सुशांत-कंगना का सुर्ख़ियों में बने रहना मीडिया की छद्म जनमत निर्माण की बढ़ती ताक़त की बानगी है

मीडिया के पास कुछ हद तक जनमत निर्माण की ताक़त हमेशा से थी, मगर उसकी एक सीमा थी, उनके द्वारा उठाए मुद्दे में कुछ दम होना ज़रूरी होता था. आज हाल यह है कि मीडिया में भारत-चीन सीमा विवाद से ज़्यादा तवज्जो कंगना रनौत विवाद को दी जा रही है.

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मोहाली एयरपोर्ट पर सुरक्षाकर्मियों से घिरी अभिनेत्री कंगना रनौत. (फोटो: पीटीआई)

मीडिया के पास कुछ हद तक जनमत निर्माण की ताक़त हमेशा से थी, मगर उसकी एक सीमा थी, उनके द्वारा उठाए मुद्दे में कुछ दम होना ज़रूरी होता था. आज हाल यह है कि मीडिया में भारत-चीन सीमा विवाद से ज़्यादा तवज्जो कंगना रनौत विवाद को दी जा रही है.

चंडीगढ़ एयरपोर्ट पर सुरक्षाकर्मियों से घिरी अभिनेत्री कंगना रनौत. (फोटो: पीटीआई)
चंडीगढ़ एयरपोर्ट पर सुरक्षाकर्मियों से घिरी अभिनेत्री कंगना रनौत. (फोटो: पीटीआई)

मुख्यधारा के मीडिया में पिछले कुछ समय से जो सब हो रहा है, वो सिर्फ गैर-जिम्मेदार पत्रकारिता या मीडिया द्वारा खबरों को सनसनीखेज तमाशा बनाकर पेश करने या ‘गोदी मीडिया’ भर का मामला नहीं है.

असल में यह मामला मीडिया की छद्म जनमत तय कर देने की लगातार बढ़ती ताकत का है. जब यह ताकत सत्ता के साथ हाथ मिला ले, तो वो और भी घातक बन जाती है.

इतनी घातक कि कंगना रनौत की सुरक्षा को देश की सुरक्षा से बड़ा मुद्दा बनाकर पेश किया जाता है, इस समय मीडिया में भारत-चीन सीमा विवाद से ज्यादा जगह कंगना रनौत विवाद को दी जा रही है.

मीडिया के पास कुछ हद तक जनमत निर्माण की ताकत हमेशा से थी, मगर उसकी एक सीमा थी और उनके द्वारा उठाए मुद्दे में कुछ दम होना जरूरी होता था.

लेकिन पिछले दो दशकों में आधुनिक टेक्नोलॉजी के दम पर समाचार देने वाले समूह जनमत के ठेकेदार बन गए हैं और पत्रकार खबरों को पेश करने वाले तमाशगीर तथा जनता तमाशबीन.

देखते-देखते वो इतने ताकतवर हो गए हैं कि उनके मुद्दों के भ्रमजाल में जनता अपने रोजमर्रा की जिंदगी के जरूरी मुद्दों को भी भूल जाती है.

इसलिए तो सदी की सबसे बड़ी त्रासदी के दौर में जब पिछले पांच माह में करोड़ों लोग बेरोजगार हो गए है, इसमें दो करोड़ तो सिर्फ नियमित तनख्वाह पाने वाले लोग है.

जीडीपी लगभग 24% तक गिर गई है, कोरोना से हर रोज लगभग एक लाख लोग संक्रमित हो रहे है और एक हजार से ऊपर लोग मारे जा रहे है.

लोगों को अस्पतालों में जगह नहीं मिल रही है, पड़ोसी देश चीन के साथ युद्ध की स्थिति बन गई है, तब उसके सामने भाजपा सुशांत सिंह राजपूत और कंगना रनौत के निजी जिंदगी के मुद्दे को देश का सबसे जरूरी मुद्दा बना पाई और जनता मूकदर्शक बनी रही.

