रक्षा ऑडिट रिपोर्ट्स को देश के नागरिकों से क्यों छिपाया जा रहा है?

रक्षा मंत्रालय की ऑडिट रिपोर्ट्स के सार्वजनिक पटल पर उपलब्ध न होने का सबसे अधिक नुक़सान इसके मुख्य स्टेकहोल्डर यानी आम नागरिकों को है. ऑडिट के निष्कर्षों तक सीमित पहुंच होना ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर एक सूचनापरक विमर्श होने में बाधा डालता है.

(साभार: संबंधित वेबसाइट)

रक्षा मंत्रालय की ऑडिट रिपोर्ट्स के सार्वजनिक पटल पर उपलब्ध न होने का सबसे अधिक नुक़सान इसके मुख्य स्टेकहोल्डर यानी आम नागरिकों को है. ऑडिट के निष्कर्षों तक सीमित पहुंच होना ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर एक सूचनापरक विमर्श होने में बाधा डालता है.

(साभार: सीएजी वेबसाइट)
(साभार: संबंधित वेबसाइट)

भारत के निवर्तमान नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक राजीव महर्षि ने अपने कार्यकाल की समाप्ति पर दिए गए एक इंटरव्यू में यह दावा किया कि सीएजी की रक्षा ऑडिट रिपोर्ट्स को ऑनलाइन उपलब्ध न करवाने का निर्णय खुद उनका था और इस बाबत ऑडिट की जाने वाली इकाई (यानी रक्षा मंत्रालय) द्वारा कोई अनुरोध उनसे नहीं किया गया था.

‘इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपनी एक टिप्पणी में महर्षि बताते हैं कि जब वह गृह मंत्रालय में थे तब भारतीय सेना के पास गोला-बारूद की कमी के बारे में आई एक सीएजी रिपोर्ट पर विवाद पैदा हुआ था.

‘जब मैं गृह मंत्रालय में था तब पाकिस्तान के साथ बेहद तनाव चल रहा था. तभी एक सीएजी रिपोर्ट आई, जिसमें यह बताया गया था कि गोला-बारूद की कितनी कमी है… कुल मिलाकर, अगर कमी है तो भी… मान लीजिए की है, तो दुश्मन को तो मालूम नहीं होना चाहिए.’

‘… संसद को हम रिपोर्ट दे रहे हैं, पीएसी को हम रिपोर्ट दे रहे हैं. यह कोई सीक्रेट नहीं है. कम से कम इसे हम एक क्लिक पर उपलब्ध नहीं करवा रहे हैं. कोई वाशिंग्टन में देख रहा है, बीजिंग में देख रहा है और इस्लामाबाद में भी देख रहा है, इसलिए हमने यह निर्णय लिया.’

भारत के एक पूर्व सीएजी का यह बयान तीन वजहों से भारतीय जनता के लिए चिंता का विषय होना चाहिए.

पहला, इस संवैधानिक संस्था द्वारा किए जाने वाले विविध ऑडिट्स में से रक्षा ऑडिट विशेष महत्व रखते हैं. सीएजी द्वारा रक्षा ऑडिट्स किए जाने का लंबा इतिहास 1926 तक जाता है.

दूसरा, देश की जनता को रक्षा मंत्रालय के उस गैर-जिम्मेदाराना रवैये के बारे में पता होना चाहिए, जो वे रक्षा संबंधी इन ऑडिट रिपोर्ट्स के ऑडिट पैराग्राफ्स के प्रति रखते हैं, जिसके चलते ऐसे अनुत्तरित पैराग्राफ्स की संख्या हर साल बढ़ती जा रही है.

उदाहरण के लिए, ऐसी ऑडिट आपत्तियां जिनका निपटारा किया जाना शेष था, उनकी संख्या वर्ष 1991 में 7,261 थी, जो साल 2006 में बढ़कर 9,225 हो चुकी थी.

