आयोध्या मामला: सुप्रीम कोर्ट ने सभी 18 पुनर्विचार याचिकाओं को खारिज किया

कोर्ट ने कहा कि इन याचिकाओं में कोई मेरिट नहीं है. कई मुस्लिम पक्ष, 40 कार्यकर्ता, हिंदू महासभा और निर्मोही अखाड़ा ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी.

(फोटो: विकिपीडिया/रॉयटर्स)

कोर्ट ने कहा कि इन याचिकाओं में कोई मेरिट नहीं है. कई मुस्लिम पक्ष, 40 कार्यकर्ता, हिंदू महासभा और निर्मोही अखाड़ा ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी.

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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को अयोध्या-बाबरी मस्जिद मामले में दिए गए उसके नौ नवंबर के फैसले के खिलाफ दायर सभी 18 पुनर्विचार याचिकाओं को खारिज कर दिया. कोर्ट ने कहा कि इन याचिकाओं में कोई मेरिट यानी कि दम नहीं है.

मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, अशोक भूषण, अब्दुल नजीर और संजीव खन्ना द्वारा एक चैंबर में इन याचिकाओं पर विचार किया गया.

लाइव लॉ के मुताबिक, इन याचिकाकर्ताओं में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा समर्थित समेत कई मुस्लिम पक्ष, 40 कार्यकर्ता, हिंदू महासभा और निर्मोही अखाड़ा शामिल हैं. इन लोगों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी.

पहली याचिका दो दिसंबर को मूल वादकारियों में शामिल एम. सिद्दीक के वारिस और उत्तर प्रदेश जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना सैयद अशहद रशीदी ने दायर की थी.

इस याचिका में 14 बिंदुओं पर पुनर्विचार का आग्रह करते हुए कहा गया है कि बाबरी मस्जिद के पुनर्निर्माण का निर्देश देकर ही इस प्रकरण में ‘पूरा न्याय’ हो सकता है.

इस याचिका में कहा गया है कि यद्यपि अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद के गुंबदों को नुकसान पहुंचाने और उसे गिराने का संज्ञान लिया, फिर भी विवादित स्थल को उसी पक्ष को सौंप दिया, जिसने अनेक गैरकानूनी कृत्यों के आधार पर अपना दावा किया था.

इस फैसले पर पुनर्विचार के लिए पांच याचिकाएं- मौलाना मुफ्ती हसबुल्ला, मोहम्मद उमर, मौलाना महफूजुर रहमान, हाजी महबूब और मिसबाहुद्दीन ने दायर की हैं, जिन्हें आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का समर्थन प्राप्त है. छठी पुनर्विचार याचिका मोहम्मद अयूब ने दायर की है. ये सभी पहले मुकदमे में पक्षकार थे.

इन पुनर्विचार याचिकाओं में से एक में कहा गया है कि यह याचिका दायर करने का मकसद इस महान राष्ट्र की शांति को भंग करना नहीं है लेकिन इसका मकसद है कि न्याय के लिये शांति सुखदायी होनी चाहिए.

इस मामले के संबंध में याचिका में कहा गया है कि मुस्लिम समुदाय हमेशा ही शांति बनाए रखता है लेकिन मुस्लिम और उनकी संपत्तियां हिंसा और अन्याय का शिकार बनी हैं. यह पुनर्विचार न्याय की आस में दायर की गई हैं.

इन सभी पांच याचिकाओं को वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन और जफरयाब जिलानी ने अंतिम रूप दिया और इन्हें अधिवक्ता एमआर शमशाद के माध्यम से दायर किया गया.

अयोध्या में छह दिसंबर, 1992 को ‘कार सेवकों’ द्वारा मस्जिद गिराए जाने की घटना के बाद देश में बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक दंगे हुये थे. मौलाना मुफ्ती हसबुल्ला ने अपनी पुनर्विचार याचिका में कहा है कि मालिकाना हक के इस विवाद में उनके समुदाय के साथ ‘घोर अन्याय’ हुआ है और न्यायालय को इस पर फिर से विचार करना चाहिए.

याचिका में कहा गया था कि समूचे स्थान का इस आधार पर मालिकाना अधिकार हिंदू पक्षकारों को नहीं दिया जा सकता था कि यह पूरी तरह उनके कब्जे था जबकि किसी भी अवसर पर यह हिंदुओं के पास नहीं था और यह भी एक स्वीकार्य तथ्य है कि दिसंबर, 1949 तक मुस्लिम इस स्थान पर आते थे और नमाज पढ़ते थे.

इसमें आगे कहा गया था कि मुस्लिम समुदाय को बाद में ऐसा करने से रोक दिया गया क्योंकि इसे कुर्क कर लिया गया था जबकि अनधिकृत तरीके से प्रवेश की वजह से अनुचित तरीके से हिंदुओं को पूजा करने की अनुमति दी गई थी.

याचिका में कहा गया कि नौ नवंबर के फैसले ने मस्जिद को नुकसान पहुंचाने और अंतत: उसे ध्वस्त करने सहित कानून के शासन का उल्लंघन करने, विध्वंस करने की गंभीर अवैधताओं को माफ कर दिया.

इसके अलावा अखिल भारत हिंदू महासभा ने अयोध्या में मस्जिद के लिए सुन्नी वक्फ बोर्ड को पांच एकड़ जमीन आवंटित करने के लिए दिए गए निर्देश के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर किया था.

महासभा के अलावा मानवाधिकार कार्यकर्ताओं सहित 40 लोगों ने संयुक्त रूप से शीर्ष न्यायालय का रुख कर अयोध्या मामले में उसके फैसले पर पुनर्विचार का अनुरोध किया था. उन्होंने दावा किया कि फैसले में तथ्यात्मक एवं कानूनी त्रुटियां हैं.

इन लोगों में इतिहासकार इरफान हबीब, अर्थशास्त्री एवं राजनीतिक विश्लेषक प्रभात पटनायक, मानवाधिकार कार्यकर्ता हर्ष मंदर, नंदिनी सुंदर और जॉन दयाल शामिल थे.

मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने अपनी याचिका में कहा कि वे न्यायालय के फैसले से बहुत आहत हैं. उनकी ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने पुनर्विचार याचिका दायर की है.

मालूम हो कि संविधान पीठ ने अयोध्या में 2.77 एकड़ की विवादित भूमि सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला विराजमान के बीच बराबर-बराबर बांटने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सितंबर, 2010 के फैसले के खिलाफ दायर अपीलों पर नौ नवंबर को अपना सर्वसम्मति का निर्णय सुनाया था.

नौ नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि जमीन विवाद पर अपना फैसला सुनाते हुए विवादित जमीन पर मुस्लिम पक्ष का दावा ख़ारिज करते हुए हिंदू पक्ष को जमीन देने को कहा.

एक सदी से अधिक पुराने इस मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि रामजन्मभूमि न्यास को 2.77 एकड़ ज़मीन का मालिकाना हक़ मिलेगा. वहीं, सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को अयोध्या में ही पांच एकड़ ज़मीन दी जाएगी.

मंदिर निर्माण के लिए केंद्र सरकार को तीन महीने के अंदर ट्रस्ट बनाना होगा और इस ट्रस्ट में निर्मोही अखाड़ा का एक सदस्य शामिल होगा. न्यायालय ने कहा कि विवादित 2.77 एकड़ जमीन अब केंद्र सरकार के रिसीवर के पास रहेगी, जो इसे सरकार द्वारा बनाए जाने वाले ट्रस्ट को सौंपेंगे.