‘मैं मैला ढोता हूं लेकिन मैला ढोने वाले के रूप में मरूंगा नहीं’

टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान से पीएचडी करने वाले सुनील यादव दिन में पढ़ाई करते हैं और रात में सफ़ाई कर्मचारी का काम करते हैं. वे डॉ. अंबेडकर को अपना आदर्श और पढ़ाई को बदलाव का औज़ार मानते हैं.

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सुनील यादव (फोटो: सुनील के फेसबुक प्रोफाइल से)

टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान से पीएचडी करने वाले सुनील यादव दिन में पढ़ाई करते हैं और रात में सफ़ाई कर्मचारी का काम करते हैं. वे डॉ. अंबेडकर को अपना आदर्श और पढ़ाई को बदलाव का औज़ार मानते हैं.

सुनील यादव अपने परिवार के साथ (फोटो: सुनील के फेसबुक प्रोफाइल से)
सुनील यादव अपने परिवार के साथ (फोटो: सुनील के फेसबुक प्रोफाइल से)

बृहन्मुंबई महानगर पालिका के ‘डी वार्ड’ में कार्यरत सुनील यादव सफ़ाई कर्मचारी का काम करते हैं. सुनील टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान (टीआईएसएस), मुंबई से स्टेट पॉलिसी और सफ़ाई कर्मचारी विषय पर एमफ़िल कर चुके हैं और अब उन्होंने टीआईएसएस में ही पीएचडी में भी दाख़िला ले लिया है.

वे 2005 से ही महानगर पालिका में सफ़ाई कर्मचारी पद पर काम कर रहे हैं. पिता के अस्वस्थ होने के चलते उनकी जगह उन्हें यह नौकरी मिली थी. 37 वर्षीय सुनील का जन्म मुंबई महालक्ष्मी के धोबी घाट में हुआ. सुनील अब अपनी पत्नी और दो बेटियों के साथ मुंबई के चेम्बूर में रहते हैं. दिन में एक रिसर्च स्कॉलर और रात में महानगर पालिका के सफ़ाई कर्मचारी के रूप में अपने परिवार के साथ ज़िंदगी बिता रहे हैं.

सुनील सफाई कर्मचारियों की समस्या और सफाई का काम करते हुए अपनी पढ़ाई के बारे में बताते हैं, ‘हम सफाई कर्मचारियों की आयु बहुत छोटी होती है, क्योंकि उन्हें पर्याप्त साधन नहीं मिलते, जिससे सफाई के दौरान वे अपने स्वास्थ्य की रक्षा कर पाएं. मेरे पिताजी भी यही काम करते थे. वे अस्वस्थ हुए तो उनकी जगह मुझे ये नौकरी मिल गई थी. उस वक़्त में 10वीं फेल था.

मैंने नौकरी तो ले ली मगर यह भी निर्णय लिया कि मुझे आगे पढ़ना है. मैंने यशवंत राव यूनिवर्सिटी से 2005-08 में बीकॉम किया और फिर तिलक महाराष्ट्र पीठ से सामाजिक कार्य में एमए किया. मेरी यह शिक्षा डिस्टेंस से हुई थी, क्योंकि मैं उस वक़्त भी बतौर सफाई कर्मचारी काम करता था.’

टीआईएसएस में पढ़ते हुए अब सुनील पुरुषवादी समाज के खिलाफ़ लड़ना चाहते हैं. वो अपनी पढ़ाई के दौरान यह मानते हैं कि महिलाओं को लेकर समाज गलत नीतियां अपनाता आया है. उन्होंने इसकी शुरुवात अपने घर से की है. वे महिला सफाई कर्मचारियों को लेकर बहुत चिंतित रहते हैं और उनके लिए काम करना चाहते हैं.

