क्यों फर्ज़ी ख़बरें भाजपा की पहचान बनती जा रही हैं?

किसी व्यक्ति या संस्थान के व्यक्तित्व को कुछ शब्दों में परिभाषित किया जा सकता है. ‘वंशवाद’ शब्द से सीधे कांग्रेस हमारे दिमाग मे आती है. भ्रष्टाचार शब्द से यूपीए हमारे दिमाग में आता है. वहीं फेक या फ़र्जी शब्द अब भाजपा की मिल्कियत बनता जा रहा है.

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किसी व्यक्ति या संस्थान के व्यक्तित्व को कुछ शब्दों में परिभाषित किया जा सकता है. ‘वंशवाद’ शब्द से सीधे कांग्रेस हमारे दिमाग मे आती है. भ्रष्टाचार शब्द से यूपीए हमारे दिमाग में आता है. वहीं फेक या फ़र्जी शब्द अब भाजपा की मिल्कियत बनता जा रहा है.

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भाजपा नेता प्रताप सिम्हा, नूपुर शर्मा और परेश रावल

2002 के गुजरात नरसंहार की फोटो को पश्चिम बंगाल की बताकर, जिसके कुछ हिस्से पिछले कुछ दिनों से हिंसा का सामना कर रहे हैं, सोशल मीडिया पर शेयर करने का काम कोई विकृत दिमाग वाला ही कर सकता है.

बंगाल के एक हिस्से में एक अप्रिय फेसबुक पोस्ट के बाद मुस्लिम समूह हिंसा पर उतर आए और जब सरकार चीजों को शांत करने की कोशिश कर रही है, भाजपा ने यह दिखाने के लिए संगठित अभियान शुरू कर दिया है कि वहां हालात कितने खराब हैं.

इस बात को साबित करने के लिए ज़मीन से काफी खबरें आ रही हैं, लेकिन इनकी जगह भाजपा प्रवक्ता नूपुर शर्मा ने एक जलती हुई गाड़ी की तस्वीर का इस्तेमाल किया, जो असल में 15 साल पहले गुजरात में ली गई थी.

ऑनलाइन फ़र्जीवाड़ा कोई नई बात नहीं है और भगवा पार्टी इस झूठ के खेल की सबसे अच्छी खिलाड़ियों में शामिल है. लेकिन, अतीत के असंतोषजनक रिकॉर्ड को देखते हुए भी यह हालिया उदाहरण खासतौर पर बुरा है.

संघ परिवार- इसके सदस्यों और सहयोगियों- ने 2002 के नरसंहार की बर्बरता को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है, जिसमें एक अनुमान के मुताबिक करीब 1,200 लोगों की हत्या की गई थी. तीन दिन तक चलने वाले मृत्यु-तांडव की जो तस्वीरें बाहर आईं, उन्होंने दुनिया को दूसरी ही कहानी बताई.

गुजरात की तस्वीर को बसीरहाट के बलवे की तस्वीर बताकर #सेवबंगाल (#saveBengal) के तौर पर शेयर करना एक निचले दर्जे की अनैतिकता को दिखाता है.

इसी के साथ इससे ज्यादा विंडबना क्या होगी कि ये तस्वीर एक ऐसे राज्य से उठाई गई, जहां नरेंद्र मोदी के शासन में दंगे हुए और जिसके लिए #डिडनॉटसेवगुजरात (#didnotsaveGujarat) ज्यादा मुफीद होता. लेकिन शर्मा को यह ख्याल नहीं आया और इससे भी ज्यादा ख़राब बात ये है कि उन्होंने इसकी कोई परवाह नहीं की.

यह ट्वीट फ़र्जी या विकृत सामग्री की मदद से घृणा फैलाने का अकेला उदाहरण नहीं है. भाजपा सांसद प्रताप सिम्हा ने रविवार को एक तस्वीर ट्वीट की, जिसमें कथित तौर पर टाइम्स ऑफ इंडिया की एक हेडलाइन लगी थी, जिसमें कहा गया था, ‘हिंदू गर्ल स्टैब्ड टू डेथ बाय मुस्लिम मैन’ (हिंदू लड़की की एक मुस्लिम व्यक्ति ने चाकू घोंप कर हत्या की).

ऐसी कोई हेडलाइन कभी भी टाइम्स ऑफ इंडिया या किसी दूसरे अख़बार ने लगाई ही नहीं थी. यह निस्संदेह किसी फोटोशॉप उस्ताद की कारगुज़ारी थी.

सिन्हा ने इसकी सच्चाई जांचने की ज़हमत उठाए बगैर, क्योंकि यह उनके-और उनकी पार्टी की, समझदारी के अनुरूप थी, इसे ट्वीट कर दिया. हालांकि, बाद में उन्होंने इसे डिलीट कर दिया.

बीते दिनों, अभिनेता और सांसद परेश रावल, जो हमेशा अपनी पार्टी के वैचारिक विरोधियों पर हमला करने की ताक में रहते हैं, ने पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के एक कथित बयान को ट्वीट किया था, जिसमें यह दावा किया गया था, पाकिस्तान ने उन्हें उनके लिए काम करने के लिए संपर्क साधा था, लेकिन उन्होंने देशभक्त होने के कारण ऐसा नहीं किया.

