आख़िर किसान की आवाज़ क्यों नहीं सुन रही है सरकार?

दुनिया के बीस बड़े प्रतिष्ठान खेती और कृषि बाज़ार पर अपना नियंत्रण चाहते हैं. भारत सरकार को अपना पक्ष तय करना होगा.

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Farmers from the southern state of Tamil Nadu pose half shaved during a protest demanding a drought-relief package from the federal government, in New Delhi, India April 3, 2017. REUTERS/Cathal McNaughton TPX IMAGES OF THE DAY

दुनिया के बीस बड़े प्रतिष्ठान खेती और कृषि बाज़ार पर अपना नियंत्रण चाहते हैं. भारत सरकार को अपना पक्ष तय करना होगा.

Farmers from the southern state of Tamil Nadu pose half shaved during a protest demanding a drought-relief package from the federal government, in New Delhi, India April 3, 2017. REUTERS/Cathal McNaughton TPX IMAGES OF THE DAY
जंतर मंतर पर प्रदर्शन करते तमिलनाडु के किसान. फोटो: रॉयटर्स

तमिलनाडु, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, पंजाब आजकल चर्चा के केंद्र में हैं, क्योंकि यहां किसान आंदोलन कर रहे हैं. ज़रा सोचिए कि जो व्यक्ति कपड़े उतारकर सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन पर रहा है, अपना पेशाब पी रहा है, ख़ुद को चप्पलों से पीट रहा है, जीवित किसान दिल्ली में उन किसानों के कंकाल के हिस्से लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं, जो बदहाली के कारण मर चुके हैं और वह आत्महत्या भी कर रहा है; किस मनःस्थिति में होगा वह? क्या वह प्रपंच कर रहा है?

वह क़र्ज़ में भयंकर तरीक़े से दब चुका है, पर उसे क़र्ज़ से मुक्ति नहीं दी जाएगी बल्कि उसे नया क़र्ज़ दिया जाएगा. 9 करोड़ किसान संकट में हैं, फिर भी दिल्ली हिल नहीं रही है.

किसान कह रहा है कि उसे अपनी उपज की सही क़ीमतें नहीं मिल रही हैं, उसके लिए कहीं कोई सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा का ताना बाना नहीं है; पर सरकार कह रही है कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य का विस्तार नहीं करेगी.

वह बिजली के बिल से सहमा हुआ है, पर सरकार बिजली के दाम बढ़ाती जा रही है. उर्वरक और कीटनाशकों की क़ीमतें भी अब ख़ूब चढ़ाव पर हैं. कोई भी क़दम उठाये जाएं, हर स्तर पर सरकार को समेकित निधि (सरकार का खजाना) का इस्तेमाल रियायत के रूप में करना ही चाहिए क्योंकि कृषि उपज की क़ीमतें बढ़ने से भी रोका जाना है और लागत को भी कम रखना है.

सरकार दोनों पक्ष जानती है- समस्या का भी और किसान का भी; पर वह समाधान का केवल अभिनय ही करेगी क्योंकि अब इस समस्या की जड़ें हमसे कहीं दूर विश्व व्यापार संगठन में जमी हुई हैं, जो विशाल कृषि व्यापारिक उद्यमों का पक्षधर है. क्या सचमुच हम इस सच से अनजान हैं?

हम जानते हैं कि विश्व व्यापार संगठन में दशकों तक चर्चाओं के विषय तय करने से लेकर बहस के स्वरूप के निर्धारण का काम कुछ देशों के चुनिंदा और पूंजी संपन्न बड़े कृषि उद्यमों के गिरोह करते रहे हैं. इसका विकासशील देशों के करोड़ों सीमान्त किसानों पर गहरा असर पड़ा है.

New Delhi: Children of the farmers who have committed suicide take part in a protest against the issue during 'Kisan Mukti Sansad' at Jantar Mantar, in New Delhi on Wednesday. PTI Photo by Subhav Shukla (PTI7_19_2017_000059A)
जंतर-मंतर पर किसान मुक्ति यात्रा के दौरान आत्महत्या कर चुके किसानों के बच्चे. फोटो: (पीटीआई)

मसला यह है कि विश्व व्यापार संगठन विकसित और पूंजीवादी देशों के हितों की रक्षा करता है और विकाशसील-अल्पविकसित देशों में मौजूद संसाधनों (मानव संसाधन, प्राकृतिक संसाधन और उपभोक्ता) के अधिकतम शोषण के लिए वैश्विक नीतियां बनवाने की वकालत करता है.