जैसा कि इस संवैधानिक संस्था का इतिहास लिखते हुए विजय कुमार अपनी पुस्तक ‘द कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया: अ थीमैटिक हिस्ट्री (1990-2007)’ में लिखते हैं,

‘एडीएआई (रक्षा) ने साल 2000 के जुलाई माह में रक्षा सचिव को निपटारे के लिए शेष 8,779 सांविधिक ऑडिट आपत्तियों के विषय में लिखा था और साथ ही यह भी उल्लिखित किया था कि इनमें सबसे पुरानी ऑडिट आपत्तियां वर्ष 1978-79 की हैं.’

विजय कुमार आगे लिखते हैं कि, ‘साल 2006 में लंबित ऑडिट आपत्तियों की संख्या देखने से पता चलता है कि इससे ज्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ.’

तीसरा और अंतिम, महर्षि का यह दावा कि रक्षा ऑडिट रिपोर्ट्स तक सार्वजनिक पहुंच को सीमित करने का फैसला सरकार का नहीं बल्कि उनका अपना था. उनका यह दावा मीडिया में पूर्व में इस बाबत आई ख़बरों के हिसाब से सही नहीं है.

19 दिसंबर 2018 को टाइम्स ऑफ इंडिया  में प्रदीप ठाकुर द्वारा इसी मसले पर की गई एक रिपोर्ट में एक अनाम सीएजी अफसर के बयान के मुताबिक, ‘ इन रिपोर्ट्स की संवेदनशीलता को देखते हुए यह रिपोर्ट्स रक्षा मंत्रालय के अनुरोध पर हटाई गई थीं.

ऑस्ट्रेलियाई नेशनल ऑडिट ऑफिस द्वारा पिछले वर्ष किए गए एक परफॉर्मेंस रिव्यू में ऑस्ट्रेलिया के रक्षा विभाग की मीडिया नीति की समीक्षा की गई थी.

सिडनी मॉर्निंग हेराल्ड  में इस ऑडिट पर छपी ख़बर के मुताबिक, ऑडिट में यह पाया गया कि ‘रक्षा विभाग की मीडिया रणनीति अभी भी बदलाव के दौर से गुजर रही है और पूर्ण रूप से प्रभावी नहीं है.’

जहां एक ओर विश्व के अन्य संवैधानिक लेखा परीक्षक अपने देश के रक्षा विभाग की मीडिया नीति की जांच करते हुए इस विषय पर चिंतित हैं कि क्या रक्षा विभाग समय पर मीडियाकर्मियों के सवालों का जवाब दे पा रहा है या नहीं, वहीं भारत के निवर्तमान नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक अपने ही कार्यालय की मीडिया रणनीति पर ही फिसलते और घिरते नजर आए.

रक्षा ऑडिट रिपोर्ट्स की महत्ता

सीएजी द्वारा तैयार की जाने वाली ऑडिट रिपोर्ट्स में रक्षा संबंधी ऑडिट रिपोर्ट्स एक महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं. पिछले कुछ दशकों में इन रिपोर्ट्स ने देश में कई बड़ी बहसों को जन्म दिया है.

रक्षा ऑडिट रिपोर्ट्स की महत्ता को रेखांकित करते हुए विजय कुमार ‘द कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया: अ थीमैटिक हिस्ट्री (1990-2007)’ के ‘डिफेंस ऑडिट’ चैप्टर में लिखते हैं,

‘वर्ष 1990 के बाद के दशकों में ऑडिट की इस शाखा ने संसद में प्रस्तुत कुछ रिपोर्ट्स और कुछ पैराग्राफ्स के चलते मीडिया और संसद दोनों का ही ध्यान अपनी ओर सबसे अधिक आकृष्ट किया है. साल 1989 में सीएजी की बोफोर्स संबंधी ऑडिट रिपोर्ट के चलते प्रेस और संसद में हंगामा मच गया था.

