‘बापू! आज की सरकार जिन्ना को सच्चा और आपकी धारणाओं को मिथ्या क़रार देने पर आमादा है’

भारत जैसे समृद्ध देश में जहां सभी धर्मों के लोग सम्मान से रहते हैं और आपके द्वारा प्रेरित हमारा संविधान सबको बराबरी का हक़ देता हैं. यहां धर्म के आधार पर शरणार्थियों में विभेद हो रहा है और नागरिकता प्रदान करने में संकीर्ण दायरे से धार्मिक आधार को देखा जाने लगा है बापू! इस नए क़ानून के बाद आपके सहयात्रियों द्वारा गढ़ी गई संविधान की प्रस्तावना बेगानी सी लग रही है.

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New Delihi: An elderly protestor holds a picture of Mahatma Gandhi during a protest against the new Citizenship Act, outside the Jamia Millia Islamia University in New Delhi, Friday, Jan. 3, 2020. (PTI Photo) (PTI1 3 2020 000190B)

भारत जैसे समृद्ध देश में जहां सभी धर्मों के लोग सम्मान से रहते हैं और आपके द्वारा प्रेरित हमारा संविधान सबको बराबरी का हक़ देता हैं. यहां धर्म के आधार पर शरणार्थियों में विभेद हो रहा है और नागरिकता प्रदान करने में संकीर्ण दायरे से धार्मिक आधार को देखा जाने लगा है बापू! इस नए क़ानून के बाद आपके सहयात्रियों द्वारा गढ़ी गई संविधान की प्रस्तावना बेगानी सी लग रही है.

New Delihi: An elderly protestor holds a picture of Mahatma Gandhi during a protest against the new Citizenship Act, outside the Jamia Millia Islamia University in New Delhi, Friday, Jan. 3, 2020. (PTI Photo) (PTI1 3 2020 000190B)
नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ महात्मा गांधी की तस्वीर के साथ नई दिल्ली में प्रदर्शन करतीं एक महिला. (फाइल फोटो: पीटीआई)

प्रिय बापू,

सादर प्रणाम…

आप कहेंगे इतनी जल्दी-जल्दी पत्र क्यूं लिख रहे हो तो मेरा जवाब होगा कि चूंकि ये उदास मौसम बदलने का नाम ही नहीं ले रहा तो क्या कहें और फिर किससे कहें. आपके सिवा किससे जाकर अपनी शिकायत करें.

बात ही कुछ ऐसी है कि आपको इस अफ़साने में लाना ज़रूरी सा हो गया है. बीते महीनों में देश में अलग-अलग प्रतिरोध और असहमति के स्वर लगातार मुखर होते जा रहे हैं. देश का कोई भी हिस्सा संविधान के मर्म और मूल्यों को बचाने की इस अभूतपूर्व कोशिश से अछूता नहीं है.

कपड़ों से पहचानने का फ़साना आया तो इन आंदोलनों के सहयात्रियों ने और भी तेवर के साथ बाएं हाथ पर काली पट्टी बांधी, दाहिने में संविधान लिया और कांधे पे तिरंगा लहरा ये बता दिया कि ये मुल्क महज कागज़ पर बना एक नक्शा नहीं है, बल्कि इंसानी रिश्तों की नैसर्गिकता और गर्माहट इसकी बनावट और बुनावट में है.

फिर एक बार एहसास हुआ कि इसे यूं ही ‘सारे जहां से अच्छा नहीं कहते…’ इन आंदोलनकारियों ने आपके आंदोलनों के व्याकरण से बहुत कुछ ग्रहण किया और बावजूद सत्ता प्रतिष्ठान के उकसावे के शांतिपूर्ण ढंग से असहमति और विरोध के विरोध प्रदर्शन के रास्ते से विचलित नहीं हो रहे हैं.

ठीक आपकी सविनय अवज्ञा आंदोलन की तर्ज़ पर देश में सैकड़ों जगह ‘शाहीन बाग़’ उठ खड़े हुए. अचानक लोगों ने देखा क्या होता है ‘आंचल का परचम हो जाना’.

