बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में बंद पड़ी चीनी मिल क्या कभी शुरू हो पाएगी?

ग्राउंड रिपोर्ट: बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर स्थित मोतीपुर चीनी मिल 1932 स्थापित की गई थी. 1980 में राज्य सरकार ने इसका संचालन अपने हाथ में लिया और वर्ष 1997 में यह बंद हो गई. आज हालात ये हैं कि बिहार में 28 में से सिर्फ 11 चीनी मिलें ही चल रही हैं. ये सभी चीनी मिलें सिर्फ़ छह ज़िलों में स्थित हैं.

मोतीपुर जमींदारी कंपनी प्राइवेट लिमिटेड ने मोतीपुर चीनी मिल को 1932 में स्थापित किया था. (सभी फोटो: मनोज सिंह)

ग्राउंड रिपोर्ट: बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर स्थित मोतीपुर चीनी मिल 1932 स्थापित की गई थी. 1980 में राज्य सरकार ने इसका संचालन अपने हाथ में लिया और वर्ष 1997 में यह बंद हो गई. आज हालात ये हैं कि बिहार में 28 में से सिर्फ 11 चीनी मिलें ही चल रही हैं. ये सभी चीनी मिलें सिर्फ़ छह ज़िलों में स्थित हैं.

मोतीपुर जमींदारी कंपनी प्राइवेट लिमिटेड ने मोतीपुर चीनी मिल को 1932 में स्थापित किया था. (सभी फोटो: मनोज सिंह)
मोतीपुर जमींदारी कंपनी प्राइवेट लिमिटेड ने मोतीपुर चीनी मिल को 1932 में स्थापित किया था. (सभी फोटो: मनोज सिंह)

बिहार में मुजफ्फरपुर के मोतीपुर चीनी मिल परिसर में स्थित अपने आवास के सामने एक छोटी से गुमटी में बैठे मोहम्मद मगरिब सामने खेत में धान की कटाई होता देख रहे हैं. इस गुमटी में वह डेढ़ दशक से ज्यादा समय से किराना की दुकान किए हुए थे.

अब यह दुकान बंद है, लेकिन वह रोज खोलकर उसमें बैठते हैं. बातचीत शुरू होती ही है कि उनकी पत्नी साबरा खातून आ जाती हैं.

मोहम्मद मगरिब कहते हैं, ‘अब उन्हें इस चीनी मिल के चलने की कोई उम्मीद नहीं है. दो दशक से वे सुनते आ रहे हैं कि चीनी मिल चलेगी. इस बार के चुनाव में भी सुना है, लेकिन वह दिन कम से कम मेरी जिंदगी में तो नहीं आने वाला है. अब हम यहां से अपने गांव लौट जाना चाहते हैं.’

मगरिब मोतीपुर चीनी मिल में 1969 में काम करने आए थे. वह चीनी मिल का जनरेटर चलाते थे. वर्ष 1997 में यह चीनी मिल बंद हो गई. तीन वर्षों तक वे नियमित चीनी मिल जाते रहे. न उन्हें सैलरी मिल रही थी और न कोई काम.

तब उन्होंने यह गुमटी बनाई और इसमें किराने की दुकान शुरू की. उनका परिवार बड़ा था. सभी बच्चे उस समय पढ़ रहे थे. ऐन जरूरी समय में चीनी मिल बंद हुई.

उनके मुताबिक, बड़ी मुश्किल से बच्चों की परवरिश की और अपनी जिंदगी चलाई.

साबरा खातून कहती हैं कि लड़कियों का ब्याह कर दिया है. एक ही लड़का है जो एक मोतीपुर के चक्कर चौक स्थित एक दुकान में काम करता है. अब यहां हमारा कुछ नहीं है. हम जल्द से जल्द अपने गांव चले जाना चाहते हैं.

72 वर्षीय मगरिब मोतीपुर के करीब के चकिया के रहने वाले हैं. चीनी मिल चलने के समय को याद करते हुए उनकी आंखों में हल्की चमक आ जाती है.

