. फिर अकेला अभ्यास कर नहीं सकते. इसलिए लड़के जुटाने पड़ते हैं. उन्हें कॉलेज से लाओ और वापस पहुंचाओ. इसलिए जब कोई जरूरी टूर्नामेंट होता है तभी अभ्यास करता हूं.’

वे आगे कहते हैं, ‘हमारे क्रिकेट को इतना बढ़ावा नहीं है कि हम इसे अपना पेशा बना सकें. जब पेशा समझूंगा तभी रोज अभ्यास कर सकूंगा. फिलहाल स्थिति यह है कि क्रिकेट टूर पर जाने के लिए नौकरी से छुट्टी का पैसा कटवाना पड़ता है.’

एक कहानी वेंकटेश्वर राव की भी है जिन्होंने क्रिकेट के जुनून के चलते पढ़ाई कुर्बान कर दी. और आज पांच हज़ार मासिक वेतन पाने वाले एक ठेका कर्मचारी हैं. इंटर के बाद उनकी प्रवेश परीक्षा थी. परीक्षा और राष्ट्रीय टीम में चयन की तारीख एक ही दिन पड़ गई. तब उन्होंने क्रिकेट चुना. बाद में उनके पिता की बीमारी के चलते परिवार बिखर गया. वे आगे नहीं पढ़ सके. इसी मामूली वेतन से घर चलाते हैं. क्रिकेट खेलने जाने पर इससे भी हाथ धोना पड़ता है.

भारतीय ब्लाइंड क्रिकेट के संघर्ष की दास्तान बहुत पुरानी है. इसके ढाई दशक पुराने इतिहास पर प्रकाश डालें तो यह शुरू से ही उपेक्षा का शिकार रहा है. वर्तमान में देश में ब्लाइंड क्रिकेट का संचालन बंगलुरु स्थित क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ ब्लाइंड इन इंडिया (कैबी) करता है. जो आर्थिक जरूरतों के लिए ‘समर्थनम ट्रस्ट’ पर आश्रित है. समर्थनम ट्रस्ट दान से चलता है. लेकिन 2008 तक दिल्ली स्थित एसोसिएशन फॉर क्रिकेट फॉर द ब्लाइंड इन इंडिया (एसीबीआई) देश में ब्लाइंड क्रिकेट संभालती थी.

90 के दशक के शुरुआती सालों में देश में यह खेल चलन में आया. 1990 में पहला नेशनल ब्लाइंड टूर्नामेंट खेला गया. 1998 में भारतीय टीम ने पहला अंतर्राष्ट्रीय मैच खेला. कहीं से कोई आर्थिक मदद न मिलने के चलते 2008 आते-आते ब्लाइंड किक्रेट अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ने लगा.

समर्थनम ट्रस्ट के फाउंडर मैनेजिंग ट्रस्टी और कैबी अध्यक्ष महांतेश जीके के अनुसार, ‘उस समय समर्थनम दक्षिणी राज्यों में ब्लाइंड क्रिकेट संभाल रहा था. एसीबीआई ने उन्हें देशभर के ब्लाइंड क्रिकेट की बागडौर सौंप दी और 2010 में कैबी का गठन किया गया.’

महांतेश कहते हैं, ‘मैं तभी से ब्लाइंड क्रिकेट को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने के लिए प्रयासरत हैं. फंड की समस्या अभी भी है. समर्थनम पैरेंट बॉडी है, कैबी के आत्मनिर्भर न होने तक समर्थनम सहयोग कर रहा है.’

कैबी के सचिव ई. जॉन डेविड के अनुसार, ‘सभी खिलाड़ी सामान्य पृष्ठभूमि के हैं. कोई छात्र है, कोई बैंककर्मी, तो कोई मजदूर. क्रिकेट से वे एक रुपया भी नहीं कमाते. हम उन्हें पैसा देने में सक्षम नहीं हैं. वे बस खेल के प्रति अपने जुनून और देशप्रेम की खातिर खेलते हैं. उन्हें कुछ पैसा अगर मिलता भी है तो वो बोनस ही मानिए. वहीं इन लोगों को अपने काम से छुट्टी मिलनी भी मुश्किल होती है इसलिए चयन का ट्रायल भी उस हिसाब से रखना पड़ता है कि वे आ सकें.’

ब्लाइंड क्रिकेटरों को मिलने वाले मेहनताने की बात करें तो जब टीम कोई प्रतिस्पर्धा जीतती है तो मिलने वाली इनामी राशि ही उनका मेहनताना होती है जिसे वे आपस में बांट लेते हैं. लेकिन यह राशि बेहद मामूली होती है. कुछ समय पहले तक तो जीतने वाली टीम को कोई राशि मिला भी नहीं करती थी. वहीं वर्ल्ड ब्लाइंड क्रिकेट काउंसिल भी इतना संपन्न नहीं कि अपने सदस्य देशों की आर्थिक मदद कर सके.