साल 2001 में कारगिल युद्ध खरीद (ऑपरेशन विजय) पर सीएजी की रिपोर्ट आई. अन्य रिपोर्ट्स जिन्होंने व्यापक रूप से सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा, उनमें शामिल हैं: ‘डिजाइन एंड डेवलपमेंट ऑफ मेन बैटल टैंक अर्जुन’ (1998 की रिपोर्ट नंबर 7), ‘डेवलपमेंट ऑफ मल्टी बैरल रॉकेट लॉन्चर सिस्टम’ (1999 में सामने आई रिपोर्ट) और ‘भारतीय वायु सेना में विमान दुर्घटनाएं’ (1998 की रिपोर्ट).

… रक्षा ऑडिट रिपोर्ट्स पर इतनी चर्चा होने के कारणों को समझना इतना कठिन नहीं है. रक्षा क्षेत्र पर किया जाने वाला 86,000 करोड़ रुपये का व्यय केंद्र सरकार द्वारा किया जाने वाला तीसरा सबसे बड़ा व्यय है.

देश की रक्षा तैयारियों और इससे जुड़े मुद्दों के प्रति देश का प्रत्येक नागरिक बेहद सचेत रहता है. इस संबंध में ऑडिट रिपोर्ट द्वारा किसी भी प्रकार की विफलता को रेखांकित करता कोई भी अवलोकन, किसी अन्य रिपोर्ट की तुलना में अधिक ध्यान आकर्षित करता है.’

रक्षा ऑडिट रिपोर्ट्स और संवेदनशील सूचनाओं के बारे में चिंताएं नई नहीं है. समय के साथ दशकों से हो रहे इन रक्षा ऑडिट्स के दौरान संवेदनशील सूचनाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करती बहुत-सी प्रक्रियाएं और व्यवस्थाएं विकसित हुई हैं.

जैसा कि भारत के दसवें कैग वीएन कौल ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा था, ‘रक्षा ऑडिट्स को रक्षा क्षेत्र में कामकाज की गोपनीय प्रकृति से निपटते हुए जांच और छानबीन के अपने संवैधानिक दायित्व को निभाना होता है. ऑडिट का कार्य इन चुनौतियों के बीच सामंजस्य स्थापित कर पाने में सक्षम है.’

‘नियंत्रक महालेखा परीक्षक का (कर्तव्य, शक्तियां और सेवा की शर्तें) अधिनियम, 1971’ के सेक्शन 23 में प्रदत्त शक्तियों का उपयोग करते हुए, सीएजी ने 2007 में ऑडिट एवं एकाउंटिंग के लिए नियम बनाए.

‘लेखा तथा लेखा परीक्षा विनियम, 2007’ के शीर्षक से उपलब्ध इन नियमों में ऑडिट संचालन संबंधी पाठ में ‘ऑडिट के दौरान प्राप्त सूचना की गोपनीयता’ पर एक सब-सेक्शन मौजूद है.

इस सब-सेक्शन के अनुसार ऑडिट के दौरान उपलब्ध कराए गए ‘गोपनीय’, ‘गुप्त’ या ‘अतिगुप्त’ के रूप में वर्गीकृत दस्तावेजों को संभालने व उनकी निगरानी की कार्यवाही सरकार द्वारा दिए गए स्थायी निर्देशों के अनुसार ही की जाएगी.

इसी सब-सेक्शन के अगले क्लॉज़ में लिखा गया है:

‘यदि विधि द्वारा सामान्य प्रकटन से प्रतिबंधित कोई विशेषाधिकृत या गोपनीय सूचना ऑडिट के दौरान प्राप्त की जाती है तो ऑडिटर उस सूचना की गोपनीयता बनाए रखेगा और यह सुनिश्चित करेगा कि ऑडिट नोट्स, निरीक्षण रिपोर्ट या ऑडिट रिपोर्ट सूचना के उस विशेषाधिकार अथवा गोपनीयता के साथ समझौते का साधन न बनें.’

संक्षेप में, यदि सीएजी रिपोर्ट में से किसी भी संवेदनशील या वर्गीकृत जानकारी को छुपाने की जरूरत लगती है तो यह कार्य रिपोर्ट की ड्राफ्ट स्टेज में यानी रिपोर्ट को संसद पटल पर पेश किए जाने के लिए भेजने से पूर्व कर लिया जाता है.