वैसे असली मुद्दों से ध्यान हटाने का यह खेल पहली बार हो रहा है ऐसा नहीं है. और हर बार असली मुद्दों से ध्यान हटाने का काम सिर्फ इस तरह के गैर-जरूरी मुद्दे से होता है ऐसा भी नहीं है.

कई बार ऐसे मुद्दों को जरूरी बता दिया जाता है, जो वैसे तो जरूरी है मगर उनकी आड़ में बहुसंख्यक जनता के असली मुद्दे को दबा दिया जाता है. और इन मुद्दों को उठाने का असली उद्देश्य किसी ओर को फायदा पहुंचाना होता है.

इसका सबसे बड़ा उदाहरण है ‘लोकपाल आंदोलन’ या जिसे ‘अन्ना आंदोलन’ के नाम से भी जाना जाता है. (हालांकि इसे आंदोलन कहना जन आंदोलनों को सही मायने में न समझने जैसा होगा.)

जब देशभर में फैले दलित, आदिवासी, किसान आदि के आंदोलन को मीडिया में उपेक्षित किया जा रहा था और उनकी खबरें और मुद्दे मीडिया के लिए नेगेटिव खबरों में बदल चुके थे, तब मीडिया ने देखते-देखते दिल्ली के एक छोटे-से धरने को जन आंदोलन में बदल दिया.

अन्ना को आधुनिक गांधी बनाकर पेश किया गया. इसमें जहां एकतरफ केजरीवाल की टीम ने बिल्कुल एक मार्केटिंग रणनीति के तहत काम किया, वहीं मीडिया आउटलेट ने इसे 24×7 कवरेज दिया.

यह सही है कि कांग्रेस की नीतियों से जनता में गुस्सा था, मगर मीडिया ने यह सवाल नहीं उठने दिया कि उसकी खुली आर्थिक नीति के चलते लाखों किसान और मजदूर आत्महत्या कर चुके हैं, आदिवासी से उसका सब कुछ छीना जा रहा है और शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सभी सामाजिक जरूरतें बाजार के भरोसे छोड़ दी गई हैं.

उसने लोगों की समस्या का असली जिम्मेदार भ्रष्टाचार को बताया और लोकपाल को उसकी रामबाण दवा! कमाल यह है, जनता ने इसे मान भी लिया.

क्योंकि अगर शिक्षा, स्वास्थ, किसान और दलित, आदिवासी जैसे जरूरी मुद्दों पर बात होती, तो कांग्रेस और भाजपा एक साथ खड़े नजर आते.

और वैसे भी नरेंद्र मोदी खुली आर्थिक नीति को और उग्र तरीके से लागू करे सकेंगे, इस सोच के साथ ही कॉरपोरेट इंडिया ने उन्हें अपना समर्थन दिया था.

अगर खुली आर्थिक नीति पर सवाल उठ जाते, तो फिर सारा मामला अलग दिशा में चला जाता. इतना नहीं, लोकपाल की आड़ में सांप्रदायिकता का मुद्दा भी दब गया.

स्वाभाविक था, जब एक बार सारी समस्या का ठीकरा कांग्रेस के भ्रष्टाचार पर फूट गया, तो दिल्ली में भले ही केजरीवाल इसका विकल्प दिखे मगर राष्ट्र के स्तर पर इसका विकल्प नरेंद्र मोदी ही बने.

और नरेंद्र मोदी और केजरीवाल के चुनाव जीतने के बाद न सिर्फ मीडिया बल्कि देश और यहां तक कि स्वयं अरविंद केजरीवाल लोकपाल और अन्ना को एक उपयोग किए गए कपड़े की तरह से खूंटी पर लटकाकर भूल गए.

मीडिया का यह आधुनिक गांधी आंधी की तरह आया और काम हो जाने के बाद तूफान की तरह चला गया. न जाने नई पीढ़ी, जिसने कभी गांधी को पढ़ा या समझा नहीं, उसने इस सबको देखकर गांधी के बारे में क्या धारणा बनाई होगी?