वे कहते हैं, ‘बाबू खूब रौनक रहती थी. चीनी मिल में सीजनल, पक्का सब मिलाकर 1200 लोग काम करते थे. याकूब बाबू से लेकर सरकार ने दस साल चीनी मिल चलाई, लेकिन ठीक से चला नहीं सकी और यह बंद हो गयी. अब तो चारों तरफ मुर्दा खामोशी है.’

मोहम्मद मगरिब के लिए राहत की यही बात है कि उन्हें अपने सभी बकाए का भुगतान मिल गया है, लेकिन चीनी मिल के ऐसे बहुत से कर्मचारी हैं, जो अपने भुगतान की आस में बूढ़े हो चले हैं. कई तो दिवंगत भी हो गए.

चीनी मिल में कैशियर के पद पर कार्य करने वाले ताहिर एच. सिद्दीकी अब इस दुनिया में नहीं हैं. चीनी मिल फिर चलने की उम्मीद लिए वह तीन वर्ष पहले इस दुनिया से रुखसत हो गए.

उनका परिवार अभी भी चीनी मिल परिसर के एक छोटे से क्वार्टर में रहता है. उनके बेटे आमिर हुसैन अब ट्यूशन कर अपनी जीविका चला रहे हैं. उनके एक भाई ने कस्बे में दुकान कर ली है.

आमिर ने इसी चीनी मिल परिसर के अपने पिता के क्वार्टर में 1990 में जन्म लिया था. उन्होंने चीनी मिल की चिमनी से निकलता धुंआ बहुत आकर्षित करता था. अब वह दृश्य भले खो गया है, लेकिन उसकी स्मृतियों के किसी कोने में अब भी सुरक्षित है.

वे बताते हैं कि 1932 में 1466 एकड़ क्षेत्रफल में चीनी मिल की स्थापना हुई थी. तबसे 1992-93 तक चीनी मिल सुचारू रूप से चलती रही. सरकार ने 1980 में इसे अपने हाथ में लिया और 1997 तक चलाया.

वे आगे कहते हैं, सरकार द्वारा अपने हाथ में लेने के बाद कई बार समय से कामगारों का वेतन नहीं मिला तो वे हाईकोर्ट गए. हाईकोर्ट के आदेश से कामगारों को वेतन मिला. वर्ष 2010 में उनके पिता को चीनी मिल से अपने सभी भुगतान मिल गए.

मोहम्मद मगरिब और साबरा खातून.
मोहम्मद मगरिब और साबरा खातून.

लेकिन मुजफ्फरपुर में रह रहे शफीकुर्रहमान के पिता फैजुलरहमान को जीवित रहते चीनी मिल से बकाया भुगतान नही मिल पाया. उनकी अक्टूबर 2009 में मृत्यु हो गई. वे चीनी मिल के एकाउंट सेक्शन में काम करते थे.

शफीकुर्रहमान बताते हैं कि चीनी मिल बंद हो जाने और बकाया सेलरी व अन्य भुगतान न मिलने से उनके परिवार को दो दशक तक बहुत मुसीबत झेलनी पड़ी है. उनके बड़े भाई पिता के पैसे के लिए आज भी मोतीपुर से लेकर पटना तक चक्कर काट रहे हैं.

पूरा चीनी मिल परिसर झाड़-झंखाड़ से भरा एक बड़ा टीला नजर आता है. इसके मुख्य द्वार गेट नंबर एक टेम्पो स्टैंड बन गया है. चीनी मिल गेट पर लगे बोर्ड में जंग लग गया है और उस पर क्या लिखा है, पढ़ने में नहीं आता है.

मेन गेट के बगल में एक छोटा सा प्रवेश द्वार है, जिस पर ‘नो वैंकेसी’ और ‘नो एडमिशन’ की पट्टिका लगी है. दो दशक से अधिक समय से बंद चीनी मिल के नाम की पट्टिका भले ही मिट गई हो लेकिन नो वैंकेसी और नो एडमिशन की पट्टिका साफ तौर पर पढ़ी जा सकती है.