आइए प्रतिरोध के इन स्वरों को समझने से पूर्व ज़रा चंद तारीखों पर गौर करें.

बीते दिसंबर की 11वीं तारीख को इस बिल (नागरिकता संशोधन विधेयक) को राज्यसभा में पेश होना था. 10 तारीख की शाम से ही देश भर से फोन आने लगे. कुछ परिचित लेकिन ज़्यादातर कॉलर ऐसे थे जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से जानता नहीं था. देश के विभिन्न हिस्सों से आए इन फोन कॉल में भाषा की विविधता के बावजूद चिंताएं एक सामान थीं.

सब कह रहे थे कि नागरिकता संशोधन का ये बिल अगर कानून बन गया तो ये आपका प्यारा मुल्क वैसा नहीं रह जाएगा जैसा आप छोड़ गए थे इस हिदायत के साथ कि किसी भी कीमत पर संवैधानिक मूल्यों पर आंच नहीं आए.

आंच तो छोड़िए बापू! इस नए कानून के बाद आपके सहयात्रियों द्वारा गढ़ी गई संविधान की प्रस्तावना बेगानी सी लग रही है और कई संवैधानिक मूल्य और रवायतें पराई हो गयी है.

इस विशाल हृदय सभ्यता और बहुलवादी मुल्क के चरित्र को स्याह करने की कोशिशें काफी आगे बढ़ गई हैं. असत्य की जीत की ऐसी हवा चल पड़ी है बड़े-बड़े ओहदों पर बैठे लोग बड़ी ही बेशर्मी से आपके नाम का हवाला देते हुए कहते हैं कि आप कुछ ऐसा ही चाहते थे.

शायद एक 30 जनवरी से बात नहीं बनी तो इस घोर असत्य को चिल्ला-चिल्ला कर दुहराते हुए, धमकी के स्वर के कारण हर दिन ‘तीस जनवरी’ सा बनाया जा रहा है.

भारत जैसे समृद्ध देश में जहां सभी धर्मों के लोग सम्मान से रहते हैं और आपके द्वारा प्रेरित हमारा संविधान सबको बराबरी का हक़ देता हैं. यहां धर्म के आधार पर शरणार्थियों में विभेद हो रहा है और नागरिकता प्रदान करने में संकीर्ण दायरे से धार्मिक आधार को देखा जाने लगा है बापू!

लोग ये कहने लगे हैं कि आपकी 150वीं जयंती वर्ष में आज की सरकार जिन्ना को सच्चा और आपकी धारणाओं को मिथ्या और गैर प्रासंगिक करार देने पर आमादा है.

ये महज आप को ही नहीं बल्कि स्वामी विवेकानंद की सोच और समझ को ख़ारिज करने की चेष्टा है, जिसमें उत्पीड़न को सिर्फ धर्म के चश्में से देखा जाएगा. अब के बाद इजराइल और भारत का फर्क मिटा दिया जाएगा.

लेकिन बापू! परेशान होने की ज्यादा ज़रूरत नहीं… सदन में जीतने के बावजूद ये लोग सड़कों, विश्वविद्यालयों और खेत-खलिहानों में हार रहे हैं. सड़कों ने संसद और सरकार के अहंकार और हठधर्मिता को अभूतपूर्व चुनौती दे डाली है.

लोग आपकी और बाबा साहब की तस्वीर एक साथ लेकर सड़कों पर उतर चुके हैं… वो घर नहीं जा रहे, महिलाएं अपने छोटे-छोटे बच्चों को लेकर कंपकपाती सर्दी में खुले आसमान के नीचे बैठ रहीं हैं.

और ये अपनी जायदाद बढ़ाने और बचाने के लिए संघर्ष नहीं कर रहे हैं, बल्कि मुल्क की जैसी तामीर आपने की थी उसे किसी भी कीमत पर संजोए रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं.

