बिहार: बैजनाथपुर की बंद पड़ी पेपर मिल राज्य में औद्योगिकीकरण की बदहाली की मिसाल है

ग्राउंड रिपोर्ट: 70 के दशक में मधेपुरा-सहरसा राष्ट्रीय राजमार्ग पर बैजनाथपुर में काफ़ी उम्मीदों के साथ पेपर मिल बनी थी, पर कभी काम शुरू नहीं हो सका. मिल में रोज़गार पाने की आस में उम्र गुज़ार चुके लोगों की अगली पीढ़ी विभिन्न राज्यों में मज़दूरी कर रही है और मिल खुलने का वादा केवल चुनावी मौसम का मुद्दा बनकर रह गया है.

/
बैजनाथपुर की बंद पड़ी पेपर मिल. (सभी फोटो: मनोज सिंह)

ग्राउंड रिपोर्ट: 70 के दशक में मधेपुरा-सहरसा राष्ट्रीय राजमार्ग पर बैजनाथपुर में काफ़ी उम्मीदों के साथ पेपर मिल बनी थी, पर कभी काम शुरू नहीं हो सका. मिल में रोज़गार पाने की आस में उम्र गुज़ार चुके लोगों की अगली पीढ़ी विभिन्न राज्यों में मज़दूरी कर रही है और मिल खुलने का वादा केवल चुनावी मौसम का मुद्दा बनकर रह गया है.

बैजनाथपुर की बंद पड़ी पेपर मिल. (सभी फोटो: मनोज सिंह)
बैजनाथपुर की बंद पड़ी पेपर मिल. (सभी फोटो: मनोज सिंह)

मधेपुरा-सहरसा राष्ट्रीय राजमार्ग पर सहरसा से पांच किलामीटर पहले बैजनाथपुर में दाहिने तरफ एक उजाड़ और बदरंग इमारत दिखती है. सड़क किनारे लगी एक पट्टिका से पता चलता है कि यह बैजनाथपुर पेपर मिल है, जो चार दशक से अधिक समय से बंद पड़ी है.

पेपर मिल गेट के दाएं तरफ सड़क किनारे चाय की एक दुकान है, जो 52 वर्षीय भूपेंद्र शर्मा की है. जब वे 12 वर्ष के थे तो यह पेपर मिल बननी शुरू हुई.

भूपेंद्र उन सैकड़ों मजदूरों में से एक हैं, जिन्होंने अपने हाथों से पेपर मिल की इमारत तामीर की. भूपेंद्र ने बाल मजदूर के बतौर यहां पर महीनों तक मजदूरी की. उन्हें आठ घंटे खटने पर दो रुपये मजदूरी मिलती थी. वयस्क मजदूरों की दिहाड़ी पांच रुपये थी.

पेपर मिल 1975-76 तक चार वर्षों में बनकर तैयार हो गई लेकिन यह कभी चली ही नहीं. इन चार दशकों में उन सभी दलों की सरकार रही जो आज राज्य के चुनावी दंगल में मुख्य प्रतिद्वंदी हैं.

बिहार विधानसभा चुनाव में पलायन, बेरोजगारी और कल-कारखानों की कमी मुद्दा बनी है. महागठबंधन के मुख्यमंत्री उम्मीदवार तेजस्वी यादव अपनी हर सभाओं में बेरोजगारी का सवाल उठा रहे हैं.

वे कह रहे हैं कि सरकार बनने पर पहली कैबिनेट मीटिंग में दस लाख लोगों को रोजगार देने का फैसला लिया जाएगा. नए कल-कारखाने लगाए जाएंगें और बंद कारखानों को चलाया जाएगा.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बयान दिया था कि बड़े उद्योग समुद्र तटों वाले राज्यों में अधिक लगते हैं. हमने बिहार में बहुत कोशिश की लेकिन वे (उद्योगपति) नहीं आए. नीतीश कुमार अपने इस बयान के बाद विपक्षी दलों के निशाने पर हैं.

भूपेंद्र को का आज भी पता नहीं है कि यह पेपर मिल चली क्यों नहीं?

वे कहते हैं, ‘पेपर मिल दुलहिन की तरह सजकर तैयार हो गई थी लेकिन पता नहीं कैसे गिरकर बेहोश हो गई. उसे होश नहीं आया. अब उसकी मौत हो गई है और आप उसकी लाश को देख रहे हैं.’

पेपर मिल के न चलने से सबसे ज्यादा इस इलाके के मजदूरों के सपने टूटे. उन्हें आस जगी कि अब उन्हें मेहनत-मजदूरी करने बाहर नहीं जाएगा. यहीं पर काम मिलेगा.

उन्हें लगता था कि जिस पेपर मिल को उन्होंने अपने खून-पसीने से सींचकर खड़ा किया है, वहीं उन्हें काम मिलेगा, हालात बेहतर हो जाएंगे.