इस छोटे से द्वार से अंदर प्रवेश करने के बाद बाएं तरफ एक तख्ते पर एक शख्स लेटे हुए हैं. बातचीत से पता चलता है कि वह चीनी मिल के गार्ड हैं. वह अपना नाम नहीं बताते हैं. कहते हैं कि सरकार द्वारा इंडियन पोटाश लिमिटेड (आईपीएल) को सौंपने के बाद यहां पर 11 गार्डों की तैनाती की गई है, जिसमें से वह एक हैं. सभी शिफ्टवार ड्यूटी करते हैं.

आगे बढ़ने पर एक कमरे में टूटे फर्नीचर और बदरंग हो गई दीवार से सामना होता है. दीवार पर श्वेत-श्याम दो तस्वीरें लगी हैं. तस्वीर किसकी है, पता नहीं चलता. तस्वीर के नीचे लिखे नाम बहुत कोशिश करने के बाद भी पढ़ने में नहीं आते लेकिन अनुमान लगता है कि यह चीनी मिल के मालिक और इसमें कार्य करने वाले अधिकारियों-कर्मचारियों की तस्वीर है. पूरे कमरे में इधर-उधर फाइलें और किताबों के पन्ने बिखरे पड़े हैं.

इस परिसर में घूमते हुए आपको चीनी मिल की करीब सात दशक की यात्रा की हल्की झलक मिलती है. जिस स्थान पर गार्ड की साइकिल खड़ी है वहां पर एक पट्टिका लगी है जिस पर बिहार स्टेट शुगर कॉरपोरेशन लिमिटेड इकाई मोतीपुर, पोस्ट मोतीपुर जिला मुजफ्फरपुर लिखा है.

इसके आगे जाने पर एक बंद कमरे के बाहर लोहे की टंगी पट्टिका पर मोतीपुर जमींदारी कंपनी प्राइवेट लिमिटेड और ‘रजिस्टर्ड ऑफिस’ लिखा दिखता है. यह वह जगह है, जहां पर अभी भी कुछ कर्मचारी काम करने आते हैं. ये लोग कर्मचारियों के प्रॉविडेंड फंड व उनके देयकों का हिसाब-किताब रखते हैं. आज यहां कोई नहीं आया है.

बगल में मोतीपुर शुगर फैक्टी इम्प्लाइज प्रॉविडेंट ऑफिस दिखता है लेकिन वह भी बंद है. हालात बता रहे हैं कि यहां पर वर्षों से कोई नहीं आया है.

मोतीपुर चीनी मिल की स्थापना 1932 में कोलकाता के जमींदार परिवार ने की थी. इसी परिवार ने चीनी मिल को 1977 तक चलाया. इसके बाद बिहार सरकार ने बिहार शुगर कॉरपोरेशन लिमिटेड (बिहार राज्य चीनी निगम) की स्थापना की और इस मिल को अधिग्रहीत कर लिया. करीब 17 वर्ष तक निगम के अधीन यह चीनी मिल चली लेकिन लगातार घाटे के कारण यह 1997 में बंद हो गई.

नीतीश सरकार ने प्रदेश की बंद चीनी मिलों को पुनजीर्वित करने की कोशिश में 2011 में मोतीपुर चीनी मिल को इंडियन पोटाश लिमिटेड (आईपीएल) को सौंप दिया गया. इस चीनी मिल के साथ-साथ लौरिया, सुगौली और रैयाम चीनी मिल को भी अलग-अलग कंपनियों को सौंपा गया है.

मोतीपुर चीनी मिल को आईपीएल को देने के खिलाफ इस चीनी मिल के ओनर हाईकोर्ट चले गए. अब यह केस सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है.

मोतीपुर चीनी मिल में बने एक कमरे की दीवार पर टंगी एक तस्वीर.
मोतीपुर चीनी मिल में बने एक कमरे की दीवार पर टंगी एक तस्वीर.

मोतीपुर चीनी मिल की कहानी बिहार के बंद 17 से अधिक चीनी मिलों की कहानी है. बिहार में सबसे पहली चीनी मिल 1904 में सारण जिले के मढौरा में स्थापित हुई थी.

