अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर पुनर्विचार के लिए छह याचिकाएं दायर

इससे पहले मूल वादकारियों में शामिल एम. सिद्दीक के वारिस और उत्तर प्रदेश जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना सैयद अशहद रशीदी ने बीते दो दिसंबर को पुनर्विचार याचिका दायर की थी.

(फोटो साभार: विकिपीडिया/पीटीआई)

इससे पहले मूल वादकारियों में शामिल एम. सिद्दीक के वारिस और उत्तर प्रदेश जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना सैयद अशहद रशीदी ने बीते दो दिसंबर को पुनर्विचार याचिका दायर की थी.

(फोटो साभार: विकिपीडिया/पीटीआई)
(फोटो साभार: विकिपीडिया/पीटीआई)

नई दिल्ली: अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का रास्ता साफ करने वाले उच्चतम न्यायालय के नौ नवंबर के फैसले पर पुनर्विचार के लिए शुक्रवार को शीर्ष अदालत में चार नयी याचिकायें दायर की गईं.

तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अपने सर्वसम्मति के फैसले में 2.77 एकड़ की विवादित भूमि की डिक्री ‘राम लला विराजमान’ के पक्ष में की थी और अयोध्या में ही किसी प्रमुख स्थान पर मस्जिद निर्माण के लिए उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड को पांच एकड़ भूमि आवंटित करने का निर्देश केंद्र सरकार को दिया था.

शीर्ष अदालत के इस फैसले पर पुनर्विचार के लिए पहली याचिका दो दिसंबर को मूल वादकारियों में शामिल एम. सिद्दीक के वारिस और उत्तर प्रदेश जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना सैयद अशहद रशीदी ने दायर की थी.

इस याचिका में 14 बिंदुओं पर पुनर्विचार का आग्रह करते हुए कहा गया है कि बाबरी मस्जिद के पुनर्निर्माण का निर्देश देकर ही इस प्रकरण में ‘पूरा न्याय’ हो सकता है.

इस याचिका में कहा गया है कि यद्यपि अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद के गुंबदों को नुकसान पहुंचाने और उसे गिराने का संज्ञान लिया, फिर भी विवादित स्थल को उसी पक्ष को सौंप दिया, जिसने अनेक ग़ैरक़ानूनी कृत्यों के आधार पर अपना दावा किया था.

इस फैसले पर पुनर्विचार के लिए पांच याचिकाएं- मौलाना मुफ्ती हसबुल्ला, मोहम्मद उमर, मौलाना महफूजुर रहमान, हाजी महबूब और मिसबाहुद्दीन ने दायर की हैं, जिन्हें आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का समर्थन प्राप्त है. छठी पुनर्विचार याचिका मोहम्मद अयूब ने दायर की है. ये सभी पहले मुकदमे में पक्षकार थे.

इन पुनर्विचार याचिकाओं में से एक में कहा गया है कि यह याचिका दायर करने का मकसद इस महान राष्ट्र की शांति को भंग करना नहीं है लेकिन इसका मकसद है कि न्याय के लिये शांति सुखदायी होनी चाहिए.

इस मामले के संबंध में याचिका में कहा गया है कि मुस्लिम समुदाय हमेशा ही शांति बनाए रखता है लेकिन मुस्लिम और उनकी संपत्तियां की हिंसा और अन्याय का शिकार बनी हैं. यह पुनर्विचार न्याय की आस में दायर की गई हैं.

इन सभी पांच याचिकाओं को वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन और जफरयाब जिलानी ने अंतिम रूप दिया है और इन्हें अधिवक्ता एमआर शमशाद के माध्यम से दायर किया गया है.

अयोध्या में छह दिसंबर, 1992 को ‘कार सेवकों’ द्वारा मस्जिद गिराए जाने की घटना के बाद देश में बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक दंगे हुये थे. मौलाना मुफ्ती हसबुल्ला ने अपनी पुनर्विचार याचिका में कहा है कि मालिकाना हक के इस विवाद में उनके समुदाय के साथ ‘घोर अन्याय’ हुआ है और न्यायालय को इस पर फिर से विचार करना चाहिए.