जनसंचार माध्यमों की जनमत निर्माण की इस ताकत के बारे में 1988 में अमेरिका के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडवर्ड एस. हर्मन और विचारक, राजनीतिक कार्यकर्ता, दार्शनिक नोम चोमस्की ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट’ में लिखा था.

उन्होंने बताया था किस तरह से मास मीडिया (समाचार पत्र, टेलीविजन, वेबसाइट आदि) बड़े ही छुपे तरीके से एक सोची- समझी रणनीति के तहत व्यवस्था के पक्ष में जनमत तैयार करने का काम करते है.

प्रसिद्ध राजनीतिक कार्यकर्ता, विचारक और लोहिया के सहयोगी रहे किशन पटनायक ने भारत के संदर्भ इस बात को आज से 30 साल पहले ही भांप लिया था.

अगर इस विषय को भारत के संदर्भ में गंभीरता से समझना है, तो उनके आधुनिक पत्रकारिता के विषय पर लिखे गए तीन लेखों को पढ़ने से इस पर कुछ रोशनी पढ़ सकती है- ‘पराधीन पत्रकार’ ( अक्टूबर 1988), दूसरा ‘प्रतिक्रांति और पत्रकार’ (फरवरी 1994) और तीसरा ‘प्रोफेसर से तमाशगीर’ ( मार्च 1994) में छपा था. (यह सारे लेख लेखों के संग्रह ‘विकल्पहीन नहीं दुनिया‘ में संग्रहित  हैं.)

उन्होंने ‘पराधीन पत्रकार’ में लिखा है, ‘जनसंचार माध्यम कैसे आधुनिक टेक्नोलॉजी के दम पर करोड़ों लोगों की अभिव्यक्ति का ठेके ले लेते है. मौजूदा सभ्यता में समाचार पत्र एक तरह से देखें तो जनमत का प्रहरी है, दूसरे ढंग से देखे तो वो जनमत का निर्माता है.’

‘… अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी में मजदूरों का जो स्थान है, दैत्यकार समाचार-पत्रों में पत्रकारों का वही स्थान है.’

वैसे यही बातें अब टीवी चैनल्स  के बारे में भी सच हैं, जो धीरे-धीरे जमीनी रिपोर्ट से दूर स्टूडियो सर्कस में बदल गए हैं.

‘प्रतिक्रांति और पत्रकार’ लेख में वो बताते हैं, ‘अमेरिका की ‘टाइम मैगजीन’ के सर्वेक्षण में यह निष्कर्ष निकलने के बाद कि अगर भारत की 12 प्रतिशत आबादी को उपभोक्ता के रूप में संगठित कर लिया जाता है तो उस आधार पर एक बड़ा बाजार खड़ा किया जा सकता है.’

इसके बाद जनसंचार माध्यमों ने इस 12 से 20 प्रतिशत जनता को ही पूरे भारत की आवाज बनाकर पेश करना शुरू कर दिया.

हम इस बात को पिछले तीन दशक के अपने अनुभव से देख भी सकते है कि कैसे धीरे-धीरे आदिवासी, दलित, किसान, ग्रामीण भारत के मुद्दे मीडिया से गायब होने लगे, लाखों किसानों की आत्महत्या कभी मीडिया का मुद्दा ही नही बना.

जब प्रोफेसर प्रणव राय ने दिल्ली में अर्थशास्त्र के एक प्रतिष्ठित अध्ययन और अनुसंधानशाला में प्रोफेसर के तौर पर अपनी नौकरी को छोड़ दूरदर्शन एक नए अंदाज में कार्यक्रम पेश करने की शुरुआत की, तब किशन पटनायक ने इसे एक नया फिनोमिना बताया और कहा अब खबरों को पेश करने का तरीका विज्ञापन संस्कृति नियंत्रित करेगी.