एक वर्ष बाद पश्चिम चंपारण के लौरिया में चीनी मिल स्थापित हुई. फिर 1906 में पूर्वी चंपारण के बारा चकिया में, 1914 में दरभंगा के रैयाम व मधुबनी के लोहट, 1918 में सीवान तथा 1920 में समस्तीपुर में चीनी मिल बनी. बिहार में चीनी मिलों की स्थापना को देखते हुए 1930 में शुगर केन डिपार्टमेंट बन गया.

वर्ष 1932-1935 में गोपालगंज जिले में हथुआ, पूर्वी चंपारण में सुगौली, सीवान, मुजफ्फरपुर में मोतीपुर, सारण में गोरौल, मधुबनी जिले के सकारी, गया में गुरारू, नवादा में वारसिलीगंज, पटना में बिहटा, पश्चिम चंपारण में चनपटिया और पूर्णिया के बनमनखी में चीनी मिलें स्थापित हुईं.

बिहार में 1940 तक 33 चीनी मिलें स्थापित हो चुकी थीं. ये सभी निजी क्षेत्र द्वारा स्थापित चीनी मिलें थीं. इन चीनी मिलों की हालत 1975 तक खराब होने लगी. तब सरकार ने रूग्ण और बंद चीनी मिलों को चलाने और पुनजीर्वित करने के उद्देश्य से बिहार राज्य चीनी निगम की 28 सितंबर 1974 को स्थापना की.

वर्ष 1976 में सात चीनी मिलें- बनमनखी, गुरारू, बिहटा, गोरौल, रैयाम, वारिसलीगंज और समस्तीपुर, बिहार राज्य चीनी निगम को हस्तातंरित की गईं. दो वर्ष बाद शुगर केन अंडरटेकिंग (एक्युजीसन) एक्ट 1976 के अंतर्गत इन चीनी मिलों को बिहार राज्य चीनी निगम ने अधिग्रहीत कर लिया.

इसके साथ ही दो और चीनी मिलें- सकरी और लोहट भी अधिग्रहीत हुईं. मोतीपुर चीनी मिल का संचालन भी इंडस्ट्रियल एंड डेवलपमेंट एक्ट 1951 के तहत बिहार राज्य चीनी निगम ने किया. इस तरह 1984-85 तक निगम कुल 10 चीनी मिलों को चलाता रहा.

इसी वक्त निजी क्षेत्र की चार और चीनी मिलें- हथुआ, सीवान, लौरिया और सुगौली बंद हो गईं. इनका संचालन भी बिहार राज्य चीनी निगम ने अपने हाथ में ले लिया, लेकिन 1996-97 तक बीमार और बंद चीनी मिलों को चलाने के उद्देश्य से स्थापित हुआ बिहार राज्य चीनी निगम खुद बीमार हो गया.

‘अलाभप्रद पेराई और आर्थिक घाटे’ के कारण 1996-97 में निगम की सात चीनी मिलें- न्यू सीवान, सीवान, रैयाम, गोरौल, बिहटा, वारिसलीगंज, गुरारू बंद हो गईं. इसके बाद लौरिया और सुगौली भी बंद हो गईं. बाद में निगम की सभी चीनी मिलें बंद हो गईं.

आज हालात ये हैं कि बिहार में 28 में से सिर्फ 11 चीनी मिलें- बगहा, हरिनगर, नरकटियागंज, मझवलिया, सासामूसा, गोपालगंज, सिधवलिया, रीगा, हसनपुर, लौरिया, सुगौली चल रही हैं. ये चीनी मिलें छह जिलों में स्थित हैं.

हाल के वर्षों में सरकार को सिर्फ दो बंद चीनी मिलें लौरिया और सुगौली को फिर से चलाने में सफलता मिली है.

चीनी मिलों की बंदी से उसमें काम करने वाले कामगार तो सीधे प्रभावित हुए और उनकी जिंदगी अधर में लटक गई, लेकिन इसका बड़ा प्रभाव इन इलाकों में गन्ने की खेती पर पड़ा. गन्ने की खेती नकदी फसल के रूप में किसानों का बड़ा सहारा थी. यह सहारा छिनने से किसान कमजोर हुए.

