किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घाटे का सौदा है

वास्तव में किसानों से उपज खरीदने वालों से व्यापार में नैतिकता की अपेक्षा भर की जाती रही. सरकार ने यह कोशिश कभी नहीं की कि किसानों को उचित कीमतें मिलें.

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(फाइल फोटो: रॉयटर्स)

वास्तव में किसानों से उपज खरीदने वालों से व्यापार में नैतिकता की अपेक्षा भर की जाती रही. सरकार ने यह कोशिश कभी नहीं की कि किसानों को उचित कीमतें मिलें.

Farmers Reuters
फोटो: रॉयटर्स

न्यूनतम समर्थन मूल्य की नीति, राजनीति और अर्थनीति को अच्छे से समझ लेना जरूरी है. वर्ष 1965 से चल रही देश की खाद्य नीति के तहत सरकार कुछ कृषि उपजों का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करती है.

इस मूल्य निर्धारण का मकसद होता है देश में खाद्यान्न और कृषि उपजों की कीमतों पर नियंत्रण रखते हुए किसानों को उपज का सही मूल्य सुनिश्चित करना.

हमें यह सिखाया जाता है कि इसका मतलब केवल सरकारी खरीद से होता है, जबकि सच यह है कि मंडी और खुले बाज़ार में भी किसानों को उनकी उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलना चाहिए.

यदि खुले बाज़ार या मंडी में किसी जिंस या उत्पाद का मूल्य न्यूनतम समर्थन मूल्य से ज्यादा होता है, तो किसान को यह स्वतंत्रता होती है कि वह अपनी उपज ऊंचे दामों पर बेचें.

वास्तव में इस व्यवस्था में किसानों से उपज खरीदने वालों से व्यापार में नैतिकता की अपेक्षा भर की जाती रही. कीमतों का नियमन करने की भूमिका निभाते हुए सरकार ने यह कोशिश कभी नहीं की कि किसानों को खुले बाज़ार और मंडी में भी उचित कीमतें मिलें.

नेशनल सैम्पल सर्वे आॅर्गनाइजेशन (एनएसएसओ/70वां दौर/दिसंबर 2014) ने भारत में किसान परिवारों की स्थिति पर एक अध्ययन जारी किया. इसमें बताया गया कि केवल 32.2 प्रतिशत किसानों को धान के समर्थन मूल्य के बारे में और 39.2 प्रतिशत को ही गेहूं के समर्थन मूल्य के बारे में कोई जानकारी थी.

उड़द के बारे में तो 5.7 प्रतिशत को ही जानकारी थी. अध्ययन से यह पता चला कि जुलाई 2012 से जून 2013 के बीच (दो छमाही में) एक हजार कृषक परिवारों में से गेहूं बेंचने वाले 368 किसान थे.

इनमें से केवल 25 ने (6.8 प्रतिशत) ने ही सीधे सहकारी संस्था या सरकारी खरीद संस्था को गेहूं बेंचा. 50 प्रतिशत कृषकों ने स्थानीय व्यापारी को और 35 प्रतिशत ने मंडी में अपनी उपज बेंची.

एक हजार कृषक परिवारों में से 638 परिवारों ने धान बेंचा, पर सरकारी खरीद संस्था या सहकारी संस्था को बेंचने वाले केवल 67 कृषकों (6.4 प्रतिशत) थे.

अरहर का न्यूनतम समर्थन मूल्य तो तय होता है, पर उसे मानता कोई नहीं, यहां तक कि सरकार भी नहीं. अरहर बेचने वाले 768 किसानों में से केवल 1 ने सरकारी खरीदी एजेंसी या सहकारी संस्था को दलहन बेंची.

भारत सरकार 22 से 23 जिंसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है, किंतु खरीदती है केवल गेहूं और चावल ही. वह भी कुछ चुने हुए राज्यों से. हमारी नीति अब अब बहुत भेदभावकारी हो चुकी है. वास्तव में पहले समर्थन मूल्य का सही निर्धारण होना चाहिए और फिर कृषि उपज के समग्र व्यापार की नीति का आधार ही न्यूनतम समर्थन मूल्य होना चाहिए. निजी क्षेत्र और खुले बाज़ार को भी इसके समर्थन मूल्य के प्रति जवाबदेह बनाया जाना चाहिए.

