‘बॉयज़ लॉकर रूम’ के ताले खुलें, इसके लिए बात करना ज़रूरी है

इस दुनिया में बेटियों की परवरिश मुश्किल है, लेकिन उससे भी ज़्यादा चुनौतीपूर्ण बेटों की परवरिश करना है. देर-सवेर सामने आते लड़कों के सीक्रेट ग्रुप बताते हैं कि इसकी परतें हमारे समाज और परवरिश के बीच उलझी हुई हैं.

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(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

इस दुनिया में बेटियों की परवरिश मुश्किल है, लेकिन उससे भी ज़्यादा चुनौतीपूर्ण बेटों की परवरिश करना है. देर-सवेर सामने आते लड़कों के सीक्रेट ग्रुप बताते हैं कि इसकी परतें हमारे समाज और परवरिश के बीच उलझी हुई हैं.

An employee speaks on a mobile phone as she eats her lunch at the cafeteria in the Infosys campus in Bengaluru, India, September 23, 2014. REUTERS/Abhishek N. Chinnappa/File Photo
(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

पांच साल पहले आई फिल्म ‘दृश्यम’ याद है? अगर आपने ये फिल्म देखी है तो इसकी कहानी कभी नहीं भूल सकते.

एक मिडिल क्लास परिवार की लड़की स्कूल ट्रिप पर जाती है जहां एक लड़का उसका अश्लील वीडियो बना लेता है. बाद में उसके जरिये ब्लैकमेल करता है और तनाव इतना बढ़ जाता है कि बेटी की मां के हाथों उस लड़के की हत्या हो जाती है.

कहानी बेटी के पिता (अजय देवगन) और उस परिवार की है कि वो किस-किस जतन से ये पूरा मामला छिपा लेते हैं. यहां तक कि मारे गए लड़के की पुलिस अफसर मां (तब्बू) भी आखिर तक कुछ नहीं जान पातीं.

पूरी फिल्म में आप जहनी तौर पर उस परिवार का हिस्सा बन जाते हैं और यही सोचते रहते हैं कि काश मर्डर के लिए उन्हें कोई न पकड़ पाए. अंत में जीत इस परिवार की ही होती है और लड़के के मां-बाप सबूत ढूंढते-ढूंढते हार जाते हैं.

कहानी में सस्पेंस, ड्रामा, इमोशन सब कुछ था. मैसेज भी था- कि इस दुनिया में अपनी बेटियों की परवरिश करना मुश्किल चुनौती है. लेकिन उससे भी ज्यादा चुनौतीपूर्ण है बेटों की परवरिश. यही बात अंत में ब्लैकमेलर बेटे के माता-पिता कबूलते भी हैं.

‘बॉयज़ लॉकर रूम’ मामला ऐसी सैकड़ों कहानियों की शुरुआत बनता नजर आया है. जहां लड़कियों के हमउम्र क्लासमेट उनका बलात्कार करने की कल्पना कर रहे हैं.

ये सोच जितना हैरान करती है उतनी ही डरावनी भी है. ये ग्रुप सिर्फ टाइम-पास के लिए शुरू किया गया लेकिन जैसे ही इसमें 50 से ज्यादा नाम जुड़े, बातों ने अश्लीलता से भी आगे बढ़ते हुए हिंसा का रंग ले लिया.

लड़कों ने लड़कियों की तस्वीरों को मॉर्फ करते हुए और अश्लील बनाया और ब्लैकमेलिंग भी शुरू कर दी. जो स्क्रीनशॉट्स सामने आए हैं उनमें एक लड़का अपने दोस्तों को गैंगरेप के लिए उकसा रहा है.

यक़ीनन गैंगरेप ऐसे ही किए जाते होंगे. जहां एक शख्स का वहशीपन बाकी सब पर भी हावी हो जाता होगा. जहां हमउम्र लड़के ये भूल जाते होंगे कि उनकी साथी लड़की उनकी सबसे अच्छी दोस्त हो सकती है, ठीक वैसे ही जैसे कोई दूसरा लड़का है.

आखिर वो कौन-सी चीज है जिसकी वजह से एक सभ्य परिवार, बड़े स्कूल और अच्छी जिंदगी के बीच आप बलात्कार करने को तैयार हैं. मनोवैज्ञानिक और रिसर्चर्स इसे Sexually violent teenage या यौन हिंसक किशोरावस्था कहते हैं.

आमतौर पर इस उम्र में कई युवा अपनी परेशानियों का हल सेक्स या उससे जुड़ी मानसिक हिंसा के जरिये ढूंढने लगते हैं. हालांकि इसकी परतें हमारे समाज और परवरिश के बीच उलझी हुई हैं.

हिंसक प्रवृत्ति कैसे बनती है मानसिकता का हिस्सा

दिल्ली की एक साधारण-सी कॉलोनी की बात है. एक घर में पति-पत्नी के बीच झगड़ा हो जाता है. इस परिवार में हर उम्र के सदस्य हैं, सास-ससुर, बहू-बेटा, पोता-पोती.

पति गुस्से में आपा खो बैठता है और पत्नी को मारना शुरू करता है. मारते-मारते उसे बालों से घसीटकर घर की छत तक ले जाता है. वो पत्नी से माफी मांगने को कहता है वरना उसे वहां से नीचे धक्का देने वाला है.

बच्चे अपनी मां को इस हाल में देख रहे हैं, सास-ससुर बहू को, लेकिन कोई उस आदमी को रोक नहीं रहा है. अंत में कुछ पड़ोसी जमा होकर नीचे से आवाज़ लगाते हैं और मामला संभालते हैं.

जरा सोचिए उस बेटे के लिए ये हालात क्या सबक छोड़कर जाएंगे. अपनी मां की बेइज्जती शायद उसकी जिंदगी का हिस्सा बन जाएगी.

मुमकिन है कि उसकी मानसिकता में महिलाओं को इसी बर्ताव के लायक समझा जाएगा. अब सोचिए उस बेटी के मन में क्या चलता होगा. उसे हिंसा से जूझने के लिए पहले ही तैयार हो जाना है क्योंकि उसने अपनी मां को इसी संघर्ष से गुजरते देखा है.

एक बात तो साफ है कि महिलाओं की इज्जत का पहला सबक आपको अपने परिवार में ही मिलता है. समाज की ये परत बच्चों से लड़कों में, और लड़कों से पुरुषों में तब्दील हो रहे चेहरों में खुलकर सामने आती है.

बॉयज़ लॉकर रूम का होना और डरावना है

‘लॉकर रूम टॉक यानी ‘सीक्रेट बातों’ के लिए ऐसे किसी भी ग्रुप का बनाया जाना आम बात है. अश्लील जोक्स और सेक्स की कल्पना भी आम बात है.

लेकिन ये वो उम्र है जब लड़कों के दिमाग में लड़कियों के लिए अपनी सोच की असल जड़ें तैयार हो रही हैं. ये सोच आगे जाकर सामाजिक व्यवस्था पर गहरा असर डालती है.

ऐसे में जहां बरसों की जद्दोजहद के बाद निर्भया मामले में आए फैसले से राहत महसूस की जाती है, वहीं दिल्ली के बड़े स्कूलों के लड़के इतनी आसानी से अपनी क्लासमेट का गैंगरेप करने को तैयार बैठे हैं.

इस बात से सिर्फ बेटियों के ही नहीं बल्कि बेटों के माता-पिता को भी विचलित होने चाहिए. अगर युवाओं के किसी भी हिस्से को ये लगता है कि मर्दानगी के साथ उन्हें हर तरह की हिंसा का लाइसेंस मिल जाता है, तो उनके सामने खड़ी कोई भी महिला इस रेप-कल्चर की चपेट में आ सकती है.

फोर्ब्स की रिसर्च के मुताबिक ‘जेंडर इनइक्वॉलिटी’ में भारत 50 देशों में सबसे खराब रहा है. यहां बलात्कार के 90 फीसदी मामलों में पीड़ित महिला पुरुष को पहले से जानती हैं.

रॉयटर्स, द गार्डियन, वॉशिंग्टन पोस्ट और नेशनल ज्योग्राफिक जैसी अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थाएं बरसों से महिलाओं के लिए भारत के असुरक्षित होने पर कवरेज करते रहे हैं.

‘बॉयज़ लॉकर रूम’ से डरिए मत क्योंकि समय रहते इसका बाहर आना जरूरी था, अब समय है कि आगे की सोची जाए.

बदलाव आना मुमकिन है

इस मामले के सामने आने पर बहुत से माता-पिता की बातें और सवाल सामने आए. कुछ ने कहा कि लड़के ऐसे ही होते हैं, बाद में ठीक हो जाते हैं.

कुछ ने कहा कि लड़कियों को और सावधान रहना होगा. कुछ बस परेशान थे. लेकिन कई मांओं को मैंने खुलकर बोलते देखा, खासकर वो जिनके बेटे उम्र के इसी मोड़ से गुजर रहे थे.

हम ये नहीं भूल सकते कि जिंदगी के इस पहलू में मां-बाप की बड़ी भूमिका है इसीलिए हर मां अपने बेटे की गलती को गलत कहने में न कतराए और उसे शुरुआत से ही औरत की इज्जत करना सिखाए.

पिता ये याद रखें कि वो अपने बेटे के लिए किसी भी फिल्मी हीरो ये ज्यादा बड़े रोल-मॉडल हैं. ऐसे में आधा बदलाव घर की चारदीवारी में ही लाया जा सकता है.

बाकी आधे काम को पूरा करने के लिए हमें एक समाज के तौर पर लगातार उदाहरण बनाते रहने होंगे.

किसी क्लासमेट की गंदी तस्वीर बांटते लड़के को अपना ही दोस्त ऐसा करने से रोके तो शायद वो बात समझ जाए. अगर स्कूल और कॉलेज पढ़ाई के साथ-साथ लड़के-लड़कियों की बराबरी को भी अपना उद्देश्य बनाएं तो शायद बहुत फ़र्क पड़ेगा.

सेक्स को तालों में बंद न करते हुए उस पर अपने बच्चों से बात की जाए, तो शायद वो उसे अश्लीलता में तब्दील न करें. बदलाव के लिए ऐसी कई सीढ़ियां हमें ‘शायद’ कहकर चढ़नी होंगी, ताकि एक नीच सोच को बेहतर और साफ विचारों में तब्दील किया सके.

(अफ़शां अंजुम वरिष्ठ टीवी पत्रकार हैं.)

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