पहाड़ों पर प्राकृतिक जलस्रोतों की बर्बादी और पानी की अंतहीन खोज

पहाड़ों पर पानी उपलब्ध कराने वाले परंपरागत संसाधन उपेक्षित पड़े हैं. भारी भरकम बजट वाली बड़ी-बड़ी परियोजनाओं से पानी उपलब्ध करने के प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन जल संरक्षण से जुड़ी पारंपरिक जानकारी को सहेजने-समेटने में न तो सरकारी विभागों कि रुचि है और न ही नई पीढ़ी की.

बेतरतीब शहरीकरण ने उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों में पानी की समस्या खड़ी कर दी है.

पहाड़ों पर पानी उपलब्ध कराने वाले परंपरागत संसाधन उपेक्षित पड़े हैं. भारी भरकम बजट वाली बड़ी-बड़ी परियोजनाओं से पानी उपलब्ध करने के प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन जल संरक्षण से जुड़ी पारंपरिक जानकारी को सहेजने-समेटने में न तो सरकारी विभागों कि रुचि है और न ही नई पीढ़ी की.

भीमताल स्थित एक जल स्रोत. (सभी फोटो: राजशेखर पंत/द वायर)
भीमताल स्थित एक जल स्रोत. (सभी फोटो: राजशेखर पंत/द वायर)

उत्तराखंड के पांडेगांव में, जहां मैंने स्कूली शिक्षा शुरू की थी, एक नौला हुआ करता था. नौला पहाड़ों में भूगर्भीय जल धाराओं के ऊपर बनी सीढ़ीदार उथली संरचना को कहते हैं जो हमेशा मीठे पानी से लबालब भरी रहती है.

महीने में एक बार हम सभी स्कूली बच्चे गांव के लोगों के साथ मिलकर उस नौले की सफाई किया करते थे. बाद में एक बड़ी सरकारी योजना के तहत गांव में घर-घर पानी आने लगा.

टैंक बने, दीवारें बनीं, लंबी-लंबी पाइपलाइन बिछीं. नौले से जुड़ी सामूहिक जिम्मेदारी धीरे-धीरे कम हुई और फिर शताब्दियों पुराना यह जलस्रोत सूख गया.

अब वहां भीमताल के तालाब से लिफ्ट किया हुआ पानी पहाड़ की चोटी पर बने एक टैंक में इकट्ठा होकर सिर्फ सुबह शाम कुछ देर के लिए आता है, बाकी समय जगह-जगह लगे हुए नल प्राय: सूखे रहते हैं.

यह कहानी सिर्फ पांडेगांव के नौले की ही नहीं है. पहाड़ों पर पानी उपलब्ध कराने वाले परंपरागत संसाधन उपेक्षित पड़े हैं.

भारी भरकम बजट वाली बड़ी-बड़ी परियोजनाओं से पानी उपलब्ध करने के प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन जल संरक्षण से जुड़ी पारंपरिक जानकारी को सहेजने-समेटने में न तो सरकारी विभागों कि रुचि है और न ही नई पीढ़ी की.

नीति आयोग द्वारा हिमालयी क्षेत्र में लगातार गायब हो रहे जल-संसाधनों की डराने वाली तस्वीर के सामने आने के बाद उत्तराखंड सरकार द्वारा 975 करोड़ रुपये की लागत से एक पेय जल नीति का बनाया जाना प्रस्तावित है. इतना ही नहीं लगभग हर बड़े शहर और कस्बे के लिए भारी-भरकम योजनाओं की बात हो रही है.

उत्तराखंड के गंगोलीहाट स्थित जाह्नवी का नौला.
उत्तराखंड के गंगोलीहाट स्थित जाह्नवी का नौला.

हालांकि इस शोर-शराबे में पहाड़ और पानी का सदियों पुराना रिश्ता कहीं खो गया है. इस रिश्ते के मूल में पानी को महज एक संसाधन भर समझने की उपभोक्तावादी मानसिकता कहीं भी नहीं थी. जल के साथ जीवन की, समृद्धि की, सम्पूर्णता और श्रद्धा की भावना जुड़ी थी.

इंजीनियरिंग कौशल से उपजे दंभ, प्रकृति को चुनौती देने वाली कार्यशैली और आर्थिक संसाधनों की सहज उपलब्धता ने सदियों पुरानी इस सोच को बहुत तेजी से भुला दिया है.

पानी के प्रति हमारी समझ कितनी सतही हो चली है, इसका पता इस बात से चलता है कि उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य की अब तक अपनी कोई जल नीति थी ही नहीं.

प्रदेश में अब तक उत्तराखंड जल प्रबंधन एवं नियमन अधिनियम 2013 ही लागू है. नौले-धारे के उल्लेख के अभाव में ये अधिनियम एक अति सीमित दस्तावेज है.

प्रदेश का कोई वाटर डाटा सेंटर भी नहीं है. नीति आयोग ने इन तथ्यों का जिक्र बाकायदा अपनी रिपोर्ट में किया है.

आंकड़े बताते हैं कि इस हिमालयी राज्य में आठ बड़े जलग्रहण क्षेत्र, 26 वाटरशेड तथा 1250 के आस-पास छोटे वाटरशेड हैं. नदियों, ग्लेशियर के अलावा 2.6 लाख प्राकृतिक जलस्रोत हैं, पर यथास्थिति यह है कि पहाड़ प्यासा है.

पिछली डेढ़ शताब्दी में 360 सदानीरा जलस्रोतों वाला अल्मोड़ा शहर अपने 300 स्रोत गंवा चुका है. बचे हुए जलस्रोत भी अब गर्मियों में सूख जाते हैं.

नैनीताल के 50 प्रतिशत जलस्रोतों के सूख जाने का उल्लेख कई प्रसिद्ध भूवैज्ञानिक 80 के दशक में ही कर चुके हैं.

नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, विगत कुछ वर्षों में उजाड़ हुए 734 गांव में से 399 गांव पानी की सहज उपलब्धता न हो सकने के कारण उजड़े हैं.

उत्तराखंड में एक प्राकृतिक जलस्रोत.
उत्तराखंड में एक प्राकृतिक जलस्रोत.

यूएनडीपी (संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम) की रिपोर्ट के अनुसार, पहाड़ में लगभग 180 बसाहटों के पास अपने निर्धारित और निश्चित जलस्रोत हैं ही नहीं.

प्रश्न यह है कि देश का जलस्तम्भ कहे जाने वाले हिमालयी राज्य में यह स्थिति आई ही क्यों?

वैसे यह किस्सा मात्र उत्तराखंड का ही नहीं है. कमोबेश सभी हिमालयी राज्यों की स्थित ऐसी ही है, चाहे वह हिमाचल हो या फिर उत्तर पूर्व का सिक्किम.

90 के दशक में आए आर्थिक उदारवाद ने पहाड़ों में जमीन के कारोबार को जबरदस्त उछाल दिया था. पहाड़ों में मकान बनाने का सपना तब से हर नौकरशाह, कॉरपोरेट और नवधनाड्य देख रहा है.

पहाड़ों पर कॉटेज, विला, और होटल बनाने का जो सिलसिला शुरू हुआ था वह आज भी बदस्तूर चल रहा है.

किसी तालाब, नदी, हिमालय के शिखर या फिर फैली हुई विस्तृत घाटी के विहंगम दृश्य को खिड़की या बालकनी के रास्ते घर के अंदर तक पहुंचाने की जरूरी शर्त के साथ बने इन कॉटेज/विला में गाड़ी का पहुंचना भी अपरिहार्य रहा है.

इन पूर्वाग्रहों के चलते पहाड़ों में निर्माण के परंपरागत नियमों को दरकिनार कर 60 डिग्री या इससे भी आधिक ढलान वाले पहाड़ों की बेरोकटोक खुदाई आज भी जारी है और इसकी कीमत प्राकृतिक जलस्रोत और भूगर्भीय जल धाराएं अदा कर रही हैं.