इसके साथ की गई रावल की टिप्पणी थी, ‘स्ट्रिक्टली फॉर सूडो लिबरल्स’ (सिर्फ छद्म उदारवादियों के लिए). हालांकि, कलाम ने कथित तौर पर जो कहा और छद्म उदारवादियों के बीच रिश्ता समझ से परे है. एक बार फिर यह एक फ़र्जी उद्धरण था.

टेलीविजन पर भाजपा के कभी न झुकने वाले चेहरे संबित पात्रा ने टाइम्स ऑफ इस्लामाबाद की एक जाली स्टोरी को ट्वीट करते हुए, जिसमें एनडीटीवी की एक स्टोरी का हवाला होने का दावा किया गया था, उल्लास के साथ घोषणा की, ‘हम्म… एजेंडा’ (अच्छा…एजेंडा).

सच्चाई यह थी कि यह इंडियन एक्सप्रेस के लिए पी. चिदंबरम द्वारा लिखा गया एक लेख था.

आखिर ये महानुभाव साफ-साफ समझ में आने वाले फरेब के चक्कर में कैसे पड़ गए और आखिर उन्होंने अपने रिसचर्रों से इसकी बुनियादी जांच-पड़ताल करने की ताकीद क्यों नहीं की?

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प्रताप सिंह का ‘फ़र्जी’ ट्वीट और असली ख़बर (साभार: ऑल्ट न्यूज़)

एक मुमकिन जवाब ये हो सकता है कि उन्हें यह सामग्री पार्टी की तरफ से मिली और उन्होंने बस इसे आगे बढ़ा देने का काम किया.

दूसरी वजह ये हो सकती है कि वे पार्टी के विरोधियों- ‘सिकुलर्स’, ‘लिबटाडर्स’, ‘प्रेसिट्यूट्स’ और ‘कांगियों’ पर हमला करने के लिए इतने उतावले हैं कि वे कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं देते.

वे सोशल मीडिया पर जो पोस्ट साझा करते हैं, उसकी सत्यता उनके लिए कोई मायने नहीं रखती, मायने रखता है, बस उसका (झूठा) संदेश. सफेद झूठ भाजपा के तरकश का एक अहम तीर बन गया है.

एक तीसरी और कहीं ज्यादा डरावनी संभावना भी है, और वह ये कि और सिर्फ साधारण भक्त ही नहीं बल्कि प्रभावशाली लोग भी इस बात से पूरी तरह से वाकिफ हैं कि वे झूठ का प्रचार कर रहे हैं.

लेकिन वे इन्हें मिटाने या वापस लेने से पहले (बगैर कोई माफी मांगे) इसका भरपूर फायदा उठा लेना चाहते हैं और इच्छित संदेश को लोगों तक पहुंचा देना चाहते हैं.

इसके पीछे मकसद अधिक से अधिक संख्या में उन उत्तेजित समर्थकों तक पहुंचना है, जो हर तरह के मूर्खतापूर्ण दावों को निगलने के लिए तैयार बैठे हैं-खासतौर पर पर तब जब ये दावे उनके उनके पूर्वाग्रहों को मजबूत करने वाले हों.

और अगर यह संदेश एक सांसद जैसे ऊंचे पद पर बैठे व्यक्ति की तरफ से आता है, तो उसका वजन और बढ़ जाता है. तब इसे वॉट्सएप और मौखिक तौर पर आगे तक प्रसारित किया जाता है, जिससे इसका असर चरम पर पहुंच जाता है.

किसी ज़माने में जो काम अफवाहों के द्वारा किया जाता था, उसे तकनीक ने और धार दे दी है. सूचना सही है या झूठी है, यह सवाल इन स्थितियों में कोई अहमियत नहीं रखता.

वास्तव में जैसा कि ऐसी फ़र्जी खबरों की हकीकत को उजागर करने वाली वेबसाइट आॅल्ट न्यूज (Alt-news) ने दिखाया है, बसीरहाट के नाम से झूठी खबरें बाहर लाने का एक पूरा कुटीर उद्योग ही चलाया जा रहा है.

किसी व्यक्ति या संस्थान के व्यक्तित्व को कुछ शब्दों में परिभाषित किया जा सकता है. ‘वंशवाद’ शब्द से सीधे कांग्रेस हमारे दिमाग मे आती है. भ्रष्टाचार शब्द से यूपीए हमारे दिमाग में आता है. फेक या फ़र्जी शब्द अब भाजपा की मिल्कियत बनता जा रहा है.

कुछ समय पहले तक निचले दर्जे के समर्थक या ट्रोल कारखानों में काम करने वाले भाड़े के मजदूर झूठे संदेशों को फैलाने का काम किया करते थे.

अब पार्टी के महत्वपूर्ण नेताओं ने यह ज़िम्मा संभाल लिया है. इसे महज संयोग कहकर ख़ारिज नहीं किया जा सकता है. नूपुर शर्मा के ट्वीट ने यह दिखाया कि पार्टी अब अपने संदेशों की सत्यता और प्रामाणिकता की परवाह करने के दौर से काफी आगे निकल गई है.

दांव काफी ऊंचा लगा है और राजनीतिक विरोधियों पर किसी भी मुमकिन हथियार से हमला किया जाना है. इन हालातों में सच का पता लगाना, तथ्यों की जांच-पड़ताल करना, एक ग़ैरज़रूरी मेहनत है.

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