सच तो यह है कि जो भी देश किसी टूर्नामेंट की मेज़बानी करता है, इनामी राशि का इंतजाम भी वही करता है. इसलिए ब्लाइंड क्रिकेट खेलने वाले देश सरकारी सहायता के लिए क्रिकेट के मुख्य बोर्ड पर ही निर्भर हैं. कैबी के अनुसार ब्लाइंड क्रिकेट को लगभग सभी देशों में वहां के मुख्य बोर्ड से सहायता मिलती है लेकिन भारत में बीसीसीआई ब्लाइंड क्रिकेट को कोई सहायता नहीं देता.

सरकारी सहायता की बात करें तो पिछली बार जब विश्वकप खेलने टीम दक्षिण अफ्रीका गई थी तो कैबी को केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्रालय द्वारा 25 लाख रुपये की राशि स्वीकृत की गई थी. साथ ही टीम के विजेता बनकर लौटने पर देश के प्रधानमंत्री ने टीम के साथ मुलाकात की और खेल मंत्रालय व सामाजिक न्याय मंत्रालय की ओर से टीम के हर खिलाड़ी को सात लाख रुपये की इनामी राशि दी गई.

महांतेश बताते हैं, ‘हालांकि यह राशि भी ब्लाइंड क्रिकेट की तस्वीर बदलने पर्याप्त नहीं है. कैबी कम से कम भी खर्च करता है तो उसका सालभर का बजट डेढ़ से दो करोड़ रुपये होता है. इसमें भी खिलाड़ियों की फीस शामिल नहीं है. समस्या यह भी है कि सरकार की सहायता राशि न तो स्थायी है और न ही तुरंत मिलती है.’

डेविड कहते हैं, ‘पहले प्रस्ताव मंत्रालय को भेजना पड़ता है. वहां से स्वीकृति मिलने के बाद हमें सहायता राशि तब मिलती है जब आम बजट पास होता है. तब तक यहां-वहां से फंड जुटाकर या उधारी से काम चलाना पड़ता है.’

वे एक वाकया बताते हैं, ‘नवंबर 2014 में विश्व कप में शामिल होने के लिए सहायता राशि का प्रस्ताव बनाकर सामाजिक न्याय मंत्रालय भेजा था. 70 लाख का प्रस्ताव था, पर स्वीकृत 25 लाख रुपये हुए. यह पैसा तत्काल नहीं मिला. टीम जब दक्षिण अफ्रीका विश्व कप में शामिल होने जा रही थी, तब हमारे पास एजेंट से अपने टिकट और पासपोर्ट लेने तक के पैसे नहीं थे. हमने और कुछ दोस्तों ने क्रेडिट कार्डों से भुगतान किया और अफ्रीका पहुंचे. जून में हमें सहायता राशि प्राप्त हुई.’

वहीं इस विश्व कप के आयोजन के लिए भी सरकार ने 30 लाख रुपये स्वीकृत किए हैं जो अब तक मिले नहीं हैं. इन्हीं कारणों के चलते बीते वर्ष कैबी को एक चंदा जुटाने वाली वेबसाइट पर मौजूदा विश्व कप की तैयारियों के लिए चंदा मांगना पड़ा था. तब खिलाड़ियों की यूनिफॉर्म, किट, यात्रा भत्ता, क्रिकेट कैंप और देशभर में चयन प्रक्रिया चलाने के लिए 50 लाख रुपये की जरूरत थी. चंदे से केवल दो लाख रुपये इकट्ठा हो सके थे. जिसके चलते छह महीने पहले तक विश्व कप आयोजन पर भी शंका के बादल मंडरा रहे थे.

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इस सबके बीच मैदान पर खेलते समय खिलाड़ियों की मनोवैज्ञानिक स्थिति और दबाव पर चर्चा करते हुए अजय बताते हैं, ‘टीम के लगभग हर सदस्य के आर्थिक हालात बुरे हैं. कई तो रोज कमाते हैं, तब घर चलता है. एक दिन न कमाएं तो पेट भरना भी मुश्किल होता है. पर क्रिकेट खेलने के लिए वे पैसा उधार लेकर एक महीना घर छोड़कर आते हैं. हम कानों से खेलते हैं. मानसिक एकाग्रता बहुत जरूरी होती है. पर हर समय सोचते रहते हैं कि घर पर सब कैसे होंगे? खाना भी खा रहे होंगे या नहीं? बस मैदान में उतरते वक्त यह संकल्प लेते हैं कि बाहर का न सोचें, बाहर का सोचा तो खेल नहीं पाएंगे. मैच के बाद शाम को जब खाली समय मिलता है, परिवार का हाल पूछते हैं. मानसिक दबाव बहुत होता है जो हमारा ध्यान खेल से भटकाता है.’