भूपेंद्र कहते हैं, ‘पेपर मिल बन रही थी तब उम्मीद जगी कि घर में रोटी मिलेगी लेकिन सब सपना टूट गया.’

इसके बाद भूपेंद्र किशोरवय में ही मजदूरी करने पंजाब चले गए. वहां एक फार्म हाउस में डेढ़ दशक से अधिक समय तक मजदूरी की, फिर पंजाब की अनाज मंडियों में बोरे ढोए.

वापस बैजनाथपुर लौटने पर रोजी-रोजगार की कोई व्यवस्था न बनने पर उन्होंने सड़क किनारे चाय की दुकान शुरू कर ली. अब भूपेंद्र के तीन बेटे मजदूरी करने पुणे गए हैं.

अपनी चाय की दुकान पर भूपेंद्र.
अपनी चाय की दुकान पर भूपेंद्र.

वे कहते हैं, ‘जो मिल चली होती तो मेरे और बेटों के घर से दूर जाकर मजदूरी करने की नौबत क्यों आती?’

अब भूपेंद्र की जिंदगी की मुश्किलें बढ़ती ही जा रही हैं. प्रशासन उनकी चाय की दुकान को हटवा रहा है क्योंकि वह ‘अतिक्रमण’ के दायरे में हैं.

वे बहुत तड़प के साथ कहते हैं, ‘अधिकारी लोग बोलता है कि रोड साइड काहे दुकान खोला है. हटा लो. अब हम कहां जाएं? पेपर मिल की 51 एकड़ में फंसकर जिंदगी बेघर पड़ी है. हेहर की तरह लात-जूता खाकर जीवन बिता रहे हैं.’

जिस 51 एकड़ के रकबे में पेपर मिल बनी है, वहां पहले खेती होती थी. यह जमीन सहरसा के बड़े जमींदारों की थी. बैजनाथपुर के गरीब दलित व पिछड़ी जाति के लोग जमीन बटहिया पर लेकर खेती करते थे.

शंभू मुखिया भी उनमे से एक हैं. उन्होंने बताया, ‘छह हजार सालाना देकर हम इस जमीन पर खेती करते थे. 20 वर्ष तक यहां खेती की. पेपर मिल के लिए यह जमीन सरकार ने अधिग्रहीत कर ली. उस समय उम्मीद थी कि पेपर मिल में काम मिल जाएगा तो जिंदगी चल जाएगी लेकिन पेपर मिल चली ही नहीं.’

वे कहते हैं, ‘पेपर मिल यहां लगती ही नहीं तो बढ़िया होता. खेतीबाड़ी कर जिंदगी चला लेते.’

शंभू आक्रोश भरे स्वर में कहते हैं, ‘झूठा सपना दिखाकर हम लोगन के बर्बाद कर दिया. हमारा दादा मजदूरी करते खटा, बाबूजी भी खटा. हम लोग भी मजदूरी करते खटे, अब हम लोगन के लड़का मजदूरी में खट रहा है.’

वे बताते हैं कि उन्होंने लोगों को संगठित करने की कोशिश की और मांग उठाई कि पेपर मिल चलाई जाए. यदि पेपर मिल नहीं चलती है तो इसकी जमीन खेती करने के लिए उन लोगों को दे दी जाए, लेकिन सफल नही हुए.

वे बताते हैं,  ‘किसी ने साथ नहीं दिया और अकेले पड़ गए. मिल परिसर में झोपड़ी डालकर रह रहे हैं. वहां से भी उजाड़ने की कोशिश की गई.’

पेपर मिल के सभी उपकरणों में अब जंग लग गई है. पेपर मिल के लिए सभी तरह का ढांचा बनकर तैयार हुआ था. मिल गेट के पास ऑफिस बना था, मिल तक जाने के लिए बनी सड़क आज भी मौजूद है.

मिल की इमारत तैयार करने और यहां मशीनों को लगवाने के काम में मजदूरी करने वाले रघुनी शर्मा अब 80 वर्ष के हो गए हैं. मिल न चलने के बाद उन्होंने भी पंजाब और हरियाणा जाकर मजदूरी की. अब उनके बेटे मजदूरी कर रहे हैं.

कैलाश शर्मा राजगीर हैं. उन्होंने भी मिल के बनाने में अपने श्रम का योगदान किया. वे बताते हैं कि शंकर टेकड़ीवाल जब बिहार के वित्त मंत्री थे तो उन्होंने मिल चलवाने के लिए दो करोड़ की व्यवस्था करने की कोशिश की थी, लेकिन यह पैसा नहीं मिला.