महिलाओं पर सुनील कहते हैं, ‘महिला सफाई कर्मचारी जो हाथों से कूड़ा और मल उठाने का काम करती हैं, मुझे लगता है उनके जीवन में बदलाव आना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है. क्योंकि हमारा समाज आज भी महिलाओं को दूसरे दर्जे का नागरिक मानता है. इस अमानवीय काम में सबसे ज्यादा विधवा महिलाएं हैं. उनका शारीरिक, सामाजिक और आर्थिक तौर पर शोषण होता है. मुझे लगता है अगर महिलाओं को ज़्यादा पढ़ाया जाए तो वो यक़ीनन समाज को बदलने का दम रखती हैं. एक पुरुष को पढ़ाओगे तो वो सिर्फ स्वयं के काम आएगा, लेकिन जब एक महिला पढ़ती है, तो वह पूरे परिवार और समाज को बदलती है. मेरी पत्नी भी 12वीं पास थी, जब हमारी शादी हुई थी. मैंने उसे मुंबई यूनिवर्सिटी से सामाजिक कार्य में बीए करवाया और अब वो वक़ालत की पढ़ाई कर रही है. आज वह भी समाज को बदल सकती है और उसे किसी की ज़रूरत नहीं. वो ख़ुद अपनी जंग लड़ सकती है.’

सुनील ने दरअसल टीआईएसएस से ही ग्लोबलाइजेशन और मज़दूरों के विषय पर ही एमए किया है. उनका कहना है कि जब वे निर्मला निकेतन से डिप्लोमा कर रहे थे, तब वहीं के कुछ लोगों ने उन्हें टीआईएसएस में दाख़िला लेने को प्रोत्साहित किया था. दिन में रिसर्च स्कॉलर और रात में मैन्युअल स्कैवेंजर के रूप में दोहरी ज़िंदगी पर वे कहते हैं, ‘मैं असल में दो जीवन जी रहा था. मैं टीआईएसएस के बारे में कहना चाहूंगा कि देश में ऐसे संस्थानों के माहौल की बहुत ही जरूरत है. मुझे टीआईएसएस के बहुत सारे प्रोफेसर और हमारे डायरेक्टर ने बहुत सहयोग किया. यहां सामाजिक न्याय को लेकर लोग जागरूक हैं और भेदभाव में विश्वास नहीं करते. लेकिन संस्थान के बाहर मैं अलग था, मैं वहां रिसर्च स्कॉलर नहीं बल्कि ‘मैन्युअल स्कैवेंजर’ था. जो कूड़ा और मल उठाने का घिनौना काम करता है. टीआईएसएस में सम्मान मिलता है और बाहर गलियां, समाज के लोग हीन भावना से देखते हैं और टीआईएसएस में सम्मान भाव से. मैं यह मानता हूं ये शक्तियां यहां के प्रोफेसर और छात्रों से ही मिलती हैं.’

सुनील यादव (फोटो: सुनील के फेसबुक प्रोफाइल से)
सुनील यादव (फोटो: सुनील के फेसबुक प्रोफाइल से)

सुनील के अनुसार बृहन्मुंबई महानगर पालिका के अफ़सर भी उनके साथ अच्छा बर्ताव नहीं करते थे. उनका कहना है कि उनके जाति को लेकर बहुत सारे अफसरों में हीन भावना थी. बतौर महानगर पालिका कर्मचारी के रूप में जब उनके अफसरों को उनके पीएचडी वाली बात पता चली तो उनका बर्ताव बदल चुका था. अफ़सर हमेशा उसे कहा करते थे कि पढ़ाई से उसे कुछ हासिल नहीं होगा. सुनील अफसरों के इस रवैये और व्यवहार पर कहते हैं, ‘मेरे विभाग के अफसरों को जब ये बात पता चली, तो ये उनके लिए चौंका देने वाली बात थी. बहुत सारे अफ़सर, यहां तक कि आईएएस लेवल के अफ़सर भी मेरा मज़ाक उड़ाते थे. वो कहते थे कि अगर तू पढ़ लेगा तो सफाई और कूड़ा कचरा उठाने का काम कौन करेगा. मैंने विभाग को सूचित किया था कि मैं उच्च शिक्षा ले रहा हूं लेकिन वे लोग सिर्फ़ मेरा मज़ाक बनाते थे और मुझे कभी भी स्टडी लीव नहीं दी. मैंने जब इसका कारण आरटीआई के ज़रिये पूछने के कोशिश कि तो उन्होंने जवाब दिया कि सफाई कर्मचारियों को स्टडी लीव नहीं मिलती. जिसके चलते मैं रात में सफाई कर्मचारी का काम करता था और दिन में पढ़ाई. जहां विभाग को मुझे प्रोत्साहित करना चाहिए था, वहां मुझे सिर्फ़ उपहास के अलावा कुछ नहीं मिला.