दूसरे विश्व युद्ध के विध्वंस के बाद जब सभी युद्धरत देश भीतर से कमज़ोर हो गए, तब ख़ुद के आर्थिक-व्यापारिक-उपनिवेशिक हितों को नए सिरे से साधने के लिए उन्होंने साल 1947 में जनरल एग्रीमेंट आन ट्रेड एंड टैरिफ (गेट) के नाम से एक समझौता कर लिया. वर्ष 1995 में इस समझौते तो विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में तब्दील कर दिया गया.

अब चूंकि बड़े और औद्योगिक देश उत्पादन तो कर रहे थे, किन्तु उनका बाज़ार संकुचित होता जा रहा था और इससे बेरोज़गारी-मंदी और अर्थव्यवस्था के चरमराने का ख़तरा पैदा हो रहा था, इसलिए उन्हें दूसरे देशों–ख़ास तौर पर अल्प विकसित और विकासशील देशों के बाज़ार पर कब्ज़ा जमाने की ज़रूरत महसूस हो रही थी.

चूंकि दुनिया की तीन चौथाई आबादी इन्हीं देशों में रहती है और वहां संसाधन तो बहुत है, किन्तु स्थानीय उत्पादन भी बहुत ज़्यादा नहीं है, इसलिए यहां एकाधिकार जमाने के बहुत अवसर मौजूद थे.

अतः खुले व्यापार के नाम पर डब्ल्यूटीओ के मंच के जरिये कपड़ों, वित्तीय व्यवस्था, ख़रीद में पारदर्शिता, व्यापार और निवेश, आयात-निर्यात शुल्क, दवाइओं से लेकर सेवाओं और खेती तक की व्यापार नीतियों पर निर्णय होने लगे. इसी संगठन के कंधे पर बैठकर भूमंडलीकरण पूरी दुनिया को अपने नियंत्रण में लेता गया.

डब्ल्यूटीओ में शुरू में व्यवस्थागत मुद्दे ज़्यादातर केंद्र में रहे, पर वर्ष 2001 में डब्ल्यूटीओ को ‘विकास’ के लोकलुभावन नारे से जोड़ दिया गया और दोहा की बैठक से जन्म हुआ दोहा डेवलपमेंट राउंड का.

वहां व्यापार में आने वाली रुकावटों, निर्यात को प्रोत्साहन देने के लिए दी जाने वाली सब्सिडी और किसानों को सीधे दी जाने वाली सब्सिडी के मुद्दे केंद्र में आ गए.

इसके बाद कानकुन, पेरिस, हांगकांग, जिनेवा, बाली, नैरोबी में बैठकें होती रहीं और धीरे-धीरे ऐसे निर्णय होते गए, जो भारत में किसानों की आत्महत्या और बदहाली का कारण बने, मसलन कपास व्यापार और खेती की सब्सिडी में भारी कमी होना.

डब्ल्यूटीओ में सब्सिडी और उसे कम करने के लिए होने वाले समझौते दो काम करते हैं: एक– देशों की नीति-नियम बनाने की प्रक्रिया में दखल देकर सब्सिडी को कम करवाना है और दो- जो देश डब्ल्यूटीओ समझौते से ज़्यादा सब्सिडी दे रहे हैं, उनके ख़िलाफ़ प्रतिबंधात्मक कार्यवाही करना या कार्यवाही का दबाव बनाए रखना.

भारत जैसे देशों की सरकारें डब्ल्यूटीओ में जाकर समझौता कर आती हैं और आम जनता को अपनी मजबूरी बताती हैं कि देखिए, अब हमें अपनी सब्सिडी कम करना ही होगी, नहीं तो डब्ल्यूटीओ में हमारे ख़िलाफ़ कार्यवाही होगी. इससे हमारी दुनिया में छवि ख़राब होगी और विदेशी निवेश नहीं आएगा. ऐसा करते हुए वास्तव में सरकार संसद और संविधान को एक किनारे रख देती है. डब्ल्यूटीओ में भारत का पक्ष क्या होगा, यह निर्णय संसद को पूरा विश्वास में लेकर नहीं होता है.