और अब टेलीविजन व्यवसायियों को ऐसे प्रतिभाशाली बुद्धिजीवियों की तलाश रहेगी, जो खबर को एक अतरंगी अंदाज में पेश कर सकें और बाजार उसका उपयोग कर ले और उन्हें इस बात का एहसास भी नहीं होने दे. (प्रोफेसर से तमाशगीर) 

और जैसा हम देखते है, धीरे-धीर कैसे खबरों का अंदाज इतना बदल गया कि वो अब हमें डराने लगीं. आमतौर पर यह भ्रम फैलाया जाता है कि आधुनिक टेक्नोलॉजी ने पत्रकारों की क्षमता बढ़ाई है.

वो कहीं से कभी भी खबर तक पहुंच सकते है और पल-भर में खबर भेज सकते है. हर खबर पर उनकी 24x 7 नजर रहती है. मगर वाकई में ऐसा नहीं है.

अब पत्रकार नाम के एक नए किस्म के संपन्न कर्मचारी वर्ग का उदय हुआ, जो स्टूडियो में बैठे-बैठे खबरों का रुख बदल देता है.

मुख्यधारा के समाचार पत्रों और टीवी चैनल में सामाजिक मुद्दों को समझने वाले, उन पर गहन अध्ययन करने वाले, जन आंदोलनों और लोगों के बीच जाने वाले पत्रकार नहीं के बराबर ही बचे हैं.

हमारे जैसे आदिवासी इलाकों में काम करने वाले पूर्णकालिक जमीनी कार्यकर्ताओं के लिए तो यह पत्रकार मित्र बड़े सपोर्ट स्ट्रक्चर का एक हिस्सा होते थे. सरकार के दमन के दौर में उनका यह समर्थन हमें अनेक तरह से काम आता था.

मुझे याद है 90 के दशक के वर्षो तक समाचार पत्रों और टीवी चैनल से अनेक पत्रकार जमीनी रिपोर्टिंग के लिए हमारे संगठन के आदिवासी इलाकों में आते थे.

21वीं सदी की शुरुआत से यह कम होता गया और अब तो किसान, मजदूर, आदिवासी, दलित के मुद्दे अब नेगेटिव न्यूज़ में बदल चुके हैं.

और सड़कों पर सरेआम मारे जाने वाले दलित, आदिवासी, मुस्लिम मीडिया के लिए गो-तस्कर बन जाते हैं और सुशांत सिंह राजपूत की उनके अपने घर में की हुई आत्महत्या (तीन माह के हल्ले के बाद भी अब तक तो यही है) हत्या की इतनी बड़ी साजिश बन जाती है, जिसे देश की तीन-तीन प्रीमियर एजेंसी भी नहीं सुलझा पाती हैं!

इतना नहीं, सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, आनंद तेलतुम्बडे जैसे सैकड़ों लोग, जो 80-90 के दशक में अपना सब-कुछ छोड़ दलित, आदिवासी, किसान, मजदूर के साथ जमीनी स्तर पर संविधान को लागू करने के काम में लग गए, जिन्हें आजकल के युवा का आदर्श होना था, उन्हें सत्ता के मीडिया के साथ मिलकर बड़ी आसानी से देशद्रोही करार दे दिया जाता है.

अंग्रेजो के समय भी सरकार से लड़ने वाले राजद्रोही कहलाते थे, देशद्रोही तो नहीं. इतना ही नहीं, अब मीडिया की बदौलत छात्रों के आंदोलन देश के टुकड़े-टुकड़े करने वाले हो गए हैं और उनकी आवाज दबाना देशहित.

जो मीडिया कंगना रनौत का ऑफिस तोड़ने पर इतना आहत है, वो जामिया मिलिया जैसे विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी को बर्बाद करने को कानूनी की रक्षा करना के लिए जरूरी मान रहा था.

मीडिया की इस घातक ताकत का जवाब सिर्फ ताकतवर जनांदोलन से ही दिया जा सकता है.

(लेखक समाजवादी जन परिषद के कार्यकर्ता हैं.)

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