महानगर पालिका में सफाई कर्मचारियों के मौजूदा हालात पर सुनील कहते हैं, ‘हमारे महानगर पालिका में 28000 सफाई कर्मचारी कार्यरत हैं और हर साल 23 सफाई कर्मचारियों की मौत हो जाती है. सरकार सुरक्षा के उपकरण मुहैया नहीं कराती, जिसके चलते भारी संख्या में सफाई कर्मचारी बीमार रहते हैं और उनमें से कई की तो मृत्यु हो जाती है. सरकार हमारी कोई मदद नहीं करती है. विदेशों से सफाई के लिए आधुनिक उपकरण लाना चाहिए पर सरकार तो सिर्फ़ ठेका प्रथा को प्रोत्साहित कर रही है. हमारे बीएमसी में लगभग 10000 ठेके पर काम करने वाले सफाई कर्मचारी हैं और उनकी भी हालत इसी तरह है. हमारी मौतों से न सरकार को फ़र्क पड़ता है न ही मीडिया को ये चीज़ दिखती है.’

सुनील दलित समुदाय से आते हैं. रिसर्च स्कॉलर होने के बावज़ूद जाति व्यवस्था उनका पीछा नहीं छोड़ती. उच्च शिक्षा प्राप्त करने के चलते उन्हें थोड़ा बहुत सम्मान मिला, लेकिन वह सामाजिक बराबरी नहीं मिली जो हर व्यक्ति को मिलती है. उनके संघर्ष के बीच हमेशा उनकी जाति आ जाती थी. जब उन्होंने आवाज़ उठाने का प्रयास किया तो उच्च बिरादरी वाले तो मज़ाक बनाते थे, लेकिन उनके ख़ुद के समुदाय वाले भी उनका उपहास करने में पीछे नहीं थे. अपनी बातों में बार-बार अंबेडकर और फूले की बात करने वाले सुनील अपनी इस सफलता के पीछे टीआईएसएस के माहौल और वहां के शिक्षक और छात्रों का भी योगदान मानते हैं.

सुनील जाति व्यवस्था को लेकर कहते हैं, ‘ये सच है कि मैं आज रिसर्च स्कॉलर हूं, लेकिन यह भी सच है कि मैं एक सफाई कर्मचारी हूं और दलित समुदाय से आता हूं. मेरे इस पूरे सफर में हर दिन मुझे ये अहसास दिलाया जाता था कि मेरी पहचान क्या है. यहां तक कि मेरे समुदाय के ही कुछ लोग मेरा मज़ाक बनाते थे कि मैं पागल हूं, पढ़ लिख कर क्या करूंगा. हमारी कितनी पीढ़ी इसी काम को करते करते मर गई और कई लोगों को तो आदत हो गई और बदलाव करने की बात भर से वो घबरा जाते है. मैंने जब टीआईएसएस में एमए में दाख़िला लिया तो मुझपर कई तरह के सामाजिक दबाव बनाने के प्रयास किए गए कि में पढ़ाई छोड़ दूं लेकिन मुझे सिर्फ़ बाबासाहेब अंबेडकर, ज्योतिबा फूले और सावित्री बाई फूले की याद आती है. उनके संघर्ष को जब याद करता हूं तो बहुत शक्ति मिलती है कि इस समाज को बदलना है. मैं ये हीन भावना वाले विचार को समाप्त कर देना चाहता हूं.’