17 सालों में दोहा दौर के तयशुदा तथाकथित विकास मुद्दे निष्कर्ष तक नहीं पंहुच पाए क्योंकि वहां का सिद्धांत है कि जब तक किसी विषय पर सभी सदस्य सहमत नहीं होंगे, तब तक अगले चरण के मुद्दों की तरफ बढ़ा नहीं जा सकता है.

Nashik: Farmers throwing onions and other vegetables on the road during their state-wide strike over various demands in Nasik, Maharashtra on Thursady. PTI Photo (PTI6_1_2017_000201B)
बीते जून में मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में किसानों ने कृषि उपज सड़कों पर फेंक कर प्रदर्शन किया. (फोटो: पीटीआई)

लेकिन खेती और खाद्य सुरक्षा का विषय लंबित होने के बावजूद यूरोपियन यूनियन के नेतृत्व में आस्ट्रेलिया, स्विट्ज़रलैंड और नार्वे जैसे संपन्न देश ई-कामर्स पर वैश्विक नियमन के मुद्दे को आगे बढ़ाने में जुट गए हैं.

यहां हितों के लिए व्यापारिक कूटनीति होती है; अतः अर्जेंटीना, चिली, कोलंबिया, कोस्टारिका, उरुग्वे, कीनिया, मेक्सिको, नाइजीरिया, पाकिस्तान और श्रीलंका सरीखे देशों ने इस पर समूह में बात करना भी शुरू कर दिया है.

दुनिया के बड़े कॉरपोरेट्स मानते हैं कि व्यापार से संसाधनों पर कब्ज़ा किया जा सकता है और संसाधनों की पूंजी से राजनीति को भी नियंत्रित किया जा सकता है. अतः एक ऐसे व्यापार मंच की ज़रूरत महसूस हुई, जिस पर दुनिया के सभी देशों की सरकारों को लाया जा सके और व्यापार-वाणिज्य की ऐसी व्यवस्थाएं बनवाई जा सकें, जिनसे पूंजीवादी और ताक़त संपन्न समूह किसी भी देश में आसानी से घुस सकें, वहां उन पर कोई ख़ास बंधन न हों, भीमकाय कॉरपोरेशन्स के लिए कम से कम शुल्क और कर हों, ताकि वे बिना रोक टोक ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमा सकें.

यह एक तरह से आर्थिक-वाणिज्यिक-कूटनीतिक मंच बन गया है. इस संगठन की कोशिश रही है कि कृषि और खाद्य सुरक्षा के क्षेत्र में किसानों और नागरिकों को दी जा रही रियायतों (खाद्य सुरक्षा के लिए सब्सिडी) को कम से कम किया जाए ताकि बाज़ार ख़ुद क़ीमतें, प्राथमिकताएं और संसाधनों के दोहन की नीतियां तय कर सके. इसमें चार तरह की बातें महत्वपूर्ण हैं-

पहली- प्रभावशाली और विकसित देश मानते हैं कि भारत कृषि उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करता है, इससे खाद्य सामग्री और कृषि उपज का व्यापार करने वाली भीमकाय कंपनियों को मुनाफ़ा कमाने का कम अवसर मिलता है और क़ीमतें नियंत्रण में रहती हैं.

दूसरी- भारत सरकार केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य (जो वैसे भी बहुत कम है और किसानों के लिए लाभदायी नहीं है) तय ही नहीं करती है, बल्कि गेहूं, चावल, गन्ना और अब दालों की सरकारी ख़रीद भी करती है. इससे किसान इन कंपनियों और वैश्विक व्यापारियों के चंगुल से दूर ही रहते हैं.