अजय की मांग है कि खिलाड़ियों को खेल कोटे से एक नौकरी दे दी जाए और एक घर, ताकि वे पूरा ध्यान खेल पर लगा सकें. यही मांग अन्य खिलाड़ियों की भी है. ज़फ़र कहते हैं, ‘इस तरह हमें अभ्यास भी करने मिलेगा और छुट्टी का मसला नहीं रहेगा. वहीं इनामी राशि तो एक दिन खत्म हो जाएगी, तब हम क्या करेंगे? नौकरी होगी तो भविष्य भी सुरक्षित रहेगा.’

वहीं 2014 की विश्वकप जीत से हालात थोड़े सुधरे हैं. टीम के वर्तमान सदस्य मोहम्मद इरफान का उदाहरण पेश करते हुए डेविड बताते हैं, ‘मोहम्मद को जब इनामी राशि मिली, तब उसकी बहन की शादी थी. उसके पास शादी करने तक के पैसे नहीं थे. लेकिन दोहरी खुशी यह हुई कि पूरे समुदाय ने मिलकर उसकी बहन की शादी कर दी. इसलिए कि मोहम्मद ने देश का नाम रोशन किया है. इस तरह इनामी राशि का पैसा भी बच गया. साथ ही केरल सरकार ने उसे नौकरी और घर भी दिया. कर्नाटक सरकार ने अपने राज्य के हर खिलाड़ी को दस लाख रुपये दिए. झारखंड सरकार ने भी गोलू कुमार को एक लाख की राशि देने के साथ ही भविष्य में खेल कोटे के तहत नौकरी देने का आश्वासन दिया.’

दूसरी ओर विभिन्न राज्य क्रिकेट एसोसिएशन से भी कैबी को थोड़ी बहुत सहायता मिलने लगी है. विभिन्न क्रिकेट बोर्ड मैचों के आयोजन के लिए उसे निशुल्क मैदान उपलब्ध करा देते हैं. इस बीच सबसे अच्छी खबर यह है कि इंडसइंड बैंक ने अगले तीन सालों के लिए भारतीय ब्लाइंड क्रिकेट को स्पांसर करने का कैबी से करार किया है. जिसके तहत हर साल डेढ़ करोड़ की राशि उन्हें उपलब्ध कराई जाएगी.

डेविड कहते हैं, ‘अगर हमें सरकारी मान्यता मिल जाए तो हमारे लिए बजट में एक स्थायी प्रावधान हो जाएगा. इस तरह भटकना नहीं पड़ेगा और समय पर पैसा मिलता रहेगा.’

महांतेश कहते हैं, ‘संविधान की दुहाई देकर बीसीसीआई ने हमारी कोई भी आर्थिक मदद नहीं की. पूर्व अध्यक्ष अनुराग ठाकुर ने आश्वासन दिया था. पर अब वे बोर्ड में नहीं रहे. लेकिन सकारात्मक यह है कि लोढ़ा समिति सभी प्रकार के क्रिकेट को बढ़ावा देने की बात कर रही है. इससे थोड़ी उम्मीद जागी है.’

लेकिन आश्चर्य यह होता है कि जिस बीसीसीआई का सहूलियत के अनुसार अपने संविधान को बदलने का इतिहास रहा है, वही संविधान की दुहाई देकर ब्लाइंड क्रिकेट की मदद से इंकार करता रहा है. दूसरी ओर प्रधानमंत्री ने 2014 विश्वकप जीतने पर टीम के साथ फोटो खिंचाए, ‘मन की बात’ में ब्लाइंड क्रिकेटरों की तारीफ में कसीदे पढ़े. लेकिन जब वही टीम अगला विश्वकप खेलने के लिए चंदा मांग रही थी, तो यह बात उनके कानों तक नहीं पहुंची.

बहरहाल ज़फ़र एक अहम बात कहते हैं, ‘इनाम देने से सारा मसला हल नहीं होगा. मुझे सात लाख दिए पर क्या मैं हमेशा टीम में खेलता रहूंगा? आने वाली पीढ़ी कैसे आगे आएगी? उसे तो कोई सुविधा ही नहीं है. वे हर दिन संघर्ष कर रहे हैं. वे कैसे खुद को निखारेंगे. उनके पास कुछ नहीं है. हमारी तरह उन्हें कुछ तब मिलेगा, जब टीम मे जाएंगे. इस ओर भी सरकार को ध्यान देना चाहिए.’