संसद में प्रस्तुत हो जाने के बाद ऑडिट रिपोर्ट एक सार्वजनिक दस्तावेज़ बन जाती है. इस तरह पूर्व सीएजी की रक्षा रिपोर्ट को वेबसाइट पर उपलब्ध न करवाते हुए उस तक सार्वजनिक पहुंच को सीमित करने के पीछे प्रस्तुत किए गए तर्क उपरोक्त प्रोटोकॉल के साथ मेल खाते नजर नहीं आते.

सीएजी की मीडिया नीति और रक्षा ऑडिट

भारत की आज़ादी के बाद के शुरुआती दशकों में इस सर्वोच्च ऑडिट संस्थान ने मीडिया से एक दूरी बना कर रखी. हालांकि तब भी ऑडिट रिपोर्ट्स की मीडिया कवरेज की भूमिका को भली-भांति समझा गया था.

इसकी झलक भारत के दूसरे नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक एके चंदा के आरके चंद्रशेखरन की किताब ‘द कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया: एनालिटिकल हिस्ट्री 1947-1989 में उल्लिखित बयान में देखने को मिलती है,

‘… सीएजी ऑडिट रिपोर्ट्स की मीडिया कवरेज एक संसदीय लोकतंत्र में स्वस्थ प्रवृत्ति है, जो सरकारी ऑडिटर्स की ज़िम्मेदारी को बढ़ाते हुए उनसे और अधिक सावधानी की मांग करती है.’

समय बीतने के साथ ऑडिट रिपोर्ट्स की मीडिया कवरेज और इनके निष्कर्षों के व्यापक रूप से जनता तक न पहुंच पाने पर विमर्श भी आगे बढ़ा.

आरके चंद्रशेखरन (1989 तक) और विजय कुमार (1990-2007) द्वारा लिखित सीएजी के सांस्थानिक इतिहास पर नज़र डालने से पता चलता है कि किस तरह इस मुद्दे के चारों ओर तमाम प्रक्रियाओं और परिपटियों का विकास हुआ और जिसकी परिणति 16 मार्च 2006 को तत्कालीन सीएजी वीएन कौल द्वारा मीडिया पॉलिसी जारी करने के रूप में हुई.

हालंकि, विजय कुमार के हवाले से पता चलता है कि सीएजी द्वारा प्रेस ब्रीफ जारी करने की शुरुआत 1986 से ही औपचारिक रूप में हो चुकी थी.

2006 में आई इस मीडिया पॉलिसी ने इंडियन ऑडिट एंड एकाउंट्स डिपार्टमेंट (आईएएडी) के अधिकारियों द्वारा प्रेस कॉन्फ्रेंस किए जाने को विशेष महत्व देते हुए इस संबंध में पूर्व में जारी सभी दिशानिर्देशों का स्थान ले लिया.

यह जानना रोचक होगा कि इस नीति के आने से पूर्व में जारी जो निर्देश निरस्त हो गए, उसमें कौल का ही सात माह पुराना 16 अगस्त 2005 को जारी वह निर्देश भी शामिल था, जिसके अनुसार सुरक्षा चिंताओं के मद्देनजर रक्षा ऑडिट रिपोर्ट्स पर कोई भी प्रेस नोट जारी नहीं किए जाने का निर्णय लिया गया था.

मीडिया पॉलिसी के बाद सीएजी द्वारा मई 2007 में आईएएडी की एक ‘एक्सटर्नल कम्युनिकेशन पॉलिसी’ जारी की गई. इस नीति को बनाने जिन सिद्धांतों को जरूरी समझा  गया, वे थे कि- ‘ऑडिट रिपोर्ट्स अपने स्टेकहोल्डर्स के लिए सुलभ हैं और ऑडिट रिपोर्ट्स के सार-तत्व को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए स्पष्ट और प्रभावी संचार प्रणाली मौजूद है’ और ‘इस बारे में विभाग संबंधी नवीनतम जानकारी हर समय विभाग की वेबसाइट पर उपलब्ध है.’