सुनील एक 10वीं फेल व्यक्ति थे, जिन्हें उनके पिता के स्थान पर सफाई कर्मचारी की नौकरी मिली थी. लेकिन तब के सुनील और अब के सुनील में बहुत अंतर है. वे अब ज्यादा खुल के बात करते हैं. पहले जहां वो एक मामूली क्लर्क से बात करने से डरते थे. आज महानगर पालिका के आयुक्त और मेयर से भी सर उठाकर बात करते हैं. वो अपनी पूरी बातचीत के दौरान सबसे ज्यादा शिक्षा के महत्व की बात करते हैं. वो बार-बार शिक्षा को बदलाव का औज़ार बताते हैं.

शिक्षा पर उनका कहना है, ‘मैं समझता हूं जीवन में शिक्षा का बहुत महत्व है. मेरी जाति के कारण अपमान तो सहना पड़ता है, लेकिन इसी शिक्षा के चलते आज मुझे बहुत जगह सम्मान भी मिलता है. कई लोग मेरा नाम मिसाल के रूप में भी लेते हैं. बाबासाहेब भी कहते थे कि शिक्षा ही एक मार्ग है जीवन में सफल होकर समाज को बदलने का. वे कहते थे कि अगर तुम पढ़ोगे नहीं, तो जीवन में आगे कैसे बढ़ोगे? पुरानी व्यवस्था पर सवाल कैसे उठाओगे? मुझे उनसे बहुत प्रेरणा मिलती है. आज मैं शिक्षित हूं और अपने इर्द-गिर्द भी लोगों को जागरूक कर पा रहा हूं.’

उनका जन्म मुंबई के महालक्ष्मी के धोबी घाट में हुआ. उन्होंने वहीं सरकारी स्कूल में शिक्षा प्राप्त की थी. उनका इलाक़ा मुंबई अंडरवर्ल्ड के इतिहास में सबसे अहम स्थान रखता है. मुंबई के मशहूर माफिया अरुण गवली और दाऊद इब्राहिम की वर्चस्व की लड़ाई महालक्ष्मी की सड़कों पर बहुत बार हुई है. लोगों का सपना डॉक्टर या अफसर बनाने का होता है, लेकिन इन इलाक़ों की झुग्गियों के लड़कों का सपना होता है सिर्फ़ डॉन बनना. यहां लोग गवली और दाऊद को रोल मॉडल मानते हैं और उनके भीतर वही आक्रामकता है.

सुनील ने उसी आक्रामकता को किस प्रकार सकारात्मक कामों के लिए इस्तेमाल किया और अपना रोल मॉडल किसे चुना, इसपर वे कहते हैं, ‘मैं मुंबई के महालक्ष्मी इलाक़े में पला बड़ा हूं और वो मुंबई की ऐसी जगह हैं, जहां से बहुत सारे मशहूर गैंगस्टर अरुण गवली और दाऊद इब्राहिम जैसे लोग निकले हैं और वहां के हर बच्चे का सपना उनके जैसा बनना है. मेरे अंदर भी उसी जगह के वजह से आक्रामकता है. मैंने उस आक्रामकता को शिक्षा के लिए इस्तेमाल किया और उन लोगों ने गवली और दाऊद को रोल मॉडल चुना और मैंने बाबासाहेब आंबेडकर और ज्योतिबा फूले की रोल मॉडल चुना.’

उन्होंने इसी शिक्षा के चलते बहुतों की ज़िंदगी को बदला. अपने घर से शुरुआत करने वाले सुनील शिक्षा के प्रभाव को किस तरह घर के अंदर और इर्द-गिर्द इस्तेमाल किया, उसके बारे में बताते हैं, ‘आज मैंने अपने छोटे भाई को पढ़ा लिया जो 10वीं फेल था. मैंने मेरी भांजी को पढ़ाया जो आज स्टेट बैंक आॅफ इंडिया में मैनेजर है. मेरे बहुत से रिश्तेदारों को मैंने ग्रेजुएशन करवाया. मेरे कितने सारे मित्र हैं, जो अब पढ़ना शुरू कर चुके हैं. मेरे क्लास में पढ़ने वाले लोग आज जर्मनी और ब्राज़ील में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं. यह जो भी कुछ हुआ इसके पीछे का एक कारण था बस शिक्षा. ये शिक्षा की ही शक्ति थी, जिसके कारण बहुत सारी ज़िंदगियों में बदलाव आया है. आज मेरा आत्मविश्वास बहुत बढ़ गया है और मैंने अन्याय के ख़िलाफ़ किसी भी बड़े से बड़े सरकारी अफ़सर से लड़ सकता हूं. मेरे कितने साथी एक क्लर्क के सामने सिर झुका कर बात करते हैं और मैं सर उठाकर उनसे बात करता हूं.’