तीसरी- सरकार कृषि उपज और खाद्यान्न को केवल ख़रीदती ही नहीं है, बल्कि सस्ती दर पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिये देश के दो तिहाई यानी 82 करोड़ लोगों को वितरित भी करती है. इससे बड़े बाज़ार यानी बड़ी कंपनियों को ग्राहक नहीं मिलते हैं और ग़रीब लोग क़ीमतों के शोषण से भी बचे रहते हैं. साथ ही जिन राज्यों में ज़रूरत के मान से पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन नहीं होता है, उन राज्यों की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जाती है.

चौथी बात- इस नीति से खेती पर व्यवस्था का कार्यकारी नियंत्रण रहता है, जिससे खेतों में क्या उत्पादन हो, यह तय करने में बड़ी कंपनियों की भूमिका केन्द्रीय नहीं हो पा रही है.

विश्व व्यापार संगठन में एक बात पर चर्चा चल रही है कि इस तरह की बुरी सब्सिडी (जिसे खुले, निजी और एकाधिकारवादी मुनाफ़ाखोर बाज़ार को विकृत करने वाली ‘रियायत– मार्केट डिसटोरटिंग सब्सिडी’ के रूप में परिभाषित किया गया है) को कम से कम किया जाए.

इस कमी का मतलब यह है कि सरकार किसी भी स्थिति में सकल कृषि उत्पाद के दस प्रतिशत के बराबर की राशि तक ही सब्सिडी (इसे डि-मिनिस लेवल कहा जाता है) दे. इससे ज़्यादा सब्सिडी देने वाले देशों के ख़िलाफ़ कार्यवाही की जाए. इस कार्यवाही में उन देशों के साथ व्यापार प्रतिबन्ध सरीखे क़दम उठाए जाएं.

यदि विश्व व्यापार संगठन में इस मुद्दे पर सहमति बन जाती है या सभी देश उस समझौते पर हस्ताक्षर कर देते हैं, तो भारत को किसानों से कृषि उपज ख़रीदना बहुत कम करना पड़ेगा. सरकार किसानों के हित में न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं बढ़ा सकेगी, क्योंकि इससे सब्सिडी बढ़ेगी. यहां तक कि उसे सब्सिडी कम करने के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून के तहत वितरित किए जा रहे सस्ते खाद्यान्न की क़ीमत भी बढ़ानी पड़ेगी.

आज यह विषय महत्वपूर्ण पड़ाव पर है क्योंकि दिसम्बर 2013 में बाली (इंडोनेशिया) और फिर दिसम्बर 2015 में नैरोबी (कीनिया) में हुई मंत्रिस्तरीय वार्ताओं में भारत ने यह रुख़ अपनाया कि देश के नागरिकों, ख़ास तौर पर ग़रीब और वंचित तबकों की खाद्य सुरक्षा के लिए दी जाने वाली रियायत को ‘बाज़ार विरोधी और बुरी राज सहायता–मार्केट डिसटोरटिंग सब्सिडी’ नहीं माना जाना चाहिए.

अतः किसानों के संरक्षण और राशन व्यवस्था के संचालन के लिए ख़र्च की जा रही सब्सिडी को 10 प्रतिशत की सीमा से बाहर रखा जाना चाहिए. अमेरिका सरीखे देश भारत के इस प्रस्ताव से सहमत नहीं हैं.

बाली में जब इस पर सहमति नहीं बनी तो डब्ल्यूटीओ की प्रक्रियाओं और उसके महत्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया था. डब्ल्यूटीओ की व्यवस्था के मुताबिक बाली बैठक में इस मुद्दे को पूरी तरह से हल कर लिए जाना चाहिए था, पर ऐसा नहीं हो पाया.

इस कारण डब्ल्यूटीओ में नए समझौतों और प्रस्तावों पर चर्चा शुरू नहीं हो पा रही थी. तब यह तय किया गया कि अगली दो मंत्रिस्तरीय बैठकों में इस पर अंतिम निर्णय ले लिए जाएगा. भारत पूर्व की बैठकों में इस बिंदु तक ही पंहुच पाया था कि चार साल तक कृषि-खाद्य सुरक्षा-लोक भंडारण पर ख़र्च की जा रही सब्सिडी को रोका नहीं जाएगा और कोई देश इस मुद्दे को विवाद में नहीं लाएगा; लेकिन देश इस सब्सिडी को बढ़ाएंगे भी नहीं.