इन दिशानिर्देशों की मूल भावना की पुनरावृत्ति सीएजी के 2017 के ऑडिट मानकों में भी देखने को मिलती है. इन मानकों में ऑडिट रिपोर्ट्स के निष्कर्षों के वेबसाइट पर प्रसारण के संबंध में कहा गया है:

‘एक बार ऑडिट रिपोर्ट के संबंधित विधायिका में पेश हो जाने के बाद रिपोर्ट के निष्कर्षों को भारत का सर्वोच्च ऑडिट संस्थान रिपोर्ट के निष्कर्षों को अपनी वेबसाइट व अन्य संचार माध्यमों से प्रसारित करेगा और जरूरत लगने पर रिपोर्ट में शामिल मुद्दों पर मीडिया या अन्य स्टेकहोल्डर्स के साथ वह संवाद भी कर सकता है. इससे ऑडिट कार्यों में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ेगी.

महत्वपूर्ण निष्कर्षों पर सार्वजनिक और अकादमिक रुचि को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. रिपोर्ट्स को विभिन्न माध्यमों जैसे, सारांश, ग्राफ़िक्स, वीडियो प्रस्तुतियों और प्रेस विज्ञप्तियों का उपयोग करते हुए व्यापक जनता के समझने योग्य बनाया जाना चाहिए.’

इस प्रकार ऑडिट रिपोर्ट्स के वेबसाइट पर उपलब्ध न होने से ऑडिट निष्कर्षों तक इसके मुख्य स्टेकहोल्डर यानी आम नागरिकों की पहुंच सीमित होती है. इसके चलते सार्वजनिक रूप से ऐसे अति-महत्वपूर्ण मुद्दे पर एक सूचनापरक विमर्श की संभावना भी क्षीण हो जाती है.

इस तरह के कदम दशकों के कामकाज और प्रयासों के परिणामस्वरूप विकसित हुई स्वस्थ प्रक्रियाओं और परिपाटियों के लिए विनाशकारी साबित होते हैं.

(विषयांतर का जोखिम उठाते हुए भी यहां इस बात का उल्लेख करना जरूरी हो जाता है कि इस लेख में उद्धृत सीएजी के ऑडिट मानक (2017) लेखा तथा लेखा परीक्षण के अपडेटेड नियमों समेत कुछ अन्य दिशानिर्देश सीएजी की वेबसाइट के हिंदी संस्करण में अनुपलब्ध हैं.

इसके चलते इस लेख में उनका अनुवाद कर इस्तेमाल किया गया है. सर्वोच्च ऑडिट संस्थान के इन अहम दस्तावेज़ों का सिर्फ अंग्रेजी में उपलब्ध होना भी इन नियमों तक नागरिकों की पहुंच को सीमित करता है और यह चिंतनीय है.)

गहरे निहितार्थ

रक्षा मंत्रालय में महत्वपूर्ण पदभार संभाल चुके रक्षा मामलों के जानकार और बहुत से अन्य विशेषज्ञ बार-बार यह बात कह चुके हैं कि रक्षा मामलों से जुड़ी हुई गुणवत्तापूर्ण सामग्री की अनुपलब्धता के चलते रक्षा क्षेत्र में ‘रिसर्च, प्लानिंग, प्रोग्रामिंग और बजटिंग’ नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है.

‘इंस्टिट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज़ एंड एनालिसिस’ (आईडीएसए) और पेंटागन प्रेस द्वारा प्रकाशित किताब ‘कोर कंसर्न्स इन इंडिया एंड द इंपरेटिव फॉर रिफॉर्म’ के संपादक विनोद मिश्रा, जो रक्षा मंत्रालय के पूर्व सचिव (रक्षा वित्त) रह चुके हैं, किताब की भूमिका में लिखते हैं,

‘रक्षा क्षेत्र की मूल चिंताओं के मुख्य रूप से राजनीतिक कार्यपालिका, नागरिक और सैन्य नौकरशाही के ही अधिकारक्षेत्र में होने से इससे संबंधित विषयों पर सार्वजनिक रूप से एक सूचनापरक बहस की सुस्पष्ट अनुपस्थिति रही है.