आज उन्हें कई जगह बतौर वक्ता बुलाया जाता है. बहुत जगह सम्मान मिलता है राजनीतिक दल भी उन्हें शामिल करने की कोशिश करते हैं. लेकिन आज भी सिर्फ़ एक चीज़ नहीं बदली है, अंधेरा होते ही वे एक ‘मैन्युअल स्कैवेंजर’ हैं. स्टडी लीव नहीं मिलती इसलिए उन्हें ये काम करना पड़ता है. वरना ऐसा घिनौना काम कौन करना चाहेगा. सुनील को अपने इस काम से नफ़रत है और उन्हें बिलकुल अच्छा नहीं लगता लेकिन उन्हें ये काम करना पड़ता है.

सुनील पीएचडी के बाद किसी निजी उद्योग में काम नहीं करना चाहते. पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही काम का वे विरोध करते हैं और चाहते हैं कि सबको सामान्य अवसर मिले. उनके इस बढ़ते क़दम से उनके विभाग के अफ़सर बहुत ही घबराए हुए हैं. उनके विभाग ने हर संभव प्रयास किया. उन्हें जब स्टडी टूर पर साउथ अफ्रीका भेजा जाना था, तब उनके अफसरों ने उन्हें नहीं जाने देने के लिए हर संभव प्रयास किया. टीआईएसएस और अनुसूचित जनजाति आयोग के दख़ल के बाद उन्हें स्टडी टूर पर जाने की इजाज़त मिली थी. वे अपने इस अनुभव के बारे में बताते हैं और यह भी कहते हैं कि किस प्रकार सिस्टम द्वारा उन्हें रोकने का हर संभव प्रयास किया गया.

सुनील अपने घर पर (फोटो: बीबीसी)
सुनील अपने घर पर (फोटो: बीबीसी)

सुनील कहते हैं, ‘मैं ये नहीं चाहता कि मैं कोई कंपनी ज्वाइन करूं और बहुत पैसे कमाऊं. मैं इसी विभाग में रहना चाहता हूं और इसके भीतर जो कुरीतियां और अमानवीय चीज़ें हैं, उन्हें बदलना चाहता हूं और ख़त्म करना चाहता हूं. हमारे देश में लाखों लोग यही घिनौना काम करते हैं और एक सफ़ाई कर्मचारी के बेटा या बेटी को भी वही काम क्यों करना चाहिए? क्या उसे अधिकार नहीं कि वो डॉक्टर बने, इंजीनियर बने या फिर आईएएस बने? ये जातिवाद हमारे सिस्टम में बैठा हुआ है और उसी सिस्टम के लोग चाहते हैं कि हम जैसे लोग शिक्षित न हों और आगे नहीं बढ़ें. वे चाहते हैं कि हम पीढ़ी दर पीढ़ी यही काम करते रहें. मैंने विभाग में लेबर अफ़सर के पद के लिए आवेदन किया था और ज़रूरत से ज्यादा शिक्षित होने के बावज़ूद मुझे वो पद नहीं दिया गया. मैं विभाग के अंदर जाति व्यवस्था की बात छोटे अधिकारियों के बीच की नहीं कर रहा, बल्कि आईएएस दर्जे के अफसरों के बारे में बता रहा हूं. मुझे एक बार स्टडी टूर पर साउथ अफ्रीका जाना था और जब मैंने छुट्टी मांगी, तो मुझे साफ़ मना कर दिया गया था. मैंने इसकी शिकायत अनुसूचित जनजाति आयोग, दिल्ली में की. टीआईएसएस और आयोग के दख़ल के बाद मुझे जाने के लिए छुट्टी मिली. मुझे ऐसा लगा कि मेरे विभाग का हर अफ़सर यही चाहता था कि मैं उच्च शिक्षा ग्रहण करना बंद कर दूं.’