सहरसा के लोग पेपर मिल न चलने को लेकर दो बड़े नेताओं रमेश झा और टेकड़ीवाल की राजनीतिक प्रतिद्वंदिता को जिम्मेदार ठहराते हैं.

कांग्रेस सरकार में सहरसा का प्रतिनिधित्व करने वाले रमेश झा उद्योग मंत्री बने. उनके कार्यकाल में मिल बनी. उनके बाद सहरसा का प्रतिनिधित्व करने वाले शंकर लाल टेकड़ीवाल वित्त मंत्री बने लेकिन वे पेपर मिल चलवा नहीं पाए.

बताया जाता है कि बिहार सरकार ने इस पेपर मिल को चलाने के लिए निजी उद्यमियों से करार करने की कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिली. तब सरकार ने खुद मिल चलाने का फैसला लिया लेकिन यह फैसला धरातल पर उतर नहीं सका.

अभी पेपर मिल की देखरेख के लिए यहां दो गार्ड रहते हैं.

रघुनी शर्मा, कैलाश शर्मा और सत्तार मुखिया.
रघुनी शर्मा, कैलाश शर्मा और सत्तार मुखिया.

जब मिल बन रही थी तब सत्तार मुखिया पांचवी कक्षा में पढ़ते थे. स्कूल से लौटने के बाद वह यहां मजदूरी करते थे.

मिल न चलने पर वे मजदूरी करने लुधियाना और फिर पठानकोट चले गए. वहां धान-गेहूं की फसल की कटाई करते थे. बाद में अनाज मंडी में काम करने लगे. कोरोना लाॅकडाउन के पहले गांव लौट आए थे. तबसे जा नहीं पाए हैं.

वे कहते हैं कि कोरोना के चलते दो सीजन की मजदूरी मारी गई है. वे बताते हैं, ‘बैजनाथपुर के 14 वार्डों में अधिकतर गरीब लोग ही रहता है. सब मजदूरी कर पेट पालता है. यहां के 100 से अधिक लोग पंजाब के अनाज मंडियों में मजदूरी करने जाता है. लाॅकडाउन में घर वापस आए मजदूर चले गए हैं.’

सत्तार कहते हैं, ‘चुनाव आ गया है. अब नेता लोग एक बार फिर पेपर मिल को चलाने की बात करेंगे. यहां पर कई बड़े नेताओं की सभा हुई है. सबने यही कहा कि पेपर मिल को चलाया जाएगा लेकिन आज तक वे अपना वादा पूरा नही नहीं कर सके.’

सत्तार को इस बारे में जानकारी है कि कौन-कौन चुनाव लड़ रहा है. वे बताते हैं कि लवली आनंद ने आज सहरसा में पर्चा भरा है.

यह पूछने पर कि उन्हें कैसे पता चलता कि कौन चुनाव लड़ रहा है, वे बताते हैं कि लोग आपस में चर्चा करते हैं जिससे जानकारी मिलती रहती है.

चुनाव के समय बैजनाथपुर पेपर मिल चर्चा में आ जाता है. यह जिले के प्रमुख चुनावी मुद्दे में से एक है.

सहरसा के पत्रकार अरविंद झा बताते हैं, ‘नए उम्मीदवार बैजनाथपुर पेपर मिल के मुद्दे को जोर-शोर से उठाते हैं लेकिन जो नेता विधायक, सांसद व मंत्री रह चुके हैं, वे दबी जुबान से ही इस पर बात करते हैं कि क्योंकि पेपर मिल को चलवाने की बात कौन कहे, इसके बारे में मजबूती से आवाज भी नहीं उठा सके.’

बिहार अर्थिक सर्वे 2019-20 के अनुसार बिहार में 2016-17 में कृषि और गैर कृषि आधारित कुल कारखाने 3,551 हैं जिसमें कृषि अधारित 1,229 और गैर कृषि आधारित 2,302 कारखाने है.

इनमें से 2,908 ही चल रहे हैं. करीब 18 फीसदी कारखाने विभिन्न कारणों से बंद हैं. वर्ष 2013-14 के वक्त प्रदेश के कुल कारखानों में से 91.6 फीसदी संचालित थे. इसके बाद से इसमें क्रमशः गिरावट आती गई है और अब यह 82.4 फीसदी तक पहुंच गया है.

आर्थिक सर्वे यह भी जानकारी देता है कि बिहार में संचालित कुल 2,908 कारखानों में 11,62,000 श्रमिक कार्यरत हैं. एक कारखाने में औसतन 40 श्रमिक कार्य कर रहे हैं जो राष्ट्रीय औसत 76.7 का लगभग आधा है.

ये आंकड़े बिहार के औद्योगिकीकरण की दयनीय हालात की तस्वीर पेश करते हैं और बैजनाथपुर की बंद पड़ी पेपर मिल उसकी एक मिसाल है.

(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq