राजस्थान: लॉकडाउन में काम को तरसे लोक कलाकार

आम तौर पर लोक कलाओं से गुलज़ार रहने वाले राजस्थान में कोरोना वायरस और लॉकडाउन के चलते सन्नाटा पसरा है. ऐसे में ख़ाली बैठे लोक कलाकार आर्थिक मुश्किलों का सामना कर रहे हैं. उनकी सहायता के लिए शुरू की गई राज्य सरकार की योजना कई विसंगतियों के चलते मददगार साबित नहीं हो रही है.

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आम तौर पर लोक कलाओं से गुलज़ार रहने वाले राजस्थान में कोरोना वायरस और लॉकडाउन के चलते सन्नाटा पसरा है. ऐसे में ख़ाली बैठे लोक कलाकार आर्थिक मुश्किलों का सामना कर रहे हैं. उनकी सहायता के लिए शुरू की गई राज्य सरकार की योजना कई विसंगतियों के चलते मददगार साबित नहीं हो रही है.

Rajasthan Folk Dance PTI File
(फाइल फोटो: पीटीआई)

जयपुर: सरसों पककर खेत की माटी को छू रही थी और गेहूं की बाल सुनहरी होने लगी थीं. हर साल की तरह उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में पकी फसल की खुशबू जयपुर के शास्त्री नगर में रहने वाले हसन बहरूपिया और उनके जैसे सैंकड़ों कलाकारों तक पहुंची.

करीब 50 परिवार अपने यजमानों के यहां यजमानी लेने पहुंच गए. जनवरी से मार्च तक गांव-गांव घूमकर कभी शिव का स्वांग किया तो कभी यमराज का भेष धर ग्रामीणों का मनोरंजन किया.

फसल कटी तो इन कलाकारों ने घर लौटने की सोची, लेकिन तब तक देश में कोरोना वायरस ने दस्तक दे दी और देशव्यापी लॉकडाउन घोषित हो गया.

फोन पर हुई बातचीत में हसन ने द वायर  को बताया, ‘बहरूपिया कला हमें विरासत में मिली है. इंडिया में इतना भारत अभी बचा है कि हम बची-खुची विरासत और कलाकारों के साथ हर साल एक विश्वास लिए अपने यजमानों के यहां आते हैं. यहां दो-तीन महीने रहते हैं और गांव-गांव जाकर बहरूपिया कला का प्रदर्शन करते हैं. बदले में यजमान हमें पैसे, कपड़े और नई फसल में से अनाज देकर विदा करते हैं.’

वे आगे बताते हैं, ‘इस बार हम लौटने की सोच ही रहे थे कि लॉकडाउन घोषित हो गया. मैं अपनी बीवी और एक बच्चे के साथ यहां फंस गया हूं. मेरी तरह ही अकेले सहारनपुर और आसपास के गांवों में 50 बहरूपिया परिवार फंसे हुए हैं जो जयपुर या नजदीकी गांवों के रहने वाले हैं. हम सब घर जाना चाहते हैं, लेकिन नहीं जा पा रहे हैं. मैंने इस दौरान करीब 20 हजार रुपये कमाए थे, जो खर्च हो चुके हैं. अब यजमान ही सारे परिवारों का खर्चा उठा रहे हैं, नहीं पता कि घर कब लौट पाएंगे.’

दौसा जिले के बांदीकुई में रहने वाले एक अन्य बहरूपिया कलाकार अकरम कहते हैं, ‘गर्मियों की सीजन कमाई के लिहाज से हमारे लिए सबसे अच्छा होता है, लेकिन इस बार लॉकडाउन के चलते बहुत से कलाकार न तो यजमानों के यहां पहुंच पाए और न ही सरकारी कार्यक्रम मिल रहे हैं. मैं 10 हजार रुपये उधार लेकर घर का खर्चा चला रहा हूं.’

अकरम के अनुसार कोई आधिकारिक आंकड़ा तो नहीं है, लेकिन अकेले राजस्थान में पांच हजार से ज्यादा परिवार बहरूपिया कला से जुड़े हैं.

Rajasthan Behrupiya artists Madhav Sharma
कृष्ण के वेश में अकरम अपने अन्य बहरूपिये साथियों के साथ. (फाइल फोटो: माधव शर्मा)

बहरूपियाओं की तरह ही अन्य लोक कलाकार भी या तो कहीं फंसे हुए हैं या फिर घरों में बंद होने के कारण उन्हें रोजगार की समस्या पैदा हो रही है.

लंगा-मांगणियार, घूमर, गैर, चरी डांस, कच्ची घोड़ी, फायर डांस, तेरह ताली, कठपुतली, मांड, भपंग कलाकारों के साथ-साथ हैंडीक्राफ्ट और पेंटर काफी परेशान हैं.

इन कलाकारों के पास न तो अभी सरकारी कार्यक्रम हैं और न ही लॉकडाउन के कारण ये निजी कार्यक्रमों में कहीं परफॉर्म करने जा पा रहे हैं.

20 दिन में सिर्फ 100 कलाकारों को मिला सरकारी योजना का लाभ

राजस्थान सरकार ने कोरोना संक्रमण के चलते लगे लॉकडाउन में ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोक कलाकारों को राहत देने के लिए मुख्यमंत्री लोक कलाकार प्रोत्साहन योजना शुरू की है.

11 अप्रैल को शुरू हुई इस योजना में बड़ी संख्या में लोक कलाकारों ने अपना वीडियो भेजा है, लेकिन अब तक सिर्फ 100 कलाकारों को ही 2,500 रुपये की आर्थिक सहायता पहुंचाई गई है.

बता दें कि योजना में जयपुर के रविंद्र मंच को नोडल एजेंसी बनाया गया है. मंच की मैनेजर और योजना की संयोजक शिप्रा शर्मा ने द वायर  को बताया, ‘योजना का मकसद यही है कि जो लोक कलाकार लॉकडाउन में घरों में बैठे हैं उन तक कुछ मदद पहुंचे. हमने तीन सदस्यों की एक कमेटी गठित की है जो कलाकारों के भेजे वीडियो को जज कर रही है.’

उन्होंने आगे बताया, ‘जिन कलाकारों की वीडियो सलेक्ट हो रही हैं, उन्हें हम 2500 रुपये ट्रांसफर कर रहे हैं. अब तक 1500 के आसपास वीडियो आए हैं, लेकिन उनमें से देखने लायक 50 फीसदी ही है. जिन कलाकारों के वीडियो बेहतरीन हैं उन्हें हम आर्थिक मदद के साथ-साथ विभाग के बनाए यू-ट्यूब चैनल पर भी अपलोड कर रहे हैं.’

शिरपा के अनुसार, अब तक 200 कलाकारों को सलेक्ट कर चुके हैं. करीब 100 लोक कलाकारों के खातों में पैसे ट्रांसफर भी किए जा चुके हैं, जिसमें गायन-वादन, नृत्य और अन्य परफॉर्मिंग आर्ट्स के कलाकार शामिल हैं.

उन्होंने यह भी बताया कि कमेटी में जवाहर कला केंद्र के आर्ट क्यूरेटर, म्यूजियम विभाग से कलाओं के जानकार और पर्यटन विभाग के ज्वाइंट डायरेक्टर शामिल हैं. साथ ही उनके पास जो वीडियो आ रहे हैं वे बिल्कुल ग्रामीण क्षेत्रों से आ रहे हैं.

हालांकि इन सरकारी दावों पर लोक कलाओं के जानकार और उनके साथ काम करने वाले लोग नाकाफी बता रहे हैं. आदिवासी अकादमी, भाषा संस्थान के डायरेक्टर मदन मीणा बताते हैं, ‘सरकार या किसी भी संस्थान के पास लोक कलाकारों की संख्या का कोई आंकड़ा ही उपलब्ध नहीं है. इससे ही लोक कलाकारों के लिए शुरू की गई योजना की पहुंच का अंदाजा हो जाता है. इसमें भी उन्हीं कलाकारों को लाभ मिलेगा जो सरकारी कार्यक्रमों में परफॉर्म करते हैं या जिनकी सरकारी अधिकारियों तक पहुंच है.’

मीणा आगे बताते हैं, ‘सरकार ने कहा है कि कलाकार अपना वीडियो बनाकर उन्हें मेल करें. ठेठ ग्रामीण लोक कलाकार इतने टेक सेवी नहीं हैं कि वे ये सब कर सकें. इसीलिए सरकार को कोई और सीधा रास्ता निकालना चाहिए.’

जाजम फाउंडेशन के सीईओ और लोक कलाकारों के साथ वर्षों से काम कर रहे विनोद जोशी इस योजना की कुछ मूलभूत कमियों की ओर इशारा करते हैं.

जोशी बताते हैं, ‘ये योजना सिर्फ ग्रामीण लोक कलाकारों के लिए हैं, लेकिन शहरों में बड़ी संख्या में प्रवासी लोक कलाकार रहते हैं जो शादियों, घरों में नाच-गाकर पेट पालते हैं. ये लोग इसमें कवर नहीं हो पा रहे हैं.’

Rajasthan Artist Dare Khan and his group Special Arrangement
जैसलमेर के प्रसिद्ध लोक गायक दारे खान और उनके साथी. (फाइल फोटो: Special Arrangement)

जोशी भी कलाकारों को तकनीक की अधिक जानकारी न होने की बात इंगित करते हैं. वे कहते हैं, ‘इसके अलावा 15-20 मिनट की वीडियो का साइज काफी ज्यादा होता है और गांवों में रहने वाले अधिकतर कलाकारों के पास मेल आईडी नहीं हैं. ऐसे में उन्हें अपनी वीडियो भेजने में काफी मुश्किलें आ रही हैं. कलाकार हमें वॉट्सएप के जरिये वीडियो भेज रहे हैं और हमारी संस्था उन्हें गूगल ड्राइव या अन्य माध्यमों से विभाग को मेल कर रही है.’

जोशी आगे बताते हैं कि चकरी डांस, कालबेलिया डांस, पाबू जी के भोपा-भोपी जैसे डांस में कम से कम तीन-चार कलाकार चाहिए होते हैं, लेकिन जो वीडियो विभाग की ओर से मंगाए गए हैं, उनमें सोशल डिस्टेंसिंग अनिवार्य की गई है. ऐसे में समूह में काम करने वाले कलाकारों को नुकसान हो रहा है.

हालांकि मदन मीणा का मानना है कि संस्थाओँ द्वारा की जा रही मदद उन्हीं कलाकारों तक पहुंचेगी जो उनसे जुड़े हुए हैं.

राजस्थान में कुछ ही संस्थाएं हैं जो लोक कलाकारों से जुड़ी हैं, इसलिए ये संभव ही नहीं है कि संस्थाएं या सरकार हर एक लोक कलाकार तक पहुंच सके.

लंगा-मांगणियार भी परेशान

लॉकडाउन के कारण पश्चिमी राजस्थान के लंगा-मांगणियार कलाकार भी खासी मुश्किल में हैं. बाकी कलाकारों की तरह ये भी फिलहाल बेरोजगार बैठे हैं.

जैसलमेर के प्रसिद्ध गायक दारे खान और उनके साथी भी फिलहाल खाली हैं. वे बताते हैं, ‘आसपास के 130 गांव-ढाणियों में एक हजार से ज्यादा कलाकार हैं जो हमारी संस्था कमायचा लोक संगीत संस्थान के साथ जुड़े हुए हैं. कलाकारों के पास सबसे ज्यादा काम सर्दी और गर्मियों में आता है. सर्दिंयों का सीजन तो अच्छा निकला, लेकिन इस बार की गर्मियां बिना काम के जा रही हैं.’

वे बताते हैं, ‘हमें सरकारी कार्यक्रम काफी संख्या में मिलते हैं, लेकिन इस बार कोरोना के चलते ये भी नहीं हुआ. कई साथी कलाकारों ने सरकार द्वारा निकाली गई योजना में वीडियो भेजे हैं, लेकिन किसी को भी सहायता अभी तक नहीं मिली है.’

कुल मिलाकर लोक कलाओं से गुलज़ार रहने वाले राजस्थान में कोरोना वायरस और लॉकडाउन के चलते सन्नाटा पसरा है.

रेगिस्तान के धोरे खड़ताल की आवाज के लिए तरस रहे हैं. कालबेलिया और घूमर डांसरों के घुंघरू भी शांत हैं. कठपुतलियों को नचाने वाली उंगलियां भी बेजान-सी हैं.

फसल कटने के बाद पूर्वी राजस्थान के किसान अपनी विरासत रूपी लोक कलाओं को जिंदा रखने की कोशिश करते थे. गर्मियों में हर साल अलग-अलग गांवों में रसिया और हेला ख्याल दंगल के मजमे लगते थे जो इस साल कोरोना की भेंट चढ़ चुके हैं.

अब तो प्रदेश का हर लोक कलाकार यही दुआ कर रहा है कि जल्द ही कोरोना के कहर का बादल छंटे तो उनकी जिंदगी में कलाओं के रंग फिर से सजें.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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