उत्तराखंड में 80 के दशक में शुरू हुआ बेतरतीब निर्माण अब भी जारी है.
उत्तराखंड में 80 के दशक में शुरू हुआ बेतरतीब निर्माण अब भी जारी है.

इसके अलावा इन नए बाशिंदों में जो रसूखदार हुआ करते हैं, खासकर प्रभावशाली नौकरशाह और धनाड्य बिल्डर्स, उनके लिए इन जलस्रोतों का रुख अपने कॉटेज या विला की ओर मोड़ना प्राय: बहुत आसान होता है, और वह भी सरकारी खर्चे पर बनने वाली योजनाओं के तहत.

स्थानीय स्तर पर यदि इसका कभी विरोध होता भी है तो छोटे-मोटे ठेके या फिर किसी नौकरी का प्रलोभन दिलाकर इसे शांत करना हमेशा ही बड़ा आसान होता है.

80 के दशक में शुरू हुई बड़ी-बड़ी लिफ्ट योजनाओं ने जलस्रोतों, झरनों पर बनी ग्रैविटी-आधारित योजनाओं को उपेक्षित कर दिया. भीमताल, अल्मोड़ा, रानीखेत काठगोदाम जैसी पुरानी बसाहटों में ऐसी पुरानी वितरण प्रणालियां आज रखरखाव के अभाव में दम तोड़ रही हैं.

यह प्राकृतिक जलस्रोतों से पुराने मानवीय रिश्तों के टूटने की शुरुआत थी.

द्वाराहाट जैसे पानी की कमी वाले प्राचीन शहर के सीमांत क्षेत्रों में न जाने कितनी शताब्दियों पुराने नौले आज उपेक्षित पड़े हैं. इनके पानी के वितरण और संरक्षण को लेकर फिलहाल कोई योजना सरकार के पास नहीं है.

ये नौले क्षेत्रीय शिल्प और जल-संवर्धन/संरक्षण से जुड़े परंपरागत ज्ञान के नायाब नमूने हैं.

पानी की भीषण कमी से जूझते गंगोलीहाट शहर में 12वीं शताब्दी का ‘जाह्नवी का नौला’ और चम्पावत स्थित इससे भी पुराना ‘रानी का नौला’ आज भी वर्षभर पानी से लबालब भरे रहते हैं, जबकि शहर के कई हिस्सों में गर्मी के मौसम में टैंकरों से पानी पहुंचाना अब आम हो गया है.

उत्तराखंड में मटियाल का एक हैंडपंप, जिससे हमेशा पानी बहता रहता है.
उत्तराखंड में मटियाल का एक हैंडपंप, जिससे हमेशा पानी बहता रहता है.

इन नौलों, स्रोतों, पहाड़ी झरनों इत्यादि से छोटी और छिटकी हुई पहाड़ी बसाहटों की पेय जल समस्या को बहुत कम लागत पर एक सीमा तक तो दूर किया ही जा सकता है.

हाइड्रोलिक रैम्स, जो कि आज भी ऊंचाई पर बसे गावों तक किसी बाहरी ऊर्जा के उपयोग के बगैर पानी पहुचाने का सस्ता और सुलभ तरीका है, वे जबरन इतिहास बना दिए गए हैं.

बजट का रोना रोते हुए संबंधित विभाग दूरदराज के इलाकों में खराब पड़े इन रैम की सुध वर्षों तक नहीं लेता. 2013 की आपदा में खराब हुए अधिकांश रैम आज तक ठीक नहीं हो पाए हैं.

समस्याओं के मूल को समझने की जरूरत को नजरअंदाज कर तात्कालिक समाधान को तरजीह देने वाली नीति-नियंताओं की सोच ने कैसे पहाड़ों में पानी की समस्या को उलझाया है इसका एक उदाहरण हिमालयी क्षेत्रों में हैंडपंपों का युद्ध स्तर पर विस्तार है.

तकनीकी सीमाओं के चलते ये हैंडपंप सड़क के किनारे पर ही लगाए जा सकते हैं. पहाड़ी गांव प्रायः मोटर मार्ग के नीचे या ऊपर ही स्थित होते हैं.