इन स्थितियों में हमारे सामने दो बिंदु खड़े हुए हैं-
डब्ल्यूटीओ में जिस तरह की बातें चल रही हैं, उसके कारण सरकार किसानों के संरक्षण के लिए जो क़दम उठा रही है, वे खोखले हैं. मसलन न्यूनतम समर्थन मूल्य न बढ़ाना, क्योंकि इससे सब्सिडी बढ़ जाएगी.

Ahmednagar: Farmers spilling milk on the road during their state-wide strike over various demands at a village in Ahmednagar, Maharashtra on Thursday. PTI Photo (PTI6_1_2017_000206B)
औरंगाबाद में दूध सड़क पर फेंक कर प्रदर्शन करते किसान. (फोटो: पीटीआई)

इन चार सालों में सरकार के द्वारा उठाए गए क़दमों पर नज़र डालें तो अपन को दीखता है कि सरकार डब्ल्यूटीओ में किसानों-लोगों को दी जाने वाली सीधी रियायत को ख़त्म करके, नक़द हस्तांतरण के विकल्प पर जाएगी.

जनधन योजना के तहत सभी के खाते खुलवाना, सबको आधार से जोड़ना, नक़द हस्तांतरण के कुछ प्रयोग करना, ये सभी क़दम ऐसे ही संकेत देते हैं; लेकिन आख़िर में क़ीमतों के उतार-चढ़ाव, नक़द के व्यय के तरीक़ों और छोटे-मझोले किसानों को संरक्षण के अभाव में भारी संकटों का सामना करना पड़ेगा; क्योंकि बात 9 करोड़ किसान परिवारों और 83 करोड़ खाद्य सुरक्षा के हक धारकों की होगी.

इसके आगे मध्यमवर्गीय परिवार को भी क़ीमतों और खाद्य सुरक्षा के बदलने वाले व्यवहारों से उपजने वाली विसंगतियों का सामना करना पड़ेगा. वास्तव में डब्ल्यूटीओ के इस क़दम से लगभग 15 प्रतिशत किसान खेती से बाहर धकेल दिए जाएंगे.

भारत के नीति आयोग के रमेश चंद द्वारा एक परचा तैयार किया गया है- किसानों की आय को दुगुना करना (तर्काधार, कार्यनीति, सभावनाएं और कार्ययोजना); इसमें उन्होंने लिखा है कि वर्ष 2005-06 से भारत में जोतदारों की संख्या 16.61 करोड़ से घट कर 14.62 करोड़ हो गई है. भारत में हर रोज़ 6710 जोतें कम हुई हैं. आठ साल में भारत में जोतों की संख्या में 1.99 करोड़ की कमी आ गई. यदि यही क्रम जारी रखा जाए तो वर्ष 2015-16 से वर्ष 2022-23 के बीच देश में 1.96 करोड़ जोतों (13.4 प्रतिशत) की और कमी आ जाएगी. इससे किसानों की आय बढ़ेगी. सरकार का मानना है कि इससे खेती पर ख़र्च होने वाली सब्सिडी में भी कमी आएगी.

बाली में अंतिम निर्णय के लिए तय की गई समय सीमा दिसम्बर 2017 में ख़त्म होगी. यानी अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स में होने वाली ग्यारवीं मंत्रिस्तरीय बैठक में इस पर अंतिम निर्णय होना ही होगा.

यह सवाल बना हुआ है कि क्या भारत सरकार किसानों, खेती, स्थानीय बाज़ार और नागरिक उपभोक्ताओं के हितों को केन्द्र में रखेगी; या फिर खुले बाज़ार, एग्रो-बिजनेस और औद्योगिक देशों की सरकारों के पक्ष में.

विषय के आर्थिक-राजनीतिक पक्षों को देखते हुए यह नहीं माना जा सकता है कि इन दोनों पक्षों के बीच संतुलन बनाने और कोई मध्य मार्ग अपनाए जाने का कोई भी विकल्प है, क्योंकि दुनिया के बीस बड़े प्रतिष्ठान खेती और कृषि बाज़ार पर अपना नियंत्रण चाहते हैं. भारत सरकार को अपना पक्ष तय करना होगा.

(लेखक सामाजिक शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)