अगला बिंदु यह है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने की मौजूदा प्रक्रिया और सोच विसंगतिपूर्ण है. अलग अलग राज्यों में कृषि उपज की लागत, उत्पादकता और मानव श्रम का अनुपात भिन्न-भिन्न है. इस भिन्नता का अभी कहीं संज्ञान नहीं लिया जाता है.

वर्ष 2014-15 में गेहूं की परिचालन लागत बिहार में 1449 रुपये प्रति क्विंटल थी, जबकि पंजाब में 528 रुपये. इसी तरह मक्का की परिचालन लागत हिमाचल प्रदेश में 874 रुपये प्रति क्विंटल थी, जबकि गुजरात में 2239 रुपये प्रति क्विंटल. यह तो दिखाई दे ही रहा है कि उपज की परिचालन लागत में विभिन्नता है.

लेकिन जब हम अलग-अलग राज्यों की उत्पादकता को आधार बना कर विश्लेषण करते हैं, तब हमें पता चलता है कि वास्तव में समर्थन मूल्य के निर्धारण में परिवहन, उपज के भण्डारण, विभिन्न करों/शुल्कों, उत्पादन से पहले और बाद की प्रक्रियाओं में लगने वाले श्रम का मूल्यांकन शामिल नहीं किया गया है.

कृषि लागत एवं मूल्य आयोग न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने के लिए एक मानक आंकलन (ए2एफएल) करता है. इस आंकलन में अलग-अलग राज्यों में विभिन्न जिंसों के उत्पादन की लागत निकलता है. इसमें मानव श्रम, मशीन श्रम, पशु श्रम, बीजों, उर्वरक, कीटनाशक, सिंचाई, ब्याज और अन्य व्यय का मूल्यांकन करता है.

आयोग के मुताबिक उत्पादन के लिए किए गए सभी तरह के नकद खर्चों के साथ इसमें पारिवारिक श्रम और ब्याज को भी शामिल किया गया है, अतः उसके द्वारा किया गया आंकलन वास्तविक व्यय को निश्चित रूप से दर्शाता है. इसी के आधार पर वह ऐसा समर्थन मूल्य तय करता है, जो किसानों को उनकी उपज का ‘लाभदायी प्रतिफल’ प्रदान करता है.

10 मार्च 2017 को कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने राज्य सभा में बताया कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से किसानों को गेहूं में 103.89 प्रतिशत, धान में 40.67 प्रतिशत, मक्का में 41.30 प्रतिशत, अरहर में 55.82 प्रतिशत और मक्का में 28.54 प्रतिशत का न्यूनतम लाभ होता ही है. यदि ऐसा है, तो किसान संकट में क्यों है?

वास्तविकता जानने के लिए हमें कुछ जोड़ घटाना करना होगा. वर्ष 2014-15 के लिए आयोग ने माना था कि गेहूं का एएफ़एल (यानी सभी नकद खर्च और परिवार के श्रम को मिलाकर) लागत 6879.25 रुपये होगी, जबकि बिहार से लेकर हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, गुजरात, राजस्थान तक यह राशि परिचालन लागत से बहुत कम रही.

कृषि लागत एवं मूल्य आयोग ने बताया कि बिहार में गेहूं की प्रति हेक्टेयर उत्पादन परिचालन लागत 26816.98 रुपये है. वर्ष 2014-15 में बिहार में एक हेक्टेयर में 18.51 क्विंटल गेहूं का उत्पादन हुआ था, इस मान से बिहार में किसान को एक क्विंटल गेहूं के उत्पादन के लिए 1449 रुपये खर्च करना पड़े, जबकि उस साल न्यूनतम समर्थन मूल्य था 1450 रुपये. किसान को प्राप्ति हुई – एक रुपये की.

पश्चिम बंगाल में 39977 रुपये प्रति हेक्टेयर की लागत लगाकर किसान 28.36 क्विंटल गेहूं का उत्पादन कर रहा था; एक क्विंटल के लिए उसने 1410 रुपये खर्च किए, न्यूनतम समर्थन मूल्य था 1450 रुपये यानी प्राप्ति थी 40 रुपये.

पंजाब अब मशीन से खेती कर रहा है और खूब रासायनिक पदार्थों का इस्तेमाल कर रहा है. वहां एक हेक्टेयर में 528 रुपये प्रति क्विंटल के खर्चे से 44.91 क्विंटल गेहूं उपजाया गया. पंजाब की तात्कालिक तौर पर उत्पादकता ज्यादा हुई और वहीं से भारत सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य हर साल सबसे ज्यादा गेहूं खरीदा भी; जिससे वहां के किसानों को एक हद तक लाभ हुआ.