मैन्युअल स्केवेंजिंग को लेकर सुनील का मानना है कि ये मानवीय मूल्यों का हनन है. वे पीएचडी करके भागना नहीं चाहते, लेकिन वे चाहते हैं कि मौजूदा कार्यप्रणाली में बदलाव हो. वे ठेका प्रथा के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करते रहे हैं. वे बताते हैं कि बीएमसी अफ़सर उन्हें सिर दर्द कह कर भी संबोधित करते हैं. वे अब आरटीआई का भी इस्तेमाल करते हैं और सफाई कर्मचारियों को लेकर भ्रष्टाचार को भी उजागर करते हैं. उन्होंने ठेका प्रथा और मैन्युअल स्केवेंजिंग को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी पत्र लिखा है, लेकिन उन्हें कोई जवाब नहीं मिला है. विभाग के अफ़सर उनके बढ़ते क़दम के चलते, उन्हें पागल भी बोलते हैं.

सुनील के अनुसार मुंबई में 20 नगरसेवक (पार्षद) इन सफाई कर्मचारियों के वोटों से जीत कर आते हैं, लेकिन कोई काम नहीं करते. उनका मानना है कि अगर भारत भर में करोड़ों लोग मैन्युअल स्केवेंजिंग और सफाई कर्मचारी के रूप में काम कर रहे हैं, तो उनका एक एमएलसी या राज्यसभा सदस्य भी होना चाहिए. ये सभी सदन के भीतर हमारी समस्यों के लिए काम कर सकते हैं.

सुनील कहते हैं, ‘मैं चाहता हूं कि हमारे बीच यानी जो सफाई कर्मचारी शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं या फिर उच्च शिक्षा ले रहे हैं, उनको महानगर पालिका के काउंसिल में शामिल किया जाए. मैं विदेश भी गया हूं और वहां मैंने इस काम को आसान बनाने के लिए आधुनिक चीज़ों को देखा है. मैं चाहता हूं कि मैं महानगर पालिका को एक मॉडल बनाकर दूं, जिससे ये अमानवीय काम बंद हो जाए. हमारी समस्यों को हमारे बीच रहे लोग ही ज्यादा अच्छे तरीक़े से हल कर सकते हैं. आज जब मैं आरटीआई के तहत जानकारी हासिल करता हूं या फिर सफाई कर्मचारियों के अधिकार के लिए पत्र लिखता हूं या शिकायत करता हूं, लोग मुझे पागल बोलते हैं और मज़ाक भी बनाते हैं.’

वे आगे कहते हैं, ‘मुझे इन बातों से फ़र्क नहीं पड़ता, मैं इनका जीवन सुधारने के लिए काम करता रहूंगा. जो सम्मान एक मनुष्य को मिलना चाहिए वो सम्मान और अधिकार इनको भी मिलना चाहिए. दो वक़्त की रोटी तो जानवर भी ढूंढ लेता है, लेकिन मानव वही है जो समाज को बदले और पुरानी व्यवस्था पर सवाल खड़ा करे. मैं चाहता हूं मेरी बीवी भी वकील बनकर समाज की मदद करे और वह महिला है और महिला का दर्द अच्छे से समझ सकती है. हम पुरुष तो सिर्फ़ सांत्वना दे सकते हैं.’

अपने आप को अंबेडकर और फूले का अनुयायी मनाने वाले सुनील का परिवार बहुत ख़ुश है. उनके साथ काम करने वाले सफाई कर्मचारियों में भी अब उनका प्रभाव बढ़ने लगा है. उनका यह भी कहना है कि वे एक मैन्युअल स्कैवेंजर हैं, लेकिन बतौर स्कैवेंजर मरेंगे नहीं.

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