ऐसी सोद्देशय और मुद्दे पर केंद्रित बहस जो इस विषय की रेंज और गहराई को समेटे हुए हो, ऐसी बहस के लिए आवश्यक है इस विषय पर विवेकशील जन-जागरूकता. इस तरह से पैदा हुआ विमर्श ही शायद इस क्षेत्र में दीर्घकाल से लंबित सुधारों को लागू करने के लिए आवश्यक गति देने वाला साबित हो सकता है.’

रक्षा से जुड़े मामलों में इस तरह के सूचनापरक विमर्श की कमी की बात इस किताब में शामिल अन्य लेखों में भी देखने को मिलती है.

मसलन, डिफेंस प्लानिंग संबंधी एक लेख में नरेंद्र सिसोदिया (पूर्व डीजी, आईडीएसए) और अमित कॉउशिस (पूर्व वित्तीय सलाहकार, रक्षा मंत्रालय और आईडीएसए शोधार्थी) लिखते हैं,

‘दुनिया के विकसित लोकतंत्र अपने रक्षा प्लानिंग व बजट से संबंधित बहुत-सी सामग्री, बिना किसी संवेदनशील सूचना को जाहिर करते हुए सार्वजनिक करते हैं. यह एक ऐसा उदाहरण है जिसका अनुसरण करना भारत के अपने ही हित के लिए आवश्यक है.’

रक्षा ऑडिट रिपोर्ट्स को वेबसाइट पर न उपलब्ध करवाने का यह फैसला इस क्षेत्र के वर्तमान संकटपूर्ण परिदृश्य के संकट की गंभीरता को और बढ़ाता है.

यही कारण था कि इस फैसले पर आए पूर्व सीएजी के बयान ने रक्षा और सुरक्षा क्षेत्र के अकादमिकों का ध्यान भी अपनी ओर खींचा.

यूनिवर्सिटी ऑफ पेंसिलवेनिया के ‘सेंटर फॉर एडवांस स्टडी ऑफ इंडिया’ में फेलो और किंग्स कॉलेज, लंदन में सीनियर प्रोफेसर वॉल्टर सी. लाडविग ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण बताया.

अपने ट्वीट में उन्होंने लिखा कि, ‘सीएजी की रिपोर्ट्स भारतीय सेना को समझने के लिए न सिर्फ स्कॉलर्स और शोधकर्ताओं के लिए बल्कि भारतीय जनता के लिए भी बेहद मूल्यवान रही हैं.’

दक्षिण एशिया के सुरक्षा मामलों के शोधकर्ता और न्यूयॉर्क की स्टेट यूनिवर्सिटी में असिसटेंट प्रोफेसर क्रिस्टोफर ओ. क्लैरी ने भी यही बात कही और इसे ‘स्कॉलर्स को हुआ नुकसान’ बताया.

भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक के दशकों के कार्याभ्यास से निकली और समय के साथ विकसित हुई इन स्वस्थ और न्यायोचित प्रक्रियाओं का इस प्रकार असमय ही खत्म किया जाना भारतीय नागरिकों के लिए भी एक बड़ा नुकसान है.

साथ ही, ऐसे कदम भविष्य के लिए एक खतरनाक नजीर भी स्थापित करते नजर आते हैं.

(हिमांशु उपाध्याय अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी, बंगलुरु में पढ़ाते हैं. अभिषेक पुनेठा स्वतंत्र शोधकर्ता व पूर्व गिरीश संत मेमोरियल फेलो हैं.)

(मूल अंग्रेज़ी लेख से अभिषेक पुनेठा द्वारा अनूदित)

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