लाखों की संख्या में भय को पीछे छोड़ आपके लोग आपके बताए रास्ते पर चलते हुए आज की सरकार को नफरत और घृणा का नहीं बल्कि स्वस्थ संवाद का पैगाम दे रहे हैं और उधर ये आलम है कि ओहदेदार लोग कह रहे है कि ‘एक इंच भी पीछे नहीं हटेंगे…’

बापू आज अगर आप होते तो क्या करते? जहां तक मैं समझ पाता हूं आप शाहीन बाग़ की उन महिलाओं के साथ दरी पर बैठ जाते जिन्होंने आपसे ही सीखा है कि प्रतिस्पर्धियों से भी अहिंसक बर्ताव और संवेदनशील संवाद किया जाए.

आपसे क्या कहें और कितना कहें बापू कि आप ही के अपने मुल्क की सरकार चलाने वाले लोगों की ज़ुबान औपनिवेशिक शासकों को भी पीछे छोड़ रही है.

मसलन नागरिकता संशोधन कानून के प्रतिरोध के आम अवाम के स्वर को चुनौती देते हुए एक मंत्रीजी कहते हैं, ‘चाहे आप जितना भी विरोध कर लो, हम एक इंच भी पीछे नहीं हटेंगे’, और दूसरे दिल्ली की चुनावी सभा में कहते हैं, ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को…’

और भी कई हैं जिनमें एक की भाषा और भाव देखिये. उनका कहना है कि विरोध करने वालों को जिंदा जला देना चाहिए. शायद अंग्रेजों के खिलाफ हमारी आज़ादी के आंदोलन के दौरान भी इस तरह की भाषा का इस्तेमाल हमारे औपनिवेशिक शासकों की ओर से भी नहीं हुआ था.

बापू! अजब सी सनक सवार है, इतना डरावना उन्माद सा फ़ैल रहा है. गांव की गलियों से लेकर शहर के चौक-चौराहों में कंटीली ज़हरीली दीवार बिछाई जा रही है और ये सिलसिला कुछ वर्षों से बड़ी द्रुत गति से चल रहा है. नतीजतन आपके कातिल को देशभक्त बताने वाले संसद पहुंच चुके हैं.

कमोबेश याद आता है सन 1946 से लेकर 30 जनवरी 1948 का कालखंड सनक और उन्माद उस दौर में जब मुल्क का बंटवारा हो रहा था तब आप अकेले धार्मिक उन्माद से प्रेरित उस पागलपन के खिलाफ खड़े थे.

मुल्क आज़ादी के तराने गा रहा था और आप कलकत्ता-नोआखली की गलियों में वहशीपने के खिलाफ मुहब्बत का पैगाम दे रहे थे.

आपके दीर्घकालिक सहयोगी प्यारेलाल जी, आपके बारे में कहते हैं कि आपमें ‘नबी’ और एक सुलझे व्यावहारिक राजनेता का अद्भुत संगम था. उस बापू ने अपनी अकेली मौजूदगी से सरहद के इधर और उधर की हिंसा के तांडव पर विराम लगा दिया था. नफरत एक बार फिर मुहब्बत से हार गई थी.

लोग जानते हैं कि ये असंभव है फिर भी हालात के मद्देनज़र आपकी शाहदत के 72वें वर्ष में आपकी वापसी चाहते हैं. आज पूरे देश की सड़कों पर उतरीं महिलाएं और विश्वविद्यालयों के छात्र अपने बापू को बड़ी शिद्दत से ढूंढ रहे हैं, ताकि आपके साथ मिलकर बड़े प्यार से हुक्मरानों से रघुपति सहाय उर्फ़ फ़िराक गोरखपुरी को उद्धृत करते हुए ये कह सकें…

सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के  ‘फ़िराक़’
क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्तां बनता गया…

लिखने-बोलने को तो और भी बहुत है बापू लेकिन एक ख़त में कितना लिखूं और क्या-क्या लिखूं. बस इतना ज़रूर कहना चाहूंगा कि आपकी सोच वाले लोग थोड़े हताश और बेचैन से हो गए हैं.

आपका एक अदना और तनहा सिपाही.

(लेखक राष्ट्रीय जनता दल के राज्यसभा सदस्य हैं.)

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