एक हैंडपंप को लगाने का औसत खर्च उपलब्ध रिपोर्टों के आधार पर लगभग पांच लाख रुपये आता है. बागेश्वर क्षेत्र के ग्रामीण बताते हैं कि वहां पिछले कुछ वर्षों में लगे 550 से अधिक पंपों में से अधिकांश, गांवों के जलस्रोतों को पूरी तरह से सुखाकर निष्क्रिय हो चुके हैं.

भीमताल-पिथौरागढ़ राजमार्ग के मटियाल और पहाड़पानी क्षेत्र की सड़क पर लगे हैंडपंपों से 24 घंटे पानी यूं ही बहता रहता है. ग्रामीण बताते हैं कि इन पंपों के लिए की गई ड्रिलिंग के बाद गांव के वर्षों पुराने जलस्रोत सूख चुके हैं. मीलों दूर से वे अब पानी भरने इन हैंडपंपों तक आते हैं.

बेतरतीब शहरीकरण ने उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों में पानी की समस्या खड़ी कर दी है.
बेतरतीब शहरीकरण ने उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों में पानी की समस्या खड़ी कर दी है.

निश्चित रूप से आज जरूरत पानी के संरक्षण और उपयोग से जुड़े पारंपरिक ज्ञान का भरपूर फायदा उठाते हुए उसके प्रति समाज के दायित्वबोध को जगाने की है.

जलग्रहण क्षेत्रों के संरक्षण/संवर्धन की जरूरत को अब और अनदेखा करना आत्मघाती हो सकता है.

नीति आयोग द्वारा हिमालयी क्षेत्र लिए नेशनल स्प्रिंग वाटर मैनेजमेंट प्रोग्राम की सिफारिश के बाद नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन एनवायरनमेंट ने एक नोडल एजेंसी के रूप में चम्पावत जिले के 600 और अल्मोड़ा के 200 गांव के जल-संसाधनों की जियो मैपिंग की है.

संरक्षित जल-विहारों के प्रस्तावित निर्माण में इस अध्ययन का विशेष महत्व है, क्योंकि इन जल विहारों के निर्माण का आधार वैज्ञानिक अध्ययन से उभरी और स्थापित हुई इनकी वर्तमान स्थिति नहीं, वरन समाज द्वारा इनके उपयोग की सीमा होना तय हुआ है.

इस क्षेत्र के एक वरिष्ठ आईएफएस अधिकारी प्रदीप पंत बताते हैं कि आदिवासी क्षेत्रों में वन के एक हिस्से को पवित्र मानते हुए उसे संरक्षित करने की प्रथा है. यदि हिमालयी क्षेत्रों में भी जल के प्रति श्रद्धा और पवित्रता की भावना को समाज में फिर से स्थापित करने की ईमानदार कोशिश की जाए तो जलग्रहण क्षेत्रों को बचाना आसान हो सकता है.

उनका मानना है कि जल से जुड़ी आध्यात्मिकता कभी पर्वतीय संस्कृति का अभिन्न अंग हुआ करती थी.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि पानी के निरंतर बढ़ रहे उपयोग की उसी अनुपात में भरपाई करने में प्रकृति फिलहाल असमर्थ है. जल के अभाव में न तो पर्यावरण की समग्रता को सुरक्षित रखा जा सकता है और न ही गरीबी और भूख से एक निर्णायक लड़ाई लड़ी जा सकती है.

भूगर्भशास्त्री पद्मभूषण डॉ. केएस वल्दिया ने 80 के दशक में चेताया था कि हमारी लापरवाही के चलते सूख चुके किसी प्राकृतिक जलस्रोत को दुनिया का कोई भी इंजीनियरिंग कौशल दोबारा जीवित नहीं कर सकता.

ये दीवार पर लिखी एक महत्वपूर्ण इबारत है, जिसे कम से कम अब तो निश्चित रूप से पढ़ा, समझा और अनुभव किया जाना चाहिए.

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