मोतीपुर चीनी मिल का गेट.
मोतीपुर चीनी मिल का गेट.

एक समय था कि देश में 40 फीसदी गन्ना बिहार में पैदा होता था, लेकिन आज यह सिमट कर चार फीसदी से भी कम हो गया है. बिहार में कुल खेती योग्य रकबे में अब सिर्फ 3.20 फीसदी में गन्ने की खेती होती है. गन्ने का क्षेत्रफल लगातार घटता जा रहा है.

मुजफ्फरपुर जिले के पारू ब्लाक के सिंगाही गांव के 74 वर्षीय जगरनाथ सिंह बताते हैं कि उनके गांव और आसपास गन्ने की खेती बड़े पैमाने पर होती थी. मोतीपुर चीनी मिल का कांटा तौल केंद्र जसौली में लगता था. जसौली कांटे में आधा गन्ना हमारे गांव से जाता था. चीनी मिल बंद हुई तो गन्ने की खेती सिमटने लगी.

उनके अनुसार, मोतीपुर के बाद चकिया और सुगौली की भी चीनी मिल बंद हो गईं. सिधवलिया चीनी मिल चल रही है, लेकिन वह हमारे गांव से 65 किलोमीटर दूर है. यहां से गन्ना वहां तक ले जाना काफी महंगा पड़ता है, इसलिए गन्ने की खेती इस इलाके से खत्म हो गई. इससे हमारी आय पर बहुत फर्क पड़ा.

वे आगे कहते हैं, अब धान और गेहूं ही मुख्य फसल है, जिसमें लागत अधिक है, आय कम है. आलू की खेती को जंगली जानवरों से नुकसान होता है. इस बार तो बाढ़ ऐसी आई कि धान का एक दाना नहीं उपजा.

सीवान जिले के गहिलापुर में गन्ने का रस बेच रहे असांव गांव के श्याम बहादुर गोंड ने बताया कि उन्हें अपने जिले में गन्ना नहीं मिल पाता है. वे यूपी के देवरिया जिले के भाटपाररानी से गन्ना खरीदकर लाते हैं.

बिहार इकोनॉमिक सर्वे 2020 के अनुसार, वर्ष 2018-19 में बिहार की 11 चीनी मिलों ने 810.7 लाख क्विंटल गन्ने की पेराई कर 84.02 लाख क्विंटल चीनी का उत्पादन हुआ.

आज बिहार में गन्ने की खेती दो से तीन जिलों- पश्चिम चंपारण, पूर्वी चंपारण, गोपालगंज में सिमट गई है. बिहार में कुल गन्ना का आधा गन्ना अब सिर्फ एक जिले पश्चिम चंपारण में उत्पादित होता है.

गन्ना ऐसी फसल है जो कृषि आधारित उद्योग के लिए कई तरह का कच्चा माल उपलब्ध कराती है. साथ ही इसमें बड़ी संख्या में मजदूरों को काम मिलता है. इथाइल एल्कोहल, बगास, मड्स इसके प्रमुख सह उत्पाद है.

बगास बिजली उत्पादन के अलावा प्लाईवुड, फाइबर बोर्ड बनाने के काम में आता है. इसके मड्स से बायोफर्टिलाइजर बनता है.

चीनी मिलों की बंदी ने न सिर्फ हजारों कामगारों से काम छीना बल्कि लाखों किसानों के हाथ से नकदी फसल का सहारा भी छीन लिया.

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी जनसभाओं में बंद चीनी मिलों का मुदा उठाया था. उन्होंने मोतीपुर की जनसभा में कहा था कि वे अगली बार यहां आएंगे तो इसी चीनी मिल के चीनी की चाय पीएंगे. प्रधानमंत्री इस चुनाव में फिर यहीं आए और सभा की लेकिन न तो इस बार चीनी मिल की चर्चा की न चाय की.

(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)

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