इसके उलट महाराष्ट्र की हालत बहुत खराब रही. वहां एक क्विंटल गेहूं की लागत 2448 रुपये (33806 रुपये/हेक्टेयर पर 13.81 क्विंटल उपज) आई, जबकि समर्थन मूल्य था 1450 रुपये.

इसी तरह मक्का का मामला भी है. गुजरात में 35581 रुपये प्रति हेक्टेयर के परिचालन व्यय से 15.89 क्विंटल मक्का का उत्पादन हुआ यानी लागत 2239 रुपये प्रति क्विंटल रही, पर न्यूनतम समर्थन मूल्य 1310 रुपये रहा. इसी तरह मध्य प्रदेश में मक्का की परिचालन लागत 1370 रुपये रही, पर समर्थन मूल्य तय हुआ 1310 रुपये.

महाराष्ट्र में मक्का की परिचालन लागत 2820 रुपये, राजस्थान में 1867 रुपये, ओड़ीसा में 1925 रुपये रही. कुल मिलाकर इन राज्यों के के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य बेहद घाटे का सौदा ही रहा. बहरहाल पंजाब, हिमाचल प्रदेश, आँध्रप्रदेश जैसे कुछ राज्यों के लिए समर्थन मूल्य थोड़ा फायदे का सौदा रहा.

राज्यों की अनसुनी आवाजें

कृषि लागत एवं मूल्य आयोग खेती के हर मौसम (रबी और खरीफ) में राज्य सरकारों को एक प्रश्नपत्र भेजता है. जिसमें कृषि कर्म से संबंधित व्यापक जानकारियां संकलित की जाती हैं. इसी में आयोग राज्य सरकार से पूछता है कि उनके हिसाब से उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य कितना होना चाहिए?

वर्ष 2017-18 के लिए गुजरात सरकार ने सुझाया था कि गेहूं का समर्थन मूल्य 2150 रुपये होना चाहिए, बिहार ने 2193, पंजाब ने 2040 रुपये तय करने का सुझाव दिया था. मध्य प्रदेश ने 1530 रुपये और बिहार ने 1600 रुपये रखने का सुझाव दिया था. आयोग ने इस वर्ष के लिए गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1625 रुपये तक किया. इसका आशय यह है कि मध्य प्रदेश और बिहार ने समर्थन मूल्य सबसे कम रखने का आग्रह किया था.

इसी तरह धान के लिए आंध्रप्रदेश ने 6062 रुपये, बिहार ने 4435 रुपये, ओड़ीसा ने 3700 रुपये, पंजाब ने 3995 रुपये, महाराष्ट्र ने 4200 रुपये और मध्य प्रदेश ने 4000 रुपये रखने का सुझाव दिया था, पर आयोग ने तय किया 1550 रुपये. आयोग का निर्धारण किसी राज्य की जरूरत और अपेक्षाओं से भी मेल नहीं खाता है.

उड़द के संदर्भ में बिहार ने 6000 रुपये, आंध्र प्रदेश ने 7961 रुपये, गुजरात ने 6500 रुपये, महाराष्ट्र ने 8439 रुपये, कर्नाटक ने 6500 रुपये मूल्य तय करने का सुझाव दिया था. मध्य प्रदेश का सुझाव था कि उड़द का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5000 रुपये हो. आयोग ने तय किया 5200 रुपये प्रति क्विंटल.

यही बात मूंग से भी जुड़ती है. कृषि लागत और मूल्य आयोग ने मूंग का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5375 रुपये सुझाया, जबकि आंध्र प्रदेश ने 8976 रुपये, गुजरात ने 5600 रुपये, झारखंड ने 6189 रुपये और मध्य प्रदेश ने 7000 रुपये करने की वकालत की थी.

कुल मिलाकर आयोग ने राज्य सरकारों के सुझावों पर भी कोई खास ध्यान नहीं दिया. ऐसे में आज जरूरी है कि संविधान के प्रावधान (कि कृषि राज्य सरकार का विषय है) के संदर्भ में केंद्र सरकार और इस तरह के आयोगों की जवाबदेही सुनिश्चित होनी जरूरी है, ताकि किसान और कृषि विरोधी नीतियों को पलटा जा सके.

(लेखक सामाजिक शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)

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