याचिका में कहा गया है कि समूचे स्थान का इस आधार पर मालिकाना अधिकार हिंदू पक्षकारों को नहीं दिया जा सकता था कि यह पूरी तरह उनके कब्जे था जबकि किसी भी अवसर पर यह हिंदुओं के पास नहीं था और यह भी एक स्वीकार्य तथ्य है कि दिसंबर, 1949 तक मुस्लिम इस स्थान पर आते थे और नमाज पढ़ते थे.

इसमें आगे कहा गया है कि मुस्लिम समुदाय को बाद में ऐसा करने से रोक दिया गया क्योंकि इसे कुर्क कर लिया गया था जबकि अनधिकृत तरीके से प्रवेश की वजह से अनुचित तरीके से हिंदुओं को पूजा करने की अनुमति दी गई थी.

याचिका में कहा गया है कि नौ नवंबर के फैसले ने मस्जिद को नुकसान पहुंचाने और अंतत: उसे ध्वस्त करने सहित कानून के शासन का उल्लंघन करने, विध्वंस करने की गंभीर अवैधताओं को माफ कर दिया.

 

यही नहीं, न्यायालय द्वारा इस स्थान पर जबर्दस्ती गैरकानूनी तरीके से मूर्ति रखे जाने की अपनी व्यवस्था के बाद भी फैसले में तीन गुंबद और बरामदे पर मूर्ति को न्यायिक व्यक्ति के अधिकार को स्वीकार करने को भी याचिका में गंभीर त्रुटि बताया गया है.

याचिका में कहा गया है कि संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत सुन्नी वक्फ बोर्ड को पांच एकड़ भूमि आवंटित करने का निर्देश देना भी गलत है क्योंकि इस मामले में कभी भी इसके लिए दलील पेश नहीं की गई थी.

मोहम्मद अयूब ने अपनी पुनर्विचार याचिका में कहा है कि नौ नवंबर का न्यायालय का निर्णय त्रुटिपूर्ण है, क्योंकि यह गैरकानूनी कृत्य पर आधारित अधिकार का सृजन करता है जिसकी स्थापित कानून के आलोक में इजाजत नहीं है.

रशीदी ने अपनी पुनर्विचार याचिका में नौ नवंबर के फैसले पर अंतरिम रोक लगाने का अनुरोध किया है जिसमें केंद्र को अयोध्या में विवादित स्थल पर मंदिर निर्माण के लिए तीन महीने के भीतर एक न्यास गठित करने का निर्देश दिया गया है.

रशीदी ने अयोध्या में प्रमुख स्थान पर मस्जिद निर्माण के लिए पांच एकड़ का भूखंड आवंटित करने का केंद्र और राज्य सरकार को निर्देश देने संबंधी शीर्ष अदालत की व्यवस्था पर सवाल उठाया है और यह तर्क दिया है कि मुस्लिम पक्षकारों ने कभी भी इस तरह का कोई आग्रह किया ही नहीं था.

इससे पहले संविधान पीठ ने अयोध्या में 2.77 एकड़ की विवादित भूमि सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला विराजमान के बीच बराबर-बराबर बांटने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सितंबर, 2010 के फैसले के खिलाफ दायर अपीलों पर नौ नवंबर को अपना सर्वसम्मति का निर्णय सुनाया था.

नौ नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि जमीन विवाद पर अपना फैसला सुनाते हुए विवादित जमीन पर मुस्लिम पक्ष का दावा ख़ारिज करते हुए हिंदू पक्ष को जमीन देने को कहा.

एक सदी से अधिक पुराने इस मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि रामजन्मभूमि न्यास को 2.77 एकड़ ज़मीन का मालिकाना हक़ मिलेगा. वहीं, सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को अयोध्या में ही पांच एकड़ ज़मीन दी जाएगी.

मंदिर निर्माण के लिए केंद्र सरकार को तीन महीने के अंदर ट्रस्ट बनाना होगा और इस ट्रस्ट में निर्मोही अखाड़ा का एक सदस्य शामिल होगा. न्यायालय ने कहा कि विवादित 2.77 एकड़ जमीन अब केंद्र सरकार के रिसीवर के पास रहेगी, जो इसे सरकार द्वारा बनाए जाने वाले ट्रस्ट को सौंपेंगे.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

pkv games bandarqq dominoqq