केंद्र की वन सलाहकार समिति ने जंगलों के ‘लेन-देन’ वाली योजना को मंज़ूरी दी

इस नई योजना के ज़रिये व्यक्तियों या निजी कंपनियों को ये अनुमति मिल जाएगी कि वे भूमि की पहचान कर वनीकरण करें और वन भूमि की क्षतिपूर्ति के लिए उद्योगों को इसे बेच सकें.

इस नई योजना के ज़रिये व्यक्तियों या निजी कंपनियों को ये अनुमति मिल जाएगी कि वे भूमि की पहचान कर वनीकरण करें और वन भूमि की क्षतिपूर्ति के लिए उद्योगों को इसे बेच सकें.

India-forest blackfog/Flickr, CC BY 2.0)
(प्रतीकात्मक तस्वीर: blackfog/Flickr, CC BY 2.0)

नई दिल्ली: केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की वन सलाहकार समिति ने एक ऐसी योजना को मंजूरी दी है जिसके तहत ‘जंगलों’ का किसी वस्तू या सामग्री के रूप में लेन-देन या व्यापार किया जा सकेगा.

द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, अगर इसे लागू किया जाता है तो वन विभाग को ये इजाजत मिल जाएगी कि वे वन लगाने के अपने एक प्रमुख काम को किसी गैर-सरकारी एजेंसियों के जरिए करा सकेंगे.

वन सलाहकार समिति वो सर्वोच्च संस्था है जो किसी कॉमर्शियल काम के लिए जंगल वाली जमीन का इस्तेमाल करने के उद्योग जगत के निवेदन पर फैसला लेता है.

मौजूदा समय में यह व्यवस्था है कि अगर किसी उद्योग को जंगल वाली जमीन का इस्तेमाल करने और पेड़ काटने की इजाजत मिलती है तो उस उद्योग को इसके एवज में उतने ही क्षेत्र की गैर-वन भूमि देनी पड़ती है. उद्योग को राज्य के वन विभाग को वन भूमि के वर्तमान राशि का भी भुगतान करना होता है.

इसके बाद वन विभाग की जिम्मेदारी होती है कि उद्योग द्वारा दी गई गैर-वन भूमि को वन भूमि में परिवर्तित करें.

हालांकि आम तौर पर उद्योग जगत की ये शिकायत रहती थी कि उन्हें वन भूमि के नजदीक उपयुक्त गैर-वन भूमि लेने में काफी मुश्किल होती है. इसके तहत पिछले एक दशक में केंद्र द्वारा करीब 50,000 करोड़ रुपये इकट्ठा किए गए थे लेकिन ये पैसे खर्च ही नहीं हुए क्योंकि राज्य वनों को उगाने में पैसे नहीं खर्च कर रहे थे.

इस पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा हस्तक्षेप करने के बाद एक नया कानून बनाया गया जिसमें ये रूपरेखा बनाई गई कि किस तरह से ये पैसे खर्च किए जाएंगे. इसके बाद पिछले साल अगस्त तक में राज्यों को करीब 47,000 करोड़ रुपये बांटे गए.

वन सलाहकार समिति द्वारा स्वीकृत की गई नई योजना ‘ग्रीन क्रेडिट स्कीम’ के तहत निजी कंपनियों और गांव के वन समुदाय को ये इजाजत मिल जाएगी कि वे भूमि की पहचान कर वनीकरण करें.

इसके तीन साल बाद यदि वे वन विभाग द्वारा निर्धारित मानदंडों को पूरा करते हैं, तो उन्हें वन भूमि के रूप में इस भूमि को देने के योग्य माना जाएगा. इस तरह अगर किसी उद्योग को वन भूमि की जरूरत होती है तो वे वन भूमि के इस हिस्से को दे सकते हैं, जिसे बाद में वन विभाग को हस्तांतरित कर दिया जाएगा.

ये पहला ऐसा मौका नहीं है जब इस तरह की योजना लाई गई है. साल 2015 में भी सार्वजनिक-निजी भागीदारी के साथ डिग्रेडेड वन भूमि के लिए ‘ग्रीन क्रेडिट योजना’ की सिफारिश की गई थी, लेकिन केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा इसे मंजूरी नहीं मिल पाई थी.

सरकार का कहना है कि इस योजना के जरिए लोगों को पारंपरिक वन क्षेत्र के अलावा भी वन उगाने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा. हालांकि विशेषज्ञ इसके उलट सोचते हैं.

वन अधिकारों पर शोध कर रहीं कांची कोहली ने द हिंदू को बताया कि इस नई योजना से वन भूमि के क्षतिपूर्ति का समाधान नहीं हो पाएगा.